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Saturday 19 July 2014

                 इंसानियत और राजनीति

सर्वमंगला मिश्रा
9717827056

धर्म में आस्था रखने वाला इंसान अपने दिन का शुभारम्भ उस सर्वशक्तिमान के नाम के साथ करता है। सुबह उठते ही हिन्दू पूजा करता है तो मुस्लिम नमाज़ अदा करता है, सिक्ख वाहेगुरु के सामने मत्था टेकना शुभ मानता है तो क्रिश्चियन चर्च जाकर जीसस के सामने प्रेयर करता है।पर, धर्म जब इंसानियत को पीछे छोड़ कट्टरता की ओर उन्मुख हो तब यह समझ लेना चाहिएकि खुद को सुधारने का वक्त आ गया है। कबीरदासजी जो हिन्दू और मुस्लिम दोनों माने जाते थे । साथ ही उनकी रचनायें प्रारम्भ से दोनों वर्गों तथा बाकी जातियों पर भी कुठाराघात करने से नहीं चूकते थे।
पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार,
ताते वह चक्की भली , जाको पीस खाय संसार।
कांकर पाथर जोड़ के मस्जिद लयी चुनाय
ता चढि मुल्ला बांग दे, बहिरा हुआ खुदा।
 
अयोध्या-बाबरी मस्जिद, गोधरा, मुज़फ्फरनगर और अब मुरादाबाद। धर्म के नाम पर आस्था की आड़ में जातिवाद का खेल आज तख्तो ताज के लिए खेलना राजनीति का हिस्सा बन चुका है। बहरा खुदा नहीं मानव की चेतना हो गयी है। इंसानियत बहरी हो गयी है, शायद पंगु भी। अयोध्या की कहानी इतिहास के पन्नों में ब्लैक बैकग्राउण्ड पर बलैक लेटर से लिखा जा चुका है। कितने धर्म में आस्था रखने वाले अभिभावकों को यह कहते सुना गया था कि मेरा बेटा राम की भक्ति के लिए बलिदान हुआ है। उसका जीवन धन्य हो गया। राम नाम के लिए मेरे बेटे ने अपना जीवन समर्पित किया है। ऐसे ही न जाने कितने माता पिता, बहन और परिवार वालों ने अपने सगों के लिए ऐसी मर्यादित भाषा का प्रयोग किया था। उस समय इतने न्यूज चैनल नहीं हुआ करते थे। दूरदर्शन, बीबीसी प्रमुख थे। अयोध्या काण्ड की टेपें लोगों ने उन दिनों चोरी छुपे देखी थी। कोई भी टेप को अपने घर नहीं रखना चाहता था कारण जिस व्यक्ति के घर से ऐसी कोई सामग्री बरामद होगी तो पुलिसिया कार्रवाही होगी। मुझे याद है हमने दो बार दो घरों में देखा था। आज, खुले आम टी वी चैनलों पर खुले आम कवरिंग होती है और भावना जनमानस में हिलोरे पल पल में लेने लगता है। कभी ज्वार कभी भाटा की तरह कभी सरकार के विरुद्ध बिगुल बजने लगता है तो कभी जनमानस के क्रियाकलाप पर सवालिया निशान चिन्हित होता दिखता है। आज इस बात को उठाने का मकसद यह है कि धर्म की आड़ में राजनीति कब बंद होगी?? कभी वृंदा करात यह कहने से नहीं चूकीं कि बाबा रामदेव की दवाइयों में हड्डी मिली हुई है तो कभी बीजेपी कार सेवकों का नारा था- कसम राम की खाते हैं, मंदिर यहीं बनायेंगे। साढे 23 साल बीत गये राम का मंदिर और मस्जिद में आजतक कलह का आसमान छाया हुआ है। जिस तरह भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर सालों से सांप छुछुदंर का खेल चलता आ रहा है। करोड़ों हिन्दुओं की आस्था माता वैष्णों धाम में टिकी है पर अगर केंद्र सरकार और राज्य सरकार में सहमति का बीज़ नहीं पनपा तो धारा 370 के साथ वीजा का नियम न लागू हो जाय माता वैष्णों के दर्शन के लिए। आशंकाओं से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। जीवन अनिश्चितताओं से भरा है। ख्वाजा की दरगाह मुक्त हस्त से दर्शनार्थियों का स्वागत करता है जहां पाक के नामचीन हस्तियां भी आयीं दरगाह पर मत्था टेकने..चादर चढाने। पर, मुरादाबाद में लाउडस्पीकर लगाने और न लगाने के मामले ने ऐसा तूल पकड़ा कि महापंचायत बुलानी पड़ी। महापंचायत में पथराव और दंगे के चलते डी एम को अपनी बांयीं आंख की रौशनी से हाथ धोना पड़ गया। क्या सहिष्णुता ने इस संसार से सन्यास ले लिया है? धीरज अपनी कर्मनिष्ठा से मुंह मोड़ चुका है? शांति सीताजी की तरह भूगर्भ में जा चुकी है? प्रेरणा स्त्रोत जीवन और व्यक्तियों का अकाल पड़ चुका है? असहजता, अशांति और  अराजकता ही राज्य करेंगे?
