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Thursday 28 July 2016

कांग्रेस का यू पी टेंट

सर्वमंगला मिश्रा

देश में चुनाव हो या सरकार चलाने का चलन, दोनों ही सूरत में देश की सबसे पुरानी पार्टी का नाम जुबान पर आ ही जाता है। आजकल उत्तर प्रदेश में रोज नयी हलचल सी मची रहती है। जैसे उत्तर प्रदेश का ब्याह होने वाला है। रोज नये कार्यक्रम, रोज नये मेहमानों का आगमन लगा हुआ है। कभी मुखिया के तौर पर राजबब्बर तो कभी घर की बजुर्ग के तौर पर दिल्ली की महिला शान शीला दीक्षित, जिनका लंबे अंतराल के बाद, उत्तर प्रदेश में पदार्पण हो चुका है। कभी खुशी कभी गम के दौर से गुजर रही कांग्रेस पार्टी ने अब शीला आंटी की शरण ले ली है। उन्हें उम्मीद है कि बुरे वक्त में अनुभव की पतवार ही नैया को पार लगाने में काम आती है। हालांकि शीला दीक्षित अपने बूढ़े कंधों पर 403 सीटों वाली उत्तर प्रदेश विधानसभा का बोझ संभाल पाने में कितनी सक्षम है इस पर उन्हें भी शक जरुर होगा। लेकिन, अनुभव और किसी की आस को टूटने न देना बुजुर्गियत की निशानी है। खामोश चेहरों के पीछे कितनी चालें अभी चली जायेंगी कहना मुश्किल है। वक्त के साथ कितने पैंतरे बदले जायेंगें यह देखना निश्चित तौर पर हम सबके अनुभव की किताब में कुछ अध्याय जुड़ने जैसा होगा।
कांग्रेस पार्टी एक सागर की तरह है। जहां अंदर पैठो तो मोती ही मोती मिलेंगें। भले ही कुछ पुराने तो कुछ घिसे पिटे। इस समय सबको नयी मशीन के जरिये माडिफाई किया जा रहा है। सबको चुस्त दुरुस्त बनाया जा रहा है। चुनावी बिगुल हर पार्टी अपना अपना फूंक चुकी है। तो तैयारियां उसी हिसाब से चल रही हैं। स्तब्ध जनता सिवाय खेल देखने के कुछ कर नहीं पाती। जनता जैसे जैसे खेल देखती जाती है वैसे वैसे उसका भावनात्मक परिवर्तन भी होता रहता है। परिस्थितात्मक परिवर्तन पार्टियों में होना कोई नई बात नहीं होती है। लेकिन नेतृत्व के संगठनात्मक गठन में बार बार परिवर्तन का होना आंतरिक हलचल की अनुभूति कराता है। राहुल गांधी की नाकामी छुपाने के लिए, लक्ष्य हासिल करने के लिए, कांग्रेस की कमान संभाले प्रशांत किशोर ने नये नये दांव पेंच  के खेल में जनता को कहीं न कहीं भ्रमित करने का काम किया है। कांग्रेस के कर्मीयों से लेकर आम जनता तक प्रियंका की पक्षधर रही है। 1997 से लेकर आजतक प्रियंका गांधी ने सिर्फ चुनावी कैंपेन में ही बढ़ चढ़कर सदैव हिस्सा लिया। उनकी पर्सनालिटि ने अच्छे अच्छों के जहां छक्के छुड़ा दिये वहीं उनका ओजस्वी भाषण कहीं न कहीं दिल को छू सा जाता है। जिस तरह राजीव गांधी ने अपने बर्ताव से लोगों के दिलों में एक अलग स्थान बनाया था। ठीक उसी तरह इंदिरा गांधी की पोती प्रियंका ने पार्टी से लेकर जनता के दिलो दिमाग में अपनी एक छवि जरुरी उकेर ली है।


उत्तर प्रदेश, जहां लखनऊ ,नवाबों के शहर से लेकर सुहागा की पहाड़ियां बसती हैं। जहां रईसी है तो अभाव का भयानक चेहरा भी। जहां यादवों की भरमार है तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और माइनारिटी वोटों का बाहुल्य भी। ऐसे में पार्टी शीला दीक्षित के ब्राह्मण होने का फायदा उठाना चाहती है। साथ ही बची खुची राजनीति पर भी कोई सेंध न लगाये इसके लिए कांग्रेस पार्टी ने मुश्तैदी दिखायी है। राहुल गांधी 45 सावन के बाद अब ब्राह्मण परिवार से गठजोड़ कर पुराने जमाने की तरह राजनीतिक शादी की चाल में जनता को मानसिक रुप से फांसना चाहते हैं। इससे पूरा ब्राह्मण समाज क्या राहुल गांधी के प्रति समर्पित हो जायेगा? कहां जायेगा यादव वोट बैंक ?  कहां जायेगा ओबीसी वोट बैंक ? जिसके लिए हर पार्टी की लार टपकती है। अगर ब्राह्मण समाज कांग्रेस के पक्ष में वोट करता है तो क्या मुस्लिम समाज उसी शिद्दत से सामने आ सकेगा। कांग्रेस के कर्णधारों को यह समझना होगा कि पार्टी की मंशा जनता तक न पहुंचे। जनता जो समझ रही है वो है नहीं और जो समझ ही नहीं पा रही वो है। यादवों और ब्राह्मणों की जमीन पर कांग्रेस का यह चुनावी टेंट सपा और बसपा के गरजने बरसने के बावजूद टिका रह पायेगा या हवा के झोंके के साथ शामियाना उड़ जायेगा।
ऋगवेद की तरह सबसे पुरानी पार्टी भले ही है पर सामवेद और अथर्ववेद अगर किसी की पसंद है तो कोई क्या कर सकता है। सम्मान कर देगा पर स्थान नहीं। कांग्रेस की रणनीति में क्या घोड़ा ढाई टांग ही चलेगा। यह प्रशांत किशोर जी ही तय कर सकते हैं। अभी तो सोनिया और प्रियंका उन्हें उनके अनुभव के आधार पर आंक रही हैं। इसी आधार पर ही उन्हें अपने खेमे में लाया गया है। उनकी रणनीति ने बिहार में नीतीश कुमार और केंद्र में मोदी को ताज दिलवाया है। सोनिया गांधी को अपने राजकुमार के लिए ताज चाहिए, जिसकी कीमत कुछ भी हो। सिपाहसलार किशोर जी अपनी तरकश से तीर पर तीर निकाले जा रहे हैं। क्योंकि उन्हें अपने गांडीव पर भरोसा है। पर, समस्या है कि राहुल नकुल सहदेव की तरह हैं युधिष्ठिर, भीम या अर्जुन की तरह नहीं।
कांग्रेस जिस तरह पहले हर बात हर मुद्दे को राहुल के अनुरुप खेलती थी जिससे उनका राजनीतिक दबदबा कायम हो। पर ऐसा हुआ नहीं। हर दांव उल्टा पड़ा। कांग्रेस यूं तो राहुल को ही हर बड़े पोस्ट के लिए प्रोजेक्ट करती रही है। पर, कुछ दहशत की गली से बाहर झांकने का प्रयास तो किये जिससे नजरबंद लोगों की एक झलक जनता को दिखायी तो दी पर कैदी तो कैदी ही होता है और पहरेदार पहरेदार ।

उत्तर प्रदेश का चुनाव तो मात्र ट्रायल मैच है। इसमें जितने भी एक्सपेरिमेंट करने हैं उतने प्रशांत किशोर जी को करने की छूट होगी। लेकिन फाइनल मैच तो 2019 का होगा जिसमें शायद माफी की बटन ही नहीं बनायी गयी हो। इसमें जनता का मूड आने वाले लोकसभा के लिए भांपना और उसे मोल्ड करना है । कांग्रेस के हाथ से उसका सबसे पुराना किला असम निकल चुका है। बाकी पूर्वोत्तर राज्यों को हड़पने की पूरी तैयारी कर रही है भाजपा । ऐसे में परिस्थितियां कठिन हैं। पूरे देश में कांग्रेस की लहर को एक बार फिर उठाना किशोर जी की अहम जिम्मेदारी दिख रही है। राजबब्बर जी जिन्हें उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी गयी है। उनका व्यक्तित्व पार्टी पर कौन सा रंग उड़ेलेगा यह तो देखना पड़ेगा।  आज तक कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सपा -बसपा जैसा अपना दबदबा नहीं बना पायी।  बल्कि उत्तर प्रदेश में भाजपा और बसपा की जोड़ी ने कई अबूझ इतिहास रच डाले । पर, कांग्रेस यहां तीसरे -चौथे पायदान पर रहती है। देश का सबसे बड़ा राज्य पर हूकूमत की मंशा इसबार रेस में किस पायदान तक पहुंचाती है यह दिलचस्प होगा। शीला दीक्षित के दोनों हाथों में लड्डू जरुर रहेगा। कांग्रेस का बेहतर प्रदर्शन उन्हें मुख्यमंत्री का पद देगा और संदीप दीक्षित का भाग्य भी भविष्य के लिए संवर जायेगा। कुछ न हुआ तो टेंट उखाड़ कर कहीं और जाने में देर कितनी लगती है।

