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Thursday 26 February 2015

दिल्ली  की नैया पर सवार- केजरीवाल!!




सर्वमंगला मिश्रा
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विश्वास जीवन का आधार होता है। केजरीवाल अब दिल्ली के दिल में काबिज़ हो चुके हैं। कहा जाता है कि  तकदीर आपको जीवन में एक मौका जरुर देती है। पर इतिहास गवाह हो गया है । केजरीवाल को दिल्लीवासियों ने या उनके नसीब ने उन्हें दूसरा मौका दे डाला है। जिन्दगी हर किसी पर मेहरबान तो नहीं होती पर केजरीवाल जी पर जरुर मेहरबान लगती है। करप्शन के खिलाफ उठी आवाज दिल तक मात्र पहुंची नहीं थी बल्कि दिल में घर कर गयी थी। तभी दूसरा मौका देने की जहम़त दिल्लीवासियों ने उठायी थी। दिल्ली विधानसभा एक साल पहले भंग हुई थी। अरविंद केजरीवाल ने इस्तीफा दिया था। दिल्ली पर राष्ट्रपति शासन लागू हो गया था। केजरीवाल का मुख्यमंत्री का मिशन परवान चढ़ गया था। 15 फरवरी से लोकसभा चुनाव के प्रचार में जुट गये थे केजरीवाल। पर, देश का नकरात्मक रवैया उन्हें एक सबक सीखा गया। काम से बड़ी कुर्सी नहीं बल्कि कुर्सी से बड़ा काम होता है। एक नयी पार्टी जिसकी आधारशिला के दौरान ही काफी असंतोष व्याप्त हो गया था। दिल्ली की जनता ने एक इनकम टैक्स आफिसर, समाज सेवी पर भरोसा किया और दो दिन देश के नाम का नारा साकार हुआ। नयी पार्टी आम आदमी पार्टी को 28 सीटें मिलीं थीं और ठीक साल भर बाद 67 सीटें। यह बदलाव कैसे ? जहां पार्टियों को सालों साल लग जाते हैं जनता का भरोसा जीतने में, अपनी छवि गढ़ने में वहीं केजरीवाल ने ऐसा क्या कर दिया कि जनता उसे भूल न सकी। जहां एक एम एल ए, एम पी को छवि बनाने में दो दशक लग जाते हैं। वहीं अरविंद केजरीवाल पद छोड़कर बीच मझधार में जनता को छोड़ने के बावजूद पूर्ण बहुमत से सरकार में बैठने का सुनहरा अवसर दे दिया है। अब अरविंद केजरीवाल के सामने मजबूत चुनौतियां सामने खड़ी हैं। दिल्ली से भ्रष्टाचार को दूर करना इतना सहज नहीं है। जहां कभी 40 हजार की जनसंख्या वाला यह शहर हुआ करता था वहीं पिछले साल तक इसकी जनसंख्या में जबरदस्त उछाल आया है। हालांकि यह उछाल एकदम से नहीं हुआ। पर, पिछले 10 सालों में दिल्ली के प्रति एक अचंभित कर देने वाला ग्राफ जरुर नजर आता है। अब दिल्ली में तकरीबन 17,838,842 लोग रहते हैं। जो दिल्ली की कपैसिटी से शायद कहीं ज्यादा है। इसका भी असर पड़ता है विकास पर। दिल्ली शहर पर अधिक लोगों का बोझ अर्थात् अतिरिक्त बोझ हर क्षेत्र में।  पिछली बार 700 लीटर पानी मुफ्त, बिजली के बिल में कटौती करना दिल्लीवासियों को भाया और कहीं न कहीं मतदाता लाभान्वित हुए थे। जिसके कारण 49 दिन का ट्रेलर को अब पांच साल की पूरी फिल्म में तब्दील कर दिया है। जनता ने यह फैसला सोच समझ कर लिया है। इसकी मंशा स्पष्ट है। केंद्र शासित सरकार अगर दिल्ली पर भी काब़िज हो जाती तो इतिहास निरंकुश शासकों और शासन का गवाह रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी जी भले यह कहते रहे हों कि जो पूरा देश चाहता है वही दिल्ली भी चाहती है। पूर्ण बहुमत वाली सरकार दिल्ली को दीजिए। आज केंद्र की कुर्सी पर पदासीन हुए मोदी जी को अमूमन आठ महीने हो चुके हैं। भारत को कांग्रेस शासित और वंशावली की विरदावली से मुक्ति तो अवश्य मिली है। परन्तु देश की दशा आज भी पूर्ववत है। भ्रष्टाचार मुक्त भारत की रचना इतना आसान नहीं जितनी आसानी से मोदी जी अपने भाषणों में बोल देते हैं। स्वच्छता अभियान इतने जोर शोर से छेड़ा गया। अंबानी, तेंदुलकर से लेकर तमाम बड़ी हस्तियों ने अपने हाथ में झाड़ू उठाया। फलस्वरुप कुछ निजी संस्थाओं ने कम बढाकर स्वच्छता अभियान को मजबूती प्रदान करने की कोशिश जरुर की है। सच्चाई यह भी है कि महानगरों में रहने वाले लोग अब तक इसे अपने जीवन में ढाल पाने में असमर्थ दिख रहे हैं। तो ग्रामीण इलाकों तक पहुंचते स्वच्छता अभियान का रथ सूर्यास्त न देख ले। दीपावली जम्मू के भाई बहनों के साथ कई बार मनायी मोदी जी ने। पर, चुनाव के बाद कितनी बार उन्हें उनकी याद आयी। मोदीजी के अनुसार हर राज्य का एक धागा कहीं न कहीं गुजरात से जुटा है लेकिन हर इंसान के दिल का धागा उसके अपने शहर और गली मोहल्ले से जुड़ा होता है।