दंगा चाहे गोधरा का हो या मुजफ्फरनगर का इससे राजनीतिज्ञों के अलावा किसी का भला नहीं हुआ। आज भी मुज़फ्फरनगर के दंगा पीड़ित किस दहशत के साये और खुले आसमान के नीचे, बदतर हालात में जीने को मजबूर हैं। यह बयां नहीं किया जा सकता। बेसहारा हुए वो परिवार आज दहशत की लाश बनकर जी रहे हैं। राज्य सरकार घोषणा जरुर करती रहती है कि हमने फलां फलां चीज़ें उपलब्ध करायीं पर, धर्म की आड़ में फैलायी गयी आग में झुलसे उन परिवारों से कोई तो उनकी दासतां, दरदे हाल कैमरा बंद करके पूछो। सभी तो इंसा है खून तो लाल ही है फिर मज़हब को खून का रंग देने पर क्यों तूले हैं। इसका तात्पर्य क्या अब जनमानस को यह समझना चाहिए कि पंचायतें और महापंचायत अस्तित्वविहीन हो चुकी हैं। महापंचायत मात्र नाम के लिए या दबंगों की राजनीति का हिस्सा या उनके हाथों की कठपुतली मात्र रह गयी हैं। तो बापू ने जो सपना देखा था पंचायतों के निर्माण और कानून व्यवस्था बनाये रखने का उत्तम माध्यम हो बेबुनियाद था या अब बन गया है। जिस पंचायत और महापंचायत पर गांव और गांवों के समूह का दायित्व रहता है वो कंधे अब चोटिल हो चुके हैं या बूढे और आदर्शविहीन ? जिससे पंचायत का मुख मलीन पर दिन मलीन होता चला जा रहा है।
धर्म की आड़ में राजनीति की लड़ाई ने इंसानियत को बेजुबां कर दिया है। कोलकाता के टीमसी के एक नेता ने यह कहकर कि यदि किसी सीपीएम के कार्यकर्ता ने उनके कार्यकर्ता या उनके परिवार वालों पर जरा सी भी आंच आयी तो वो दहशत का ऐसा पाठ अपने लोगों के जरिये सीखा देंगें। शब्द लिखे तो नहीं जा सकते परन्तु अमर्यादित अतिसंकीर्ण और विचित्र मानसिकता राजनीति में कदम रख चुकी है। ऐसी मानसिकता को जल्द काबू में नहीं किया गया या इन बदजुबानों को कड़ा सबक नहीं सिखाया गया या ऐसा कोई कानून लागू न किया गया कि फ्रीडम आफ स्पीच एंड इक्स्प्रेशन का गल्त इस्तेमाल न हो इसके लिए समाज को खुद सुधरना होगा और सरकारों को कड़े नियम इख्तियार करने होंगें। आजकल टी वी पर संसद का सत्र हो, या विधानसभा का लगता है जैसे यह देश की वरिष्ठ गवर्निंग बाडी नहीं बल्कि गांव के नुक्कड़ पर आये कुछ अति समझदार नौटंकी वालों की टोली हो जिसे सिर्फ तमाशा दिखाना है और चर्चा का हिस्सा बनना है।जिसे नाटक के ओर अंत से कोई वास्ता नहीं। जिसकी समझ कुएं के मेंढ़क की तरह सीमित हो। कुछ नौटंकी वालों की फहरिस्त बढ़ती जा रही है और इसमें वो अच्छे फूल मुर्झा रहे हैं। सांसद अब प्रश्न पूछते हैं तो लगता है मकसदमात्र सदन में बोलना है। मीडिया अट्रैक्शन लेना आजकल नेताओं का पहला मकसद हो गया है।
इंसानियत को जिंदा रखना हम इंसानों का ही परम एवं सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य होना चाहिए। ताकि आने वाली पीढियां गर्व के साथ खुद को भारतीय परंपरा का हिस्सा कहने से संकोच न करें.
  

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