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Sunday 28 December 2014

                                                   नारी


सर्वमंगला मिश्रा- स्नेहा
9717827056

चिंतन-मनन के उपरांत उस पर क्रियान्वयन का होना अति आवश्यक होता है। प्राचीनकाल से लेकर अब तक हम न जाने कितने मुद्दों पर चर्चा करते चले आ रहे हैं। पर चर्चा सिर्फ चर्चित होती है। उस पर गतिशील तरीके से समाज कदम से कदम मिलाकर चल नहीं पा रहा। अर्थात् कहीं न कहीं वैचारिक मतभेद एवं अपरिपक्वता व्याप्त है। विश्व आज एक –एक करके सभी दहलीजें पार कर रहा है। हर ऊंची दीवाल को फांदने की कूबत रखने वाला इंसान आज इंसान से ही नफरत करता है। फिल्मी अदाकारा माधुरी दीक्षित से लेकर कई सरकारों ने महिलाओं के लिए असीम योगदान देने का बीड़ा उठाया। जिससे भ्रूण हत्या कम हो। लिंग परीक्षण को भी सरकार ने वैध करार दिया। उसके बावजूद आज भी शहरों में और गांवों में कन्यायें गर्भ में ही दम तोड़ देती हैं।

महिलायें जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती चली आ रहीं हां चाहे वो रानी लक्ष्मीबाई, मातंगिनी हाजरा या इंदिरा नूई हों। समाज दुर्बर्लों का नहीं होता। जिसने अपनी लड़ाई लड़ी देश, समाज उसका हुआ। देश के सर्वोच्च पद पर इंदिरा गांधी ने इतिहास रच डाला। मायावती दलित समाज का गौरव और तीन बार मुख्यमंत्री बनना सचमुच एक सम्मान की बात है। जे. जयललिता अदाकारा से पुष्ट और कठोर राजनीति के लिए जानी जाती हैं। ममता बनर्जी जो जमीन से उठी बंगाल की बेटी ने देश के गरीबों के हित को समझने वाली पार्टी के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की और बताया कि बंगाल की असल हितैषी वो खुद हैं। सुषमा स्वराज, अल्प काल के लिए ही सही दिल्ली की मुख्यमंत्री बनी। सोनिया गांधी के विरुद्ध उन्हें दक्षिण भारत से उतारा गया। आज विदेश मंत्री के पद पर मोदी जी के शासन में आसीन हैं। उमा भारती, स्मृति इरानी, मेनका गांधी तमाम ऐसे नामों की फहरिस्त है जिन्होंने अपनी लड़ाई खुद लड़ी और विजयी भी रहीं। एक स्वंय सेवी संस्था ने महिला सशक्तिकरण के कार्यक्रम में सुषमा स्वराज और मिनाक्षी लेखी जैसी हस्तियों को आमंत्रित किया था। मिनाक्षी लेखी जो बीजेपी की प्रवक्ता हैं। उन्हें यह बताने में तनिक भी संकोच नहीं हुआ कि जब उनके घर में कोई मेहमान आता है तो उनके दोनों बेटे मेहमाननवाजी करते हैं। सुषमा जी ने अपने रिसर्च के बारे में बताया कि जब मुझे पता चला कि महिला कमजोर होती है तो यह पाया कि शेर जंगल का राजा होता है पर शिकार शेरनी करती है। उसी प्रकार झुंड में चलने वाले हाथियों का मार्गदर्शन बूढ़ी हथिनी करती है। जो सूंड उठाकर खतरे को भांप लेती है। तो ऐसे में महिला कमजोर कैसे हो सकती हैं। उसे शक्ति की आवश्यकता ही क्यों है ?  जब वह स्वयं शक्तिस्वरुपा है। बात चल रही थी कि महिलाओं को क्या वास्तविक रुप से शक्ति की आवश्यकता है या जगरुक होने की अपने हक के प्रति।

देश मंगल ग्रह तक पहुंच चुका है। पर, महिलाओं के मंगल की बात कम लोग ही अन्तर्रात्मा से स्वीकार कर पाते हैं। एक समय था जब एक ब्याही गयी कन्या का उसके माता- पिता से सदा सर्वदा के लिए रिश्ता समाप्त सा हो जाता था क्योंकि उस वक्त जागरुकता मिट्टी में दबी हुई थी। आज जागरुकता की इमारत खड़ी होने के बावजूद भी उसका पता कम लोगों को ही पता है। आज जीवंत उदाहरण है कि तीन ब्याही गयी लड़कियां शादी के तुरंत बाद ही वापस अपने मायके आ गयीं क्योंकि उनके यहां शौचालय का प्रतिबंध नहीं था। ये जागरुकता है जो देश में संचालित हो रही योजनाओं पर अब गांवों तक की भी नजर है। महिलाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी हो इसके लिए मध्य प्रदेश सरकार की लाडली योजना और तमाम ऐसी योजनायें शामिल हैं।पर सवाल उठता है कि क्या इस प्रयास के बावजूद समाज और परिवार महिलाओं का सम्मान करना सीख पाया है ? जवाब में असंतोष अवश्य छिपा है। आज देश में महिलाओं का सम्मान वास्तविक तौर पर होता तो 16 दिसम्बर और हाल ही में दिल्ली में एक और हादसे ने जहां विदेशी कंपनियों द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं पर भी सवाल खड़ा कर दिया है। बड़े- बड़े विज्ञापन, सुरक्षा के वायदे ऐसी घटनाओं के बाद सत्यता की परख हो जाती है कि अपना व्यापार उज्जवल दिशा में बढ़े इसके लिए खोखले वायदों के सब्ज बाग दिखा जिये जाते हैं जिसतरह नगर निकाय चुनाव से लेकर लोकसभा चुनावों में नेतागण खोखले वायदे करने से नहीं चूकते। पर पांच साल बाद जब वही नेता अपने इलाके में आता है तो झूठ की नयी परत और मुखौटे के साथ आता है। साल आते हैं मुखौटा बदलता चला जाता है। दूसरा सवाल यह उठता है कि क्या हर गुनाह की भरपायी मुआवज़ा होता है? सरकार हो या कंपनियां मुआवज़ा देकर मामला रफा दफ़ा करने में यकीन रखती हैं। दिल्ली हादसों का शहर बन गया है। सिर्फ दिल्ली क्यों उत्तर प्रदेश हो या बिहार, बंगाल या दक्षिणी प्रांत। समस्या एक है कि लोगों की मानसिकता उनका नज़रिया कैसे बदला जाय? क्योंकि जबतक इंसान की सोच शुद्ध नहीं होगी तब तक मानसिकता समृद्ध नहीं होगी। स्वस्थ मस्तिष्क ही समाज को स्वच्छता से रख सकता है। संकीर्णता कुरुपता को जन्म देती है। जिससे स्वस्थता बीमारी की ओर अग्रसर हो जाती है। फलस्वरुप प्रवृत्ति कोमा और आसीयू में चली जाती है। जहां स्वस्थता डाक्टरों के हाथ की कठपुतली बन जाती है और स्वस्थता के पुजारी सिर्फ प्रार्थना करते रह जाते हैं। देश और समाज की ऐसी दुर्बल स्थिति ना हो इससे पहले पहल करना अनिवार्य हो गया है। जिसकी शुरुआत घर के अंदर से होनी आवश्यक है। माताओं और घर के बड़े बजुर्गों को पहल करनी होगी। सीखाना होगा सम्मान दोगे तभी सम्मान पा सकोगे।

एक नेता का बयान आया था कुछ दिन पहले की हर महिला के पीछे हम पुलिस नहीं लगा सकते। बंगाल के नेता ने कहा- जब तक संसार है- दुष्कर्म की घटनायें घटती रहेंगी। हम कठोर प्रावधानों की मांग न करके उन लोगों को ऐसे बयानों से बल मिलता है। हर बार घटी घटनाओं को लेकर पूरा देश स्तब्ध रह जाता है। पर परिणाम शून्याकार ही रहता है। इन घटनाओं पर फिल्म इंडस्ट्री को पहल करनी चाहिए। देश और युवा उसके प्रशसंक और पद चिन्हों पर चलने में गर्व की अनुभूति करते हैं। उनके पास निर्णय करने की क्षमता नहीं होती। इसलिए हर बच्चे को तहज़ीब देनी होगी। तभी युवा होने पर उसके रक्त में वह अनुभूतियां विद्दमान रहेंगी। जिससे शिष्टाचार उसे गलत पथ पर जाने से रोकेगा। समाज ऐसे पथ पर चल चुका है जहां वयोवृद्ध महिलायें भी असुरक्षित एवं असहाय हैं। कभी किसी बलवान ने बदले की भावना से किया तो कभी कुदृष्टि के चलते। पर बदला लेने का यह कौन सा तरीका है जहां मानवता खुद शर्मसार हो जाये। आप अपने घर में अपने ही बड़े –बूढों और परिवार जन से नज़रें मिलाने के काबिल न रहो। द्रौपदी से लेकर आज दिल्ली तक महिला अपमान के बोझ तले दबती और सहमती चली जा रही है। जिनके सपोर्ट मेंपुरुष हैं वो महिलायें तो ज्ञानार्जन से लेकर अपने हक की लड़ाई लड़ लेती हैं पर जिन्हें ऐसा सौभाग्य नहीं मिला तो उन्हें बलहीन दुनिया घोषित करेगी ? मलाला –एक छोटी सी बच्ची जिसने विश्व में बच्चों के लिए मुहिम छेड़ी तो नोबल पीस प्राइज़ की हकदार भी। आज उसके पीछे तमाम बन्दूकें तनीं सी हैं पर उसके पिता उसके असल सहायक एवं मार्गदर्शक हैं। वहीं दूसरी लड़कियां जिनके परिवार में कोई मर्द नहीं हैं वो घर के बाहर पैर तक नहीं रख सकीं पढ़ना तो दूर है। गांव से लेकर शहर तक अब यह कदम हर लड़की और महिला को उठाना होगा अपने बेटों को शिक्षित करना होगा। शिष्टाचार की पढ़ाई का स्कूल खोलन होगा।  
इतिहास में सीता, कुन्ती और जीजा बाई  ऐसी उदाहरण हैं जिन्होंने अपने बेटों को ऐसी शिक्षा एवं संस्कार दिये जिससे संसार में आज भी लव -कुश का  नाम सम्मान से लिया जाता है। यह सीता माता की शिक्षा का ही परिणाम था कि अपने दोनों बेटों को पथ भ्रष्ट होने से बचाया  अनैतिकता से कोसों दूर रखा। वहीं कुन्ती ने भी अपने पांच पुत्रों को शिक्षा और संस्कार देकर मिसाल कायम की। शिवाजी की माता के संस्कार जगत विख्यात हैं।  वहीं गांधारी ने अपने पुत्रों दुर्योधन और दुशशासन जो सदा अपने मामा शकुनी के साथ समय व्यतीत करते थे। एक उनकी शिक्षा और एक माता कुन्ती की। दोनों उदाहरण हमारे सामने हैं।  इसी तरह आज हर नारी को सिर्फ माता नहीं वरन सीता के समान सोच, कुन्ती समान पालन और जीजा बाई जैसी शिक्षा प्रदान करने का संकल्प लेना होगा। तभी देश उन्नत हो सकेगा। वरना लड़के लड़के हैं यह सोच उन्हें सही मार्ग से भटका देगी। माता एवं पिता दोनों का कर्तव्य होता है कि लड़कों को भी लड़कियों जैसा उचित संस्कार एवं शिक्षा से अवगत करायें। 

                                भाजपा का कमल




सर्वमंगला मिश्रा- स्नेहा
9717827056


देश में आज एक ही लहर चहुं ओर है। यह लहर समय की है या व्यक्ति विशेष की। जीत कहीं भी मिल रही है तो उसका एक मात्र श्रेय जा रहा है प्रधानमंत्री को। जिसने लोगों पर न जाने कैसा मोहिनी जादू कर दिया है या मार्केटिंग का असर। समझना थोड़ा जन सामान्य के लिए मुश्किल हो रहा है। डीजल -पेट्रोल के दाम भी कम होते नजर आ रहे हैं। क्या यह अजूबा मात्र सभी चुनावों को जीतने का मात्र सहारा है अथवा सचमुच यह अजूबा कायम रहेगा। जिस गुजराती माडल को लेकर दुनिया भर में चर्चा का विषय रहे मोदी ने अपने आप को स्थापित कर लिया है। अंगद के पैर की तरह राजनीति की धरती पर कड़े विरोधियों के सामने जमा चुके हैं। आज जम्मू कश्मीर का विधानसभा चुनाव हो या मध्यप्रदेश का नगर निकाय हर तरफ भाजपा का कमल ही खिल रहा है। मध्य प्रदेश के सी एम शिवराज सिंह चौहान ने तो मध्य प्रदेश को गुजराती माडल जैसा बनाने के लिए एक पी आर ऐजेंसी भी हायर करने का फैसला ले लिया है। अब उम्मीद यही की जा सकती है कि आने वाले समय में सभी बीजेपी शसित राज्य अपने अपने राज्यों को गुजराती माडल बनाने की होड़ में शामिल हो जायेंगें।
राज्यों ने हर चुनाव जीत लिया है। कुछ चुनाव और कुछ दूसरे राज्यों में विधानसभा चुनाव भी अगले साल होने वाले हैं। उसके लिए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने पश्चिम से परचम लहराते हुए अब पूरब का रुख कर लिया है। बंगाल में अस्तित्वहीन भाजपा को अस्तित्व में लाने की कवायत शुरु हो चुकी है। बंगाल की शेरनी के सामने भी क्या कोई दहाड़ सकता है ? तो मोदी सरकार की रीढ़ की हड्ड़ी अमित शाह जो साधरणतया कम बोलते दिखते हैं बंगाल में अपनी गर्जना के साथ भाजपा के मजबूत कदम की थर्राहट तो नहीं पर आसार के कयास जरुर लगाये जायेंगें। बंगाल में  गरीबों की हमदर्द पार्टी सी पी आई एम के अलावा एक लम्बे अरसे के बाद दीदी को अपनाया क्योंकि वो 34 साल से प्रयासरत थीं कि वो बंगाल और बंगाल वासियों की हमदर्द हैं। पर वहां की जनता इतनी आसानी से किसी को अपना नहीं मानती है। कड़ी अग्नी-परीक्षा के बाद ही उसे अपनाती है। जब बंगाल की बेटी और बाघिनी को यह समझाने में 34 साल लग गये कि वो उनकी हैं और बंगाल उनका है। तो बंगाल के लोगों का पूर्ण विश्वास मत हासिल करने में तो अमित शाह को अभी कितना दहाड़ना पड़ेगा। कितनी परीक्षायें देनी होंगी । क्या अमित शाह के अन्दर इतना दम है कि बंगाल की मानसिकता और विश्वास की भावना को सहेजकर ममता दीदी को बंगाल में चुनौती दें और 2015 में  होने वाले विधानसभा चुनावों में परिणाम आशा के विपरीत और भाजपा के इतिहासी किताब में एक ऐसा अध्याय जोड़ दे जो किसी ने अब तक सोचा न हो यानी - पूर्ण बहुमत भाजपा को । इस साल हुए लोकसभा चुनावों में भी भाजपा की स्थिति सबके सामने ही रही।
माहौल, शब्द की बात करना चाहूंगी। एक अविश्वसनीय पक्षपात चाहे अनचाहे हर कोई न जाने क्यों मोदी की ओर आकर्षित है। एक ऐसा हूजूम जिसमें हर कोई आसमान की तरफ टकटकी लगाये एक ही अक्स, एक ही नाम देखना और सुनना चाहता हो। पर एक शक्स ऐसा है जो मोदी से शिकायत करना चाहता है। पर उसकी शिकायत कहीं अनसुनी न कर दी जाय। जशोदा बेन - मोदी जी की पत्नी । जिसे अभी भी मोदी जी ने सही स्थान नहीं दिया है। वह आर टी आई के तहत अपने प्रश्नों का उत्तर से ज्यादा अपने हक की लड़ाई लड़ने को मजबूर है। जिसे दुनिया ने सालों बाद सुना कि मोदी की पत्नी भी हैं क्योंकि लोकसभा का फार्म भरने के क्रम में खुलासा हुआ। उसी तरह सालों से चला आ रहा बंगाल और भाजपा का खेल। जो पूरे देश में, केन्द्र में राज कर चुकी पर बंगाल में अबी तक अस्तित्वहीन है और लड़ाई लड़ने को मजबूर भी। हालांकि बंगाल ने भी अपना मुख यानी ब्रांड अम्बेसडर शाहरुख खान को बनाकर तेज -रफ्तार पकड़ने को दर्शाता है। पर भाजपा सिंकदर की तरह विश्व विजय पर निकली है। जिसले पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण विजय रथ पर सवार होकर इतिहास रचना है। जो हर नामुमकिन को मुमकिन बनाने पर तुली है। जिसे दिल्ली में भी मील का पत्थर साबित होना है। देश के हर राज्य में बस कमल का निशान देखने का सपना लेकर चलने वाली भाजपा क्या गुल खिलायेगी यह तो भविष्य ही बताएगा कि भाजपा का यह वक्त उगता सूरज आसमान में चढेगा या मध्य तक आते- आते भाजपा के सूर्य को ग्रहण लग जायेगा और ग्रहण लगा सूर्य यूंही सदा के लिए अस्त हो जायेगा। 