अब दिल्ली जो पूरे देश से कहीं बहुत भिन्न है। अपने अंदाज के लिहाज से, अपने कामकाज के लिहाज से। दिल्ली जिसकी शान मात्र हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में छायी हुई है। अब नायक मुख्यमंत्री बन चुके हैं। परिवर्तन का कारनामा दिल्ली को छेदकर विश्व में कीर्तिमान हासिल करेगा अथवा धरने वाली सरकार बनकर रहेगी। जाहिर सी बात है अगले साल कई महत्तवपूर्ण राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में आम आदमी पार्टी अपने उम्मीदवार खड़े करने का दम्भ फिर भरेगी या शांतिपूर्वक दिल्ली पर पूर्ण बहुमत देने वाली जनता के प्रति सौ प्रतिशत वफादारी दिखाने का काम करेगी। केंद्र में पीठासीन पर दिल्ली में शासनविहीन केंद्र सरकार की मुश्किलें अब बढेंगीं। निरंकुशता के पर कतर दिये ये हैं। कार्यों में तेजी और सत्यापन स्थापित करना होगा। अन्यथा एक दशक तक राज करने की मंशा अधूरी रह जायेगी। शासक का तात्पर्य मात्र यह नहीं होता कि देश को  केवल मानसिक मजबूती दे और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने नाम का आतंक फैलाये। स्वशासन मात्र गुलामों के भरोसे नहीं आ सकता।

हर राज्य, देश को चलने और चलाने का यही नियम है कि विरोधी को खड़ा होने दीजिए। विरोध हर उस पक्ष को दर्शाता है जहां सत्ता पक्ष हिचकिचाती है। जयललिता-करुणानिधी, शिवराज- दिग्गी, ममता बनर्जी -ज्योति बसु, लालू-नीतीश, कांग्रेस-बीजेपी; विरोधी से सत्ता पक्ष पर अंकुश बना रहता है। पहले भी दिल्ली की जनता ने केंद्र और राज्य में एक ही सत्ता को देख चुकी है। जिसका फल हजारों घोटालों ने जन्म लिया। वजह स्पष्ट थी करने वाले और बचाने वाले एक ही परिवार के सदस्य रहे। जनता भी इस राजनीति को समझ गयी और दूध का जला छाछ भी फूंक कर पीता है। इसलिए, केजरीवाल को पूर्ण बहुमत से दिल्ली की सत्ता पर काब़िज कर डाला है। ताकि फिर से कोई टूजी के स्थान पर फोरजी घोटाला न हो।

