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Thursday 28 July 2016

कांग्रेस का यू पी टेंट

सर्वमंगला मिश्रा

देश में चुनाव हो या सरकार चलाने का चलन, दोनों ही सूरत में देश की सबसे पुरानी पार्टी का नाम जुबान पर आ ही जाता है। आजकल उत्तर प्रदेश में रोज नयी हलचल सी मची रहती है। जैसे उत्तर प्रदेश का ब्याह होने वाला है। रोज नये कार्यक्रम, रोज नये मेहमानों का आगमन लगा हुआ है। कभी मुखिया के तौर पर राजबब्बर तो कभी घर की बजुर्ग के तौर पर दिल्ली की महिला शान शीला दीक्षित, जिनका लंबे अंतराल के बाद, उत्तर प्रदेश में पदार्पण हो चुका है। कभी खुशी कभी गम के दौर से गुजर रही कांग्रेस पार्टी ने अब शीला आंटी की शरण ले ली है। उन्हें उम्मीद है कि बुरे वक्त में अनुभव की पतवार ही नैया को पार लगाने में काम आती है। हालांकि शीला दीक्षित अपने बूढ़े कंधों पर 403 सीटों वाली उत्तर प्रदेश विधानसभा का बोझ संभाल पाने में कितनी सक्षम है इस पर उन्हें भी शक जरुर होगा। लेकिन, अनुभव और किसी की आस को टूटने न देना बुजुर्गियत की निशानी है। खामोश चेहरों के पीछे कितनी चालें अभी चली जायेंगी कहना मुश्किल है। वक्त के साथ कितने पैंतरे बदले जायेंगें यह देखना निश्चित तौर पर हम सबके अनुभव की किताब में कुछ अध्याय जुड़ने जैसा होगा।
कांग्रेस पार्टी एक सागर की तरह है। जहां अंदर पैठो तो मोती ही मोती मिलेंगें। भले ही कुछ पुराने तो कुछ घिसे पिटे। इस समय सबको नयी मशीन के जरिये माडिफाई किया जा रहा है। सबको चुस्त दुरुस्त बनाया जा रहा है। चुनावी बिगुल हर पार्टी अपना अपना फूंक चुकी है। तो तैयारियां उसी हिसाब से चल रही हैं। स्तब्ध जनता सिवाय खेल देखने के कुछ कर नहीं पाती। जनता जैसे जैसे खेल देखती जाती है वैसे वैसे उसका भावनात्मक परिवर्तन भी होता रहता है। परिस्थितात्मक परिवर्तन पार्टियों में होना कोई नई बात नहीं होती है। लेकिन नेतृत्व के संगठनात्मक गठन में बार बार परिवर्तन का होना आंतरिक हलचल की अनुभूति कराता है। राहुल गांधी की नाकामी छुपाने के लिए, लक्ष्य हासिल करने के लिए, कांग्रेस की कमान संभाले प्रशांत किशोर ने नये नये दांव पेंच  के खेल में जनता को कहीं न कहीं भ्रमित करने का काम किया है। कांग्रेस के कर्मीयों से लेकर आम जनता तक प्रियंका की पक्षधर रही है। 1997 से लेकर आजतक प्रियंका गांधी ने सिर्फ चुनावी कैंपेन में ही बढ़ चढ़कर सदैव हिस्सा लिया। उनकी पर्सनालिटि ने अच्छे अच्छों के जहां छक्के छुड़ा दिये वहीं उनका ओजस्वी भाषण कहीं न कहीं दिल को छू सा जाता है। जिस तरह राजीव गांधी ने अपने बर्ताव से लोगों के दिलों में एक अलग स्थान बनाया था। ठीक उसी तरह इंदिरा गांधी की पोती प्रियंका ने पार्टी से लेकर जनता के दिलो दिमाग में अपनी एक छवि जरुरी उकेर ली है।