बहुजन में अब कितने जन
-सर्वमंगला मिश्रा




1984 में कांशीराम द्वारा स्थापित बहुजन समाज पार्टी उस वर्ग का वकील बनकर सामने आयी जिनका कोई सहारा न था। पिछड़ा, दलित वर्ग जिन्हें समाज ने नकार दिया था, अछूत की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया था। हमारा देश जाति भेदभाव से पूर्णरुप से शायद कभी उपर नहीं उठ पाया। आजादी के पहले भी जब हिन्दू शासक हुआ करते थे तब भी छुआछूत, जाति-पांति आदि समस्याओं से एक वर्ग जूझता था। उसे जीवन की उन कठिनाइयों से गुजरना पड़ता था जिनका वह हकदार नहीं था। इन्हीं कारणों से समाज कुरुप एवं कुपोषित हो गया। फलस्वरुप समाज में असंतोष व्याप्त हो गया और आंतरिक रुप से बंट गया। जिसके उपरांत मुस्लिम शासन और फिर अंग्रेजी सत्ता का आगमन हो गया भारत में। विदेशी हूकूमत की ताकत ने पूरे देश और समाज को ऐसा झकझोरा कि जांति पांति, छुआछूत सब भेदभाव मिट गया और एकजुटता और दृढ़ता का संकल्प समाज में कट्टरपंथी के रुप में जागा। देश आजाद हुआ। फिर देश का विभाजन हुआ । सत्ता और पदलोलुपता ने देश में कहीं न कहीं अलगाववाद को जन्म दिया। इसी अलगाववाद की धारा को पकड़कर बसपा के संस्थापक कांशीराम ने एक नयी क्रांति लाने का बेड़ा उठाया। जिसमें दबे कुचले, बेसहारा, पिछड़ी जाति के लोगों की आवाज बुलंद करने का जिम्मा, इस पार्टी का उद्देश्य बना। हालांकि, 1925 में सी पी आई पार्टी का गठन सभी समुदाय के लोगों को समान दर्जा देने के उद्देश्य से किया गया था । ताकि समाज में एकसमानता का भाव पनप सके । लेकिन समाज की मानसिकता, ऊंच नीच की खाई, बड़े -छोटे की खाई कभी पट नहीं पायी ।

जगजीवन राम जी भी पिछड़े वर्ग से आते थे। पर पूरा देश जानता है कि कितने गणमान्य पदों पर उनका नाम अंकित है। उनकी सुपुत्री मीरा कुमार भी लोकसभा की स्पीकर के पद तक पहुंच चुकी हैं। सीताराम केसरी जिन्होंने कांग्रेस के सर्वोत्तम पद  - कांग्रेस अध्यक्ष- तक पहुंचकर वो तमगा हासिल किया जो बहुत कम लोग कर पाते हैं। केसरी जी कांग्रेस पार्टी में पहले जश्न होने पर ढोल बजाते थे। वहां से वहां तक का सफर बेशक आसान नहीं था पर सफर मुकम्मल रहा । परन्तु, इस समय कोई आरक्षण नामकी चीज नहीं थी समाज में ।

"यूं तो फहरिस्त काफी लम्बी है दासतां ए जंग की। पर जीवन का सबब अंतहीन है कहीं।  "

आज देश में दलितों और  पिछड़ों के नाम पर आरक्षण घोषित है। सरकारी नौकरी से लेकर रेलवे की टिकट बुकिंग तक। शिक्षा से लेकर जीवन यापन तक। पर सवाल यहीं उठता है कि क्या दलितों और पिछड़ों को अपना बतानेवाली पार्टियां समानता लाने में सक्षम हुईं । क्या आज भेदभाव खत्म हो गया। क्या आज ग्रामीण इलाकों में कुम्हार, नाई, धोबी आदि बिरादरी से संबंध रखने वाले लोग पिछड़ेपन की भावना से मुक्त हो चुके हैं। क्या आज ब्राह्मण, क्षत्रिय जैसी उच्च जातियां उन्हें समान दृष्टि से देखने लगी हैं। जातिगत भेदभाव मानसिक रुप से आज भी कहीं न कहीं कायम है। हां, पार्टियों के खुलकर सामने आने से कुछ कागजी रुप से खाई पटी है।
गरीबों और दलितों  की देवी बहन मायावती और तीन बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकीं बहनजी की लड़ाई सदा सर्वदा से सपा पार्टी से ही रही है। लेकिन इस पार्टी ने चुनावी भोज का आनन्द लेने के लिए जिनके खिलाफ हथियार उठाये थे उन्हें ही उच्च पदों पर आसीन कर दिया और अपनी पार्टी के चेहरे का स्वरुप ही बदल डाला। इससे सिर्फ दलितों का वोट न मिलकर ब्राह्मणों का वोट भी बहनजी ने जुगत से हासिल कर लिया। पर, कहते हैं ना -साधु सब दिन होत न एक समाना। समय का स्वरुप क्या होगा यह सिर्फ समय ही तय कर सकता है और कोई नहीं। इस पार्टी ने एक वर्ग समुदाय को एक पहचान दी। एक अलग विकास की बात की। एक नारा लगाया। एक आजादी का सपना दिखाया कि यह पिछड़ा, अतिपिछड़ा वर्ग अब पीछे नहीं रहेगा सबके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलेगा। अपना स्वाभिमान किसी की मिल्कियत के पैमाने पर, सूली पर नहीं चढ़ाएगा। आज उत्तर प्रदेश की जनता की हालत देखिए। क्या परिवर्तन आया उन दलितों के जीवन में। जिनके नाम पर मायावती ने तीन बार मुख्यमंत्री पद की कुर्सी संभाली। क्या आज भी यह वर्ग शोषण का शिकार नहीं होता। बेरोजगारी और भूखमरी से मौत नहीं हो रही या बहनजी के राज में नहीं हुआ।  



आज बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय- के स्थान पर कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी बहुजन दुखाय। पार्टी से निकलने से लेकर बहन मायावती जी पर लोग लांछन लगाने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। कभी स्वामी प्रसाद मौर्य उन पर टिकट बेचने का आरोप लगाते हैं तो कभी बीजेपी के नेता उनपर अभद्र टिप्पणी करते हैं। 2014 के लोकभा चुनाव के दौरान सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने इतने अपशब्दों का प्रयोग किया था बहन मायवती के प्रति और अखिलेश यादव उनके सुपुत्र और मुख्यमंत्री उत्तरप्रदेश ने बुआ कहकर संबोधित किया था। कहने का पर्याय यह है कि आज बहुजन समाज पार्टी की अस्मिता कहां खोती चली जा रही है। पिछले चुनाव में इस पार्टी ने बुरी तरह हार का सामना किया था । 2014 लोकसभा चुनाव बसपा के लिए साख में बट्टा लगाने जैसा रहा।
आखिर बसपा पार्टी जो क्षेत्रिय तौर पर अपना दबदबा रखती थी आज विकटतम परिस्थितियों से जूझ रही है । क्या इसकी वजह मायावती का पार्टी के अंदर हिटलरशाहीपना जिम्मेदार है। कांशी राम जी के जीवित रहने तक पार्टी औंधे मुंह गिरना शुरु कर चुकी थी। पर आज लगता है जैसे बसपा नाम की बूंद अब सीप में, सर्प के फन में या समुद्र में कहां गिरेगा किसीको पता नहीं। पार्टी को एकजुट रखने के लिए मायावती जी को अंदरुनी रणनीति पर विचार करना आवश्यक हो गया है। क्योंकि इसी तरह प्यादे गिरते रहे तो चुनावी रण में सेंध लगाना बहुत आसान हो जायेगा जिससे पार्टी के अस्तित्व पर संकट घिर जायेगा। जो रत्न बचे हैं उन्हें संभालकर मायावती रख लें तो सत्ता भले हाथ न आये पर, अस्तित्व कायम रहेगा । वरना बहुजन में कुछ ही जन रह जायेंगे जो पार्टी के लिए अतिचिंतनीय विषय होगा।

Wednesday 27 July 2016

महिलाओं में कुपोषण क्यों...?




 सर्वमंगला मिश्रा

कहा जाता है- स्वस्थ शरीर में स्वस्थ दिमाग का वास होता है। स्वस्थ शरीर के लिए आवश्यक होता है पोषक आहार- यानी सम्पूर्ण विटामिन युक्त भोजन । भोजन हम सभी करते हैं। भोजन के अभाव में इंसान को कई बीमारियां घेर लेती हैं। रोगों का जमावड़ा शरीर में हो जाता है पर असर तन, मन और धन सबपर पड़ता है। यूं तो जीवन को भोजन के बिना संभव नहीं पर, इसका ज्यादातर शिकार बच्चे और महिलाएं होते हैं। बच्चों की देखभाल तो उनके मां बाप फिर भी कर लेते हैं। लेकिन, उन महिलाओं की यह बीमारी दूर नहीं हो पाती  जिनके ऊपर पूरे घर को संभालने का भार उन पर होता है। इसी कारण महिलायें सबकी पसंद नापसंद का ख्याल रखते रखते अपने स्वास्थ्य पर ध्यान ही नहीं दे पातीं या खुद को इग्नोर करना उनकी आदत और मजबूरी बन जाती है। ऐसे में कुपोषण महिलाओं में बढ़ता जाता है। जिससे उनका स्वास्थ्य खराब होने लगता है और वक्त से पहले झुर्रियां, बुढ़ापा , मानसिक कमजोरी, थकान  जैसी बीमारियां आम होने लगती हैं।
आज भले ही महिलाओं की जीवन शैली पुरुषों से थोड़ी मिलती जुलती हो गयी है । पर एकसमय था जब महिलाओं का जीवन 75- से 80 प्रतिशत रसोईघर में ही व्यतीत होता था। पहले महिलाएं आज की तरह घर के बाहर काम करने नहीं जाती थीं। आज घर के बाहर उनका भी उतना समय ही व्यतीत होता है जितना पुरुषों का। कई कामकाजी महिलाएं आज भी दोनों दायित्व निभाने में अपनी मार्डन जीवन शैली का परिचय देने में समझदारी मानती हैं। साथ ही आजकल जीरो फिगर से लेकर फिट दिखने की प्रक्रिया में महिलाएं खाने में इतनी कमी कर देती हैं कि आर्थिक रुप से मजबूत होने के बावजूद वो कुपोषण का शिकार हो जाती हैं। वहीं आर्थिक तंगी से जूझने के कारण भी अधिकतर महिलाएं इसका शिकार हो जाती हैं। ऐसा भी देखा जाता है कि जब परिवार किसी वजह से आर्थिक तंगी या किसी मानसिक उलझन से गुजरता है तो ऐसे वक्त में महिलाएं भोजन का ही सर्वप्रथम त्याग कर देती हैं। ताकि बुरा वक्त बीत जाय। साथ ही घर के बाकी लोगों को भूखा न रहना पड़े। पर भूखे पेट रहने से स्नायु तंत्र प्रभावित होता है । दिमाग के साथ साथ शरीर की अन्य ग्रंथियों पर भी इसका असर पड़ता है। जब यही प्रक्रिया जीवन में लगातार चलने लगती है तो, उसका असर व्यापक होने लगता है। मानसिक उलझन बढने लगती है। याददास्त पर असर पड़ने लगता है। शरीर में थकान,कमजोरी जैसी चीजें असर करने लगती हैं। हड्डियां कमजोर होने लगती हैं। ग्लैंड्स कमजोर होने लगते हैं। जिसके फलस्वरुप तरह तरह की बीमारियां वक्त से पहले घर कर लेती हैं। महिलाए जाने अंजाने में घुटनों का दर्द, नर्वस सिस्टम में वीकनेस जैसी तमाम बीमारियों को आमंत्रित कर लेती हैं ।

