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Sunday 28 December 2014

                                                   नारी


सर्वमंगला मिश्रा- स्नेहा
9717827056

चिंतन-मनन के उपरांत उस पर क्रियान्वयन का होना अति आवश्यक होता है। प्राचीनकाल से लेकर अब तक हम न जाने कितने मुद्दों पर चर्चा करते चले आ रहे हैं। पर चर्चा सिर्फ चर्चित होती है। उस पर गतिशील तरीके से समाज कदम से कदम मिलाकर चल नहीं पा रहा। अर्थात् कहीं न कहीं वैचारिक मतभेद एवं अपरिपक्वता व्याप्त है। विश्व आज एक –एक करके सभी दहलीजें पार कर रहा है। हर ऊंची दीवाल को फांदने की कूबत रखने वाला इंसान आज इंसान से ही नफरत करता है। फिल्मी अदाकारा माधुरी दीक्षित से लेकर कई सरकारों ने महिलाओं के लिए असीम योगदान देने का बीड़ा उठाया। जिससे भ्रूण हत्या कम हो। लिंग परीक्षण को भी सरकार ने वैध करार दिया। उसके बावजूद आज भी शहरों में और गांवों में कन्यायें गर्भ में ही दम तोड़ देती हैं।

महिलायें जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती चली आ रहीं हां चाहे वो रानी लक्ष्मीबाई, मातंगिनी हाजरा या इंदिरा नूई हों। समाज दुर्बर्लों का नहीं होता। जिसने अपनी लड़ाई लड़ी देश, समाज उसका हुआ। देश के सर्वोच्च पद पर इंदिरा गांधी ने इतिहास रच डाला। मायावती दलित समाज का गौरव और तीन बार मुख्यमंत्री बनना सचमुच एक सम्मान की बात है। जे. जयललिता अदाकारा से पुष्ट और कठोर राजनीति के लिए जानी जाती हैं। ममता बनर्जी जो जमीन से उठी बंगाल की बेटी ने देश के गरीबों के हित को समझने वाली पार्टी के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की और बताया कि बंगाल की असल हितैषी वो खुद हैं। सुषमा स्वराज, अल्प काल के लिए ही सही दिल्ली की मुख्यमंत्री बनी। सोनिया गांधी के विरुद्ध उन्हें दक्षिण भारत से उतारा गया। आज विदेश मंत्री के पद पर मोदी जी के शासन में आसीन हैं। उमा भारती, स्मृति इरानी, मेनका गांधी तमाम ऐसे नामों की फहरिस्त है जिन्होंने अपनी लड़ाई खुद लड़ी और विजयी भी रहीं। एक स्वंय सेवी संस्था ने महिला सशक्तिकरण के कार्यक्रम में सुषमा स्वराज और मिनाक्षी लेखी जैसी हस्तियों को आमंत्रित किया था। मिनाक्षी लेखी जो बीजेपी की प्रवक्ता हैं। उन्हें यह बताने में तनिक भी संकोच नहीं हुआ कि जब उनके घर में कोई मेहमान आता है तो उनके दोनों बेटे मेहमाननवाजी करते हैं। सुषमा जी ने अपने रिसर्च के बारे में बताया कि जब मुझे पता चला कि महिला कमजोर होती है तो यह पाया कि शेर जंगल का राजा होता है पर शिकार शेरनी करती है। उसी प्रकार झुंड में चलने वाले हाथियों का मार्गदर्शन बूढ़ी हथिनी करती है। जो सूंड उठाकर खतरे को भांप लेती है। तो ऐसे में महिला कमजोर कैसे हो सकती हैं। उसे शक्ति की आवश्यकता ही क्यों है ?  जब वह स्वयं शक्तिस्वरुपा है। बात चल रही थी कि महिलाओं को क्या वास्तविक रुप से शक्ति की आवश्यकता है या जगरुक होने की अपने हक के प्रति।