                                                         नारी 

सर्वमंगला मिश्रा- स्नेहा9717827056




चिंतन-मनन के उपरांत उस पर क्रियान्वयन का होना अति आवश्यक होता है। प्राचीनकाल से लेकर अब तक हम न जाने कितने मुद्दों पर चर्चा करते चले आ रहे हैं। पर चर्चा सिर्फ चर्चित होती है। उस पर गतिशील तरीके से समाज कदम से कदम मिलाकर चल नहीं पा रहा। अर्थात् कहीं न कहीं वैचारिक मतभेद एवं अपरिपक्वता व्याप्त है। विश्व आज एक –एक करके सभी दहलीजें पार कर रहा है। हर ऊंची दीवाल को फांदने की कूबत रखने वाला इंसान आज इंसान से ही नफरत करता है। फिल्मी अदाकारा माधुरी दीक्षित से लेकर कई सरकारों ने महिलाओं के लिए असीम योगदान देने का बीड़ा उठाया। जिससे भ्रूण हत्या कम हो। लिंग परीक्षण को भी सरकार ने वैध करार दिया। उसके बावजूद आज भी शहरों में और गांवों में कन्यायें गर्भ में ही दम तोड़ देती हैं। 
महिलायें जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती चली आ रहीं हां चाहे वो रानी लक्ष्मीबाई, मातंगिनी हाजरा या इंदिरा नूई हों। समाज दुर्बर्लों का नहीं होता। जिसने अपनी लड़ाई लड़ी देश, समाज उसका हुआ। देश के सर्वोच्च पद पर इंदिरा गांधी ने इतिहास रच डाला। मायावती दलित समाज का गौरव और तीन बार मुख्यमंत्री बनना सचमुच एक सम्मान की बात है। जे. जयललिता अदाकारा से पुष्ट और कठोर राजनीति के लिए जानी जाती हैं। ममता बनर्जी जो जमीन से उठी बंगाल की बेटी ने देश के गरीबों के हित को समझने वाली पार्टी के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की और बताया कि बंगाल की असल हितैषी वो खुद हैं। सुषमा स्वराज, अल्प काल के लिए ही सही दिल्ली की मुख्यमंत्री बनी। सोनिया गांधी के विरुद्ध उन्हें दक्षिण भारत से उतारा गया। आज विदेश मंत्री के पद पर मोदी जी के शासन में आसीन हैं। उमा भारती, स्मृति इरानी, मेनका गांधी तमाम ऐसे नामों की फहरिस्त है जिन्होंने अपनी लड़ाई खुद लड़ी और विजयी भी रहीं। एक स्वंय सेवी संस्था ने महिला सशक्तिकरण के कार्यक्रम में सुषमा स्वराज और मिनाक्षी लेखी जैसी हस्तियों को आमंत्रित किया था। मिनाक्षी लेखी जो बीजेपी की प्रवक्ता हैं। उन्हें यह बताने में तनिक भी संकोच नहीं हुआ कि जब उनके घर में कोई मेहमान आता है तो उनके दोनों बेटे मेहमाननवाजी करते हैं। सुषमा जी ने अपने रिसर्च के बारे में बताया कि जब मुझे पता चला कि महिला कमजोर होती है तो यह पाया कि शेर जंगल का राजा होता है पर शिकार शेरनी करती है। उसी प्रकार झुंड में चलने वाले हाथियों का मार्गदर्शन बूढ़ी हथिनी करती है। जो सूंड उठाकर खतरे को भांप लेती है। तो ऐसे में महिला कमजोर कैसे हो सकती हैं। उसे शक्ति की आवश्यकता ही क्यों है ?  जब वह स्वयं शक्तिस्वरुपा है। बात चल रही थी कि महिलाओं को क्या वास्तविक रुप से शक्ति की आवश्यकता है या जगरुक होने की अपने हक के प्रति। 
देश मंगल ग्रह तक पहुंच चुका है। पर, महिलाओं के मंगल की बात कम लोग ही अन्तर्रात्मा से स्वीकार कर पाते हैं। एक समय था जब एक ब्याही गयी कन्या का उसके माता- पिता से सदा सर्वदा के लिए रिश्ता समाप्त सा हो जाता था क्योंकि उस वक्त जागरुकता मिट्टी में दबी हुई थी। आज जागरुकता की इमारत खड़ी होने के बावजूद भी उसका पता कम लोगों को ही पता है। आज जीवंत उदाहरण है कि तीन ब्याही गयी लड़कियां शादी के तुरंत बाद ही वापस अपने मायके आ गयीं क्योंकि उनके यहां शौचालय का प्रतिबंध नहीं था। ये जागरुकता है जो देश में संचालित हो रही योजनाओं पर अब गांवों तक की भी नजर है। महिलाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी हो इसके लिए मध्य प्रदेश सरकार की लाडली योजना और तमाम ऐसी योजनायें शामिल हैं।पर सवाल उठता है कि क्या इस प्रयास के बावजूद समाज और परिवार महिलाओं का सम्मान करना सीख पाया है ? जवाब में असंतोष अवश्य छिपा है। आज देश में महिलाओं का सम्मान वास्तविक तौर पर होता तो 16 दिसम्बर और हाल ही में दिल्ली में एक और हादसे ने जहां विदेशी कंपनियों द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं पर भी सवाल खड़ा कर दिया है। बड़े- बड़े विज्ञापन, सुरक्षा के वायदे ऐसी घटनाओं के बाद सत्यता की परख हो जाती है कि अपना व्यापार उज्जवल दिशा में बढ़े इसके लिए खोखले वायदों के सब्ज बाग दिखा जिये जाते हैं जिसतरह नगर निकाय चुनाव से लेकर लोकसभा चुनावों में नेतागण खोखले वायदे करने से नहीं चूकते। पर पांच साल बाद जब वही नेता अपने इलाके में आता है तो झूठ की नयी परत और मुखौटे के साथ आता है। साल आते हैं मुखौटा बदलता चला जाता है। दूसरा सवाल यह उठता है कि क्या हर गुनाह की भत्ररपायी मुआवज़ा होता है? सरकार हो या कंपनियां मुआवज़ा देकर मामला रफा दफ़ा करने में यकीन रखती हैं। दिल्ली हादसों का शहर बन गया है। सिर्फ दिल्ली क्यों उत्तर प्रदेश हो या बिहार, बंगाल या दक्षिणी प्रांत। समस्या एक है कि लोगों की मानसिकता उनका नज़रिया कैसे बदला जाय? क्योंकि जबतक इंसान की सोच शुद्ध नहीं होगी तब तक मानसिकता समृद्ध नहीं होगी। स्वस्थ मस्तिष्क ही समाज को स्वच्छता से रख सकता है। संकीर्णता कुरुपता को जन्म देती है। जिससे स्वस्थता बीमारी की ओर अग्रसर हो जाती है। फलस्वरुप प्रवृत्ति कोमा और आसीयू में चली जाती है। जहां स्वस्थता डाक्टरों के हाथ की कठपुतली बन जाती है और स्वस्थता के पुजारी सिर्फ प्रार्थना करते रह जाते हैं। देश और समाज की ऐसी दुर्बल स्थिति ना हो इससे पहले पहल करना अनिवार्य हो गया है। जिसकी शुरुआत घर के अंदर से होनी आवश्यक है। माताओं और घर के बड़े बजुर्गों को पहल करनी होगी। सीखाना होगा सम्मान दोगे तभी सम्मान पा सकोगे।
एक नेता का बयान आया था कुछ दिन पहले की हर महिला के पीछे हम पुलिस नहीं लगा सकते। बंगाल के नेता ने कहा- जब तक संसार है- दुष्कर्म की घटनायें घटती रहेंगी। हम कठोर प्रावधानों की मांग न करके उन लोगों को ऐसे बयानों से बल मिलता है। हर बार घटी घटनाओं को लेकर पूरा देश स्तब्ध रह जाता है। पर परिणाम शून्याकार ही रहता है। इन घटनाओं पर फिल्म इंडस्ट्री को पहल करनी चाहिए। देश और युवा उसके प्रशसंक और पद चिन्हों पर चलने में गर्व की अनुभूति करते हैं। उनके पास निर्णय करने की क्षमता नहीं होती। इसलिए हर बच्चे को तहज़ीब देनी होगी। तभी युवा होने पर उसके रक्त में वह अनुभूतियां विद्दमान रहेंगी। जिससे शिष्टाचार उसे गलत पथ पर जाने से रोकेगा। समाज ऐसे पथ पर चल चुका है जहां वयोवृद्ध महिलायें भी असुरक्षित एवं असहाय हैं। कभी किसी बलवान ने बदले की भावना से किया तो कभी कुदृष्टि के चलते। पर बदला लेने का यह कौन सा तरीका है जहां मानवता खुद शर्मसार हो जाये। आप अपने घर में अपने ही बड़े –बूढों और परिवार जन से नज़रें मिलाने के काबिल न रहो। द्रौपदी से लेकर आज दिल्ली तक महिला अपमान के बोझ तले दबती और सहमती चली जा रही है। जिनके सपोर्ट मेंपुरुष हैं वो महिलायें तो ज्ञानार्जन से लेकर अपने हक की लड़ाई लड़ लेती हैं पर जिन्हें ऐसा सौभाग्य नहीं मिला तो उन्हें बलहीन दुनिया घोषित करेगी ? मलाला –एक छोटी सी बच्ची जिसने विश्व में बच्चों के लिए मुहिम छेड़ी तो नोबल पीस प्राइज़ की हकदार भी। आज उसके पीछे तमाम बन्दूकें तनीं सी हैं पर उसके पिता उसके असल सहायक एवं मार्गदर्शक हैं। वहीं दूसरी लड़कियां जिनके परिवार में कोई मर्द नहीं हैं वो घर के बाहर पैर तक नहीं रख सकीं पढ़ना तो दूर है। गांव से लेकर शहर तक अब यह कदम हर लड़की और महिला को उठाना होगा अपने बेटों को शिक्षित करना होगा। शिष्टाचार की पढ़ाई का स्कूल खोलन होगा।    
    