उत्तर प्रदेश, जहां लखनऊ ,नवाबों के शहर से लेकर सुहागा की पहाड़ियां बसती हैं। जहां रईसी है तो अभाव का भयानक चेहरा भी। जहां यादवों की भरमार है तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और माइनारिटी वोटों का बाहुल्य भी। ऐसे में पार्टी शीला दीक्षित के ब्राह्मण होने का फायदा उठाना चाहती है। साथ ही बची खुची राजनीति पर भी कोई सेंध न लगाये इसके लिए कांग्रेस पार्टी ने मुश्तैदी दिखायी है। राहुल गांधी 45 सावन के बाद अब ब्राह्मण परिवार से गठजोड़ कर पुराने जमाने की तरह राजनीतिक शादी की चाल में जनता को मानसिक रुप से फांसना चाहते हैं। इससे पूरा ब्राह्मण समाज क्या राहुल गांधी के प्रति समर्पित हो जायेगा? कहां जायेगा यादव वोट बैंक ?  कहां जायेगा ओबीसी वोट बैंक ? जिसके लिए हर पार्टी की लार टपकती है। अगर ब्राह्मण समाज कांग्रेस के पक्ष में वोट करता है तो क्या मुस्लिम समाज उसी शिद्दत से सामने आ सकेगा। कांग्रेस के कर्णधारों को यह समझना होगा कि पार्टी की मंशा जनता तक न पहुंचे। जनता जो समझ रही है वो है नहीं और जो समझ ही नहीं पा रही वो है। यादवों और ब्राह्मणों की जमीन पर कांग्रेस का यह चुनावी टेंट सपा और बसपा के गरजने बरसने के बावजूद टिका रह पायेगा या हवा के झोंके के साथ शामियाना उड़ जायेगा।
ऋगवेद की तरह सबसे पुरानी पार्टी भले ही है पर सामवेद और अथर्ववेद अगर किसी की पसंद है तो कोई क्या कर सकता है। सम्मान कर देगा पर स्थान नहीं। कांग्रेस की रणनीति में क्या घोड़ा ढाई टांग ही चलेगा। यह प्रशांत किशोर जी ही तय कर सकते हैं। अभी तो सोनिया और प्रियंका उन्हें उनके अनुभव के आधार पर आंक रही हैं। इसी आधार पर ही उन्हें अपने खेमे में लाया गया है। उनकी रणनीति ने बिहार में नीतीश कुमार और केंद्र में मोदी को ताज दिलवाया है। सोनिया गांधी को अपने राजकुमार के लिए ताज चाहिए, जिसकी कीमत कुछ भी हो। सिपाहसलार किशोर जी अपनी तरकश से तीर पर तीर निकाले जा रहे हैं। क्योंकि उन्हें अपने गांडीव पर भरोसा है। पर, समस्या है कि राहुल नकुल सहदेव की तरह हैं युधिष्ठिर, भीम या अर्जुन की तरह नहीं।
कांग्रेस जिस तरह पहले हर बात हर मुद्दे को राहुल के अनुरुप खेलती थी जिससे उनका राजनीतिक दबदबा कायम हो। पर ऐसा हुआ नहीं। हर दांव उल्टा पड़ा। कांग्रेस यूं तो राहुल को ही हर बड़े पोस्ट के लिए प्रोजेक्ट करती रही है। पर, कुछ दहशत की गली से बाहर झांकने का प्रयास तो किये जिससे नजरबंद लोगों की एक झलक जनता को दिखायी तो दी पर कैदी तो कैदी ही होता है और पहरेदार पहरेदार ।

उत्तर प्रदेश का चुनाव तो मात्र ट्रायल मैच है। इसमें जितने भी एक्सपेरिमेंट करने हैं उतने प्रशांत किशोर जी को करने की छूट होगी। लेकिन फाइनल मैच तो 2019 का होगा जिसमें शायद माफी की बटन ही नहीं बनायी गयी हो। इसमें जनता का मूड आने वाले लोकसभा के लिए भांपना और उसे मोल्ड करना है । कांग्रेस के हाथ से उसका सबसे पुराना किला असम निकल चुका है। बाकी पूर्वोत्तर राज्यों को हड़पने की पूरी तैयारी कर रही है भाजपा । ऐसे में परिस्थितियां कठिन हैं। पूरे देश में कांग्रेस की लहर को एक बार फिर उठाना किशोर जी की अहम जिम्मेदारी दिख रही है। राजबब्बर जी जिन्हें उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी गयी है। उनका व्यक्तित्व पार्टी पर कौन सा रंग उड़ेलेगा यह तो देखना पड़ेगा।  आज तक कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सपा -बसपा जैसा अपना दबदबा नहीं बना पायी।  बल्कि उत्तर प्रदेश में भाजपा और बसपा की जोड़ी ने कई अबूझ इतिहास रच डाले । पर, कांग्रेस यहां तीसरे -चौथे पायदान पर रहती है। देश का सबसे बड़ा राज्य पर हूकूमत की मंशा इसबार रेस में किस पायदान तक पहुंचाती है यह दिलचस्प होगा। शीला दीक्षित के दोनों हाथों में लड्डू जरुर रहेगा। कांग्रेस का बेहतर प्रदर्शन उन्हें मुख्यमंत्री का पद देगा और संदीप दीक्षित का भाग्य भी भविष्य के लिए संवर जायेगा। कुछ न हुआ तो टेंट उखाड़ कर कहीं और जाने में देर कितनी लगती है।