देश मंगल ग्रह तक पहुंच चुका है। पर, महिलाओं के मंगल की बात कम लोग ही अन्तर्रात्मा से स्वीकार कर पाते हैं। एक समय था जब एक ब्याही गयी कन्या का उसके माता- पिता से सदा सर्वदा के लिए रिश्ता समाप्त सा हो जाता था क्योंकि उस वक्त जागरुकता मिट्टी में दबी हुई थी। आज जागरुकता की इमारत खड़ी होने के बावजूद भी उसका पता कम लोगों को ही पता है। आज जीवंत उदाहरण है कि तीन ब्याही गयी लड़कियां शादी के तुरंत बाद ही वापस अपने मायके आ गयीं क्योंकि उनके यहां शौचालय का प्रतिबंध नहीं था। ये जागरुकता है जो देश में संचालित हो रही योजनाओं पर अब गांवों तक की भी नजर है। महिलाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी हो इसके लिए मध्य प्रदेश सरकार की लाडली योजना और तमाम ऐसी योजनायें शामिल हैं।पर सवाल उठता है कि क्या इस प्रयास के बावजूद समाज और परिवार महिलाओं का सम्मान करना सीख पाया है ? जवाब में असंतोष अवश्य छिपा है। आज देश में महिलाओं का सम्मान वास्तविक तौर पर होता तो 16 दिसम्बर और हाल ही में दिल्ली में एक और हादसे ने जहां विदेशी कंपनियों द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं पर भी सवाल खड़ा कर दिया है। बड़े- बड़े विज्ञापन, सुरक्षा के वायदे ऐसी घटनाओं के बाद सत्यता की परख हो जाती है कि अपना व्यापार उज्जवल दिशा में बढ़े इसके लिए खोखले वायदों के सब्ज बाग दिखा जिये जाते हैं जिसतरह नगर निकाय चुनाव से लेकर लोकसभा चुनावों में नेतागण खोखले वायदे करने से नहीं चूकते। पर पांच साल बाद जब वही नेता अपने इलाके में आता है तो झूठ की नयी परत और मुखौटे के साथ आता है। साल आते हैं मुखौटा बदलता चला जाता है। दूसरा सवाल यह उठता है कि क्या हर गुनाह की भरपायी मुआवज़ा होता है? सरकार हो या कंपनियां मुआवज़ा देकर मामला रफा दफ़ा करने में यकीन रखती हैं। दिल्ली हादसों का शहर बन गया है। सिर्फ दिल्ली क्यों उत्तर प्रदेश हो या बिहार, बंगाल या दक्षिणी प्रांत। समस्या एक है कि लोगों की मानसिकता उनका नज़रिया कैसे बदला जाय? क्योंकि जबतक इंसान की सोच शुद्ध नहीं होगी तब तक मानसिकता समृद्ध नहीं होगी। स्वस्थ मस्तिष्क ही समाज को स्वच्छता से रख सकता है। संकीर्णता कुरुपता को जन्म देती है। जिससे स्वस्थता बीमारी की ओर अग्रसर हो जाती है। फलस्वरुप प्रवृत्ति कोमा और आसीयू में चली जाती है। जहां स्वस्थता डाक्टरों के हाथ की कठपुतली बन जाती है और स्वस्थता के पुजारी सिर्फ प्रार्थना करते रह जाते हैं। देश और समाज की ऐसी दुर्बल स्थिति ना हो इससे पहले पहल करना अनिवार्य हो गया है। जिसकी शुरुआत घर के अंदर से होनी आवश्यक है। माताओं और घर के बड़े बजुर्गों को पहल करनी होगी। सीखाना होगा सम्मान दोगे तभी सम्मान पा सकोगे।