   
                                     अपने धुन में मगन मोदी




सर्वमंगला मिश्रा -स्नेहा

सफलता एक सौगात होती है। जिसकी कुंजी शायद मोदी जी के हाथ लग गयी है। पूरा देश एक तरफ जहां देश की आजादी का पर्व मनाने में ही गर्व की अनुभूति करता रहता है वहीं प्रधानमंत्री बिना रुके बिना थके अविरल गति से एक के बाद एक योजनाओं को लागू करने के साथ साथ सभी प्रोजेक्ट्स को एक एक गुट को सौंपते चले जा रहे हैं। परीक्षा हाल में पेपर लाइन से सबको देकर फिर निश्चित अवधि समाप्त होने पर उत्तर पुस्तिका वापस ले ली जाती है। प्रधानमंत्री की कार्यशैली भी कुछ ऐसा ही आभास करा रही है। नौरत्नों को स्वच्छता अभियान में लगाकर उन्होंने पूरे देश को स्वच्छ बनाने का बीड़ा हर भारतवासी के कंधों पर डाल दिया है। स्वंय सफाई कर यह भी दिखा दिया कि कोई भी काम छोटा नहीं होता और जितने स्टार प्रचारक प्रचार करेंगें युवा वर्ग उनसे प्रभावित होकर उस कार्य का बीड़ा स्वयं उठायेगा।इसी तरह गंगा को निर्मल बनाने की मुहिम पूरे देश ही नहीं विदेशों में भी चर्चा का विषय बन गयी है। देश में भाजपा के छोटे बड़े नेताओं के बीच गंगा बचाओ अभियान में हर नेता ने कसम खायी है गंगा को बचाने की। गो हत्या पर भी सरकार सख्ती बरतने का प्रयास कर रही है। जुर्माना और कारावास की सजा के तौर पर। हाइ स्पीड मेट्रो का ट्रेलर पूरे देश ने देखा। जम्मू से वैष्णो देवी जाने का मार्ग सुलभ हो गया। टीचर्स डे के दिन पूरे देश के बच्चों से वाडियो कान्फ्रेसिंग अपने आपमें एक नया जीवंत प्रयास था जिसे चुपके चुपके ही सही हर आम व खास ने सराहा। तीन शहरों को स्मार्ट सिटी के तौर पर बनाने की परिकल्पना जहां हाई टेक गतिविधियां होंगी। सी सी टी वी के अलावा प्रति पल प्रति क्षण आप पर तकनीकी मशीनें नजर रखेंगी। एक तरह से आप आम से खास बन जायेंगें। वहीं दूसरी तरफ एक पल एकांत को भी तरसेंगें। पर स्मार्ट सिटी बनाने में अमेरिका मदद की मदद मिलेगी। वहीं अपने चुनावी भाषणों में इतिहास का जिक्र करने वाले मोदी इतिहास को पढाने ही नहीं पढने में भी यकीन रखते हैं।तभी तो गांधी जी की तरह स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने की मुहिम भी साथ में छेड़ दी है।खादी पर जोर देने के साथ जीवन शैली को सरल तौर पर जीने के नियम को भी अपने मंत्रीमंडल से लेकर सम्पूर्ण भाजपा को शिविर लगावाकर समझाया। अपने संसदीय क्षेत्र में डेयरी उद्दोग से बेरोजगारी दूर करने का भी प्रोग्राम है।  तो गांधी जी के आदर्शों पर चलने वाले मोदी गांवों को नहीं भूले हैं। हर एक सांसद एक आदर्श ग्राम की योजना पर कार्यरत होगा। जिससे 282 आदर्श गांव कम से कम 5 सालों में तो तैयार हो ही जायेगा। प्रधानमंत्री ने खुद भी अपने संसदीय क्षेत्र से एक गांव को गोद ले लिया है। अब उसे पाल पोषकर बड़ा करेंगें, लायक बनाकर एक उदाहरण खड़ा करेंगें। तभी देश उन्नति के पथ पर अग्रसर होगा।
रिंग में एक मास्टर अपनी छड़ी और आंखों के सहारे यानी बुद्धिमता और कार्यक्षमता के बल पर सभी शेरों का करतब जनता के सामने पेश करता है। जनता की ताली नो डाउट की उस रिंग मास्टर के लिए ही होती है क्योंकि उसके इशारे के बिना करतब का क –शब्द की उम्मीद भी करना बेवकूफी है।अगर खेल दिखाना एक कला है तो खेल को सीमाबद्ध तरीके से सीखाना भी एक सौगात है। प्रधानमंत्री जी भी नेताओं से लेकर सरकारी बाबूओं तक सबको उचित शिक्षा और अनुशासन सीखाने में लगे हैं। अधिकारी वर्ग जहां पहले दोपहर के बाद अपने कार्यालय में प्रवेश करता था वहीं अब परंपरा बदल रही है। बाबूओं के लिए प्रतीक्षारत नहीं होना पड़ता।
इतिहास के पन्ने पलटे जायें तो हर दशक में एक चेहरा ऐसा उभर कर आता है जो उस दशक का एक मात्र परिवर्तनशील कल्पना से परे होता है। मोदी जी ने पाक के प्रति अपने शपथ समारोह में जिस तरह पाक के नवाज शरीफ को आमंत्रित कर दरियादिली दिखायी तो वक्त की नज़ाकत देखते हुए कड़ा रुख भी अब अपना लिया है प्रधानमंत्री ने।इसका असर क्या होगा यह कहना तो मुश्किल होगा क्योंकि जो दुश्मनी आजादी से चली आ रही हो उसका अर्थ इतनी जल्दी तो नहीं निकल सकता। दोनों ओर काफी समानताऐं और असमानतायें हैं। आजाद हुए जितने साल भारत को हुए पाकिस्तान को भी। बंटवारे के वक्त कुछ हिन्दु भारत से पाक और कुछ मुसलमान पाक से भारत की ओर कूच कर गये थे। हालांकि इसमें काफी असमंजस की स्थितियां भी बाद में पैदा हुई थीं जो अब भी बरकरार हैं। हर बार सीमा उल्लंघन होता है।हर बार दोनों तरफ से न जाने कितनी जानें जा रहीं हैं। पर हल नहीं निकल पा रहा।  शायद इसमें कुछ राजनीतिक चाल है। मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला की सोच किसी भिन्न दिशा में चल रही है।
देश एक अजीब दौर से गुज रहा है। जहां खाप पंचायतें फरमान पर फरमान सुनाये चली जा रही हैं। तो मोदी गांधी की प्रतिज्ञा को पूरा करने में जी जान से जुटे हैं- हर गांव को स्वर्ग बनाना उनकी प्राथमिकता बन गयी है। स्वच्छ भारत, सुंदर भारत। हर युवा को मार्गदर्शन देने की बात से लेकर महिलाओं की सुरक्षा, बेरोजगारी को मिटाने की बात करने वाले प्रधानमंत्री मोदी लोगों को आश्वस्त करते हुए देश के पश्चिमी हिस्से में बसा और व्यापारिक केन्द्र माने जाने वाला चहुमुखी विकास की ओर अग्रसर मुम्बई में जहां आने वाले सप्ताह में गठबंधन में चटख आना किसके लिए हानिकारक और किसके लिए फायदेमंद होगा जल्द ही तस्वीर स्पष्ट हो जायेगी। हर बंधन से स्वयं को मुक्त करते नजर आते मोदी आत्मविश्वास की मजबूत रस्सी से पूरे देश को एक सूत्र में पिरोना चाहते हैं। हिन्दू, मुस्लिम की दृष्टि से इंसान को इंसान की दृष्टि से एक दूसरे को देखने का नजरिया देना चाहते हैं। पर, देश की जनता क्या इतनी परिपक्व है कि देश के प्रधानमंत्री की बात एक बार में समझ आ जाये। समझ आ भी जाये तो राजनीति, कूटनीति सत्ता मोह से उपर सोच नहीं पाती, सोचती भी है तो समझौते के तहत ही गठबंधन बनता है। फिर जहां मामला अटकता है बस 25 साल के रिश्ते भी टूट जाते हैं। आर एस एस और शिवसेना भाजपा की रीढ़ की हड्डी के समान मानी जाती थी। पर, साधो सब दिन होत न एक समाना। मोदी ने ऐलान कर पुरानी पार्टियों को चुनौती दे डाली है तो स्वंय को अग्निपरीक्षा की आग में झोंक डाला है। अब सोना कितना खरा है कसौटी पर घिसने के बाद ही पता चलेगा। चलो चलें मोदी के साथ या हुड्डा जी का काम काम अथवा कांग्रेस को सफल बनायें जैसे विज्ञापन ने 10 साल के राज काज को समझा या मोदी चक्रवात की तरह हर मस्तिष्क में विकास का दूसरा नाम बनकर छाये हैं। 19 अक्टूबर को मराठा और बीजेपी की जंग भी एक किनारा पकड़ लेगी। मोदी एक नये भारत का आविर्भाव करने में लगे हैं। जनता इस खिलाड़ी के परफार्मेंस का आंकलन नहीं करना चाहती। इस खेल का परिणाम जीत चाहती है। यह टेस्ट मैच है जिसमें वन डे मैच के तर्ज पर परिणाम घोषित नहीं हो सकता। टेस्ट मैच की जनता को धीरज रखना पड़ता है। मोदी में साहस है तो धैर्य की परीक्षा देने से पीछे नहीं हटे तो अब लेने में भी पीछे नहीं हटते। तमाम प्रोजेक्ट्स का शिलान्यास करने वाले पी एम मोदी जी आउटलाइन तैयार कर रहे हैं। फिर वक्त आयेगा यह देखने का कि रंग वास्तविकता से परे हैं या सब कल्पना मात्र ही था और अगला चुनाव देश के सामने मुंह बाये खड़ा है। जहां देश की जनता एक बार फिर बोलने को मजबूर हो जायेगी- कि सब राजनीति है। देश का भला करवे वाले जन्म ही नहीं लेते केवल सपनों को लूटने और उसके सौदागर ही पैदा होते हैं। इतिहास भी इंतजार कर रहा है क ऐसी कहानी देश के नाम लिखने को जहां लोग उस पन्ने को बार बार पलट कर पढना चाहें और कहें ऐसा भी हो सकता है। तब मोदी को अपने नाम की चालीसा छपवानी नहीं पड़ेगी अपितु हर कोर्स में धामिक पन्ने की भांति गांधी के बाद याद किया जाने वाला नाम बन जायेगा। 

Tuesday 16 September 2014


मकान नम्बर डी 5, सेक्टर 31 





सर्वमंगला मिश्रा


सांसे टूटती रहीं, लोग बिलखते रहे, हम हंसते रहे, लोग मरते रहे।
वक्त पल्टा-एहसास बदला-
आज मेरी सांसे टूटती हैं हर पल,
लोग हंसते हैं, हम तिल तिल मरते हैं।
एहसास का आलम अब मुझमे समाया है,
जश्न ए मौत का एहसास अब समझ आया है।

पूरा शरीर जल चुका है मोदी के हाथ तो सिर्फ बचा हुआ अधजला पैर हाथ लगा है। पर न्याय की आस अभी बाकी है तो मैक्स के पिता निश्चिंत दिखे कि फांसी आज नहीं तो कल होनी ही है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने सजा सुना दी है। राष्ट्रपति ने दया याचिका खारिज़ कर दी है तो कितने दिन न्याय टलेगा ?? इसलिए हमें न्याय की उम्मीद अभी भी है।


11 साल, साढ़े 5 साल, 3 साल और न जाने कितनी गिनतियां गिनूं सारी गिनतियां परिजनों के मात्र मस्तिष्क में याद की तरह पल रही है। इनमें से  ज्योति की तस्वीर अंदर रखी थी किसी बैग के अंदर तो मैक्स की तस्वीर दीवार पर टंगी मिली। पर हर्ष जो मात्र 3 साल का था परिवार जनों को सदा के लिए शोक में डूबो कर न जाने कहां चला गया।
इस देश में बलात्कार और मासूमों के अपहरण करने वालों के लिए तालिबानी फरमान होना चाहिए। शिवपाल यादव मिलने आये थे उन दिनों। हमें सरकार ने मुआवजा भी दिया। सरकारी नौकरी देने की बात भी कही थी पर आज तक तो मिली नहीं, अशोक ने बताया। तो अपना सबकुछ दांव पर लगा चुके झब्बूलाल जी आखिरी दम तक लड़ने को कटिबद्ध दिखे। सरकारी मुआवजे से अपनी रोजी रोटी की छांव तो बचा ली और जो बाकी पैसे थे उसे केस लड़ने में लगा दिया। दो प्लाट बिक चुके हैं तो बचे हुए प्लाट भी लगाने से पीछे न हटने की कसम खाये ज्योति के पिता अपने धीरज और मां के धैर्य का बांध आज भी मजबूती से खड़ा है। हर तूफान से भिड़ने के लिए।
“धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी
आपत काल परखियहिं चारी “ यह पंक्तियां यूं तो रामचरितमानस की हैं पर जिस सिलसिले में आज यहां जिक्र करने जा रही हूं वह आप सबके जह़न में कहीं न कहीं आपके मानसिक संतुलन को एक सेंकेन्ड के लिए या एक पल के लिए ही सही विचलित जरुर कर देगी। साल 2014 में हम सांस ले रहे हैं। उन रास्तों और गलियों में आज भी ज़िंदगी पल रही है। बच्चे पल-बढ रहे हैं। लोग काम कर अपना जीवन यापन कर रहे हैं। पर दिसम्बर 2006 का वो साल जिसने दिल्ली से सटे नोएडा के डी -5 सेक्टर 31 का वो घर जहां आज ना कोई पुलिस पहरा है ना कोई आतंक का साया। पर आज भी वहां के दहशत के दिन याद करते वो मां बाप जिनके कलेजे के टुकड़े को छीनकर मोनिन्दर सिंह और सुरेन्द्र कोहली ने सदा के लिए बेचैन कर दिया है। इस घर से जब कंकालों, लाशों के साथ आंखें, हाथ और पैर जब नाले और उस घर के अंदर बने कुंए से निकले थे तो ऐसा भी कुछ दुनिया में होता है यह सोचने को हर आंख मजबूर हो गयी थी। पायल, जिसकी गुमशुदगी और मौत से इस रुह कंपाने वाले सच का खुलासा हुआ था। जिससे दिल्ली, नोएडा नहीं बल्कि पूरा देश थर्रा गया था। जिसने 3 साल के बच्चे से लेकर 50-55 तक की महिलाओं को भी नहीं बख्शा। बच्चों  और महिलाओं के कपड़े तो मिले थे कुछ खून से लथपथ तो कुछ ऐसे ही पर गुर्दे, कीडनी का ये सेलर मोनिन्दर सिंह पंढेर को आज तक सजा नहीं मिली है। जिससे ज्योति के पिता और झब्बुलाल जी यह कहते नहीं थकते कि वही असली गुनाहगार है। सी बी आई पर भी उन्हें भरोसा नहीं रहा पर हां वो कहते हैं उन्हें मोदी सरकार से जरुर आशा है कि उन्हें और उनके जैसे बाकी माता पिता को न्याय जरुर मिलेगा। ज्योति कक्षा 5 की मेधावी छात्रा थी। अपने भाई बहनों में 5 वें नम्बर की थी। उसके पिता की आंखें भर आयीं ये कहते कि ज्योति अपने बड़े भाई अर्जुन को बताती थी कि कैसे पढाई करनी है। ज्योति की मां सुनीता देवी कहती हैं कि उनकी बेटी डाक्टर बनना चाहती थी। उन्नाव के गंजमुरादाबाद का रहने वाला यह परिवार 20 साल से यहीं अपना गुजर बसर कर रहा है। उन्होंने बताया कि उनके पास दो तीन महीने में पठानी पायजामा कुर्ता और शर्ट्स धोने और आयरन करने के लिए आती थीं। पर उन्हें यह पता नहीं था कि वो कपड़े किस दुराचारी के हैं। महिलायें जब गुम होती थीं तब लोग यह सोचकर बैठ जाते थे कि किसी के साथ अफैयर चल रहा होगा जिसके फलस्वरुप लड़की भाग गयी होगी। पर जब खुद पर विपदा आयी तब समझ आया कि असली दर्द क्या होता है। आज झब्बुलाल के तीनों बेटे काम कर रहे हैं एक बेटी ब्यूटी पार्लर में काम भी कर रही है। पर आह हर उस शक्स के अंदर जैसे पल-पल पल रही है। सालों बीत गये तकरीबन आठ साल पर हरियाणा की जन्मी करनाल में पली- बढ़ी -पीला दुपट्टा सिर पर ओढे उस बूढी महिला जो आज भी उस इलाके में सफाई का काम करती हैं। कहती है बेटी मेरा नाम जानकर क्या करोगी, मेरी फोटो खींचकर क्या करोगी हम तो बस यहां काम करते हैं। इतना लिखना कि उस मोनिन्दर को फांसी मिलनी ही चाहिए। हम सब यही चाहते हैं। सुरेंद्र को मिली तो क्या मिली जड़ को खत्म करो पेड़ के तनों को काटने से क्या होगा। उस रोड को क्रास करके जैसे ही मैं अन्दर पहुंची। बारिष के मौसम के कारण थोड़ा कीचड़ और पानी का बिखराव अधिक था पर जब मैं मैक्स के घर पहुंची तो उसके माता पिता बाहर ही मिल गये। उनका भरा पूरा परिवार भी मिला। बस एक की कमी ने उस मां को जरुर रुला दिया। जब उपर के घर के एक कमरे में मैक्स की तस्वीर मुझे दिखा रही थीं तब बताते बताते आंसू झलके तो रुके नहीं। मैक्स की मां कहती हैं कि उसका सारा सामान मैंनें बंद करके रख दिया है। खोलने की हिम्मत नहीं होती क्योंकि ये तस्वीर ही सुबह शाम इतना रुला देती है। मैक्स के पिता अशोक कहते हैं कि वो तो जूस पीने गया था शाम  को, पर लौटा नहीं।
सुनहले बाल, लम्बी स्कर्ट और छोटा टाप पहने पंढ़ेर की पत्नी कुछ दिन ही दिखी फिर कभी नहीं। सुबह शाम एक छोर से अपने घर के पास तक रोज अपने डागी को घुमाता भी था। उसे देखने वाले तो रोज या कभी कार देखते थे पर यह एहसास क्या आभास भी नहीं हुआ कि इस इंसान के अंदर एक दैत्य छुपा हुआ है।
मैक्स के पिता अशोक समझाते हुए कहते हैं कि मानलिजिए मैंने अपनी दुकान में एक आदमी रखा उसने 1000 रुपये का सामान बेचा दिनभर में। जब हिसाब में 500 रुपये अगर गायब होते हैं तो क्या मैं नहीं पूछूंगा कि हिसाब में गड़बड़ी क्यों है कहां गये पैसे। वैसे ही मोनिन्दर को कैसे पता नहीं था कि उसके घर में क्या हो रहा है। ऐसे लोगों को चौराहे पर खड़ा कर फांसी देनी चाहिए। तभी उत्तर प्रदेश में जुर्म रुक सकेगा वरना मुश्किल है।
यूं तो बिहार के बक्सर में मौत की रस्सी बनायी जाती है फिर फांसी का फंदा तैयार होता है। पर अब शायद किस्मत कुछ दिनों के लिए और मेहरबान हो गयी है। इंसान ही इंसान का दोस्त है तो इंसान ही इंसान का परम शत्रु भी। जिस इंसान ने इतने मासूमों, बच्चों और महिलाओं को न जाने कैसे मौत के घाट उतार डाला उसे अब पवन जल्लाद मेरठ की जेल में फांसी पर 12 सितम्बर को लटकाने वाले थे। 9 सालों से किसी को फांसी नहीं दी गयी थी। जिससे वहां 72 किलो के पुतले को फांसी पर लटकाने का कृत्य किया गया। फोन पर पवन ने हमें बचाया कि जिसने इतने लोगों को मारा उसे मारने में उन्हें कोई तकलीफ नहीं। पर सुरेंद्र कोहली अभी कुछ दिन और सांस लेगा इस धरती पर न जाने क्यों?
बच्चों पर हर पल नजर रखनी पड़ती है। अब स्कूल छोड़ने से लेकर लाने तक किसी पर भी भरोसा नहीं होता। निठारी हत्याकांड खुलासे ने हमें झकझोर कर रख दिया था। हमने घर पर स्ट्रीक्ट रुल्स बना दिये थे। किसी को भी कहीं अकेले आने जाने की आज तक कोई छूट हमने नहीं दी है- प्लाईवुड के विक्रेता अभिषेक गुप्ता कहते हैं। इस नोएडा निवासी ने बड़ी कश्मकश के साथ इस बात का जिक्र का किया कि 2006 का साल और आज सितम्बर 2014 है हमने एक भी नया कस्टमर नहीं बनाया। निठारी के नाम से ही लोग यहां नहीं आना चाहते हैं। सालों से बसे अब और कहीं नये सिरे से काम करने की ताकत नहीं रही जिससे मजबूरी में यहीं से रोजी रोटी चलानी है। उन दिनों हमारा व्यापार बहुत प्रभावित हुआ था। लोग यहीं रोज धरना दिया करते थे। मीडिया का हूजूम लगा हुआ था। हमने भी आवाज उठायी पर फिर व्यापारियों ने मिलकर अपनी अपनी दुकान खोलने का फैसला किया। जीवन भी तो चलाना था ना।