लाइफस्टाइल महिलाओं की अजब गजब होती है और कुछ ऐसा बना भी लेती हैं। आज लोगों को होटल, रेस्टोरांट्स में खाने का इतना शौक बढ़ गया है कि घर का पोषणयुक्त भोजन रास ही नहीं आता। होटल, रेस्टोरांट्स, ढाबा या सड़क पर खड़े खोमचे वाले कितना पोषित आहार आपको परोसेंगें। इसका अंदाजा हम सब आसानी से लगा सकते हैं। क्योंकि यह सभी व्यवसाय करने उतरे हैं। हमारे स्वास्थ्य का ध्यान तो स्वयं को ही रखना होगा। एडवरटिजमेंट भले आये कि इस दुकान में फ्रेश फूड ही मिलता है पर असलियत बहुत बार आंखें खोलकर मिचने जैसी स्थिति हो जाती है। फुटपाथ पर खड़े होकर शान से गोलगप्पे खाना जहां उसके पीछे मक्खियों का अंबार और कचरा पीछे जमा रहता है क्या उसका असर हमारे स्वास्थ्य पर नहीं पड़ता ?  प्रधानमंत्री मोदी ने स्वच्छता अभियान तो पूरे देश में चलाया है पर अभी भी देश मानसिक रुप से इन चीजों को ग्रहण नहीं कर पाया है। फलस्वरुप लोग आज भी खुले में जहां तहां शौच करते हैं और वहीं एक टिक्की वाला, लिट्टी वाला, पास में दुकान लगाये आपकी भूख को आमंत्रित करता है।

महिलाएं बाहर खाने में शान महसूस करती हैं। जिसके दो कारण हैं। पहला उन्हें खाना बनाने के झंझट से मुक्ति मिलती है और दूसरा नये नये क्यूजिन ट्राई करने को मिलता है। लोग अब चाउमीन, मैगी के साथ जीवन जीने के आदि से हो गये हैं। मैक डी हो या के एफ सी, फेवरेट हो गया है। आजकल पार्ट्री और ट्रीट के चक्कर में भी ज्यादातर रिश्तेदारों और दोस्तों के साथ भी घर के बाहर ही खाना होता है। लव अफेयर के चक्कर में भी महिलाएं जब अपसेट होती हैं तो खाना पीना ही छोड़ देती हैं जिससे चिड़चिड़ापन बढने लगता है। आमतौर पर आज महिलायें फैशन और ट्रेंड में आगे होने के लिए अल्कोहल और सिगरेट जैसी वस्तुओं का सेवन भी उनकी अंतडियों को डैमेज कर देता है। आफिस की झुंझलाहट और वर्क लोड भी वजह होती है जो समय पर खाना पीना नहीं हो पाता। कुछ का वर्किंग आर्स यू.एस शिफ्ट के अनुसार चलता है। जिसका तात्पर्य जब हमारे यहां रात होती है तो विदेश में सुबह होती है। सूर्यास्त के बाद भोजन करने से पाचन तंत्र उतने सही से काम नहीं करता जितना सूर्योदय होने के बाद काम करता है। डाइजेशन कमजोर होने लगता है जो लोग देर रात में भोजन करने के आदि होते हैं या रोजमर्रा में उनकी आदत हो जाती है।

गांव में रहने वाली महिलाओं की जीवन शैली शहरों से हटकर होती है। परंपरागत और पुरानी शैली के अनुसार आज भी बहुत से घरों में बड़े बजुर्गों, बच्चों और घर के बाकी सदस्यों को खिलाने के बाद ही महिलाएं स्वयं खाने बैठती हैं। खाना है तो ठीक वरना जो बचा हुआ खाना खाकर ही आत्मसंतुष्टि का बोध करना चाहती हैं। आज भी बड़ों के सामने घूंघट में रहने वाली महिलाएं बहुत हद तक पोषित खाने के विषय से अनभज्ञ हैं। वो नहीं जानती कि नाश्ते में क्या भोजन लेने से उन्हें ऊर्जा की प्रप्ति होगी। आमतौर पर किसानों का परिवार ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। जहां अनाज की पैदावार की फसल के ऊपर ही परिवार निर्भर रहते हैं। धान की पैदावार होती है तो चावल और गेंहूं की समय रोटी, फल और सब्जियां भी मानसून पर निर्भर करता है। फसल अच्छी हुई तो किसान परिवार का पेट भर पाता है। वरना गरीबी और भूखमरी की चपेट में महिलाओं का जीवन शेष हो जाता है। चूंकि महिलाएं उतनी बलिष्ठ नहीं होती। उन्हें एनीमिया की बीमारी जल्दी हो जाती है। जिसके लिए उन्हें अनार, फल दूध जैसी चीजें ज्यादा खाना चाहिए होती हैं। पर आर्थिक तंगी के कारण महिलाएं फिर संकुचित हो जाती है और जैसे तैसे जीवन यापन करना उनकी मजबूरी हो जाती है।

एक पहलू और ध्यान देने योग्य है। आसा नहीं है कि दुबले पतले लोग ही कुपोषण का शिकार होते हैं। मोटे मोटे लोग भी इसकी चपेट में आ जाते हैं। कई लोग सिर्फ अपनी पसंद की चीजें ही खाते हैं जिनमें अंकुरित चने, मूंग, सीजनल फल, दूध  जैसी चीजों का अभाव रहता है। पेट तो भर लेते हैं। शाही भोजन भी कर लेते हैं पर सुपाच्य और विटामिन युक्त भोजन से कोषों दूर रह जाते हैं। कई बार प्रेग्नेंसी के बाद भी महिलाएं में यह बीमारी पायी जाती है। इसलिए उनके स्वास्थ्य का भरपूर ख्याल रखा जाता है। अमूमन 56 प्रतिशत महिलाएं कुपोषण का शिकार होती हैं जिनमें से अधिकतर विवाहित होती हैं।

महिलाओं को अधिक मात्रा में आयरन, प्रोटीन, विटामिन ए, सी, फैट आदि की मात्रा अधिक होने चाहिए। फाइबर युक्त भोजन अवश्य करना चाहिए। ग्रामीण इलाकों के लोग चोकर जैसी चीजों से प्राप्त कर लेते हैं। शहरी लोग फल, अनाज, ड्राई फूट्स के जरिये इनर्जी प्राप्त करते हैं। खाने में कैल्शियम की मात्रा अधिक होनी चाहिए। क्योंकि डाक्टर यह बताते हैं कि कैल्शियम शरीर में स्टोर नहीं रहता। जिसकी आवश्यकता हर इंसान को रोजमर्रा के तौर पर जरुरत होती है। इन सब के अलावा शुगर, कार्बोहाइड्रेट की कमी भी पूरी करते रहना चाहिए। आसानी से दो तीन चीजों का ध्यान रखकर शरीर को चुस्त रखा जा सकता है। 1. चना -अंकुरित हो या भूना हुआ-  जो आपको आंतरिक ऊर्जा प्रदान करता है। इसके अलावा मौसमी फलों का सेवन और आयरन के लिए अनार और रोज के खाने में चावल और हरी सब्जियों के द्वारा कुछ हद तक इस बीमारी को दूर किया जा सकता है। आजकल जिस तरह तरबूज, आम, अंगूर, खीरा, जामुन आदि फल पर कांसंट्रेट कर स्वास्थ्य को हम महिलाएं सुखद बना सकता हैं।


