एक नेता का बयान आया था कुछ दिन पहले की हर महिला के पीछे हम पुलिस नहीं लगा सकते। बंगाल के नेता ने कहा- जब तक संसार है- दुष्कर्म की घटनायें घटती रहेंगी। हम कठोर प्रावधानों की मांग न करके उन लोगों को ऐसे बयानों से बल मिलता है। हर बार घटी घटनाओं को लेकर पूरा देश स्तब्ध रह जाता है। पर परिणाम शून्याकार ही रहता है। इन घटनाओं पर फिल्म इंडस्ट्री को पहल करनी चाहिए। देश और युवा उसके प्रशसंक और पद चिन्हों पर चलने में गर्व की अनुभूति करते हैं। उनके पास निर्णय करने की क्षमता नहीं होती। इसलिए हर बच्चे को तहज़ीब देनी होगी। तभी युवा होने पर उसके रक्त में वह अनुभूतियां विद्दमान रहेंगी। जिससे शिष्टाचार उसे गलत पथ पर जाने से रोकेगा। समाज ऐसे पथ पर चल चुका है जहां वयोवृद्ध महिलायें भी असुरक्षित एवं असहाय हैं। कभी किसी बलवान ने बदले की भावना से किया तो कभी कुदृष्टि के चलते। पर बदला लेने का यह कौन सा तरीका है जहां मानवता खुद शर्मसार हो जाये। आप अपने घर में अपने ही बड़े –बूढों और परिवार जन से नज़रें मिलाने के काबिल न रहो। द्रौपदी से लेकर आज दिल्ली तक महिला अपमान के बोझ तले दबती और सहमती चली जा रही है। जिनके सपोर्ट मेंपुरुष हैं वो महिलायें तो ज्ञानार्जन से लेकर अपने हक की लड़ाई लड़ लेती हैं पर जिन्हें ऐसा सौभाग्य नहीं मिला तो उन्हें बलहीन दुनिया घोषित करेगी ? मलाला –एक छोटी सी बच्ची जिसने विश्व में बच्चों के लिए मुहिम छेड़ी तो नोबल पीस प्राइज़ की हकदार भी। आज उसके पीछे तमाम बन्दूकें तनीं सी हैं पर उसके पिता उसके असल सहायक एवं मार्गदर्शक हैं। वहीं दूसरी लड़कियां जिनके परिवार में कोई मर्द नहीं हैं वो घर के बाहर पैर तक नहीं रख सकीं पढ़ना तो दूर है। गांव से लेकर शहर तक अब यह कदम हर लड़की और महिला को उठाना होगा अपने बेटों को शिक्षित करना होगा। शिष्टाचार की पढ़ाई का स्कूल खोलन होगा।  
इतिहास में सीता, कुन्ती और जीजा बाई  ऐसी उदाहरण हैं जिन्होंने अपने बेटों को ऐसी शिक्षा एवं संस्कार दिये जिससे संसार में आज भी लव -कुश का  नाम सम्मान से लिया जाता है। यह सीता माता की शिक्षा का ही परिणाम था कि अपने दोनों बेटों को पथ भ्रष्ट होने से बचाया  अनैतिकता से कोसों दूर रखा। वहीं कुन्ती ने भी अपने पांच पुत्रों को शिक्षा और संस्कार देकर मिसाल कायम की। शिवाजी की माता के संस्कार जगत विख्यात हैं।  वहीं गांधारी ने अपने पुत्रों दुर्योधन और दुशशासन जो सदा अपने मामा शकुनी के साथ समय व्यतीत करते थे। एक उनकी शिक्षा और एक माता कुन्ती की। दोनों उदाहरण हमारे सामने हैं।  इसी तरह आज हर नारी को सिर्फ माता नहीं वरन सीता के समान सोच, कुन्ती समान पालन और जीजा बाई जैसी शिक्षा प्रदान करने का संकल्प लेना होगा। तभी देश उन्नत हो सकेगा। वरना लड़के लड़के हैं यह सोच उन्हें सही मार्ग से भटका देगी। माता एवं पिता दोनों का कर्तव्य होता है कि लड़कों को भी लड़कियों जैसा उचित संस्कार एवं शिक्षा से अवगत करायें। 

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