बहुजन में अब कितने जन
-सर्वमंगला मिश्रा




1984 में कांशीराम द्वारा स्थापित बहुजन समाज पार्टी उस वर्ग का वकील बनकर सामने आयी जिनका कोई सहारा न था। पिछड़ा, दलित वर्ग जिन्हें समाज ने नकार दिया था, अछूत की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया था। हमारा देश जाति भेदभाव से पूर्णरुप से शायद कभी उपर नहीं उठ पाया। आजादी के पहले भी जब हिन्दू शासक हुआ करते थे तब भी छुआछूत, जाति-पांति आदि समस्याओं से एक वर्ग जूझता था। उसे जीवन की उन कठिनाइयों से गुजरना पड़ता था जिनका वह हकदार नहीं था। इन्हीं कारणों से समाज कुरुप एवं कुपोषित हो गया। फलस्वरुप समाज में असंतोष व्याप्त हो गया और आंतरिक रुप से बंट गया। जिसके उपरांत मुस्लिम शासन और फिर अंग्रेजी सत्ता का आगमन हो गया भारत में। विदेशी हूकूमत की ताकत ने पूरे देश और समाज को ऐसा झकझोरा कि जांति पांति, छुआछूत सब भेदभाव मिट गया और एकजुटता और दृढ़ता का संकल्प समाज में कट्टरपंथी के रुप में जागा। देश आजाद हुआ। फिर देश का विभाजन हुआ । सत्ता और पदलोलुपता ने देश में कहीं न कहीं अलगाववाद को जन्म दिया। इसी अलगाववाद की धारा को पकड़कर बसपा के संस्थापक कांशीराम ने एक नयी क्रांति लाने का बेड़ा उठाया। जिसमें दबे कुचले, बेसहारा, पिछड़ी जाति के लोगों की आवाज बुलंद करने का जिम्मा, इस पार्टी का उद्देश्य बना। हालांकि, 1925 में सी पी आई पार्टी का गठन सभी समुदाय के लोगों को समान दर्जा देने के उद्देश्य से किया गया था । ताकि समाज में एकसमानता का भाव पनप सके । लेकिन समाज की मानसिकता, ऊंच नीच की खाई, बड़े -छोटे की खाई कभी पट नहीं पायी ।

जगजीवन राम जी भी पिछड़े वर्ग से आते थे। पर पूरा देश जानता है कि कितने गणमान्य पदों पर उनका नाम अंकित है। उनकी सुपुत्री मीरा कुमार भी लोकसभा की स्पीकर के पद तक पहुंच चुकी हैं। सीताराम केसरी जिन्होंने कांग्रेस के सर्वोत्तम पद  - कांग्रेस अध्यक्ष- तक पहुंचकर वो तमगा हासिल किया जो बहुत कम लोग कर पाते हैं। केसरी जी कांग्रेस पार्टी में पहले जश्न होने पर ढोल बजाते थे। वहां से वहां तक का सफर बेशक आसान नहीं था पर सफर मुकम्मल रहा । परन्तु, इस समय कोई आरक्षण नामकी चीज नहीं थी समाज में ।

"यूं तो फहरिस्त काफी लम्बी है दासतां ए जंग की। पर जीवन का सबब अंतहीन है कहीं।  "