Thursday 21 July 2016

सल्तनत -ए -कश्मीर



सर्वमंगला मिश्रा

भारत कश्मीर का प्रमुख अंग है। जिसे सर का ताज –सरताज भी कहा जाता है। ताज पहनना और उसे संभाल
कर रखना एक राजा के लिए चुनौती के साथ साथ सम्मान, अपमान और मर्यादा की शाख में सेंध न लगने देने का एक उत्तरदायित्तव होता है। भारत के सिर पर भी कश्मीर का ताज है। जिसे आज तक भारत ने पूरे उत्तरदायित्तव के साथ संभाल कर रखा हुआ है। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हार न मानकर मुकुट पर आंच नहीं आने दी। इसके एवज़ में लाखों सैनिकों और जवानों की आहूति चढ़ चुकी है। देश के सम्मान से बड़ा कुछ नहीं होता यह भारतवासियों और उनके सपूतों ने सिद्ध कर दिया है।

कश्मीर के मुद्दे को लेकर भारत –पाक की अब तक न जाने कितनी अनगिनत वार्ताएं हो चुकी हैं। दोनों देश चाहे
जहां मिलें वहीं यह मुद्दा ज्वलंत बन जाता है। पूरे विश्व की निगाहें दोनों देशों पर इसी विषय को लेकर टिकी
रहती है। सार्क सम्मेलन से लेकर अमेरिका में संबोधन तक, यह मुद्दा कभी विश्व ने न अपनी और न हमारी आंखों से ओझल होने दिया। संभव भी नहीं है, क्योंकि जिस विषय को लेकर पूरा देश जलता रहता है, कितनी कोख सूनी हो जाती हैं, कितने परिवार अपाहिज़ हो जाते हैं, कितने घर बेकारी की रफ्तार पकड़ लेते हैं, कितने मृत शरीर चिता की अग्नि तक भी नहीं पहुंच पाते, ऐसे मुद्दे से आंखें फेर लेना उस देश की जनता और माटी से
अघोषित नाइंसाफी है, अपराध है।

गांधी जी, जिन्ना और जवाहर लाल नेहरु के इस विवादित फैसले ने न भारत को चैन की सांस लेने दी और न ही
पाकिस्तान को शांति से बैठने दिया। दोनों देश विश्व के समक्ष न जाने कब तक सौरभ कालिया से लेकर न जाने कितने  शहीद अपनी शहादत देगें और बुरहान कश्मीर की वादियों में सनसनी सुलगाते रहेंगे। कश्मीर पाक के लिए मक्का मदीना से भी बढ़कर बड़ी दरगाह बन चुका है। जिसके लिए न जाने कितने आतंकी गिरोह बन चुके हैं और सक्रिय हैं। कितने मासूम बच्चे उनकी गिरफ्त में फंस गये या फंसा लिये गये और कुछ जेहाद के नाम पर मर मिटे । कलम -कागज की जगह बन्दूक, हथगोले जो किसी को भी दहला दें, उनसे दहशत के आकाओं ने इन मासूमों को बेखौफ होकर खेलना सीखा दिया। इनमें से कईयों को दहशत के कलयुगी द्रोणाचार्यों ने कई ओजस्वी और धराशायी कर देने वाले नवचेतना युक्त क्रांतिकारी बुरहान जैसे नवयुवकों को आतंक का अर्जुन बना दिया । आज ऐसे ही कुछ दहशत के खौफनाक बुरहान जैसे सेनानायकों को पाकिस्तान खोकर शोक का आलम फैला रहा है। आतंकी आकाओं को शायद इस बात का इल्म ही नहीं कि जो अनगिनत लाशें बिछाकर एक बार खुद मिट्टी पर गिर पड़ते हैं तो उनका शोक रहे हो पर, जिन्हें न जन्नत चाहिए न किसीकी जान, वो शहीद हो रहे हैं सिर्फ देश की शान की खातिर, भारतमाता की आन की खातिर, उनकी लाशें बिछाकर कौन सी जन्नत नसीब होगी। क्या कभी यह ख्याल दिमाग में आया कि जिस धरती पर हम सांस ले रहे हैं उस धरती को नर्क बना रखा है जेहाद के नाम पर । जब हिस्सेदारी दे दी गयी है तो अवैध कब्जा के नाम पर इंसानियत के ऊपर क्यों बुलडोजर चला रहे हैं। ह्यूमन बम, फिदाइन दस्ते तैयार कर अपने गैरइरादतन मंसूबों पर पहल कर शिखर हासिल नहीं होना है। लेकिन जिस जेहादी जंग में इंसानियत को ढकेलकर सूकून का एहसास जेहादी टोला करता है वो शर्मसार कर देने वाला कबूलनामा है।


पाक -भारत के बार्डर पर क्षण क्षण अशांति पनपती रहती है। हर बार विश्व मंच पर चेतावनी के तौर पर विदेश मंत्रालय के हुक्मरान और प्रवक्ता कहते आ रहे हैं कि आतंकवाद और शांति वार्ता एक साथ नहीं चल सकती। समय चाहे अटल बिहारी का रहा हो या अब मोदी का। जसवंत सिंह हो या सुषमा स्वराज, चेतावनी से लेकर शांति वार्ता आमंत्रण,शांतिदूत भारत ने हर लहजे से समझाया, पर पाकिस्तान अपनी जेहादी जिन्दादिली के आगे सोचने में असमर्थ लगता है।

बुरहान, जिसकी मौत का शोक पूरा पाकिस्तान मना रहा है। जिसने न जाने कितने अनगिनत मासूमों को अपने आकाओं के कहने पर गुमराह किया, कितनों का जीवन बर्बाद किया, जिसने न जाने कितने घरों के चिराग छीन लिये, उस बुरहान की मौत के जनाजे के साथ ऐसी भीड़ उमड़ी जो अकल्पनीय थी। यह वही था जिसने अपनी सेल्फी सोशल मीडिया में सबसे पहले डाली थी । सोशल मीडिया पर छाया यह क्रूर आतंकी, अपनी मासूम शक्ल और हैंडसम पर्सनालिटी के कारण,चर्चा का विषय रहा। उसके लिए शहादत का ऐसा शोक ? जो सैनिकों की शहादत पर सवालिया निशान सा लगा देता है। उन शहीदों की अंतिम विदायी में मात्र उनके परिजन और एक सेना की टुकड़ी जो सलामी देती है और कुछ गणमान्य नेतागण मौजूद रहते हैं और वह सैनिक पंचतत्व में विलीन या सुपुर्द ए खाक हो जाता है। क्या भारतवासियों को शर्मिंदगी महसूस नहीं होती। क्या देश के नेताओं को यह बात सोचने पर मजबूर नहीं करती कि किस देश की गरिमा और शान की बात करते हैं। बड़ी बड़ी बातें लोकतंत्र के तमाम मंच पर आतंकवाद के खिलाफ बयान देते हैं। ऐसे में यह समझना और सोचना आज लाजमी हो गया है कि कश्मीर में चल रही सरकार और उसकी आतंरिक मंशा क्या है।

कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती हों या ओमर अब्दुल्ला कश्मीर की घाटी के नियम वही हैं, जो चले आ रहे हैं। जबतक उनमें कोई परिवर्तन नहीं होगा देशवासियों को इस सोच से निज़ाद नहीं मिल पा रहा कि देश में ही कश्मीर है जिसके लिए आज तक अनगिनत शहादतें हो चुकी हैं। देश के नौजवान हजारों हजार किलोमीटर दूर देश की सरहद बचाने चले जाते हैं। अगर यूंही शहादतें सरकारों को दिलवानी है तो मांये अपने बच्चों को कदापि नहीं भेजेंगी शरहद की शान बचाने । हर बार एल ओ सी का उल्लंघन हर बार फायरिंग, हर बार वार्ता विफल, हर बार बाहरी देशों का हस्तक्षेप। फलस्वरुप, आगरा हो या ताशकंद भारत की शांति में ग्रहण बनता है पाकिस्तान । दोनों देश के राजनेताओं की मजबूरी है कश्मीर को मुद्दा बनाये रखना या पाकिस्तान की मंशा। कश्मीर के हुक्मरान क्या इस आतंकी जेहाद से अपने निवासियों को महफूस करने की कोई पहल की या योजना बनायी है। जिसपर राज्य और केंद्र संयुक्त रुप से एकजुट होकर क्रियान्वयन करें । कश्मीर से जेहादी क्रांति दिल्ली के जेएनयू तक पहुंच चुकी है। जेहादी नेटवर्क हर रुप में देश के हर कोने में जह़र की तरह धीरे धीरे फैलता जा रहा है। कश्मीर में रहने वाले कुछ समुदाय बेखौफ होकर पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाते हैं । इस पर न तो वहां की राज्य सरकार और न ही केंद्र सरकार कोई एक्शन लेती है । जबकि पाकिस्तान में एयरपोर्ट पर ही उस व्यक्ति को टार्गेट कर लिया जाता है जो भारत की तारीफ कर दे। क्या यही वजह है कि अदनान सामी जैसे गायक पाकिस्तान वापस नहीं जाना चाहते। दूसरे पाकिस्तानी सितारे भी भारतीय मुल्क की नागरिकता हासिल करने के इच्छुक हैं।


अब समय आ चुका है कि भारतवाासी कश्मीर में रह रहे नागरिकों से यह सवाल पूछ लें कि उनका मुल्क कौन सा है ?जहां उन्हें हिफाजत दी जा रही है या जहां उनके अपने भी महफूज नहीं। तालीबानी सरजमीं हिंदोस्तान को बनाने का इरादा या तो दरकिनार कर सही राह चुन लें अथवा पाक जिसे वो अपना मुल्क, अपनी जमीन, अपना वतन समझते हैं, रुख कर लें। यूं थाली में छेद कितने दिन? जख्म पर जख्म कितने दिन ? वार पर वार कितने दिन ?

