dynamicviews

Saturday 5 December 2015


विज्ञापन राजनीति का


सर्वमंगला मिश्रा
9717827056

भारत विश्व का दूसरा बड़ा लोकतांत्रिक देश है। जहां निष्पक्ष चुनाव को तवज्जो दी जाती है। जहां जनता का निर्णय सर्वमान्य होता है। हर पांच साल में चुनावी प्रक्रिया पूर्ण की जाती है। लोकसभा, विधानसभा, नगरपालिका, पंचायत ऐसे तमाम चुनाव होते हैं जो हर एक-दो साल के अंतराल पर आते रहते हैं। यह प्रक्रिया जन जागरण हेतु उचित है। यदि एक सरकार चाहे विधानसभा की हो या पंचायत या नगरनिगम के रुप में जनता के पास सुनहरा अवसर होता है कि वो परिवर्तन कर सकती है। जिससे सरकार भी सजग रहती है कि अगले चुनाव में जनता को फेस करना होगा तो काम करते रहना होगा। कहते हैं कि हर नियम का काट भी होता है और सुनहरा अवसर फांसी के फंदे की तरह भी। हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। एक ओर जहां चुनावों का आना जाना लगा रहता है वहीं जनता के पैसों का उपयोग या दुरुपयोग इन्हीं चुनावों को जीतने में पार्टी करती है। अतिरिक्त भार जनता पर ही पड़ता है। इसके अलावा पार्टी का फोकस काम करने में कम और चुनाव जीतने में ज्यादा रहता है। जिससे अधिक से अधिक रैलियां, बैनर, पोस्टर्स, टीवी, न्यूज पेपर विज्ञापन, रेडियो विज्ञापन। इसके अलावा तमाम सोशल मीडिया पर विज्ञापन के लिए पार्टी बेतहासा रुपये खर्च करती है।
सवाल यहीं हैं कि सरकार को क्या अपने काम से ज्यादा टीवी,रेडियो विज्ञापन पर ज्यादा भरोसा होता है। या जनता की नस लोगों ने पकड़ ली है। देश में जितना बड़ा चुनाव उतनी भारी मात्रा में एडवर्टिजमेंटस देखने को मिलते हैं। चाहे वो पी वी नरसिम्हा राव का वक्त हो, अटल बिहारी बाजपायी, मनमोहन सिंह, मोदी, केरीवाल या हुड्डा सरकार, अखिलेश सरकार या टीएमसी की सरकार। हर पार्टी करोड़ों रुपये खर्च कर देती है विज्ञापनों पर। आजकल हर रेडियो पर टीवी पर अखिलेश सरकार के क्रिया कलाप को विज्ञापन के जरिये जनता तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं। फ्लाईओवर बनाने से लेकर आधुनिक सुख सुविधा से पुलिस को लैश करने तक की बात मात्र एडवर्टिजमेंटस में ही दिखता है। अभी से सरकार ने चुनाव की तैयारी करनी शुरु कर दी है। ताकि परीक्षा में फेल न हो। पर क्या ये परीक्षार्थी सच्चे विद्दार्थी हैं। कया ये जनता की सेवा के सही मायने में कर रहे हैं। पांच साल पूरा होते होते सरकार को बस इतना जरुर या आ जाता है कि –अरे! इलेक्शन आ गया। यानी फिर से जुगत लगानी है जीतने के लिए। फिर वही खोखले वायदों की लिस्ट बनानी है जनता को लुभाने के लिए। फिर वही बैनर्स, पोस्टर्स, रैलियां, हवाई यात्राये, रोड शो, घर-घर घूमना, बालीउड सेलेब्रिटीज को लाकर कैम्पेन करवाना। मीडिया में अपने तमाम अच्छे काम गिनाना। गुणवत्ता की दुहाई देना।