आज देश में दलितों और  पिछड़ों के नाम पर आरक्षण घोषित है। सरकारी नौकरी से लेकर रेलवे की टिकट बुकिंग तक। शिक्षा से लेकर जीवन यापन तक। पर सवाल यहीं उठता है कि क्या दलितों और पिछड़ों को अपना बतानेवाली पार्टियां समानता लाने में सक्षम हुईं । क्या आज भेदभाव खत्म हो गया। क्या आज ग्रामीण इलाकों में कुम्हार, नाई, धोबी आदि बिरादरी से संबंध रखने वाले लोग पिछड़ेपन की भावना से मुक्त हो चुके हैं। क्या आज ब्राह्मण, क्षत्रिय जैसी उच्च जातियां उन्हें समान दृष्टि से देखने लगी हैं। जातिगत भेदभाव मानसिक रुप से आज भी कहीं न कहीं कायम है। हां, पार्टियों के खुलकर सामने आने से कुछ कागजी रुप से खाई पटी है।
गरीबों और दलितों  की देवी बहन मायावती और तीन बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकीं बहनजी की लड़ाई सदा सर्वदा से सपा पार्टी से ही रही है। लेकिन इस पार्टी ने चुनावी भोज का आनन्द लेने के लिए जिनके खिलाफ हथियार उठाये थे उन्हें ही उच्च पदों पर आसीन कर दिया और अपनी पार्टी के चेहरे का स्वरुप ही बदल डाला। इससे सिर्फ दलितों का वोट न मिलकर ब्राह्मणों का वोट भी बहनजी ने जुगत से हासिल कर लिया। पर, कहते हैं ना -साधु सब दिन होत न एक समाना। समय का स्वरुप क्या होगा यह सिर्फ समय ही तय कर सकता है और कोई नहीं। इस पार्टी ने एक वर्ग समुदाय को एक पहचान दी। एक अलग विकास की बात की। एक नारा लगाया। एक आजादी का सपना दिखाया कि यह पिछड़ा, अतिपिछड़ा वर्ग अब पीछे नहीं रहेगा सबके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलेगा। अपना स्वाभिमान किसी की मिल्कियत के पैमाने पर, सूली पर नहीं चढ़ाएगा। आज उत्तर प्रदेश की जनता की हालत देखिए। क्या परिवर्तन आया उन दलितों के जीवन में। जिनके नाम पर मायावती ने तीन बार मुख्यमंत्री पद की कुर्सी संभाली। क्या आज भी यह वर्ग शोषण का शिकार नहीं होता। बेरोजगारी और भूखमरी से मौत नहीं हो रही या बहनजी के राज में नहीं हुआ।  



आज बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय- के स्थान पर कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी बहुजन दुखाय। पार्टी से निकलने से लेकर बहन मायावती जी पर लोग लांछन लगाने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। कभी स्वामी प्रसाद मौर्य उन पर टिकट बेचने का आरोप लगाते हैं तो कभी बीजेपी के नेता उनपर अभद्र टिप्पणी करते हैं। 2014 के लोकभा चुनाव के दौरान सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने इतने अपशब्दों का प्रयोग किया था बहन मायवती के प्रति और अखिलेश यादव उनके सुपुत्र और मुख्यमंत्री उत्तरप्रदेश ने बुआ कहकर संबोधित किया था। कहने का पर्याय यह है कि आज बहुजन समाज पार्टी की अस्मिता कहां खोती चली जा रही है। पिछले चुनाव में इस पार्टी ने बुरी तरह हार का सामना किया था । 2014 लोकसभा चुनाव बसपा के लिए साख में बट्टा लगाने जैसा रहा।
आखिर बसपा पार्टी जो क्षेत्रिय तौर पर अपना दबदबा रखती थी आज विकटतम परिस्थितियों से जूझ रही है । क्या इसकी वजह मायावती का पार्टी के अंदर हिटलरशाहीपना जिम्मेदार है। कांशी राम जी के जीवित रहने तक पार्टी औंधे मुंह गिरना शुरु कर चुकी थी। पर आज लगता है जैसे बसपा नाम की बूंद अब सीप में, सर्प के फन में या समुद्र में कहां गिरेगा किसीको पता नहीं। पार्टी को एकजुट रखने के लिए मायावती जी को अंदरुनी रणनीति पर विचार करना आवश्यक हो गया है। क्योंकि इसी तरह प्यादे गिरते रहे तो चुनावी रण में सेंध लगाना बहुत आसान हो जायेगा जिससे पार्टी के अस्तित्व पर संकट घिर जायेगा। जो रत्न बचे हैं उन्हें संभालकर मायावती रख लें तो सत्ता भले हाथ न आये पर, अस्तित्व कायम रहेगा । वरना बहुजन में कुछ ही जन रह जायेंगे जो पार्टी के लिए अतिचिंतनीय विषय होगा।

Wednesday 27 July 2016

महिलाओं में कुपोषण क्यों...?