मीडिया की अहमियता निठारी निवासी आज भी मानते हैं। मीडिया ने हमारी बहुत मदद की। पर पुलिस विभाग से आज भी नाराजगी है। पहले रिपोर्ट दर्ज नहीं हुआ करती थी। मकान अब सीज़ है बगल का मकान डी 4. सेक्टर 31 में वकील साहब रहते हैं पर उस समय भी उन्हें यही कहते सुना गया था कि उन्हें कुछ नहीं पता। पर पूरी दुनिया को उसके काले कारनामों का आर्गन स्मगलिंग और ना जाने क्या- क्या होता था उस घर में। 
जब कोई आपको छोड़ कर चला जाता है या परिस्थिति वश दूर हो जाता है तो मिलने की आस बची रहती है । इंसान स्वयं को सांत्वना देकर जी लेता है। पर, अगर कोई कभी वापस न आने वाला हो, आपको हमेशा के लिए छोड़कर चला गया हो तो जीना दुश्वार हो जाता है। पर जीता हुआ दूर रहता है तो पल पल इंसान रिस रिस कर मरता है और जो नहीं रहा उसकी याद तड़पा तड़पा कर जीवन भर रुलाती है। अब वो बच्चे लौटकर वापस नहीं आने वाले। पायल के पिता या परिवार के विषय में स्थानीय लोगों को कोई सूचना भी नहीं कि उसका परिवार कहां है और क्या कर रहा है। पर आज यह सभी माता पिता अपने लिए नहीं समाज के लिए लड़ रहे हैं। ताकि दूसरा कोई मोनिन्दर पैदा न हो। इन सभी परिवारों ने ने अब तक धीरज, धर्म के साथ कौरवों के खिलाफ लड़ाई छेड़ी है। धर्म की लड़ाई में देर जरुर होती है पर आखिरकार जीत सच्चाई की ही होती है।

Sunday 14 September 2014

क्या होगा बंगाल का??
-सर्वमंगला मिश्रा-स्नेहा


पं. बंगाल अपने गौरवपूर्ण इतिहास के लिए प्रसिद्ध है। बंगाल देशभक्ति, कला –संस्कृति और साहित्य के लिए जाना जाता है। बंगाल अंग्रेजों के शासनकाल में देश की राजधानी थी। बंगाल जिसने ज्योति बसु के नेतृत्व में खुद को सुरक्षित महसूस किया और अब 34 वर्षों के शासनकाल की नींव को झकझोर देने वाली ममता दीदी के राज में बंगाल कहीं क्या दिशाहीन हो गया है ??
जबसे केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी का आगमन हुआ है क्षेत्रीय पार्टियों की बौखलाहट अब चिंतन में नहीं एक्शन में परिवर्तित हो रही है। जीता जागता उदाहरण बिहार है। जहां राजद और जेडीयू ने दस में से छह सीटें जीतकर अन्य पार्टियों को भी ऐसा करने की प्रेरणा दे डाली है। पासवान के सुपुत्र चिराग पासवान ने जहां लोकसभा चुनावों के पहले समझदारी दिखायी वहीं इन दो बुजुर्गों ने उप-चुनाव से पहले पहल कर डाली। अब आक्सीजन तो हर पार्टी को चाहिए जीने के लिए। सुगबुगाहट तो सपा और बसपा के गठबंधन की भी है। सवाल सत्ता का जो है। बंगाल की सत्ता जिसके लिए अपने कालेज की युवा नेत्री ने ज्योति बसु की गाड़ी पर भीड़ को चीरते हुए झंडा गाड़ने का दम दिखाया था। तब से लेकर 2011 जब वो सत्ता पर आसीन हुई तब तक।पर सवाल उठता है कि बंगाल में आज कौन रहता है ? बंगाल में आज बड़ाबाजार, अलीपुर, गोड़िया जैसे इलाकों को छोड़ दिया जाय तो नये कोलकाता यानी राजारहाट,साल्ट लेक जैसे इलाकों में कौन रहता है? रिटायर्ज आफिसर्स, बूढे बुजुर्ग दम्पत्ति, जो आराम से बुढ़ापा काटना चाहते हैं। कहां हैं नवयुवक जो बंगाल को उन्नति के पथ पर लेकर अग्रसर होंगे। कहां है जगदीश चन्द्र बोस, कहां है सुभास चन्द्र बोस?? आज बंगाल देश के किस पायदान पर खड़ा है। इसका आंकलन शायद आपको चौंका दे। आज युवा वर्ग शिक्षा और रोजगार की तलाश में दिल्ली, बैंगलोर और मुम्बई जैसे इलाकों में अपना भविष्य तलाशते हैं। राज्य के युवा बेहतर शिक्षा संस्थानों के अभाव में दिल्ली,बैंगलोर, चेन्नई के चक्कर काटते हैं तो भविष्य बंगाल में अंधकारमय नजर आता है इसलिए बेहतर जीवन शैली और रोजगार के बेहतर,सुलभ साधन ढूंढते युवा अपना घर छोड़कर बाहर निकलते चले जा रहे हैं। इन्हीं बातों के मद्देनजर तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्या ने एक बार लोगों को आश्वश्त किया था कि ऐसे शिक्षण संस्थानों को बढ़ावा दिया जायेगा जिससे नवयुवकों को राज्य छोड़कर बाहर न जाना पड़े। पर ऐसा कुछ हुआ नहीं। इंजीनियर्स बैंगलोर और चेन्नई का रुख कर लेते हैं तो दूसरे क्षेत्रों वाले दिल्ली और मुम्बई जैसे शहरों में बसने लगे हैं। ऐसे में बंगाल का कर्णधार कौन होगा? पिछले कुछ सालों में केपजेमिनाई, विप्रो, टेक महिन्द्रा जैसी कंपनियों ने अपनी उपस्थति दर्ज जरुर करायी है जिससे साल्टलेक स्थित सेक्टर 5 के इलाकों में दूसरे शहरों से और राज्यों से आये लोग नौकरी कर रहे हैं जिससे मकान मालिकों को किरायेदार मिल गये हैं नोएडा , दिल्ली और मुम्बई की तरह। पर, जिसतरह टाटा के पांव उखाड़े गये उस तर्ज पर क्या बंगाल का औद्दोगिक विकास हुआ है? हाल ही में ममता बनर्जी सिंगापुर की यात्रा करके आयीं हैं। पांच सालों में सी एम साहिबा ने कितने उद्दोगों को सही तरीके से आमंत्रित किया। कितनी फैक्ट्रीज़ लगने वाली हैं जिससे बंगाल के लोगों को रोजगार की प्राप्ति हो सकेगी। गांवों में रहने वाले लोगों के पास आज कितनी नौकरियां हैं जिससे वो अपना और अपने परिवार का भरण पोषण ठीक से कर पाने में समर्थ हैं। ग्रामीण इलाकों में आज भी खेती ही एकमात्र सहारा है या छोटे मोटे रोजगार। पर वह पर्याप्त नहीं है जीवन यापन की दृष्टि से। मंहगाई जिस आसमान को दिन पर दिन छूती चली जा रही है और गैजेट्स का शौक परवान चढ़ता चला जा रहा है। ऐसी परिस्थति में विदेशी आतंकी मौके का फायदा उठाकर भोले भाले मासूम गांववालों का प्रयोग करते हैं। जिससे अज्ञानतावश, लालचवश या मजबूरी से विवश होकर उनके गुलाम बन जाते हैं। इसी तरह देश में स्लीपर सेल्स का नेटवर्क तगड़ा होता जाता है और हम जिस डाल पर बैठे हैं उसी डाल को काटते चले जा रहे हैं।
बंगाल जहां महिलाओं के सम्मान के लिए भी जाना जाता था। अब दशा विपरीत नजर आ रही है। दिल्ली, मुम्बई की हवा लग गयी है बंगाल को। पंचायतों के अजब- गज़ब फरमान। हाल ही में जलपाईगुड़ी की एक घटना सामने आयी जिसमें एक पिता अपने रेंट पर लिए गये ट्रैक्टर का कर्ज न चुका पाने के कारण गांव में सभा बैठी थी। जहां किसान अपना कर्ज चुकाने की मोहल्लत मांग रहे थे। जिसमें टी एम सी के वार्ड नम्बर 9 के की काउसिलर और उनके पति भी मौजूद थे। पर बात बढ़ी और पिट रहे पिता के लिए बेटी घर से निकलकर बाहर आयी और आग्रह किया कि- मत मारो मेरे पिता को। तभी उसके कुछ जानने वाले उसे वहां से हटाकर दूर ले गये। जिसके बाद उसकी नंगी लाश धूपगुड़ी के रेलवे ट्रैक पर पायी गयी। इससे भी घिनौना चेहरा बंगाल का कुछ महीनों पहले आया जहां गैर जाति के युवक से प्रेम और विवाह करने की सज़ा मस्तिष्क को झकझोर और रुह को कंपा देने वाली थी। पंचायत ने उसे गैर जाति में विवाह करने पर दंड के तौर पर आर्थिक दंड देने को कहा। जब उसने कहा कि उसके पास इतने रुपये नहीं है तो दिल दहलाने वाली सज़ा फरमान के तौर पर उस पंचायत ने सुनायी। रिश्ते में लगने वाले चाचा और भाईयों ने उसके साथ कुकर्म किया। यही था उस पंचायत का फरमान। क्या अब महिलायें बंगाल में सुरक्षित रह गयी हैं ? एक प्रमुख टेलीविजन चैनल ने रियेलिटि चेक बंगाल के सेक्टर 5 में किया। जहां जानी मानी विदेशी कंपनियां स्थापित हैं। एक कार को खड़ा कर उसमें से चीखें निकलती हुई महिला की किसी ने मदद नहीं की। हांलाकि वह एक टेस्ट था कि अगर सच में कोई महिला फंस जाये तो क्या बंगाल के लोगों में अब भी इतनी इंसानियत बची है कि आगे आयें और मदद की गुहार सुनें। सेक्टर पांच और उसके आस पास का इलाका काफी सुनसान सा रहता है। कमर्शियल इलाका है। जहां चहल पहल दिन में ही अच्छी खासी रहती है रात में सन्नाटा पसर जाता है। मुझे याद है आज से तकरीबन साढे 3 साल पहले हमारी एक सहयोगी रात को तकरीबन साढ़े आठ बजे निकली घर जाने को। साउथ की तरफ जाने वाले लोग अधिकतर शटल का यूज करते हैं। उपलब्धता की दृष्टि से भी और कम समय में अधिकतम दूरी भी तय हो जाती है। पर वह जिस शटल में बैठी उस गाड़ी के दरवाजे ड्राइवर ने तकनीकी तौर पर बंद कर दिये। जिसके बाद उसने आफिस फोन किया तो धर पकड़ के बाद उसकी निकटस्थ थाने में कंप्लेन दर्ज करायी गयी। पर क्या सभी का भाग्य हरबार साथ देता है। यह हाल है नए बसते हुए कोलकाता शहर का। तो बाकी इलाकों में दहशत क्या अपने पैर नहीं पसारेगी। गांवों का हाल उपर बंया कर ही चुकी हूं।
सूत्रों के हवाले से खबर छन छन कर आ रही है कि अब बंगाल के रिंग में रिंगमास्टर बनने के बाद उन्हें पुराने रिंगमास्टरों से हाथ मिलाकर चलने में परहेज नहीं। इस बात का तात्पर्य क्या है- कि इतने सालों तक सी पी एम के खिलाफ जो लड़ाई जनता के मन मस्तिष्क में उकेरी गयी वो मात्र आपकी कुर्सी की लड़ाई पाने का जरिया था। पार्टी की लड़ाई की तह में स्व आक्रोश छिपा था। हर बार रक्त-रंजित चुनावों के बाद ही बंगाल ने कुर्सी पर किसी को पदासीन किया है। 1997 का वो साल जब ममता के नाम की आंधी पूरे बंगाल में चक्रवात की तरह पनपी थी। पर सत्ताधारी सी पी एम ने ममता दीदी को पटखनी दी थी। हारा हुआ योद्धा और बूढा शेर जब गिरकर उठते हैं तो उसमें एक नयी आक्रामक शक्ति आ जाती है। वही ममता दीदी ने भी किया। धुंआधार ठीक मोदी की तरह अनगिनत जनसभायें उसमें जोरदार भाषण और देशभक्ति भरे गीतों से समापन करती थीं। पर कहां गयी अब वो देशभक्ति। कितने आई ए एस, आई पी एस निकले हैं ? कितने शोधकर्ता, वैज्ञानिक, डाक्टर और आई आई टी प्रोफेशनलस निकले हैं?
आज बंगाल में प्रापर्टी के दाम बढ़ रहे हैं।पर उसका आधार क्या है? वहां शिक्षा सामान्य, बिजनेस, नौकरी सामान्य जो पीढियों से करते और रहते चले आ रहे हैं। दाम कितने दिन बढेगें। सिर्फ दबंगई के बल पर शासन कितने दिन का। नये बसेरे बस तो रहे हैं पर पक्षी उड़ते चले जा रहे हैं। तो नये घरौंदे में रहता है कौन है और कौन रहेगा दीदी- ज़रा सोचिये।

Tuesday 19 August 2014

पाकिस्तान
योर टाइम इज अप !!