केजरीवाल का वायदा दिल्ली में वाई फाई की सेवा हर मुमकिन स्थान पर। गरीब बच्चों के लिए कालेज तो साथ ही ऋण की सुविधा भी मुहैया करायेंगे।भविष्य बच्चों का संवारकर दिल्ली को सवारेंगें। नयी तकनीक से देश को पहला भ्रष्टाचार मुक्त राज्य प्रदान करेंगे। दिल्लीवासियों की आस भी अब केजरीवाल से जुट गयी है। भरोसा एक बार टूटा था उम्मीद है दुबारा गल्ती क्षम्य न होगी और विश्वास नहीं पनपेगा। दिल्ली उम्मीद की आस फिर लगायी है कि दिल्ली सच में दिलवालों की होगी।    
नीतीश की रणनीति



सर्वमंगला मिश्रा



कौन कहता है कि खोया राज्य वापस नहीं मिलता ? इतिहास भले गवाह रहा हो नये इतिहास की संरचना करने में । सच यह भी है कि सिकंदर ने पूरे विश्व पर विजय तो प्राप्त की थी पर संभाल कर न रख सका। फलस्वरुप, राजाओं के घुटने टेक देने के बाद राज्य उन्हें वापस लौटा दिया गया था। भारत विविधताओं से भरपूर है। यहां संस्कृति से लेकर विश्वास भी आत्मसाथ होने के साथ साथ अलग अलग हो जाता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही कुर्सी मांझी के झोली में डाल दी थी। क्योंकि नीतीश कुमार के सामने मोदी के प्रधानमंत्री के पद को संभालने के उपरांत अनकही परेशानियां मंडराने लगी थी। सम्मान, अपमान के वशीभूत होकर नीतीश ने किनारा कस लिया था। फलस्वरुप मुख्यमंत्री पद जिसतरह लालू यादव ने अपने चारा घोटाला में फंसने के बाद अपनी पत्नी को उत्तराधिकार दे दिया था। 1997 का वो साल और 2014 का साल बिहार में याद किया जाने वाला बन गया है। जीतन राम मांझी के दिन ही फिर गये और रातों रात वह मुख्यमंत्री जैसी कुर्सी के दावेदार ही नहीं बल्कि विराजमान हो गये। शंहशाह रातों रात। पर सपना तब टूटा जब नीतीश ने अपना धन जो जीतन को बतौर अमानत के रुप में दिया था और सालों बाद आकर वापस मांगने लगे। तब तक जीतनराम को ऐशोआराम की आदत लग गयी थी। अब मन में पाप जग गया था। जीतन राम मांझी को कुर्सी से प्रेम हो चला था। सत्ता का मोह उनके मन को जकड़ चुका था। पर, नीतीश शतरंज के माहिर खिलाड़ी हैं। उन्हें पता है कि कब शह और मात का खेल खेला जाना चाहिए। सही वक्त के इंतजार में नीतीश ने 20 मई 2014 से 20 फरवरी 2015 तक का इंतजार कर सही वक्त पर मात दे डाली। यह वक्त तब उन्हें सही लगा जब भाजपा का मनोबल कहीं न कहीं टूटता हुआ सा महसूस हुआ। जम्मू और कश्मीर में सरकार अब तक न बन सकी। साथ ही सबसे बड़ी हार का मुंह केजरीवाल ने दिखा दिया। प्रधानमंत्री मोदी जहां अपने हर प्रचार में यही कहते नज़र आये कि जो पूरा देश चाहता है वही दिल्ली भी चाहती है। पूर्ण बहुमात वाली सरकार को वोट दीजिए। दिल्ली की जनता दिल से नहीं दिमाग से सोचती है। यह बात मोदी जी भी अब समझ गये होंगें। मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही नीतीश को विशेष राज्य का दर्जा ठंडे बस्ते में मरता नज़र आने लगा था। दोस्ती जो कभी दोस्ती हुआ करती थी। मीजिया के सामने आयी तस्वीरों ने साफ कर दिया था कि दोस्त दोस्त ना रहा बल्कि अब राजनैतिक विरोधी पक्के वाले दोनों हो चुके हैं। इस बात की छवि पूरी दुनिया ने देखी। नीतीश गुजरात नहीं गये तो मोदी अपने लोकसभा चुनाव के प्रचार के लिए बिहार की धरती को नमन तो किया पर बन्दुकों के साये में। गुजराती पुलिस पर उन्हें ज्यादा भरोसा रहा और अपने दल बल के साथ मार्च करते आये और प्रचार कर वापस भी गये। लोस के चुनाव में खूब गरजने वाले मोदी अपने तहेदिल करीबी दोस्त से पल पल आखें चौकन्नी करते भी नजर आये। कई जगह मिले तो मिले पर ना मिले। सत्ता और बल से बड़ा राजनीति में कुछ नहीं होता।