 सर्वमंगला मिश्रा

कहा जाता है- स्वस्थ शरीर में स्वस्थ दिमाग का वास होता है। स्वस्थ शरीर के लिए आवश्यक होता है पोषक आहार- यानी सम्पूर्ण विटामिन युक्त भोजन । भोजन हम सभी करते हैं। भोजन के अभाव में इंसान को कई बीमारियां घेर लेती हैं। रोगों का जमावड़ा शरीर में हो जाता है पर असर तन, मन और धन सबपर पड़ता है। यूं तो जीवन को भोजन के बिना संभव नहीं पर, इसका ज्यादातर शिकार बच्चे और महिलाएं होते हैं। बच्चों की देखभाल तो उनके मां बाप फिर भी कर लेते हैं। लेकिन, उन महिलाओं की यह बीमारी दूर नहीं हो पाती  जिनके ऊपर पूरे घर को संभालने का भार उन पर होता है। इसी कारण महिलायें सबकी पसंद नापसंद का ख्याल रखते रखते अपने स्वास्थ्य पर ध्यान ही नहीं दे पातीं या खुद को इग्नोर करना उनकी आदत और मजबूरी बन जाती है। ऐसे में कुपोषण महिलाओं में बढ़ता जाता है। जिससे उनका स्वास्थ्य खराब होने लगता है और वक्त से पहले झुर्रियां, बुढ़ापा , मानसिक कमजोरी, थकान  जैसी बीमारियां आम होने लगती हैं।
आज भले ही महिलाओं की जीवन शैली पुरुषों से थोड़ी मिलती जुलती हो गयी है । पर एकसमय था जब महिलाओं का जीवन 75- से 80 प्रतिशत रसोईघर में ही व्यतीत होता था। पहले महिलाएं आज की तरह घर के बाहर काम करने नहीं जाती थीं। आज घर के बाहर उनका भी उतना समय ही व्यतीत होता है जितना पुरुषों का। कई कामकाजी महिलाएं आज भी दोनों दायित्व निभाने में अपनी मार्डन जीवन शैली का परिचय देने में समझदारी मानती हैं। साथ ही आजकल जीरो फिगर से लेकर फिट दिखने की प्रक्रिया में महिलाएं खाने में इतनी कमी कर देती हैं कि आर्थिक रुप से मजबूत होने के बावजूद वो कुपोषण का शिकार हो जाती हैं। वहीं आर्थिक तंगी से जूझने के कारण भी अधिकतर महिलाएं इसका शिकार हो जाती हैं। ऐसा भी देखा जाता है कि जब परिवार किसी वजह से आर्थिक तंगी या किसी मानसिक उलझन से गुजरता है तो ऐसे वक्त में महिलाएं भोजन का ही सर्वप्रथम त्याग कर देती हैं। ताकि बुरा वक्त बीत जाय। साथ ही घर के बाकी लोगों को भूखा न रहना पड़े। पर भूखे पेट रहने से स्नायु तंत्र प्रभावित होता है । दिमाग के साथ साथ शरीर की अन्य ग्रंथियों पर भी इसका असर पड़ता है। जब यही प्रक्रिया जीवन में लगातार चलने लगती है तो, उसका असर व्यापक होने लगता है। मानसिक उलझन बढने लगती है। याददास्त पर असर पड़ने लगता है। शरीर में थकान,कमजोरी जैसी चीजें असर करने लगती हैं। हड्डियां कमजोर होने लगती हैं। ग्लैंड्स कमजोर होने लगते हैं। जिसके फलस्वरुप तरह तरह की बीमारियां वक्त से पहले घर कर लेती हैं। महिलाए जाने अंजाने में घुटनों का दर्द, नर्वस सिस्टम में वीकनेस जैसी तमाम बीमारियों को आमंत्रित कर लेती हैं ।