ऐसे माहौल में 1990 में कश्मीर में रह रहे पंडितों की वापसी किस तरह संभव हो सकेगी। जिनकी वापसी की
सरकार कोशिश कर रही थी। जिनके लिए अलग एक क्षेत्र बनाया जा रहा था। किस कांफिडेंस से सरकार आमंत्रण दे रही हैउन पीड़ितों को। ताकि जो जिंदगी उनकी जैसे तैसे चल रही है फिर से उनके पट्टी चढ़े इरादों को तोड़ दिया जाय। जीवन जीने की हसरत ही खत्म हो जाय। कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती जी और प्रधानमंत्री मोदी जी दोनों को कदम मिलकर उठाने का वक्त आ चुका है। केंद्र पल्ला नहीं झाड़ सकता कि उसके हाथ बंधे हैं या सरकार उसकी नहीं। पाकिस्तान के अंदर से इंसानियत साफ हो चुकी है। तभी तो बच्चों को मारकर भी जश्न मनाता है। कोई कैसे भूल सकता है उस मंजर को जब एकसाथ 142 बच्चों को गोलियों से भून दिया गया था। उस दिन मात्र एक बच्चा दाउद बचा था..क्योंकि वो उस दिन स्कूल ही नहीं गया था । पाकिस्तान को उस वक्त शोक करने की नहीं सूझी थी। पर बुरहान जो कत्ले आम मचाये, जो शाति को भंग कर दे, ऐसे मानवता के दुश्मन के लिए शोक ?

Monday 18 July 2016

कांग्रेस के दो तीर

सर्वमंगला मिश्रा

कांग्रेस पार्टी स्वतंत्रता से पहले से जंग लड़ रही है। कभी देश की आजादी के लिए तो कभी अपने वर्चस्व के लिए। पहले सिर्फ एक मकसद था अंग्रेजों से आजादी। देशहित परमोधर्मम्। पर आज आज देश बदल चुका है। धारणाओं से लेकर आशायें और उम्मीदों से लेकर मकसद, सब बदल चुका है। पार्टी जहां इकलौती शान हुआ करती थी। वहीं, आज अपना खोया वजूद तलाश कर रही है। जिसके लिए साम दाम दंड भेद सब अपनाने से पीछे नहीं हट रही। ऐसे में प्रशांत किशोर जीपार्टी के लिए द्रोणाचार्य की तरह साबित हो सकते हैं। जिन्हें यह पता है कि युधिष्ठिर कौन है, भीम कौन है और अर्जुन से कैसे निशाना लगवाना है। उनकी  बुद्धिजीविता कांग्रेस के कितने काम आयेगी, यह तो वक्त ही बता सकता है या उत्तर प्रदेश का चुनावी परिणाम। प्रशांत किशोर जी अव्वल दर्जे के बुद्धिजीवी के रुप में देखे जा रहे हैं। उनके पास मोदी प्रशांत किशोर जी ने अपने तरकश से पहला तीर निकाला और अफवाह हवा में तैरने लगी कि राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के सी एम कैंडिडेट होंगे। आकाश में बादल उमड़ने घुमड़ने लगे। जनता में कौतुहल पैदा कर नयी चाल चली और शीला दीक्षित को आगे कर सबके मुंह पर ताला लगाने का प्रयास किया। पर, जुबान तो जुबान है न जानता की और न किसी पार्टी की रुकती ही नहीं। शीला दीक्षित का अनुभव भी यू पी के सामने बौना सा माना जा रहा है। शीला दीक्षित का अनुभव तो कहीं न कहीं पार्टी को कुछ राहत दे सकेगा पर अभिनेता राजबब्बर कांग्रेस पार्टी में ऐसा कौन सा अध्याय जोड़ेगें यह सोचनीय है। राजबब्बर जी की रणनीति कांग्रेस को किस पायदान पर ले जायेगी यह तो प्रशांत किशोर जी भी शायद नहीं सोचे होंगे। आलाकमान की सहमति पर भी सवाल सा खड़ा नजर आता है।



शीला दीक्षित की राह पहले भी इतनी आसान नहीं रही। दिल्ली में तीन दशक राज करना कोई करिश्मा से कम नहीं था। शीला दीक्षित का चेहरा जहां कांग्रेस को सुदृढ़ता, परिपक्वता और आदर्शवादिता की झलक पेश करता है। जिससे बहुतायत तो नहीं पर हां कुछ प्रतिशत लोग अवश्य द्रवित हो सकेंगे। पर, राजबब्बर जी की झलक से कितने प्रतिबिंब यथार्थ रुप में परिवर्तित होंगे, इसमें आशंका की झलक उनके भाषणों में ही देखी जा सकती है। भले ही राजबब्बर जी अपना पूरा दम खम लगा दें पर, यूपी की जनता को याद है कि राजबब्बर जी भी कभी सपा में हुआ करते थे और सपा में उनका योगदान क्या रहा। कांग्रेस पार्टी में ऐसे बहुत से चेहरे अभी भी हैं जो जनता और पार्टी में जोश भर सकते थे। पर, वो अभी भी पीछे हैं। प्रियंका गांधी, पार्टी की मांग, देश की मांग, हर दिल में इंदिरा छवि लिए , पार्टी की रीढ़ की हड्डी को पता नहीं पीछे रखने की राजनीति क्या है। शायद, प्रशांत किशोर जी उन्हें तब उतारें जब चुनाव चरम पर होंगे। हालांकि प्रियंका का चुनाव प्रचार आजतक कभी खाली नहीं गया। उनके शब्द उनके भाव जनता के दिलोदिमाग में पहुंचते हैं। जनता के भावों को समझती हैं प्रियंका। उनकी भावना को एक आस की उड़ान तो कुछ पलों के लिए दे देती हैं पर पार्टी हर बार धोखा ही दे जाती है जिससे जनता में प्रियंका भी कहीं न कहीं दबती सी जा रही हैं।


सोनिया गांधी जो 2004 में साध्वी समान दिख रही थीं। अब वो छवि धुंधली सी हो चुकी है। अब पार्टी को यूपी में अपनी जगह बनाने के लिए नये चेहरे के साथ साथ नयी सोच की भी जरुरत है। नयी पहल ही नया करिश्मा कर सकती है। ऐसे में पुराने चेहरे कितने कारगर साबित होगें यह कहना मुश्किल है। चेहरों पर लगी छाप, जनता में नये जोश की जगह एक असंतोष की भावना ही पनपती है। सरकार की असक्षमता विरोधियों को मजबूत करती है तो आह्वाहन भी करती है अपनी भूमि पर पनपने देने का। ऐसे में जहां दो दिग्गज अपने पैर जमा चुके हों। वहां तीसरी और चौथी चुनौती सशक्त रुप से पनपती तो है पर बिहार में हुए विधानसभा चुनाव बड़ा उदाहरण है जहां गैर जमीनी लोगों को वहां की जनता ने उखाड़ फेंका था। भले वो नैश्नल पार्टियां ही क्यों न हों या केंद्र में चल रही सरकार ।


परिस्थितियां अनुकूल हों या प्रतिकूल जंग ए मैदान में उतरे हैं तो पीछे हट नहीं सकते। ऐसे में कांग्रेस ने तीर निशाने पर लगाने के लिए एक सेनापति और दूसरा फौजी को उतारकर भीड़ को बहलाने के साथ जनता की नब्ज टटोलने का काम किया है। यूं तो प्रशांत किशोर ने अपने तरकश के दो ही तीर निकालें हैं पर, अभी ब्रह्मास्त्र को संभाल कर रखा है। सही वक्त पर, अंतिम क्षणों में उसका उपयोग कर पार्टी को लगता है कि उसकी नैया पार लग ही जायेगी।




