-सर्वमंगला मिश्रा-स्नेहा

पाक यानी “पवित्र “  पर यथार्थ की व्यथा विपरीत है। भारत का ही हिस्सा आजादी के बाद अपनी स्वायत्ता चाहने वाला पाकिस्तान आज विश्व के समक्ष भारत का सबसे बड़ा दुश्मन बन चुका है। हिस्सेदारी की साझेदारी से आजतक नाखुश पाकिस्तान अपनी दावेदारी समय समय पर मुद्दे के तौर पर हथियार बंद तरीके से पेश करता चला आ रहा है। यह बात अलग है कि भारत साम दाम दंड भेद की परिभाषा जानता है। जिससे कहीं न कहीं पाकिस्तान के अंदर इस बात का भय सताता जरुर है। जिससे उसे कदम फूंक-फूंक कर रखना पड़ता है। पर, मकसद और मानसिकता में परिवर्तन का नामो निशान तक नहीं है। पाकिस्तान अधिकाधिक की चाह आज भी रखता है। जिससे वह कश्मीर के आधे हिस्से को पाकर संतुष्ट नहीं है। उसके अंदर आतंरिक कलह आज भी जिंदा है बांग्लादेश को खोने का। जो कभी ईस्ट पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था। भौगोलिक दशा और परिस्थितयां परिवर्तित हुईं और 1971 का युद्ध के बाद एक नये देश का जन्म हुआ जिसे बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है। जहां अमूमन 98 प्रतिशत बंगाली भाषा और संस्कृति को मानने वाले लोग रहते हैं औऱ 2 प्रतिशत में अन्य जातियां। इसी तरह की परिस्थतियां फिर पनप रहीं हैं कश्मीर को लेकर। हालांकि 1999 का कारगिल युद्ध को एक दशक जरुर बीत चुका है। पर, मस्तिष्क में अभी जख्म हरे ही हैं। मकसद यह नहीं कि पाकिस्तान आज भी भारत की ओर ललचायी निगाहों से देख रहा है। सवाल यह है कि वह अपने ही घर में आज भी असुरक्षित है। पाकिस्तान का इतिहास भारत से पुराना नहीं है। 1958 से आज तक फौज की हूकूमत समय समय पर तानाशाहों के पर कतरती आयी हैं। वहां की फौजी ताकत जग जाहिर है। जो रातोंरात शासक बन जाती है। उसी फौज का हिस्सा कभी परवेज मुशर्रफ भी थे जिन्होंने नवाज शरीफ को पलक झपकते दरकिनार कर दिया था और स्वयं राष्ट्रपति बन बैठे थे। लेकिन पाकिस्तान का मौसम ए हाल बदस्तूर परिवर्तनशील था है और शायद रहेगा भी। पाकिस्तान का रंगमंच प्रारंभ से निराला रहा है। राजनैतिक गतिविधियां जिस रुप में घटित होती हैं उससे विश्व के समक्ष क्या संदेश जाता है यह तो विश्व पटल पर एक एक करके पाकिस्तान की दासतां अंकित होती चली जा रही है। बेनज़ीर भुट्टो को पदच्यूत किया नवाज़ शरीफ ने, नवाज को पदच्यूत किया परवेज मुशर्रफ ने। लंदन में कारावास बीताने वाली बेनज़ीर भुट्टो ने उस समय आने का निर्णय किया जब नवाज शरीफ की गद्दी उनके हाथों से छीन गयी थी और परवेज मुशर्रफ उसके पाक की गद्दी पर अपने हक ए दासतां की कहानी रच चुके थे। ऐसे में नवाज़ और बेनजीर एक ही नाव पर सवार, एक ही विरासत के दो हक़दार होने के कारण एक दूसरे के दुश्मन ही रहे। दुश्मन-दुश्मन =दोस्त का फार्मूला फेल हो गया। वहीं सत्ता की लोलुपता से मुशर्रफ मुंह कैसे मोड़ लेते। फलस्वरुप 2007 में शरीफ को पाक की धरती पर कदम तक न रखने देने वाले मुशर्रफ आज शरीफ की तानाशाही के शिकार हैं। उन्हें तो कालेपानी की सज़ा सी मिल गयी है जहां वह बेनज़ीर और शरीफ की तरह देश से बाहर कदम ही नहीं रह सकते। उन्हें लंदन का वनवास भी नसीब नहीं होने दिया शरीफ़ ने। यह शरीफ की शरीफाई है। जो भारत के साथ भी पूरी शिद्दत से निभाये चले जा रहे हैं। कश्मीर का सपना उस ड्रीम गर्ल को पाने के सपने जैसा हो गया है। जिसे ड्रीम गर्ल तवज्जो ही नहीं देती। कश्मीर वो प्रेमिका बन गया है जिसकी चाहत में पाक हर हद से गुजरने की हुंकार भरता है। वहीं भारत अपनी बेटी को बचाने का हर संभव प्रयास और मुस्तैदी में कोई कसर नहीं छोड़ता क्योंकि अब यह आन बान और शान का मसला है। सुशासन की आवाज उठाने वाला कोई नहीं है पाकिस्तान में। तभी बेनजीर भुट्टो के नाम और राजनैतिक करियर को चमकता देख षणयंत्र ऐसा रचा गया कि चुनाव से पहले ही बेनजीर भुट्टो की सदा सर्वदा के लिए विदाई हो गयी। संघर्ष त्रिकोणीय से नेक टू नेक का संघर्ष बन गया।
खैर, यह तो इतिहास था भविष्य क्या है पाकिस्तान का?? 2013 में पाक में चुनाव के बाद नवाज शरीफ को खोयी विरासत तो मिल गयी पर, नजरें अभी भी तनीं हैं। इमरान खान जिन्होंने अपनी मां के नाम पर अस्पताल बनवाया, जो देश की कौमी ताकत को लेकर समय समय पर अपनी आवाज़ बुलंद करते रहे हैं और पाक में हो रहे अपराध ए दासतां बयां करते हैं जो आवाम की ताकत को तहेदिल से जमींदोज़ होने से बचाने की कवायत में जुटे हुए हैं। दूसरी तरफ विदेशी मुल्कों में जीवन बिताने के बाद कनाडा से वापस आये पर्यटक भी अपनी दावेदारी ठोंकने में जुट गये हैं। खतरा फिर पनप रहा है। नवाज के सिर पर क्योंकि फौज जिसने अपनी ताकत और हूकूमत की एक अलग कहानी विश्व के इतिहास में रच डाली है। उसे वह विस्तार जरुर देना चाहेगा। उधर इमरान खान की बेतहां इतेंहा का दौर खत्म होने का नाम न लेता देख समर का ऐलान दोनों दलों ने अमूमन कर ही दिया है। ताहिर उल कादरी और इमरान खान क्या एक डगर के दो साथी हैं या पहले की तरह विरोधी जोड़ियां ?? यह तो भविष्य ही खुलासा कर सकेगा। ऐसे में क्या पाक संसद के विरोधी दल के प्रमुख नेता इमरान खान और कादरी ने अल्टीमेटम तो दे दिया है ऐसे में क्या शरीफ फौजी ताकत का सहारा लेकर खान साहब को सिरे सरकाने में कामयाब होंगें या खान, कादरी और शरीफ की टक्कर में एक बार फिर फौजी ताकत को सत्ता हथियाने का मौका मिलेगा ? खुली चुनौती के साथ युद्ध का बिगुल बजाने वाले खान के सब्र का बांध टूट सा गया है। सत्ता पाने की मानसिक बाढ़ ने जुनून का रुप ले लिया है। अब रेड जोन क्रास होगा या सत्ता का समुंदर। क्योंकि योर टाइम इज अप!!  का उद्घोष इमरान खान ने एक रैली में चिल्लाकर अपने समर्थकों को कूच करने का आदेयस देकर शरीफ को आगाह किया कि बहुत हो चुका अब वक्त तुम्हारा खत्म होता है। यह चेतावनी है कि कुर्सी खाली करो कि जनता नहीं दूसरी पार्टी आ गयी है।
सत्ता के चौतरफा खेल में पाक की गद्दी फिर लड़खड़ाने लगी है। अपने ही घर में असुरक्षित रहने वाली सरकार विदेशी ताकतों के बल पर चलने वाली अपने गिरे बान में झांककर क्यों नहीं देखती। जो है उसे संभाल कर रख पाना चुनौती है तो जिसकी आस में सबकुछ दांव पर लगा देते हैं उसकी सुरक्षा कैसे करेंगें ? विदेशी हुक्मरानों की पैनी दृष्टि से ही पाकिस्तान के हौसले पस्त से हो जाते हैं। पाकिस्तान के राजनीति की बुनियाद खोखली और ठूंठ हैं। पाकिस्तान की दशा मोरनी के समान है जिसे अपने पैर निहार लेने चाहिए। पाकिस्तान, जो एक आतंकी गढ़ माना जाता है। जो आतंकवाद का ट्रेनिंग सेंटर है, जहां नेस्तोनाबूत करने की शिक्षा दी जाती है, जहां हिन्दूस्तानी हिन्दू आज भी खौफ के साये में जीते हैं, जहां मजहब की परिभाषा आतंक और जेहाद समझायी जाती है वहां की युवा पीढी किस सोच को लकर पल रही है, उसकी मानसिकता को रौंधा जाता होगा। पाकिस्तान आज अपने ही बिछाये जाल में फंसता चला जा रहा है। जहां विश्व के सबसे बड़े आतंकवादी को पनाह मिली थी जिसे अमेरिका ने अपनी ताकत के बल पर खदेड़ डाला। पर, जिद्दी पाकिस्तान हम नहीं सुधररेंगे की पगडंडी पर चलता है।
“बोया पेड़ बबूल का, आम कहां ते खाय “ पाकिस्तान को सेल्फ एनालिसिस करने की आवश्यकता है। फौज जो किसी भी शासक का हथियार होता है समाज-देश में शांति बरकरार रखने में। वही फौज यहां स्वयं सत्ता भोगी बन जाती है पर्याय यह है कि शांति बरकरार रखने के हथियार से ही शासक वंचित है। सेना अपने अस्तित्व को जिंदा रखने में यहां सफल देखी जा सकती है। पाकिस्तान दोस्ती की झाड़ से झांकता है जहां प्रेम और विश्वास कब्र में दफन हो चुके हैं। पर प्रेम, विश्वास और दोस्ती के पुतले आगेकर पाक धोखे का तोहफा ही पेश करता है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ समारोह में आकर पाक ने अपनी सूझ बूझ का परिचय जरुर दिया। जहां हाथ और हालात सामान्य दिखे पर दिल के जज्बात में दफ़न कहानी तो बाद में निकलकर आयेगी। क्योंकि सीजफायर की घटनायें उसके बाद से बढ़ती ही चली जा रही है। ऐसे में पाक की अवस्था डरने और डराने वाली हो गयी है जहां मात्र डेढ़ साल में ही ओपोजिशन ने चुनावी बिगुल बजा डाला है जिससे एक बार आपसी कलह का शिकार फिर एक बार हर बार की तरह आम इंसान ही चक्रव्यूह के चक्रवात में फंसता है। तो भारत पर अपना दबदबा दिखाने की झूठी शान से भी पाक पीछे नहीं हट पाता।    


   

Saturday 19 July 2014

         
                          आस्था और अनुकरण

सर्वमंगला मिश्रा
9717827056

आस्था से श्रद्धा और श्रद्धा से विश्वास कायम होता है। जीवन अति सरल पर कठिन पाठ पढ़ाता है। धर्म में आस्था रखना और अंधानुकरण करना दो अलग बातें हैं। धर्म में आस्था रखना -इंसान के अंदर विश्वास, प्रेम और पथ प्रदर्शक बनने का गुण पनपाती है। तो अंधानुकरण करने वाले लोग बिना विचारे ढाक के तीन पात ही चल पाते हैं। उनमें मात्र कट्टरता की भावना रहती है। इंसानियत की मर्यादा समाप्त हो जाती है। धर्म मर्यादा पालन सीखाता है ना कि आपस में फूट डालता है।धर्म की मानसिकता एकता को मजबूती प्रदान करती है। द्वारका-शारदा पीठाधीश्वर जगदगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानन्द जी महाराज ने साईं पूजा को हिन्दू धर्म के विरुद्ध बताया। हर बड़े चैनल पर उनका इंटरव्यू भी चला। साईं भक्तों ने आग बबूला होकर जगदगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानन्द जी महाराज का पूतला भी फूंक डाला। पर, ध्यान देने योग्य बात यह रही कि हिन्दू धर्म के समर्थकों ने साईं का पुतला न फूंका और ना ही अनैतिक कदम उठाये। मसला यह है कि सामाजिक कुरीतियों से बचाना समाज के लोगों को यह धर्म गुरु का काम होता है। हम सभी लोग अपने बचपन में अपने बड़े –बजुर्गों से यही सुनते आये हैं कि अच्छे लोगों की संगत करो। इससे आपमें अच्छे गुण पनपते हैं। यह जीवन है जहां इंसान को कदम कदम पर भिन्न- भिन्न गुरुओं की आवश्यकता पड़ती है और एक ही गुरु से जीवन चल तो सकता है पर आज जिंदगी की लाइफस्टाइल चेंज़ हो जाने से जीवन के पहलू को देखने और सोचने का नजरिया भी बदल सा गया है। इसलिए जैसे हर विषय के लिए बच्चा अलग अलग टीचरों से ट्यूशन लेता है उसी तरह जीवन को भी अलग अलग डाक्टर से कंस्ल्ट करना पड़ता है। हालांकि पहले गुरुकुल में एक ही गुरु अपने सभी शिष्यों को उनके समर्थता के आधार पर विकसित करते थे और जीवन के मार्ग पर चलने में कठिनाइयों का सामना कम करना पड़ता था। उसी तरह 33 करोड़ देवा देवता हिन्दू धर्म में बताये जाते हैं। पर क्या उन 33 करोड़ देवी –देवताओं के नाम भी हम जानते हैं ?? जाहिर सी बात है उत्तर ना ही निकलेगा। उसी तरह साईं बाबा, गुरुनानक जी, मुहम्मद पैगम्बर और जिसस क्राइस्ट ये सभी आज परमपूज्य और साधना के प्रेरणास्त्रोत हैं। वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह...आमीन....ओ जिसस- मे गोड बेल्स यू माई चाइल्ड जैसे कई आस्थावान शब्द  और वाक्य है जो आपके मन के अंदर एक अद्भुत ऊर्जा का संचार करते हैं। उस अविश्वसनीय, परम शक्तिमान और जगत संचालक को किसी ने नहीं देखा। वो सुप्रीम लार्ड है, भगवान है, जगत विधाता, शिव, ब्रह्मा या विष्णु रुपेण है..या अल्लाह, गुरुनानक साहेब या जिसस है । हममें से किसी को नहीं पता। पर एक परम शक्ति है कहीं न कहीं जो इस जगत का संचालन करती है। हमें नदी की धारा के सामान गोमुख से निकालकर महासमुद्र में विलीन कर देती है। यही सत्य है।

जगदगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानन्द जी महाराज के साईं पूजा का विरोध मात्र विरोध नहीं था। एक पहल एक आगाह था जो हिन्दू अपने धर्म से भटक रहे हैं उनके लिए। उनका कहना यही रहा कि साईं को आप मानो मुझे कोई आपत्ति नहीं पर हिन्दू शास्त्रों में वर्णित देवी देवताओं का स्थान उनसे निम्न मत करो। साईं –राम , साईं कृष्ण, साईं-श्याम मत कहो। यदि आप को भजना है तो साईं का नाम सांई की तरह लो। उसमें राम-कृष्ण मत जोड़ो। पर बेबाक मीडिया थोड़ा मुखर हो गया। इसे चढ़ावा और साईं से शंकराचार्य का टकराव घोषित कर दिया। संत होना अलग बात है पर परमात्मा बनना अलग बात है। सनातन धर्म में वैसे ही इतने शास्त्र, पुराण और वेद होने के कारण वैचारिक मतभेद आपस में संकीर्णता को जन्म दे चुके हैं। ऐसे में स्वामी नारायण की पूजा, शिरणी के साईं की पूजा अपने आप में आने वाली पीढियों को भ्रमित करने वाली है। मेरे पिताजी आज से अमूमन 42 अथवा 45 वर्ष पूर्व देवरहवा बाबा से मिल चुके हैं। अद्भूत, चमत्कारी, मचान पर रहना, खड़ाऊं पहनना, स्पृश्यता एकदम वर्जित, हर आधे घंटे में स्नान करना, इच्छा मन में की और उत्तर तुरंत पा जाना। पर आज उनका कोई मंदिर या धाम नहीं है। बहुत लोग शायद उनके विषय में सुने भी नहीं होंगे। इसी तरह फहरिस्त काफी लम्बी है। गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी इन्हें हम संत और धर्म प्रदर्शक के रुप में जानते और मानते हैं। साईं बाबा जिनके पूरे विश्व में करोड़ों अनुयायी हैं कुछ काल पूर्व ही उनका शरीर पंच तत्व में विलीन हुआ। उनका कोई मंदिर नहीं। पर आज उनके अनुयायी ट्रस्ट का पैसा लगाकर मंदिर खोलें और उन्हें भगवान के रुप में स्थापित कर दें तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। पर क्या जानने वाले ज्ञानी क्या इस अनछुए पहलू से अनभिज्ञ हैं  ??  निर्मला देवी जिन्होंने खुद को ईश्वर स्वरुपा बताया और लोगों के घरों से देवी देवताओं की मूर्तियां तक हटवा दी, और स्वघोषित ईश्वर के रुप में आज भी कई घरों और मस्तिष्क में विद्दमान हैं। एक और स्वघोषित ईश्वर की बात न की जाय तो बात अधूरी रह जायेगी। वो हैं आशाराम बापू- जो आजकल किस कारण जेल में हैं इस बारे में बात करना समय की नष्टता होगी। ओशो- जिसकी बातें और नाम आध्यात्म जगत में पूजा है। करोड़ों भक्त उनकी आस्था के सागर में गोते लगाते हैं। उनकी पुस्तकें पढ लेने मात्र से- जीवन का सार और स्वर्ग की अनुभूति उनके लिखित विचारों से झलकती है। पर क्या वो ईश्वर थे??  आजकल एक नाम जिसकी कश्ती डूबी पर लक्ष्मी मैया ने फिर उन्हें सहारा दे दिया है। निर्मल बाबा जो व्यापार में फेल हो गये थे पर आज दूसरों पर ईश्वरीय कृपा कैसे होगी सरल भाव में बताते हैं। उनके अनुयायी जिनकी आस्था कहीं न कहीं प्रबल है या जिंदगी को राह देने वाली मशीन पर एक भरोसा उमड़ा हुआ है। कहा नहीं जा सकता। तो क्या ये ईश्वर हैं??
सचिन तेंदुलकर-क्रिकेट के भगवान, रफी साहब, लता मंगेशंकर इन्हें आज के युग का सर्वश्रष्ठ माना जाता है। देश नहीं विदेशों में भी पूजे जाते हैं। अपने कर्म के लिए। पर अपवाद यहां भी है- एक बार पढा था ,जब माधुरी दीक्षित का बहुत बोलबाला था, तो एक पान वाला दुकान खोलने के साथ सबसे पहले उनकी तस्वीर को धूप –बत्ती दिखाता और उसके बाद अपनी दुकान शुरु करता। इसी तरह विद्दा भारती, अमिताभ बच्चन-जैसे चर्चित अभनेता व अभिनेत्रियों को सत्कार और प्रेम मिलता रहा तो क्या ये ईश्वर हैं?? हर क्षेत्र में एक इतिहास रचयिता आता है। उस इतिहास रचने वाले को आम लोगों के जीवन में विशेष स्थान मिलता है। लोग उसे अनुकरण करते हैं, पूजते हैं अपना दिन उसके दर्शन से सुखद होता मानते हैं। वकालत में इतिहास रचयिता और उपलब्धि हासिल करने वाले को वकालत पढ़ने वैले बच्चे पूजेंगें। टीचर्स डे के दिन हम शिक्षकों को पूजते हैं। परीक्षा में जाने के पहले उनका आईशीर्वाद लेते हैं। बहुत से श्रवण कुमार कहीं न कहीं तो धरती पर होंगे जो माता पिता को पूजते होंगे। पर क्या दुनिया उस व्यक्ति के माता पिता को पूजती है??  जानती भी नहीं है। ठीक उसी तरह जिसतरह टेनिस खिलाड़ी शारापोवा का मैच देखने गये क्रिकेट के भगवान सचिन को शारापोवा नहीं जानती थीं। यहां मेरा मकसद किसी विवाद को जन्म देना नहीं बल्कि मात्र एक संयोग पेश करना था। मैं खुद भी सचिन तेंदुलकर की बड़ी या छोटी नहीं कहूंगी पर जबरदस्त फैन अवश्य हूं। सभी की तरह मेरी आंखों में भी आंसू थे जिस दिन उन्होंने क्रिकेट से संयास लिया था। कहने का तात्पर्य यह है कि हम सबमें वो परम आत्मा कहीं न कहीं विद्दमान है। जो हम सबको सांस लेने से लेकर जीना सीखाता है और सांस रुकते ही परम धाम या पंच तत्व या मिट्टी में मिल जाने का संकेत देता है। क्योंकि इस शरीर को बर्दाश्त करना लोगों के लिए असहनीय बन जाता है। वहीं मोरारी बापू, किरीट भाई जी ईश्वर के अस्तितव का बखान करते हैं पर स्वंय को कभी भी ईश्वर बताने का भ्रम नहीं पाला। संत ईश्वर और मानव के बीच मात्र माध्यम है एक ब्रिज मात्र है। ईश्वर नहीं। उन्हें आभास है कि इस नश्वर शरीर में उस परम शक्ति का कण मात्र सही पर है पर कण कण से बना वो परम जिसकी कल्पना अकल्पनीय. या बियांड एक्सपेक्टेशन है। हम मानव वो हो नही सकते। अब सवाल एक और भी उठता है-राम और कृष्ण भी तो मानव रुप में धरती पर अवतरित हुए। उन्हें ईश्वर के रुप में क्यूं पूजा जाय ?? शास्त्रों में वर्णित है कि आदिगुरु शंकराचार्य स्वयं शंकर भगवान के अवतार थे। जिन्होंने मात्र धर्म की स्थापना व्यापक रुप में करने के लिए ही इस धरती पर उस काल में पदार्पण किया था। आज लोग शंकराचार्य को साईं के तर्ज पर तो ईश्वर नहीं मानते।   
कहने का पर्याय यह है कि धर्म की नीतियां जीवन में समभाव, चरित्र की उत्तमता की ओर मानव जीवन को प्रेरित करती हैं। धर्म अवहेलना नहीं संतुलन सीखाता है। संतुलन ही यह बताता है कि समभाव रखते हुए बगुला और हंस में अंतर कैसे किया जाना चाहिए।
 






 
              क्या जैसा देश वैसा ही भेष ??

 सर्वमंगला मिश्रा
वो लोग सौभाग्यशाली होते हैं जिन्हें कोई शहर पहली बार में अपना लेता है। उन लोगों को इस वाक्य से ज़रा भी परहेज़ नहीं होगा जिन लोगों ने दूसरे शहर में जाकर अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष किया होगा। कश्मकश से भरी जिन्दगी इतनी आसान नहीं होती। कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिन्हें देखते देखते आदत पड़ जाती है और फिर आप कहते हैं हां यार, नाट बैड.....राजनीति भी एक ऐसा मंच है जहां हजारों कलाकार आते और जाते रहते हैं। कुछ दिल में बस जाते हैं, तो कुछ को देखने और सुनने की आदत पड़ जाती है। राजनीति लोगों को हमेशा दोराहे पर खड़ा कर देती है। उन्नति भी कराती है पर अवनति की सीढियां चढ़वाकर। जब आपका चारित्रिक पतन हो जाता है और आप स्वंय के लिए न जाने कितनी भावनाओं की लाशों पर चढकर अपना आशियाना खड़ा करते हैं, तो यही कहा जा सकता है कि जीवन सरल पर कठिन हो गया है।
यह राजनीति ही है जो विदेशी मूल की महिला को बाल काले करने पर मजबूर कर देती है। ममता बनर्जी जिन्होंने 34 साल के मजबूत लाल किले को गिरा डाला, पर अपनी हवाई चप्पल और सादी साड़ी का साथ नहीं। लालू यादव को उनका हेयर स्टाइल नहीं बदलने देती। तो मुलायम को दाढी नहीं बढाने देती। वहीं झारखंडी विश्वविख्यात हीरो महेन्द्र सिंह धोनी जिसका नाम ही काफी है अपनी हेयर स्टाइल बदलने के लिए फेमस है। पहले लम्बे लम्बे बाल तो 2008 में बाल छोटे कर सबको चौंका दिया। फिर वल्ड कप जीतने के बाद मन्नत के कारण सिर मुंडवा लिए.....ऐसा सौभाग्य इन नेताओं का कहां ???? वहीं भारत के पूर्व बहुचर्चित राषट्रपति डा. अब्दुल कलाम आजाद के बालों को लेकर अमूमन हर चैनल ने पब्लिक ओपिनियन ले डाला। अपने बालों के कारण उनकी चर्चा घर घर होती रही। वृंदा करात अपनी बिन्दी छोटी नहीं कर सकती तो शैलजा और प्रिया दत्त लगा नहीं सकती। सुषमा स्वराज सलवार कुर्ता नहीं कभी पहनीं तो उमा भगवा नहीं छोड़ सकतीं। पर, मायावती अपवाद हैं। पहले उनकी पोनी टेल हुआ करती थी जो अब बाय कट में परिवर्तित हो चुकी है और लगता नहीं कि अब वो अपना रुप बदलना चाहेंगी । कारण है कि अब अपनी इतनी मुर्तियां बनवा चुकी हैं कि पब्लिक में भ्रम का संचार हो जायेगा। अम्मा अपने जमाने की हिरोइन थी पर अब जिंन्स नहीं पहन पायेंगी, नेता बनने के बाद उनका लिबास सेट हो चुका है। राजनीति की चहेती हिरोइन प्रियंका वार्ड्रा गांधी अपने इन बालों के साथ इतनी फेमस हो चुकी हैं कि बाल लम्बे करने की इच्छा शायद अब सपने में ही करके संतोष करेंगी। उनकी दादी छोटे और हल्के घुंघराले बालों की मिशाल रह चुकी हैं। प्रियंका को उनकी छवि माना जाता है। राजनीति का साधु वेश वाले बाला साहब ठाकरे जी जिनके परिधान जैसा शायद ही कोई खुद को संजो कर रख सके....एक मिसाल थे। किरण बेदी जिन्हें न जाने कितने उपनाम मिले उनकी पहचान उनकी वर्दी और बाल रहे। पत्रकारिता में बरखा दत्त, प्रणव राय, पुण्य प्रसून वाजपायी, आशुतोष, दीपक चौरसिया भी अपनी वेश भूषा की वर्दियां छोड़ने में अब हिचकिचायेंगें।
पर, राजनीति में क्या वेश-भूषा ही महत्वपूर्ण है ??? क्योंकि पुराने जमाने में रजिया सुल्तान और लक्ष्मीबाई के बाल कैसे हुआ करते थे यह शायद मुझे लिखने की आवश्यकता नहीं है। यह वह समय था जब परंपरा और मान मर्यादाओं का काल था। आज आधुनिक युग में एक ऐसा नेता है हमारे बीच जिसने यह कहा था कि राजनीति करने के लिए कुर्ता पायजामा पहनना आवश्यक नहीं...जिन्स पहनकर भी राजनीति की जा सकती है। मुझे याद है एक बार सोनिया गांधी की रैली थी हम सब वही सुन रहे थे। भाषण खत्म होने के बाद सोनिया जी जब बैठीं तो अचानक हमारे एच ओ डी साहब के मुंह से निकला अरे!  सोनिया तो पूरी भारतीय हो गयी। उन्होंने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि सोनिया गांधी ने आंचल से अपना मुंह पोछा था गर्मी के कारण.....यानी पसीना...। राजनीति हर किसीको आकर्षित करती है पर यहां न जाने कितना पसीना और दम निकल जाता है और निकाल भी लिया जाता है। छुपी राजनीति करने में भी लोग नहीं हिचकते। जैसे वीरप्पन की मुंछे, तो किशन जी का गमछा कभी हटा नहीं। वहीं ओसामा बिन लादेन की दाढी और टोपी....पर ओसामा के बाद में कई रुप फूल्लन देवी की तरह सामने आये।  अपनी छवि बनाने के लिए ही चार्ली चैपलीन की मुंछ की साइज और शेप को बरकरार रखा गया। चार्ली चैपलीन की असल तस्वीरों में शायद ही उन्हें कोई पहचान सके। पी सी सरकार, तो भूटानी राजा अपना पारंपरिक ड्रेस पहनकर ही घूमते हैं, फारमल्स नहीं पहन सकते। आडवाणी जी की मुंछों का साइज कभी नहीं हिलता, और मोदी जी के कुर्ते का हाथ लम्बा नहीं होता.... पर बनारस में नामांकन के दिन मोदी ने फूल स्लीव का कुर्ता डाला था। राज शायद आने वाले दिनों में खुलेगा। अब हर कोई अमोल पालेकर की गोल माल पिक्चर को फालो तो नहीं कर रहा होगा।

पर, कुछ अपवाद भी हैं अटल बिहारी वाजपायी, पी वी नरसिम्हा राव, चिदंबरम, समय समय पर अपनी वेश भूषा में भी दिख जाते हैं और अंग्रेजी पहनावे में भी। यह राजनीति ही है जो इंग्लैंड की महारानी ऐलिज़ाबेथ को अपना पहनावा मिडिया और जनता के सामने आने पर अपनी पारंपरिक वेश –भूषा में ही सामने आती हैं। हर समाज की अपनी पहचान, मर्यादा और प्रतिष्ठा बनते बनते बनती है। जिसतरह मंदिर का पुजारी अपने धोती और चादर में रहता है, मौलवी अपनी वेश भूषा में तो पादरी अपनी....पर वेश भूषा से उपर है आंतरिक वेश भूषा को ठीक करना अपनी मानसिकता को हमें ऐसे वस्त्र पहनाने चाहिए जिससे समाज और देश का पहनावे का रंग आसमानी हो जाये। जिससे विश्व में एक संदेश जाये कि मन को सुंदर बनाने के लिए भारत का अनुकरण करना चाहिए जैसा संदेश मदर टेरेसा ने दिया, गौतम बुद्ध और अशोक ने दिया। मजेदार बात अब कहना चाहूंगी कि सम्पूर्ण भारतीयता के समर्थक माने और जाने जानेवाले प्रधानमंत्री जी श्री नरेंद्र मोदी जी विदेश में जाकर हिन्दी ही बोलेंगें तो परिधान भी भारतीय ही होना चाहिए। अब मोदी जी कभी हाफ सिल्व तो कभी फुल बांह के कुर्ते में भी दिख जाते हैं।
                   