लाइफस्टाइल महिलाओं की अजब गजब होती है और कुछ ऐसा बना भी लेती हैं। आज लोगों को होटल, रेस्टोरांट्स में खाने का इतना शौक बढ़ गया है कि घर का पोषणयुक्त भोजन रास ही नहीं आता। होटल, रेस्टोरांट्स, ढाबा या सड़क पर खड़े खोमचे वाले कितना पोषित आहार आपको परोसेंगें। इसका अंदाजा हम सब आसानी से लगा सकते हैं। क्योंकि यह सभी व्यवसाय करने उतरे हैं। हमारे स्वास्थ्य का ध्यान तो स्वयं को ही रखना होगा। एडवरटिजमेंट भले आये कि इस दुकान में फ्रेश फूड ही मिलता है पर असलियत बहुत बार आंखें खोलकर मिचने जैसी स्थिति हो जाती है। फुटपाथ पर खड़े होकर शान से गोलगप्पे खाना जहां उसके पीछे मक्खियों का अंबार और कचरा पीछे जमा रहता है क्या उसका असर हमारे स्वास्थ्य पर नहीं पड़ता ?  प्रधानमंत्री मोदी ने स्वच्छता अभियान तो पूरे देश में चलाया है पर अभी भी देश मानसिक रुप से इन चीजों को ग्रहण नहीं कर पाया है। फलस्वरुप लोग आज भी खुले में जहां तहां शौच करते हैं और वहीं एक टिक्की वाला, लिट्टी वाला, पास में दुकान लगाये आपकी भूख को आमंत्रित करता है।

महिलाएं बाहर खाने में शान महसूस करती हैं। जिसके दो कारण हैं। पहला उन्हें खाना बनाने के झंझट से मुक्ति मिलती है और दूसरा नये नये क्यूजिन ट्राई करने को मिलता है। लोग अब चाउमीन, मैगी के साथ जीवन जीने के आदि से हो गये हैं। मैक डी हो या के एफ सी, फेवरेट हो गया है। आजकल पार्ट्री और ट्रीट के चक्कर में भी ज्यादातर रिश्तेदारों और दोस्तों के साथ भी घर के बाहर ही खाना होता है। लव अफेयर के चक्कर में भी महिलाएं जब अपसेट होती हैं तो खाना पीना ही छोड़ देती हैं जिससे चिड़चिड़ापन बढने लगता है। आमतौर पर आज महिलायें फैशन और ट्रेंड में आगे होने के लिए अल्कोहल और सिगरेट जैसी वस्तुओं का सेवन भी उनकी अंतडियों को डैमेज कर देता है। आफिस की झुंझलाहट और वर्क लोड भी वजह होती है जो समय पर खाना पीना नहीं हो पाता। कुछ का वर्किंग आर्स यू.एस शिफ्ट के अनुसार चलता है। जिसका तात्पर्य जब हमारे यहां रात होती है तो विदेश में सुबह होती है। सूर्यास्त के बाद भोजन करने से पाचन तंत्र उतने सही से काम नहीं करता जितना सूर्योदय होने के बाद काम करता है। डाइजेशन कमजोर होने लगता है जो लोग देर रात में भोजन करने के आदि होते हैं या रोजमर्रा में उनकी आदत हो जाती है।

गांव में रहने वाली महिलाओं की जीवन शैली शहरों से हटकर होती है। परंपरागत और पुरानी शैली के अनुसार आज भी बहुत से घरों में बड़े बजुर्गों, बच्चों और घर के बाकी सदस्यों को खिलाने के बाद ही महिलाएं स्वयं खाने बैठती हैं। खाना है तो ठीक वरना जो बचा हुआ खाना खाकर ही आत्मसंतुष्टि का बोध करना चाहती हैं। आज भी बड़ों के सामने घूंघट में रहने वाली महिलाएं बहुत हद तक पोषित खाने के विषय से अनभज्ञ हैं। वो नहीं जानती कि नाश्ते में क्या भोजन लेने से उन्हें ऊर्जा की प्रप्ति होगी। आमतौर पर किसानों का परिवार ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। जहां अनाज की पैदावार की फसल के ऊपर ही परिवार निर्भर रहते हैं। धान की पैदावार होती है तो चावल और गेंहूं की समय रोटी, फल और सब्जियां भी मानसून पर निर्भर करता है। फसल अच्छी हुई तो किसान परिवार का पेट भर पाता है। वरना गरीबी और भूखमरी की चपेट में महिलाओं का जीवन शेष हो जाता है। चूंकि महिलाएं उतनी बलिष्ठ नहीं होती। उन्हें एनीमिया की बीमारी जल्दी हो जाती है। जिसके लिए उन्हें अनार, फल दूध जैसी चीजें ज्यादा खाना चाहिए होती हैं। पर आर्थिक तंगी के कारण महिलाएं फिर संकुचित हो जाती है और जैसे तैसे जीवन यापन करना उनकी मजबूरी हो जाती है।