Friday 8 April 2016


सियासत में आह्वाहन की भूमिका





 सर्वमंगला मिश्रा

एकजुटता और अखंडता को दर्शाता है- आह्वाहन। श्रेष्ठ नेतागण या किसी समुदाय विशेष को दिशा निर्देशित करने वाले व्यक्ति किसी विशेष कार्य के लिए लोगों के एकजुट होकर कदम से कदम मिलाकर चलने का आह्वाहन करते हैं। महात्मा गांधी ने आह्वाहन किया था उन बिखरे लोगों का जो आजके बने भारत में तो थे पर उनमें मिलकर चलने की असल भावना गांधीजी ने ही जगायी। लाल बहादुर शास्त्री जी ने देशवासियों का आह्वाहन् किया था कि देशवासी कुछ दिनों के लिए एक वक्त का भोजन छोड़ दें। ताकि ग्रामीण इलाकों में चल रही भूखमरी की समस्या से कुछ हद तक निज़ाद मिल सके। उस वर्ष फसलों को काफी नुकसान पहुंचा था। किसानों की हालत दयनीय हो गयी थी। इसी तरह समय समय पर अनेक गणमान्यों ने जनसाधारण को एकजुट होने के लिए आवाज लगायी। जनसैलाब तो हर बार उमड़ पड़ता है। भले वो जन साधारण स्वयं पधारी हो या आमंत्रण पर।
आह्वाहन हर नेता करता है।यही आह्वाहन जिसकी एक पुकार पर जनता भागी चली आती है और एक साधारण नेता भी गणमान्य की उपाधि हासिल कर लेता है। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जो अपने कालेज के वक्त से राजनीति में अपनी दखल बना चुकी थीं। उनका सर्वोत्तम प्रिय नारा रहा- ब्रिग्रेड चलो। उनके पक्षधर एवं जुगाड़ु जनता भीड़ बनने एवं भीड़ का हिस्सा बनने चल देते थे। एक दिन के नाश्ते के इंतजाम पर ये गरीबी और भूखमरी से जुझते लोग जो अपने विवेक का प्रयोग किये बिना अंधानुकरण करने चल देते हैं। उन्हें यह भी पता नहीं कि वो किसको सपोर्ट करने जा रहे हैं। क्या वह व्यक्ति देश अथवा राज्य के हित में है या नहीं। सवाल यहीं उठता है कि जिस व्यक्ति पर परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी है पर अर्थिक तंगी के कारण बेबस और लाचार जब अपनी रोजमर्रा की हालत सुधार पाने में असक्षम है तो देश के विषय में सोचना उसके विवेक से परे है। राजनीति यहीं खत्म नहीं होती। पलटवार जब सीपीएम करती थी- तो फिर ब्रिगेड चलो। आधी भीड़ जो ममता के जूलूस में शामिल होती थी वही सीएम में भी जाती थी। वही इंसान जो सरकार से सवाल पूछता था नारे लगाकर वही दूसरे दिन दूसरा नारा बोलकर अपना विरोध दर्शाता था। आज भी यही हाल है।
देश के प्रधानमंत्री मोदी जी और दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल जी ने भी जनता को कई कार्यों में शामिल होने और मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए जनता का आह्वाहन किया। मोदी जी ने गंगा सफाई अभियान से लेकर स्वच्छता अभियान के तहत अपने मंत्रियों से लेकर आम जनता को भी अच्छे कार्यक्रम में भागीदार बनने के लिए आह्वाहन किया। बड़े बड़े उद्दोगपतियों से लेकर अभिनेता मंत्री सबने अपने हाथ में झाड़ु उठाया और नौ रत्नों ने सफाई करके मुहिम का शुभारंभ किया। पर हाल ही में एक सर्वे के मुताबिक बनारस- मोदी जी का संसदीय क्षेत्र सबसे गंदे शहर की फहरिस्त में शामिल दिखा। केजरीवाल जी तो जनता के अनन्य भक्त हैं। कोई भी काम जनता से पूछे बिना करते ही नहीं। बस अपने सभी एमएलए की तनख्वाह चार गुनी बढ़ाने के वक्त पूछना भी लाज़मी नहीं समझा।
जब कोई नेता देश के नवयुवकों का आह्वाहन करता है तो देश में नवसंचार होता है। संचार होता है जोश का, नयी उम्मीद और दिशा का। नेतृत्व अगर सही है तो दिशा सही होगी अन्यथा नेतृत्वविहीन संचालन भटकाव की ओर ले जाता है। आज देश में गुलामी की बंदिशें नहीं है। स्वतंत्रता, स्वछंदता पर्याप्त है। पर हार्दिक पटेल और कन्हैया जैसे लोगों को राजनीति के पल्लू में ढकी आजादी लहराने की स्वतंत्रता की मांग कर देश में आह्वाहन कर भटकाव की राजनीति को हवा दे रहे हैं। जनमानस आज सबको टी वी चैनलों के माध्यम से आसानी से देख सुन सकता है। सही गलत का आंकलन कर सकता है। यह जे पी जी का समय नहीं है कि मात्र एक रेडियो या दूरदर्शन पर समाचार आने का इंतजार करना होगा। या दूर दूर से आकर अपने नेता को एक झलक देखकर याद रखना होगा। चौबीस घंटे न्यूज चैनल घर घर पल पल की खबरें पहुंचा रहे हैं। जहां जनता को परखने के संसाधन अधिक से अधिक उपलब्ध हो रहे हैं वहीं इसका दूरुपयोग भी हो रहा है। जानबूझकर ऐसे हत्कंडे अपनाये जा रहे हैं कि मीडिया बाध्य हो उन्हें दिखाने को। जिससे उन्हें आसानी से पब्लिसिटि उपलब्ध हो जाती है। देश में बेवजह बहस के मुद्दे सिर उठाने लगते हैं। नाम दे दिया जाता है क्रांति का, आजादी का। इन्हें क्या पता अंग्रेजों के शासनकाल में क्या इन्हें इतनी छूट मिलती जिसतरह जेनयू कैम्पस में ये लोग नारे लगाये। जेल जाकर कन्हैया ने कोई तमगा हासिल नहीं किया। लेकिन, छूटने के बाद उसके कैम्पस में उसकी लोकप्रियता जैसे रातों रात बंदर के हाथ मोतियों की माला लग जाना।
साम्यवाद, भूखमरी से आजादी की मांग कर रहे इन छात्रों को सही गलत का एहसास नहीं। इतनी ही आजादी पसंद है तो दिल्ली और उससे सटे एनसीआर में सुव्यवस्था लाने के लिए इन छात्रों ने कौन सी ऐसी मुहिम छेड़ी जो सफल या असफल हुई। भूखमरी की समस्या मिटाने के लिए क्या कदम उठाये इन्होंने। आवाज बुलंद होनी चाहिए पर शिगूफे छोड़ने के लिए नहीं। देश को परस्पर उन्नति की दिशा में आगे बढ़ाना है तो नवयुवकों को अपनी सोच को विवेक से तालमेल बैठाना होगा। वरना एक दिन के हीरो बनने को जारों लोग लालायित हैं। जिससे देश का भला नहीं हो सकता।  
आह्वाहन, को भ्रमित नहीं होने दें। सशक्तता का द्दोतक यह शब्द कहीं शब्दकोश से गायब न हो जाय। यह एक शक्ति है। जिससे बलहीन को बल और विरोधी पक्ष में भय का संचार हो जाता है। यह बिगुल है। युद्ध की पहली इकाई है। ऐसे समय में देश को समझने वाले बुद्धिजीवियों की पहल होनी चाहिए कि ऐसे नवयुवकों को सही मार्ग प्रशस्त करें।


First Published: Monday, March 14, 2016 - 16:45
शेरनी या शाह




सर्वमंगला मिश्रा


पं बंगाल का इतिहास अविस्मरणीय रहा है। बंगाल, जो अंग्रेजों के समय देश की राजधानी हुआ करती थी। जहां नवावों की गाथा से लेकर रवीन्द्रनाथ टैगोर की कलाकृतियां आज भी बंगाल अपने में समेटे हुए है। आज भी बंगाल की मिट्टी में नजरुल गीति समायी है तो खुदीराम बोस और नेताजी का नाम लेकर लोगों में जोश और गर्व का एहसास पनपता है। कहा जाता है कि बंगाल जो आज सोचता है पूरा देश कल सोचता है। बंगाल की दहाड़ पूरे देश में गूंजती है। पर, आजकल गुजरात के शेर अमित शाह 34 वर्षों के शासनकाल को उखाड़ फेंकने वाली तृणमूल नेत्री ममता बनर्जी के सामने दहाड़ लगाये चले जा रहे हैं। बंगाल के इतिहास में भाजपा की स्थिति शून्याकार ही रही है। भाजपा जिसने पूरे देश में अपने जीत का डंका बजा लिया है। तो अनछूये बंगाल में अपना परचम लहराना चाहती है। वहीं 34 साल तक राज करने वाली सी पी एम अपनी वापसी को आतुर है।
भाजपा जहां पीडीपी के साथ मिलकर जम्मू- कश्मीर में वहीं हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में अपनी सरकार चला रही है। बिहार जो कूटनीतिक षणयंत्र के कारण हाथ से फिसल गया। ऐसी गलती भाजपा के तुर्रमखा दोहराना नहीं चाहते। सबसे बड़ा विधानसभा यू पी विधानसभा पर भी इसका असर साफ पड़ने वाला है। जिस तरह बिहार की जनता अपने और पराये में भेद जानती है उसी तरह बंगाल की जनता नये आगन्तुक का स्वागत सत्कार तो कर देगी पर बागडोर सौंपने में हिचकेगी।
16वीं विधानसभा के लिए चल रहा यह चुनावी रण 15वीं विधानसभा की तरह नजर नहीं आ रहा है। जिसतरह 2011 में ममता दीदी का एक मिशन था- सीपीएम हटाओ तृणमूल लाओ। अपनी तृण समान पार्टी को ऐसी बुलंदी पर ले गयीं जहां उनकी पार्टी कंगूरे कलश में जाकर विद्दमान हो गयी। धुंआधार रैलियां, एक दिन में चार-पांच रैलियां। फिर भी ममता दीदी के चेहरे पर न थकान न तनाव दिखता था।दिखता था तो सिर्फ और सिर्फ जोश, उत्साह- कुछ कर गुजरने का बंगाल के माटी के लिए, बंगाल के लोगों के लिए। इस बार टीएमसी को लगता है कि जनता उन्हें फिर चुनेगी। सीपीएम असमंजस में है तो भाजपा केंद्र की चाल चलकर बंगाल में लंकादहन करने की मनसा रख रही है। दीदी को अपने नारा- मां- माटी-मानुष पर भरोसा है। उन्हें लगता है कि बंगाल की बेटी को एक और मौका देगी उनकी मां उन्हें बंगाल के लोगों के लिए कुछ कर जाने को। विरोधी पस्त थे पिछली बार। इस पर मौके की ताक में हैं। क्योंकि अंजान राह पर भी जयकार उद्घोष हो रहा था तो सिर्फ ममता दीदी का। बंगाल की शेरनी सशक्त है इसबार। लेकिन 5 साल बाद जनसंदेश क्या निकला। बंगाल का विकास जस का तस है। लोगों को रोजगार के साधन उपलब्ध करने में आज भी वहां की सरकारें असक्षम सी दिखती हैं। एक बात है जहां बिहार और उत्तर प्रदेश में आये दिन अपहरण होते रहते हैं। बंगाल को आज भी इस दृष्टिकोण से सुरक्षा प्राप्त है। बड़े बड़े सेठ साहूकार वर्षों से कोलकाता के बड़ाबाजार से लेकर अन्य इलाकों में इतमिनान से अपना व्यापार करते हैं।
सवाल उठता है कि भाजपा ने आजतक बंगाल के लिए या बंगालवासियों के लिए क्या किया है। जो जनता उनसे प्रभावित होकर पुराने घटक दलों को छोड़कर अन्य पार्टियों पर फोकस करे।गुंडागर्दी, दादागिरी बंगाल में भी चलती है। दुर्गापूजा के समय मनमाने ढंग से कई जगह वसूली की वारदातें सामने आयीं। पर, आज भी वहां मानव चरित्र जिंदा है। परोपकार, अपनेपन की भावना मरी नहीं है। देश के दूसरे राज्यों की तरह बंगाल का किसान फसल खराब होने से परेशान नहीं है। अच्छी फसल होने के बावजूद कंगाली हालत में जीने को मजबूर है। अर्थात् किसानों की ओर राज्य सरकार ने ठीक से ध्यान केंद्रित नहीं किया। वहीं केंद्र की सरकार ने ऐसे क्या कदम उठाये गरीब किसानों के लिए जिससे उनकी पनपती दुर्दशा का अंत हो। योजनायें लागू करना अलग बात है। पर, उन योजनाओं का फायदा कितने प्रतिशत किसानों को केंद्र सरकार पहुंचाने में सफल हो सकी।
इतिहास गवाह है भाजपा ने आज तक 1 या 2 सीटों से ज्यादा अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा पायी है। ऐसे में भाजपा के लिए बंगाल गले की हड्डी है। यहां न तो मोदी जी की रैलियों का असर होता है न अमित शाह के जुझारुपने का। देश के प्रधानमंत्री जो विदेश दौरे पर आये दिन रहते हैं। मात्र उन्हें देखने की ललसा से लोग उनकी रैलियों में शामिल होते हैं। उधर अब फारवर्ड ब्लाक का भी असर समाप्त सा हो गया है। बंगाल की लड़ाई में आमने –सामने सीपीएम- सीपीआईएम और तृणमूल कांग्रेस के बीच है। पूरा देश का हाल देखने के बाद बंगाल के लोग रिस्क नहीं लेना चाहते। सवाल बहुत है- क्या ममता दीदी की वापसी गारंटी है। या विकास न होने से झल्लायी जनता पुरानी सरकार को फिर से बहुमत में लाने का गुणा भाग कर रही है।
भाजपा का मजबूत तंत्र बंगाल. बिहार और ओड़िसा में आसानी से अपनी पैठ नहीं बना सकता। स्थानीय चेतना मुक्त है। जिससे बाहरी चेतना को रग रग में पहुंचने के लिए काफी मशक्कत करनी होगी। तब शायद जिस तरह दीदी ने 34 साल बाद लाल रंग को हरे रंग में तब्दील किया उसी तरह तृण को हटाने में शायद अभी भाजपा को न जाने कितने साल लगेगें। देखने में वो एक तृण है पर उसकी जड़े अंदर काफी मजबूत है जहां कमल को अभी अपने बीज सही स्थान पर लगाना है।
मस्तानी चुनावी चाल