                         गंगा




सर्वमंगला मिश्रा-
9717827056
देवलोक में विचरण करने वाली, ऋषियों के कमंडल में रहने वाली गंगा, अपनी एक बूंद के छिड़काव मात्र से स्थान, मन को पवित्र करने वाली गंगा, पवित्रता का सूचक गंगा आज खुद पवित्र होने की आकांक्षा लिए उस वीर सिद्ध पुत्र का शायद इंतजार कर रही थी। मोक्षदायिनी गंगा को अब शायद मोक्ष मिल जायेगा। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का यह संकल्प पूरे देश में एक जूनून का रुप ले रहा है। गंगा एक अति पवित्र और स्वर्ग से उतरी जल धारा है। जिसे कई वर्षो की तपस्या के उपरांत धरती पर लाने वाले भगीरथ जी का नाम आज भी आध्यात्म के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से अंकित है। धरती पर आने के बाद गंगा की दशा धीरे धीरे परिवर्तित होती चली गयी और आज यह दशा हो चुकी है कि गंगा की मलीनता कहीं न कहीं चरम पर मानी जा रही है। गंगा की अविरल धारा में नदी नाले सभी सिमट से गये हैं। भगवान शिव की जटा से निकली गंगा का रुप इतना कलुषित हो गया है। जिसे फेशियल की जरुरत नहीं पूल बाडी मसाज और प्रापर ट्रीटमेंट की आवश्यकता आन पड़ी है। मां गंगा को शायद भागीरथ के आमंत्रण का एहसास नहीं था कि धरती पर इतने कलुषित और पापी प्राणियों का वास है जिनके पाप धोते धोते उन्हें उबारते –उबारते खुद उन्हें स्वंयं को उबारने की आवश्यकता आन पड़ेगी। अन्यथा स्वर्ग लोक से दिव्य वस्त्र धारण कर आती सीता जी और भीष्म पीताम्मह की तरह..जो कभी कलुषित न होते। गंगा गोमुख से निकलकर पहाड़ पठार फिर नदी नाले पार करती बंगाल की खाड़ी में सम्मिलित हो जाती है। जहां महत्ता को चार चांद लग जाते हैं और प्रति वर्ष गंगासागर का मेला लगता है। जिसमें देश ही नहीं विदेशों से पर्यटक, देशी साधु संत अपनी जटा जुट लपेटे, नागा साधु भी पहुंचकर गंगा की महत्ता और पवित्रता का साक्ष्य बनते हैं। क्योंकि माता कभी कुमाता नहीं होती पुत्र भले कुपुत्र हो जाये- उसका आंचल बच्चों के लिए कभी मैला या छोटा नहीं पड़ता। उसका आंचल आसमान की तरह विकसित है उसके करुणामयी दिल की तरह। बच्चों के कष्ट को न देख पाने वाली मां गंगा अपनी अविरल धारा से सतत पापों की बेड़ी में जकड़े धरती के लोगों को मुक्ति देने में जुटी है।
श्री राम शर्मा द्वारा लिखित एक कहानी स्मृति में उन्होंने लिखा था कि- दृढ़ संकल्प से दुविधा की बेड़ियां कट जाती हैं। आज वही याद आ गया और सच भी लग रहा है। कई बार कई विदेशी रिपोर्टों में यह उल्लेख किया गया कि गंगा का जल अति प्रदूषित और संक्रामक हो चुका है। गंगा पर चिंता और चिंतन करना भारतीयों के लिए अति स्वाभाविक है पर, विदेशी संस्थाओं की चिंता और चेतावनी सदा सर्वदा अनसुनी कर दी गयी। केंद्र सरकारों ने कभी इसकी व्यापक तौर पर सुध नहीं ली।  ऐसा नहीं है कि केंद्र सरकारें मौन मूक बधिर बनी रहीं। गंगा एक्शन प्लान बना। राजीव गांधी ने गंगा के लिए सोचा प्लान बनाया पर धरातल पर सक्सेसपूल नहीं हो सका। जिम्मेदारी का एहसास हुआ पर दृढ़ संकल्प की कमी रह गयी। सरकारें हमेशा बेरोजगारी, भुखमरी और आतंकवाद के मसलों पर उलझी रही और देश को भी उलझाती रही। आतंकवाद पर बैठकों पर बैठकें हुईं, विकास के मुद्दे पर चर्चा और आलोचना हुई, बेरोजगारी के मुद्दे पर चिंता ज़ाहिर हुई भूखमरी से मरने वाले मासूम बच्चे, महिलायें और किसानों के आंकड़े कुछ बताये गये तो कुछ छुपाये गये। पर अंतोगत्वा, देश में अराजकता की धूल भरी आंधी तूफान और फिर चक्रवात में परिवर्तित हो गयी। जनता की आंखों में धूल की किरकिरी ऐसी घुसी की सरकार पर निगाहें रख पाना मुश्किल हो गया। जिससे गंगा की धारा अन्य नदियों की भांति दिन पर दिन अपना अस्तित्व खोती चली गयी और जनता अपने दुर्दशा के बांध को ठेलती ढकेलती रही ताकि जीवन की आवश्यकताओं की कमी से निज़ाद पा ले पर ऐसा हो न सका। जीवन में बेरोजगारी, भुखमरी और सरकारी तरकशों से बच न सकी। पर हर समस्या का हल होता जरुर है। उस शोधकर्ता की आंखें बस होनी चाहिए। व्यापक अंदाज़, बहुआयामी सोच और सरस भाव होने चाहिए।
आज गंगा को बचाने की मुहिम पूरे देश में एक एकता के रुप में उजागर हो रही है। गंगा कितनी लम्बी या चौड़ी है इसका अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है। देवलोक से आयी इस देवी का मान आकाश में  चमकने वाले  सूर्य और चन्द्रमा से भी अति वन्दनीय है। गंगा में लगता है जितनी बूंदे हैं उतनी जनता अब जागरुक होकर खड़ी हो जायेगी और अति संवेदनाहीन पक्ष को एक संगठित और मर्यादित औऱ सराहनीय विश्वस्तरीय ख्याति का पुनार्जन होगा। इस परिपेक्ष्य में एक सवाल कहीं न कहीं जन्म अवश्य लेता है।मोदी जी ने एक महीने 12 दिन के अंदर कई ऐसे फैसले और घोषणायें कर दी है जो सपनों में विचरण करने से कम नहीं। गंगा सफाई अभियान, बनारस में अमूल की फैक्ट्री से हजारों की संख्या में रोजगार देकर बेरोजगारी की समस्या को कम करने की अद्भूत योजना और रेल बजट में दिया गया और टेस्टीफाइड हाई स्पीड ट्रेन की मनभावन योजना। जिसतरह मोदी जी चुनावों के दौरान रैलियों में बोले उससे यही लगता था अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज के बाद अब एक अच्छा वक्ता भाजपा ने पेश किया है। पर एक कहावत है कि जो बरसते हैं वो गरजते नहीं और जो गरजते हैं वो बरसते नहीं। इसी तरज पर मोदी जी ने हाल ही में हुए सूरजकुंड मेले में जो कैम्प लगाया और अपने सांसदों को मूलमंत्र दिया कि बेवजह विवाद से बचें, समाज के हित में कार्य करें, किसी से डरे नहीं, निष्पक्ष और निडर होकर फैसले लें। स्वयं के ऊपर अति साजो सज्जा से दूर रहने की सलाह दी। तो इस सलाह को सलाह के तौर पर नहीं बल्कि आदेश के तौर पर देखा जाना चाहिए, क्योंकि मोदी का दूसरा नाम हिटलर और डान माना जा रहा है।हर विभाग के फैसले में उनकी हामी निर्विवाद रुप से आवश्यक मानी जा रही है। क्योंकि मोदी जी कोई रिस्क नहीं लेना चाहते। पांच वर्ष का कार्यकाल पूर्ण करने में कोई त्रुटि या बाधा नहीं आने देना चाहते हैं। वैसे भी मुझे मां गंगा ने बुलाया है- यह वाक्य कि मोदी मां गंगा के सुपुत्र हैं तो मां को बेटा तकलीफ में कैसे देख सकता है। इसके अलावा वाराणसी मोदी के लिए वो यादगार पावन धरती है जिसने उन्हें प्रधानमंत्री के पद पर उच्चासीन कर दिया। तो मां गंगा का कर्ज जिसकी सौगात प्रधानमंत्री होने के पूर्व ही उन्होंने अपने इस संकल्प को जगजाहिर कर दिया था। मां का हृदय तो यंही कोमल होता है। बेटे ने कहा मां गदगद हो गयी अब वक्त है प्रधानमंत्री मोदी जी अपनी बात पर खरे उतर जायें। निर्विवाद रुप से अगर मोदी जी अपने कम बोलकर ज्यादा काम को तवज्जो दे रहे हैं तो निश्चित तौर पर गुजराती माडल स्वर्णिम अक्षरों में विश्व के मानस पटल पर अंकित हो जायेगा और युगों युगों तक याद रखा जायेगा।

कहते हैं ना कि जब मूल समस्या की जड़ तक यदि आप पहुंच जाएये तो छोटी –छोटी समस्यायें पलक झपकाते हवा में कर्पूर की तरह उड़ जाती हैं। ठीक उसी तरह गंगा सफाई अभियान ने दूसरी मैली नदियों जैसे यमुना नदी पर भी लोगों का ध्यान केंद्रित हो रहा है। इसी तरह स्वच्छ जल स्त्रोत का अभाव झेल रहा भारत देश स्वच्छता की पटरी को चाक चौबंद करने में जुट गया है। पर, इसके साथ ही कई गांव, शहर और राज्य आज भी ऐसे हैं जहां पानी की किल्लत से आम जनजीवन अमर्यादित है। इस सफाई अभियान के साथ या उपरांत यदि उन सूदूर ग्रामीण इलाकों में पानी का स्त्रोत पहुंच जाय तो महिलाओं के जीवन को सम्मान व परिवारों को परेशानी से जूझना नहीं पड़ेगा। ध्यान देने योग्य बात यह है कि सरदार पटेल का विश्व का सबसे ऊंचा स्टैच्यू बन जायेगा, हाई सपीड ट्रेनें चलेंगी और गंगा की अविरल धारा सिर्फ सूरज की रौशनी में नहीं बल्कि गंगा आरती के वक्त भी चाहे वह हरिद्वार का तट हो या बनारस के घाट एक परिदृश्य दिखेगा –चमचमाती, उजली मां गंगा जिसे देखने विश्व का सबसे बड़ा समूह एवं पर्यटक जत्था आयेगा तो विदेशी मुद्रा का आगमन अधिकाधिक मात्रा में होगा जिससे चमकती जल की बूंदों के रख रखाव पर कोई कष्ट नहीं मंडरायेगा।
                 इंसानियत और राजनीति

सर्वमंगला मिश्रा
9717827056

धर्म में आस्था रखने वाला इंसान अपने दिन का शुभारम्भ उस सर्वशक्तिमान के नाम के साथ करता है। सुबह उठते ही हिन्दू पूजा करता है तो मुस्लिम नमाज़ अदा करता है, सिक्ख वाहेगुरु के सामने मत्था टेकना शुभ मानता है तो क्रिश्चियन चर्च जाकर जीसस के सामने प्रेयर करता है।पर, धर्म जब इंसानियत को पीछे छोड़ कट्टरता की ओर उन्मुख हो तब यह समझ लेना चाहिएकि खुद को सुधारने का वक्त आ गया है। कबीरदासजी जो हिन्दू और मुस्लिम दोनों माने जाते थे । साथ ही उनकी रचनायें प्रारम्भ से दोनों वर्गों तथा बाकी जातियों पर भी कुठाराघात करने से नहीं चूकते थे।
पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार,
ताते वह चक्की भली , जाको पीस खाय संसार।
कांकर पाथर जोड़ के मस्जिद लयी चुनाय
ता चढि मुल्ला बांग दे, बहिरा हुआ खुदा।
 
अयोध्या-बाबरी मस्जिद, गोधरा, मुज़फ्फरनगर और अब मुरादाबाद। धर्म के नाम पर आस्था की आड़ में जातिवाद का खेल आज तख्तो ताज के लिए खेलना राजनीति का हिस्सा बन चुका है। बहरा खुदा नहीं मानव की चेतना हो गयी है। इंसानियत बहरी हो गयी है, शायद पंगु भी। अयोध्या की कहानी इतिहास के पन्नों में ब्लैक बैकग्राउण्ड पर बलैक लेटर से लिखा जा चुका है। कितने धर्म में आस्था रखने वाले अभिभावकों को यह कहते सुना गया था कि मेरा बेटा राम की भक्ति के लिए बलिदान हुआ है। उसका जीवन धन्य हो गया। राम नाम के लिए मेरे बेटे ने अपना जीवन समर्पित किया है। ऐसे ही न जाने कितने माता पिता, बहन और परिवार वालों ने अपने सगों के लिए ऐसी मर्यादित भाषा का प्रयोग किया था। उस समय इतने न्यूज चैनल नहीं हुआ करते थे। दूरदर्शन, बीबीसी प्रमुख थे। अयोध्या काण्ड की टेपें लोगों ने उन दिनों चोरी छुपे देखी थी। कोई भी टेप को अपने घर नहीं रखना चाहता था कारण जिस व्यक्ति के घर से ऐसी कोई सामग्री बरामद होगी तो पुलिसिया कार्रवाही होगी। मुझे याद है हमने दो बार दो घरों में देखा था। आज, खुले आम टी वी चैनलों पर खुले आम कवरिंग होती है और भावना जनमानस में हिलोरे पल पल में लेने लगता है। कभी ज्वार कभी भाटा की तरह कभी सरकार के विरुद्ध बिगुल बजने लगता है तो कभी जनमानस के क्रियाकलाप पर सवालिया निशान चिन्हित होता दिखता है। आज इस बात को उठाने का मकसद यह है कि धर्म की आड़ में राजनीति कब बंद होगी?? कभी वृंदा करात यह कहने से नहीं चूकीं कि बाबा रामदेव की दवाइयों में हड्डी मिली हुई है तो कभी बीजेपी कार सेवकों का नारा था- कसम राम की खाते हैं, मंदिर यहीं बनायेंगे। साढे 23 साल बीत गये राम का मंदिर और मस्जिद में आजतक कलह का आसमान छाया हुआ है। जिस तरह भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर सालों से सांप छुछुदंर का खेल चलता आ रहा है। करोड़ों हिन्दुओं की आस्था माता वैष्णों धाम में टिकी है पर अगर केंद्र सरकार और राज्य सरकार में सहमति का बीज़ नहीं पनपा तो धारा 370 के साथ वीजा का नियम न लागू हो जाय माता वैष्णों के दर्शन के लिए। आशंकाओं से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। जीवन अनिश्चितताओं से भरा है। ख्वाजा की दरगाह मुक्त हस्त से दर्शनार्थियों का स्वागत करता है जहां पाक के नामचीन हस्तियां भी आयीं दरगाह पर मत्था टेकने..चादर चढाने। पर, मुरादाबाद में लाउडस्पीकर लगाने और न लगाने के मामले ने ऐसा तूल पकड़ा कि महापंचायत बुलानी पड़ी। महापंचायत में पथराव और दंगे के चलते डी एम को अपनी बांयीं आंख की रौशनी से हाथ धोना पड़ गया। क्या सहिष्णुता ने इस संसार से सन्यास ले लिया है? धीरज अपनी कर्मनिष्ठा से मुंह मोड़ चुका है? शांति सीताजी की तरह भूगर्भ में जा चुकी है? प्रेरणा स्त्रोत जीवन और व्यक्तियों का अकाल पड़ चुका है? असहजता, अशांति और  अराजकता ही राज्य करेंगे?
दंगा चाहे गोधरा का हो या मुजफ्फरनगर का इससे राजनीतिज्ञों के अलावा किसी का भला नहीं हुआ। आज भी मुज़फ्फरनगर के दंगा पीड़ित किस दहशत के साये और खुले आसमान के नीचे, बदतर हालात में जीने को मजबूर हैं। यह बयां नहीं किया जा सकता। बेसहारा हुए वो परिवार आज दहशत की लाश बनकर जी रहे हैं। राज्य सरकार घोषणा जरुर करती रहती है कि हमने फलां फलां चीज़ें उपलब्ध करायीं पर, धर्म की आड़ में फैलायी गयी आग में झुलसे उन परिवारों से कोई तो उनकी दासतां, दरदे हाल कैमरा बंद करके पूछो। सभी तो इंसा है खून तो लाल ही है फिर मज़हब को खून का रंग देने पर क्यों तूले हैं। इसका तात्पर्य क्या अब जनमानस को यह समझना चाहिए कि पंचायतें और महापंचायत अस्तित्वविहीन हो चुकी हैं। महापंचायत मात्र नाम के लिए या दबंगों की राजनीति का हिस्सा या उनके हाथों की कठपुतली मात्र रह गयी हैं। तो बापू ने जो सपना देखा था पंचायतों के निर्माण और कानून व्यवस्था बनाये रखने का उत्तम माध्यम हो बेबुनियाद था या अब बन गया है। जिस पंचायत और महापंचायत पर गांव और गांवों के समूह का दायित्व रहता है वो कंधे अब चोटिल हो चुके हैं या बूढे और आदर्शविहीन ? जिससे पंचायत का मुख मलीन पर दिन मलीन होता चला जा रहा है।
धर्म की आड़ में राजनीति की लड़ाई ने इंसानियत को बेजुबां कर दिया है। कोलकाता के टीमसी के एक नेता ने यह कहकर कि यदि किसी सीपीएम के कार्यकर्ता ने उनके कार्यकर्ता या उनके परिवार वालों पर जरा सी भी आंच आयी तो वो दहशत का ऐसा पाठ अपने लोगों के जरिये सीखा देंगें। शब्द लिखे तो नहीं जा सकते परन्तु अमर्यादित अतिसंकीर्ण और विचित्र मानसिकता राजनीति में कदम रख चुकी है। ऐसी मानसिकता को जल्द काबू में नहीं किया गया या इन बदजुबानों को कड़ा सबक नहीं सिखाया गया या ऐसा कोई कानून लागू न किया गया कि फ्रीडम आफ स्पीच एंड इक्स्प्रेशन का गल्त इस्तेमाल न हो इसके लिए समाज को खुद सुधरना होगा और सरकारों को कड़े नियम इख्तियार करने होंगें। आजकल टी वी पर संसद का सत्र हो, या विधानसभा का लगता है जैसे यह देश की वरिष्ठ गवर्निंग बाडी नहीं बल्कि गांव के नुक्कड़ पर आये कुछ अति समझदार नौटंकी वालों की टोली हो जिसे सिर्फ तमाशा दिखाना है और चर्चा का हिस्सा बनना है।जिसे नाटक के ओर अंत से कोई वास्ता नहीं। जिसकी समझ कुएं के मेंढ़क की तरह सीमित हो। कुछ नौटंकी वालों की फहरिस्त बढ़ती जा रही है और इसमें वो अच्छे फूल मुर्झा रहे हैं। सांसद अब प्रश्न पूछते हैं तो लगता है मकसदमात्र सदन में बोलना है। मीडिया अट्रैक्शन लेना आजकल नेताओं का पहला मकसद हो गया है।
इंसानियत को जिंदा रखना हम इंसानों का ही परम एवं सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य होना चाहिए। ताकि आने वाली पीढियां गर्व के साथ खुद को भारतीय परंपरा का हिस्सा कहने से संकोच न करें.
  