एक पहलू और ध्यान देने योग्य है। आसा नहीं है कि दुबले पतले लोग ही कुपोषण का शिकार होते हैं। मोटे मोटे लोग भी इसकी चपेट में आ जाते हैं। कई लोग सिर्फ अपनी पसंद की चीजें ही खाते हैं जिनमें अंकुरित चने, मूंग, सीजनल फल, दूध  जैसी चीजों का अभाव रहता है। पेट तो भर लेते हैं। शाही भोजन भी कर लेते हैं पर सुपाच्य और विटामिन युक्त भोजन से कोषों दूर रह जाते हैं। कई बार प्रेग्नेंसी के बाद भी महिलाएं में यह बीमारी पायी जाती है। इसलिए उनके स्वास्थ्य का भरपूर ख्याल रखा जाता है। अमूमन 56 प्रतिशत महिलाएं कुपोषण का शिकार होती हैं जिनमें से अधिकतर विवाहित होती हैं।

महिलाओं को अधिक मात्रा में आयरन, प्रोटीन, विटामिन ए, सी, फैट आदि की मात्रा अधिक होने चाहिए। फाइबर युक्त भोजन अवश्य करना चाहिए। ग्रामीण इलाकों के लोग चोकर जैसी चीजों से प्राप्त कर लेते हैं। शहरी लोग फल, अनाज, ड्राई फूट्स के जरिये इनर्जी प्राप्त करते हैं। खाने में कैल्शियम की मात्रा अधिक होनी चाहिए। क्योंकि डाक्टर यह बताते हैं कि कैल्शियम शरीर में स्टोर नहीं रहता। जिसकी आवश्यकता हर इंसान को रोजमर्रा के तौर पर जरुरत होती है। इन सब के अलावा शुगर, कार्बोहाइड्रेट की कमी भी पूरी करते रहना चाहिए। आसानी से दो तीन चीजों का ध्यान रखकर शरीर को चुस्त रखा जा सकता है। 1. चना -अंकुरित हो या भूना हुआ-  जो आपको आंतरिक ऊर्जा प्रदान करता है। इसके अलावा मौसमी फलों का सेवन और आयरन के लिए अनार और रोज के खाने में चावल और हरी सब्जियों के द्वारा कुछ हद तक इस बीमारी को दूर किया जा सकता है। आजकल जिस तरह तरबूज, आम, अंगूर, खीरा, जामुन आदि फल पर कांसंट्रेट कर स्वास्थ्य को हम महिलाएं सुखद बना सकता हैं।


























Thursday 21 July 2016

सल्तनत -ए -कश्मीर



सर्वमंगला मिश्रा

भारत कश्मीर का प्रमुख अंग है। जिसे सर का ताज –सरताज भी कहा जाता है। ताज पहनना और उसे संभाल
कर रखना एक राजा के लिए चुनौती के साथ साथ सम्मान, अपमान और मर्यादा की शाख में सेंध न लगने देने का एक उत्तरदायित्तव होता है। भारत के सिर पर भी कश्मीर का ताज है। जिसे आज तक भारत ने पूरे उत्तरदायित्तव के साथ संभाल कर रखा हुआ है। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हार न मानकर मुकुट पर आंच नहीं आने दी। इसके एवज़ में लाखों सैनिकों और जवानों की आहूति चढ़ चुकी है। देश के सम्मान से बड़ा कुछ नहीं होता यह भारतवासियों और उनके सपूतों ने सिद्ध कर दिया है।