--सर्वमंगला मिश्रा




चुनाव, देश में एक सेलेब्रेशन की तरह होता है। जिसमें सत्तारुढ़ पार्टियों से लेकर जमी जमायी, मजी मजायी और उभरती पार्टियां अपनी दखलनदाजी करके रणक्षेत्र में आकर महासमुद्र में बूंद की तरह हिस्सा बनने से नहीं चूकती। भाग्य साथ दे दिया तो सूर्य रश्मी पड़ जाती है और वो बूंद सागर में चमक उठती है। राष्ट्रीय स्तर की पार्टियां अपना वर्चस्व बचाने और जमाने में कोई कसर नहीं छोड़ती। थोड़ी सी जुगत और पांच वर्ष का निरंकुश शासनकाल। पर, कई बार कई राज्यों में और केंद्र में भी यह फार्मूला भी मध्यकाल में डंक मार जाता है। जिस तरह उत्तराखण्ड में हाल ही में नौ बागी विधायकों का कारनामा। दो मजबूत दलों की शतरंजी चाल अब सांप और सीढी में तब्दील हो चुकी है।

चुनावी नाव महासमुद्र में हिलोरों के साथ कभी उपर तो कभी नीचे होती चल रही है। ऐसे में अप्रैल–मई का महीना बहुत खास हो चला है। जहां बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पांडुचेरी में चुनावी घमासान मचा है। वहीं 34 साल के शासन को जड़ से उखाड़ फेंकने वाली ममता दीदी का पहले कार्यकाल के बाद यह पहला टेस्ट मैच है जिसमें दीदी की फिल्डिंग नेतृत्व की क्षमता की परख जनता करेगी। साथ ही बैंटिंग कितनी कमाल की दीदी करने वाली है यह भी देखना दिलचस्प रहेगा। ऐसे में कोलकाता में कांग्रेस से छिटककर अपनी अलग पहचान बनाने वाली ममता दीदी जो तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा हैं, अब अगली पारी पांच साल की खेलने में उतनी सक्षम हैं जितनी पहले थीं। कोलकाता में विकास का ढांचा मात्र है। असलियत खोखली है।यह जरुर है कि आज भी महानगरों में शामिल होने के बावजूद कोलकाता दिल्ली और मुम्बई की तरह मंहगा नहीं है। सुविधाओं से लैश है। पर, नयी रणनीति खास कुछ कमाल नहीं कर सकी। आज भी सुस्त बंगाल कुछ इंटरनैश्नल कंपनियों की वजह से अपने में स्फूर्ति का एहसास करा देता है। नया कोलकाता में पहुंचकर मायूसी थोड़ी कम हो जाती है। नये रोजगार बोरोजगारों को कितने मिले और आने वाले समय में पलायन रुकेगा इसकी कोई गारंटी नहीं। वहीं जयललिता –अम्मा का दिमागी खेल उन्हें छठवीं बार सिंहासन पर पदासीन करेगा या कोई नया करिश्मा होगा। उनके जैसी पकड़ और उनके सामने किसी दूसरे के खड़े होने की ताकत तो अम्मा ने सारी जड़े जैसे उखाड़ फेंकी है। ऐसी परिस्थिति में करिश्मा होने के आसार नजर तो नहीं आ रहे।


तमिलनाडु हो या बंगाल, पार्टी रणनीतियां घमासान मचाकर रखती हैं। कोलकाता में फ्लाईओवर का अचानक गिरना, आग लगना, लोगों को मारना सांप्रदायिक सौहार्द्र को ताख पर रखकर पार्टीबाजी करना क्या स्थानीय जनता के साथ न्यायोचित होता है। उधर अगले साल यूपी विधानसभा के चुनाव भी आने वाले हैं। ऐसे में केंद्र सरकार के पास मौका है कि नये राज्यों में अपनी पैठ बनाये तो राज्य सरकार के लिए चुनौती बड़ी बन जाती है अपने घर को बचाने की। सत्ता की शाख फिर से जमाने में जुटी कांग्रेस जहां राहुल गांधी के नेतृत्व को मजबूती देने में कुछ हद तक दिख रही है वहीं उत्तराखंड में हुई राजनीतिक उठा पटख ने ईंट से जुड़ी दीवारों को ढहते देख, हौसले को अविश्वास के मचान पर ला खड़ा कर दिया है।  


मुजफ्फरपुर दंगा कांड, गोधरा और ग्रेटर नोएडा में अखलाख कांड। इसके अलावा फहरिस्त लम्बी है। इन दंगों के बाद राहत देकर एक वर्ग की सहानुभूति लेने में माहिर राजनीतिक पार्टियां सत्ता की चाल बदल कर रख देती हैं। चुनाव के दौरान पार्टियां मुस्तैदी से हर कार्य को अंजाम देती हैं। प्रचार विभाग से लेकर दूसरी पार्टियों में फूट डालने और दूसरे दल के नेताओं को अपने में शामिल करने की गतिविधि भी चलती रहती है।
लोकसभा चुनाव- अंतर्राष्ट्रीय खेल, विधानसभा चुनाव- नैश्नल लेवल, नगर निगम, पंचायत जैसे चुनाव भी कलाबाजी करते हैं। पंचायत और नगर निगम राज्य सरकार के लिए अपनी पैठ मजबूत करने का दरवाजा यहीं से खुलता है। जब घर के लोग आपका साथ नहीं देगें तो बाहरी लोगों से लड़ना मुश्किल हो जाता है। खिलाड़ी पहले घर से खेलना शुरु करता है फिर लोकल लेवल पर जीत हासिल करता है जिससे उसके आत्मविश्वास में मजबूती दिन प्रति दिन आती चली जाती है। फिर राज्य स्तरीय खेलों में पुरस्कृत होकर नैश्नल स्तर पर खिलाड़ी खेलने जाता है और तब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना डंका बजवाने में सक्षम हो पाता है। यही कहानी चुनावों की भी होती है।
हर पार्टी ऐजेंडा बनाने में, रैली करने में, रोड शो, मंच से संबोधन, घर घर जाकर हाथ जोड़ने में व्यस्त हो जाती है। इन सबके अलावा सोशल मीडिया पर अपडेट रहना और समाचार पत्रों और टी वी चैनलों के माध्यम से अपनी बात घर घर पहुंचाना भी नैतिक जिम्मेवारी बन जाती है। समझना यह है कि ये तमाम उहापोह, माथापच्ची किसलिए.. ? जाहिर सी बात है देश की जनता शांतिपूर्ण, सुरक्षित और उन्नतिशील जीवन जी सके। हर चुनाव के बाद सरकार किसी तरह गठित होती है। चाहे गठजोड़ की हो या पूर्णबहुमत वाली एकछत्र सरकार। जनता के हाल में कितना परिवर्तन आ जाता है। एक बार जो पुल बना जीवन भर सरकार आये या जाये आपको नियमित रुप से टोल टैक्स देना ही है। उसके निर्माण पर व्यय किया हुआ धन सरकार द्वारा जनता से वसूल ही नहीं हो पाता। जिसतरह किसान पुश्त दर पुश्त एक ही जमीन पर ली गयी राशि का भुगतान जन्म से मरण तक करता ही रहता था। पर ब्याज चुकता नहीं हो पाता। उसी तरह देश आज इतनी उन्नति कर चुका है। हमारे देश में इतने धनी हैं कि रुपया कालेधन के तौर पर बाहर है। यहां सरकार जतन कर रही है कि धन वापस आये तो देशहित में प्रयोग हो। किसान त्रस्त है कभी सूखे से तो कभी बाढ़ से। अनाज गोदामों में सड़ जाता है पर गरीब को नेवाला नसीब नहीं हो पाता। ऐसा अगर हो गया तो रामराज्य कायम हो जायेगा। विरोधी दल किस मुद्दे को लेकर सरकार पर उंगली उठायेगी। सत्ता का षणयंत्रकारी खेल का मात्र अवशेष रह जायेगा। इसलिए सत्ता का खेल चलते रहने के लिए गरीब को दो वक्त की रोटी नसीब मत होने दो- ये आंतरिक नारा शायद हर नेता का होता है, हर पार्टी का। क्योंकि इनकी समस्या खत्म हो गयी तो किसके लिए लड़गें ये नेता आपस में। दिखावी लड़ाई का रंगमंच समाप्त हो जायेगा।   
रिंग का किंग कौन?