ठीक है रेडियो, टीवी या अन्य सोशल मीडिया जनता तक पहुंचने का माध्यम हो सकते हैं। पर अल्टीमेट टार्गेट नहीं। जितने रुपये सरकारें इन विज्ञापनों पर खर्च करती हैं उसका एक चौथाई भी सही तरीके से काम करती तो जनता अंधी नहीं है। बिना तामझाम को जनता बगुलों में हंस ढूंढ़ लेती। उसे पता होता है कि उसके इलाके में दस साल से टूटा पुल किस मंत्री या पार्टी ने बनवाया है। हां मायावती जी ने अपनी ही प्रतिमाओं का इतना अनावरण जरुर किया कि जनता समझ न सकी कि बहनजी ने हमारे लिए क्या किया तो उन्हें बताना जरुरी था कि वो बतायें कि अम्बेडकर पार्क बनाने के अलावा उन्होंनें और क्या किया अपने कार्यकाल में।
हरियाणा इलेक्शन में मोदी के चार कदम तो हुड्डा जी की विरदावली रेडियो के हर स्टेशन पर छायी रही। अब चुनावों के बाद कहां है विज्ञापन इसका मतलब चुनाव खत्म के बाद क्या पार्टी को अपना काम बताने की जरुरत नहीं होती जनता को। विज्ञापनो ऐसे दिखाये जाते हैं जैसे जनता त्रस्त नहीं सम्पन्न हो गयी उस सरकार से। इसी सरकार ने उसके जीवन की राह बदल डाली। बच्चे स्कूल जाने लगे, गरीब को रोजगार मिल गया, घर में खुशहाली ही खुशहाली छा गयी। अगर विज्ञापन इतने ही सच हैं तो जनता क्यों मर रही है?  फिर मीडिया इतनी खबरें कहां से दिखाता है। सूखे से परेशान किसान, तो बाढ़ से बेहाल जिन्दगियां। पुलिस तंत्र इतना ही सजग और मुस्तैद है तो क्रइम रेट कम क्यूं नहीं हो रहा। क्या कारण है पार्टी को फंड का एक बड़ा हिस्सा विज्ञापन पर खर्च करने की। क्या इसके बिना पार्टी चुनाव जीतने में असमर्थ हैं। पार्टी के पास लोगों के घर जाकर बताने के लिए कुछ नहीं होता। इसलिए स्वयं को बड़ा बनाने के लिए इन विज्ञापनों का सहारा लेना पड़ता है। जिससे जनता इनके मोहिनी जादू के वशीभूत हो जाये। जब नेतागण वोट मांगने पहुंचे तो गणमान्य की छवि जनता के मस्तिष्क में उभरे और स्वयं को छोटा और नेताजी के चरणकमल उसके घर की दहलीज़ पर पड़ गये, इससे खुद को गदगद महसूस करे।
विज्ञापन करना एक कला है जो कम समय में सहज तरीके से अपनी बात जनता तक पहुंचायी जा सकती है। जिसतरह केजरीवाल सरकार अपने नये नये ऐप्स को विज्ञापन के जरिये घर घर पहुंचा रही है। महिला सुरक्षा ऐप हो, किसी योजना को शुरु करने की पहल हो अथवा अवैध निर्माण की जानकारी पर कार्रवाही की बात हो। पर अपनी सरकार पर गाने बनवाना और अपनी विरदावली स्वयं गाना और गवाना कितना न्यायोचित है। जब जब चुनाव आता है अपने संग करोड़ों का व्यर्थ व्यय करवाता है। जनता प्रलोभन और झूठे वायदों के जाल में चाहे अनचाहे फंस ही जाती है। विकल्प की तलाश बनी रह जाती है। 

No comments:

Post a Comment

  मिस्टिरियस मुम्बई  में-  सुशांत का अशांत रहस्य सर्वमंगला मिश्रा मुम्बई महानगरी मायानगरी, जहां चीजें हवा की परत की तरह बदलती हैं। सुशां...