Saturday 28 June 2014

दहशत का कब्रगाह




उत्तर प्रदेश उत्तम प्रदेश की संज्ञा से नवाजा जाता रहा है। पर पिछले कई हफ्तों से इस दी हुई संज्ञा पर विचार करना अनिवार्य सा हो गया है। महिलाओं को जहां पूजने की बात, लक्ष्मी का वास माना जाता है वहीं आजकल महिलाओं पर हो रहे अति निन्दनीय अत्याचारों का घड़ा एक पर एक करके फूटता ही चला जा रहा है। यूं तो दिल्ली 2012 में शर्मसार हो चुकी थी लेकिन बदायूं मामले ने ऐसी अवांछनीय घटना को न जाने कैसे अपराधी वर्ग को इतना जागरुक कर दिया है कि समझ नहीं आता क्या कहा जाय। अंधेर नगरी चौपट राजा, या जैसा राजा वैसी प्रजा। वैसे तो पूरे देश में महिलाओं पर हो रहे अत्याचार का कोई तोड़ नहीं। एक से बढकर एक घटनायें समय समय पर सामने आती हैं। पर आज फिर उत्तर प3देश के कानपुर में अतिक्रमण का विरोध कर रही कुछ महिलाओं पर ऐसा कहर पुलिस ने बरपाया कि दिमाग को झकझोर कर रख दिया। ऐसी बर्बरता, ऐसी घृणित अवस्था महिलाओं की समाज में ?? जिन्हें उनके केश पकड़- पकड़ कर घसीटा गया । मानो उन्होंने कैसा दण्डनीय अपराध कर डाला हो। समाज में वो लोग शान से घूम रहे हैं जिन्होंने अति घृणित कार्य भी किया है और उन्मुक्त रुप से खुले आसमान के नीचे घूम रहे हैं और अत्याचार के कुकर्मों को अजाम दिये चले जा रहे हैं लेकिन उनके साथ ऐसा कोई व्यवहार नहीं। आखिर क्यों ??  उत्तर प्रदेश का पड़ोसी राज्य बिहार जहां महिलाओं के उत्पीड़न की दांसता बयां से परे, शब्दों से परे है। जहां महिलाओं को पुलिस दौड़ा -दौड़ा कर मारती है। तो कभी बच्चियों को मौत के घाट उतारकर पेड़ से लटका दिया जाता है। तो एक नया ट्रेंड सा जाने निकल आता है और हर मौत का अंजाम पेड़ से लटकाने के उपरांत ही जैसे नदी गंगा से मिलती है उसी तरह मौत का मुहाना पेड़ बन गया। प्रशासन की चुप्पी न जाने इन मसलों पर कब तक बरकरार रहेगा।
महिलाओं पर प्रारम्भ से आज तक चाहे-अनचाहे न जाने क्यों और कैसे । क्या बर्बरता की दासतां महिलाओं पर यूंही चलती रहेगी। रिजर्वेशन से लेकर जीवन पर्यन्त हक की लड़ाई लड़ते ही रहना होगा। कहने के लिए पुरुष समाज यूं तो देवी शब्द का प्रयोग करता है पर क्या उस बिन बोली मूरत पर अनगिनत प्रहार नहीं करता जा रहा है । जब तक कि वह मूरत टूट के बिखर ना जाय। सवाल यहां यह उठता है यह मासूम बच्चे बच्चियां जिनके हंसने खेलने, दुनिया को समझने -देखने का वक्त है उनके साथ ऐसा बर्ताव क्यों समाज के कुछ अवाछनीय लोग उनसे उनका हक छीन रहे है??  जिन्दगी खिली नहीं कि आपने उसे मर्झाने भी नहीं मौत के घाट उतार दिया?? मर्यादा में रहने वाली को हर बार उस रावण का दंश क्यों झेलना पड़ता है। हर बार उसकी कोख अपने ही चचरे भाई कंस के कारण क्यों उजड़ जाती है। हाल ही में एक नाबालिक बच्ची जिसे उसके रिश्ते में लगने वाले मामा ने कलंकित किया तो उसकी अपनी मां और बुआ और उस मामा ने मिलकर उसे नहर में ढकेल दिया। पर, बेचारी बच्ची अमूमन 55 किमी तैरती हुई एक किनारे पहुंची । जहां उसे बचा लिया गया। पर रिश्ते आज अपनी मर्यादा खोते चले जा रहे हैं। न जाने हम कैसा समाज बना रहे हैं जहां हम खुद ही चैन की सांस नहीं ले पा रहे। दम घुटता है ऐसे समाज में जहां दिल यही हुक के साथ कह उछता है- कि ना आना इस देश मेरी लाड़ो.....क्योंकि हैवानियत को भी शर्मसार करने वाले कारनामे यहां अंजाम दिये जाते हैं। पं. बंगाल में एक अति निन्दनीय घटना कुछ महीनों पहले आयी थी जहां रिश्ते में लगने वाले चाचा, ताऊ, भाइयों ने मिलकर उसे पंचायत के कहने पर शर्मसार कर डाला। उसका जुर्म मात्र इतना था कि वह विजातीय व्यक्ति से प्यार और शादी करना चाहती थी। हालांकि पंचायत ने उसपर 25 हजार का जुर्माना लगाया जब उसने अपनी विवशता जाहिर की उस मूल्य को चुकाने में तो उस पंचायत ने ऐसा दण्ड निकाला कि दण्ड भी सोचा होगा कि मैं तो ऐसा नहीं था। मेरा रुप इतना कैसे परिवर्तित हो गया।

समय परिवर्तनशील है। अगर कोई खुद में सुधर लाना चाहता है तो उपाय कई हैं प्लास्टिक सर्जरी, होमियोपैथी, आयुर्वेदा पर किस पर क्या सूट करता है उसका डाक्टरी परामर्श ही उसे सुधर सकता है।
बात प्रदेश की है तो शासनतंत्र और शासनकर्ता ही नब्ज टटोल कर उपचार बता सकते हैं। मुश्तैद शासन प्रक्रिया ही राज्य को सुधारने का काम कर सकती है। जिससे राज्य आज और कल फलीभूत होता रहे।

Wednesday 18 June 2014

पुलिस प्रशासन कितना सच्चा

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हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। एक पहलू जो आपको किसी का आदर्श बना दे और दूसरा पहलू जो किसी के मन को घृणा से भर दे। किसी बच्चे से अगर सवाल किया जाय कि वह क्या बनना चाहता है तो अधिकतर जवाब मिलता है आई ए एस आफिसर या आई पी एस। पर क्या वो सच्चाई से भरा सपना जिसमें गरीबों की मदद, कानून व्यवस्था को बदलने का मिज़ाज होता है पद तक पहुंचते – पहुंचते खोखला हो जाता है। पुलिस प्रशासन का गठन समाज में कानून व्यवस्था को दुरुस्त रखने और सामाजिक सामंजस्यता बरकरार रखने के मकसद से किया गया था। एक समय था जब देश में राजाओं का चलन हुआ करता था। उस समय के कायदे –कानून काफी सख्त होते थे। आज जिस तरह महिलाओं के उपर अत्याचार का बोलबाला बढ़ रहा है उस समय के नियमों के अनुसार दोषी व्यक्ति के हाथ काट दिये जाते थे, आंखें निकाल ली जाती थीं। इन नियमों के द्वारा यह संदेश दिया जाता था कि अपराध करने वालों का अंजाम कैसा होता है। जिससे भविष्य में कोई ऐसा अपराध ना करे। लोग सबक के तौर पर याद रखते थे। समय परिवर्तनशील है और एक ऐसा समय आया जब हमारा प्यारा भारत देश छोटे –छोटे राज्यों में विभक्त था।जहां हर देश का राजा अपनी सत्ता बचाने और झूठी शान के पशोपेश में रहता था। फलस्वरुप छोटे छोटे देशों के राजा आपस में लड़ने लगे। आंतरिक कलह से सुशासन की मजबूत स्थितियां जड़ से उखड़ने लगीं। जिससे बाहरी देशों के राजा परिस्थतियों को भांपते हुए अनेकों बार इस देश पर आक्रमण किये। सत्ता की जड़, जो पत्तों के झड़ने से शुरु हुई थी वो उसकी पहुंच पेड़ की जड़ों तक दीमक की भांति पहुंचकर खोखला करती चली गयी। जिससे देश पर बाहरी शक्तियों का प्रभुत्व जमने लगा और देश एक दिन अंग्रेजों के हाथ चला गया। वो अंग्रेज, जो व्यापार करने आये थे पर 300 वर्षों तक राज़ कर गये। अंग्रेज चले गये पर हूकूमत ए दासतां छोड़ गये। जिसतरह अंग्रेज भारतीयों को बिना किसी जुर्म के यातनाएं देते थे, और बेचारा बिना जुर्म का कैदी कराहता मर जाता था। जिस तरह पानी पर कंकड़- पत्थर मारकर व्यक्ति अपनी दुर्भावना का प्रदर्शन करता है। चोट तो जल को भी लगती है पर वह कहता नहीं, उसी तरह अंग्रेजों के कब्जे में भारतीय भी जुर्म सहता था। आजादी की उसी लड़ाई में खूनी कहनियां सामने आयीं तो कितनी गुमनामी के अंधेरे में दब गयीं। सावरकर, भगत सिंह, खुदीराम और चन्द्रशेखर आजाद जैसे अनगिनत नामो ने जिंदगी का अंत कर देश और देशवासियों को सिर उठाकर जीने का हक दिलवाया।
आज पुलिस तंत्र के कामकाज के रवैये पर सवाल उठना बहुत लाजमी हो गया है। जिस तरह फर्जी एन्काउंटर के नाम पर मासूमों की जान के दुश्मन बन जाते हैं और अपनी अंह की झूठी शान को दर्शाने के लिए कई बार नकली एंनकाउंटर कर डालते हैं। 2009 में जुलाई के महीने में एम बी ए छात्र, गाजियाबाद निवासी जिसकी देहरादून में हल्की कहासुनी के कारण जान से हाथ गवाना पड़ा। दया नायक, प्रदीप शर्मा जैसे नाम किसी से छुपे नहीं है। हालांकि सबूत के तौर पर कुछ न मिलने से अब कोई चार्ज भी नहीं रहा पर, सवाल यहीं उठता है कि क्या समाज के लिए बनायी गयी व्यवस्था के मालिकान और उन पर अमल करने वाले पदासीन अफसर ही गैरजिम्मेदाराना हरकत और विरोधी रवैया अपनायेंगे तो जनता किसके कंधे पर सिर रखकर चैन की सांस ले पायेगी। फर्जी एन्काउटर के एक नहीं अनगिनत फाइलें दबी पड़ी हैं। जिन्हें कुरेदने की ताकत शायद किसीमें नहीं। बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में न जाने कितनी ऐसी घटनायें होती हैं जहां पुलिस पूछताछ के नाम पर व्यक्ति को लेकर जाती है और दूसरे या तीसरे या अगली सुबह ही उसकी लाश जेल के अंदर पायी जाती है। यूं तो दयानायक जी सरकारी अफसर हैं पर मामलों का खुलासा होने से सच्चाई कुछ और ही कह रही थी। सवाल उठे कि क्या सरकारी आड़ में कहीं अफसर किसी और की नौकरी तो नहीं कर रहा ?? सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 555 मामले जुलाई 2013 तक दर्ज हुए। जिसमें सबसे कम संख्या मध्य प्रदेश और सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में दर्ज किये गये। जिसमें मात्र 144 मामलों का समाधान हुआ। वहीं असम,बंगाल, झारखण्ड और जम्मू –कश्मीर में भी फेक एन्काउटर हुए। सामान्यतया राज्य सरकारें ऐसे मामलों को दबाने का भरसक प्रयास करती हैं, और केन्द्र इस पर सुध नहीं लेता। एक केस की बात नहीं कि तो लेख शायद अधूरा लगे पाठकों को। इशरत जहां फेक एन्काउटर केस –जिसने पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया। जसमें एक 19 साल की लड़की की हत्या हो गयी। क्यूं और कैसे समय के पन्नों में राज की तरह ही है। सच्चाई शायद ही खुले कभी। बाटला हाउस एन्काउंटर केस जो दिल्ली में हुए सीरीयल बम बलास्ट के बाद अंजाम दिया गया था। फहरिस्त लम्बी है पर ऐसा करना किस हद तक लाज़मी है, ये सरकार और राज्य सरकारों के लिए चिंतन का विषय है। क्योंकि समाज और देश हित में किये जाने वाली इस प्रक्रिया का दुरुपयोग हो रहा है। कस्टडी में मौत और फर्जी एन्काउंटर में मौत- मसला वहीं अटकता है कि मौत देने वाला वही सरकारी अफसर ही है जो कभी अपने पद की धौंस में तो कभी आलाधिकारियों के दबाव में उस बेबस को मौत की नींद सुला देता है। पर, भारतीय कानून कहीं न कहीं इस बात की चेतावनी जरुर देता है कि ट्रिगर पसंद करने वाले भी अपनी मनमानी हरकतों के लिए पूरी तरह जिम्मेवार हैं और जवाबदार हैं। यूं आसानी से कानून उन्हें वर्दी में लिपटा रहने से बक्क्षेगा नहीं। यह बात अलग है कि कानून के हाथ लम्बे होने के बावजूद बेहस और लाचार जरुर रहते हैं।

आज इशरत का परिवार, रणवीर का परिवार किस बात की सज़ा भुगत रहा है। सुप्रीम कोर्ट भी मानता है कि यह मात्र नृशंस हत्या ही नहीं बल्कि एक क्रूर अपराध भी है क्योंकि पुलिस अधिकारी की ड्यूटी होती है लोगों की रक्षा करना ना कि अपने उत्तरदायित्तव के विरुद्ध कार्य करना। ट्रिगर दबाने के शौकीन पुलिसवाले क्या आज अपने कर्तव्य से इतने विमुख हो चुके हैं कि कर्तव्यपरायणता शेष मात्र रह गयी है। शपथ कागजी और बेबसी में पढ़ा जानेवाला ढोंग है   
 

 

  मिस्टिरियस मुम्बई  में-  सुशांत का अशांत रहस्य सर्वमंगला मिश्रा मुम्बई महानगरी मायानगरी, जहां चीजें हवा की परत की तरह बदलती हैं। सुशां...