सर्वमंगला मिश्रा 


देश में चुनावों की सरगर्मी एक बार फिर तेज हो रही है। भाजपा जो आज सशक्त रुप से देश को भाजपा शासित राज्यों से जोड़कर नयी राष्ट्रनीति देने के पथ पर अग्रसर है तो वहीं देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अपने वर्चस्व को नया रुप देने में जुटी है। राहुल गांधी जहां एक आंधी तूफान की तरह इस साल और अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में अपना विजय उद्घोष करने को आतुर दिख रहे हैं। तो वहीं केंद्र सत्ताधारी भाजपा अपने विश्वविजय के रथ को रुकने देना नहीं चाहती है। इसी मद्देनजर चुनाव के दौरान पहले हाथ से फिसला हुआ राज्य जम्मू और कश्मीर में गठजोड़ की सरकार बनायी। तो अब जम्मू- कश्मीर को पहली महिला मुख्यमंत्री भी भाजपा के सहयोग से मिलने जा रही है। दिल्ली से सटा उत्तराखंड जहां कांग्रेस की ताकत को नष्ट करने का फार्मूला भी भाजपा ने निकाल ही लिया। बागी विधायकों ने तेवर दिखाये तो सरकार को शिकस्त का मुंह देखना ही पड़ा और राष्ट्रपति शासन के पत्र पर प्रणव मुखर्जी जी ने अपने हस्ताक्षर करके इस पर मुहर लगायी। अब ऐसी परिस्थिति में यदि भाजपा अभी से दो या तीन महीने बाद भी नयी रणनीति के साथ सरकार बनाने की पेशकश करती है तो देश के समक्ष भाजपा की देश विरोधी समकक्ष छवि प्रस्तुत होगी। ऐसे में फ्रेश मैन्डेट के लिए जनता के पास जाने से अच्छा विकल्प शायद मस्तिष्क में नहीं कौंध रहा होगा। उधर कांग्रेस के हाथ भी बटेर लग गया है। हरीश रावत सरकार ने भले पांच साल पूरे नहीं कर पायी पर अब मजबूत कड़ी पकड़ ली है- जनता को लुभाने के लिए। कांग्रेस के हाथ झुनझुना लग गया है। भाजपा का रचा षडयंत्र, जनता को समय से पहले ही संकट में डाल दिया है।    
राज्य का विकास देश की आर्थिक सुदृढता एवं उन्नति के पायदान के रुप में देखा जाता है। आज केंद्र में भाजपा की सरकार है तो जाहिर सी बात है सत्ता केंद्र में उसी पार्टी की बनती और टिकती है जिसकी सेना अधिक मात्रा में होती है। आज राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, झारखण्ड, ओडीशा, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों को मिलाकर देश की सत्ता पर भाजपा काबिज़ है। विरोधी दल के रुप में जकड़ी कांग्रेस के हाथ से एक और राज्य निकल गया। हरीश रावत सरकार उत्तराखंड की जमीन पर अपना कार्यकाल पूरा करने में असमर्थ रही। 28 मार्च को विधानसभा में फ्लोर टेस्ट से मात्र एक दिन पहले राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। सरकार ऐसी परिस्थिति में न्यायालय में गुहार भी लगायी। हरीश रावत की सरकार ने विकास कितना किया यह तो आंकलन का विषय है। गैरसैंड, अवैध खनन, अवैध कन्स्ट्रकशन जैसे मुद्दे विरोधी दल हमेशा से उठाता रहा है। पहाड़ों पर अवैध निर्माण हमेशा से पर्यावरण के लिए खतरा बना रहा।
सवाल उठता है कि आखिर कांग्रेस जहां अपने उत्थान के लिए नये नये विकल्प ढूंढ रही है वहीं पार्टी की नीतियों के प्रति असचेत है। जिसके कारण कांग्रेसी नेता दिन पर दिन बागी होते चले जा रहे हैं। ये बात अलग है कि प्रतिशोध की भावना अमूमन प्रत्येक पार्टी में रहती है। विभिन्न पदों को लेकर भिन्न भिन्न मुद्दों पर वैचारिक मतभेद रहते हैं। पर, कांग्रेस सबसे पुरानी पार्टी होकर भी अब सिकुड़ती चली जा रही है। अंतर इतना बढ़ता चला जा रहा है कि इंदिरा गांधी का समय और सोनिया राहुल का समय में जमीन –आसमान का अंतर आ चुका है। वैचारिक दृढ़ता अब तानाशाही की जंजीर तोड़ चुकी है। समस्याओं से जूझ रहा देश किस कड़ी को मजबूती से पकड़े। इसी विषय पर गंभीरता की पकड़ ढीली सी हो गयी है। सरकार को विचलित कर देने की परंपरा टूट ही नहीं पाती। बागी नेता यह विचार ही नहीं कर पाते कि जिस जनता ने उन्हें चुना है उनपर ही सरकार गिराकर राज्य के विकास में बड़ा रोड़ा साबित हो रहे हैं। स्टिंग विडियो के जरिये जो हरीश रावत जी का चेहरा सामने आया वो भी जनता को अचंभित कर देने वाला रहा या नहीं क्योंकि अब जनता ऐसी चीजों को देखने की आदि सी हो चुकी है। विकल्प में विकल्प तलाश करना मजबूरी सी बन गयी है देश की जनता के लिए।
इस साल जहां पं बंगाल, असम जैसे राज्यों में चुनावों की तारीख निर्धारित हो चुकी है। वहीं अगले साल उत्तर प्रदेश जो देश की सबसे बड़ी विधानसभा है उसका चुनाव भी कांग्रेस और भाजपा के लिए गले की हड्डी समान है। ऐसे में जनता किसका कहां कितना पक्ष लेगी, यह कहना मुश्किल होगा। पर इतना अवश्य है कि फंसती तो जनता ही है। अगर नोटा का भी प्रयोग करती है तो विकल्प क्या है। फिर से चुनाव राज्य अथवा देश पर आर्थिक दबाव और उसी सर्कल से ही प्रत्याशी उत्पन्न होते हैं। तत्पश्चात जनता भी परेशान होकर विकल्प में से एक विकल्प चुन लेती है और फिर कुछ अंतराल बाद हौर्स ट्रेडिंग जैसे मामलों पर हक्की बक्की सी रह जाती है। जनता अपने विकास में हर बार सेंध खुद ही लगाती है अपने गलत निर्णय के द्वारा। विकास अधूरा रह जाता है। समस्याएं जस की तस खड़ी रह जाती हैं।




अब जब उत्तराखंड की राजनीति ने सागर सी राजनीति में पेट्रोल का काम किया है। वहीं शतरंज की बाजी कांग्रेस और भाजपा में चरम पर पहुंच गयी है। देखना होगा कि राहुल गांधी इस खेल में खुद मुकाबला करेंगे या मैडम सोनिया गांधी इसे अपने वर्चस्व की लड़ाई मानकर पर्दे के पीछे से लड़ना पसंद करेंगी। मोदी ने जहां अपनी चाल चल दी है वहीं कांग्रेस गहन मुद्रा में चिंता करके ही अपनी अगली चाल चलेगी। 6 महीने तक के लिए राष्ट्रपति शासन तय है या नहीं या पार्टियां जनता से ही फैसले की मांग करना उचित समझेंगी। चुनाव 6 महीने बाद हो या 9 महीने बाद उत्तराखंड की जनता किस आधार पर वोट करेगी। क्या उन नौ बागी विधायकों के प्रति स्थानीय जनता की निष्ठा सवाल के रुप में परिणित नहीं हो जायेगी। जो अपने स्वार्थसिद्धि के लिए राज्य में संकट की घड़ी पैदा कर सकते हैं। उनका भरोसा शेषमात्र बचता है जनता के मस्तिष्क में। 

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