आज भले नीतीश कुमार यह कह रहे हों कि भाजपा सत्ता की भूखी है और सत्ता पाने के लिए कुछ भी कर सकती है। तो आत्म-मंथन की आवश्यकता उन्हें भी है। सत्ता पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिए ही उन्होंने जीतन राम मांझी का सहारा लिया और समय के पलटते ही उन्हें उनकी औकात भी याद दिला दी। नीतीश शपथ लेकर फिर अपने अंदाज में राज करेंगें। भाजपा के सपनों को चकना चूर कर देने वाले नीतीश को टक्कर अब भी मोदी से ही लेनी होगी। बिहार को विशेष राज्य का दर्जा केंद्र की अनुमति के उपरांत ही मिल सकेगा। रास्ता सीधा नहीं है। 70 वर्षीय मांझी मात्र कठपुतली थे मनमोहन सिंह की तरह, राबड़ी की तरह। जिसे सत्ता पर काबिज़ तो कर दिया गया पर हाथ काट दिये गये जिससे वह कुछ लिख न सके। मुसहर जाति के मांझी के पिछड़े वर्ग से आने के कारण ही किसी ने नीतीश के गेम प्लान पर संदेह न कर सफल होने दिया। सियासत और सत्ता का प्रगाढ़ प्रेम पल पल अपना रुप रंग बदलता, निखारता और संवारता रहता है। नीतीश कुमार जो 70 सावन से अमूमन सात साल दूर हैं। राजनीति रणनीति के माहिर दोनों खिलाड़ी अब फिर से मैदान में आमने सामने हैं। जीवन में सत्ता की संलिप्तता कितनी किसमें समायी है। यह आने वाले समय में दिखेगा। अपने हनीमून कम सेट्रैटेजी परियड के दौरान नीतीश किस रणनीति के तहत वापस अपनी गद्दी पर काबिज़ हुए हैं।

भाजपा के साथ रहने वाले नीतीश ने मात्र इसलिए किनारा कसा क्योंकि मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया गया था। नीतीश स्वयं भी उन दिनों प्रधानमंत्री बनने का सपना बुन रहे थे। नीतीश एक मजबूत प्लान के साथ सामने आये हैं जिससे उनका वर्चस्व कायम हो सके। आने वाले समय में विधानसभा चुनाव पर अपनी मजबूत दावेदारी भी पेश कर मोदी और भाजपा दोनों को कड़ी टक्कर देने के लिए मोदी जैसा परिपक्व प्लान होना नीतीश के पास अनिवार्य है। मोदी के प्लान में कहीं न कहीं तार अब ढीले पड़ रहे हैं। लांग डिस्टेंस लव फलीभूत नहीं होता। इसलिए बंगाल, बिहार और उड़ीसा के इलाके भाजपा के हाथ पूरी तरह नहीं है। इन तीनों राज्यों में लोकल पार्ट्रीज का ही प्रभुत्व बना हुआ है। गांधी मैदान में भाषण देने से यह साबित नहीं हो जाता कि जनता आपके पक्ष में आ गयी है। जनता के आशीर्वाद के लिए ओबामा, क्लींटन और मोदी की तरह प्लान से चलना पड़ता है। नीतीश के फूले और चमकते गाल के पीछे कितनी गहरी रणनीति जन्म ले चुकी है यह तो शपथ के दिन से ही सामने आ जायेगा। हालांकि सुशील मोदी की आकांक्षा की परीक्षा दूर तलक तक जायेगी। हार की हवा जब उत्तर से उठी है और पूर्व से होते हुए दक्षिण और कहीं आने वाले समय में पश्चिम तक न पहुंच जाये। दिल्ली से उठी यह कंपकपाहट गर्मी के मौसम में कितनी सर्द का एहसास करायेगी भाजपा को या ब्लड प्रेशर बढाने का काम करेगी यह तो नीतीश की पकी हुई राजनीति ही तय कर सकेगी। फ्लोर टेस्ट में फेल मांझी अब अपनी नैया किस ओर ले जायेंगें या हवा का रुख उन्हें स्वयं बहायेगी। रणनीति रण में आने पर नहीं बनती बल्कि मानस पटल पर अंकित रहती है।

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