कश्मीर के मुद्दे को लेकर भारत –पाक की अब तक न जाने कितनी अनगिनत वार्ताएं हो चुकी हैं। दोनों देश चाहे
जहां मिलें वहीं यह मुद्दा ज्वलंत बन जाता है। पूरे विश्व की निगाहें दोनों देशों पर इसी विषय को लेकर टिकी
रहती है। सार्क सम्मेलन से लेकर अमेरिका में संबोधन तक, यह मुद्दा कभी विश्व ने न अपनी और न हमारी आंखों से ओझल होने दिया। संभव भी नहीं है, क्योंकि जिस विषय को लेकर पूरा देश जलता रहता है, कितनी कोख सूनी हो जाती हैं, कितने परिवार अपाहिज़ हो जाते हैं, कितने घर बेकारी की रफ्तार पकड़ लेते हैं, कितने मृत शरीर चिता की अग्नि तक भी नहीं पहुंच पाते, ऐसे मुद्दे से आंखें फेर लेना उस देश की जनता और माटी से
अघोषित नाइंसाफी है, अपराध है।

गांधी जी, जिन्ना और जवाहर लाल नेहरु के इस विवादित फैसले ने न भारत को चैन की सांस लेने दी और न ही
पाकिस्तान को शांति से बैठने दिया। दोनों देश विश्व के समक्ष न जाने कब तक सौरभ कालिया से लेकर न जाने कितने  शहीद अपनी शहादत देगें और बुरहान कश्मीर की वादियों में सनसनी सुलगाते रहेंगे। कश्मीर पाक के लिए मक्का मदीना से भी बढ़कर बड़ी दरगाह बन चुका है। जिसके लिए न जाने कितने आतंकी गिरोह बन चुके हैं और सक्रिय हैं। कितने मासूम बच्चे उनकी गिरफ्त में फंस गये या फंसा लिये गये और कुछ जेहाद के नाम पर मर मिटे । कलम -कागज की जगह बन्दूक, हथगोले जो किसी को भी दहला दें, उनसे दहशत के आकाओं ने इन मासूमों को बेखौफ होकर खेलना सीखा दिया। इनमें से कईयों को दहशत के कलयुगी द्रोणाचार्यों ने कई ओजस्वी और धराशायी कर देने वाले नवचेतना युक्त क्रांतिकारी बुरहान जैसे नवयुवकों को आतंक का अर्जुन बना दिया । आज ऐसे ही कुछ दहशत के खौफनाक बुरहान जैसे सेनानायकों को पाकिस्तान खोकर शोक का आलम फैला रहा है। आतंकी आकाओं को शायद इस बात का इल्म ही नहीं कि जो अनगिनत लाशें बिछाकर एक बार खुद मिट्टी पर गिर पड़ते हैं तो उनका शोक रहे हो पर, जिन्हें न जन्नत चाहिए न किसीकी जान, वो शहीद हो रहे हैं सिर्फ देश की शान की खातिर, भारतमाता की आन की खातिर, उनकी लाशें बिछाकर कौन सी जन्नत नसीब होगी। क्या कभी यह ख्याल दिमाग में आया कि जिस धरती पर हम सांस ले रहे हैं उस धरती को नर्क बना रखा है जेहाद के नाम पर । जब हिस्सेदारी दे दी गयी है तो अवैध कब्जा के नाम पर इंसानियत के ऊपर क्यों बुलडोजर चला रहे हैं। ह्यूमन बम, फिदाइन दस्ते तैयार कर अपने गैरइरादतन मंसूबों पर पहल कर शिखर हासिल नहीं होना है। लेकिन जिस जेहादी जंग में इंसानियत को ढकेलकर सूकून का एहसास जेहादी टोला करता है वो शर्मसार कर देने वाला कबूलनामा है।


पाक -भारत के बार्डर पर क्षण क्षण अशांति पनपती रहती है। हर बार विश्व मंच पर चेतावनी के तौर पर विदेश मंत्रालय के हुक्मरान और प्रवक्ता कहते आ रहे हैं कि आतंकवाद और शांति वार्ता एक साथ नहीं चल सकती। समय चाहे अटल बिहारी का रहा हो या अब मोदी का। जसवंत सिंह हो या सुषमा स्वराज, चेतावनी से लेकर शांति वार्ता आमंत्रण,शांतिदूत भारत ने हर लहजे से समझाया, पर पाकिस्तान अपनी जेहादी जिन्दादिली के आगे सोचने में असमर्थ लगता है।

बुरहान, जिसकी मौत का शोक पूरा पाकिस्तान मना रहा है। जिसने न जाने कितने अनगिनत मासूमों को अपने आकाओं के कहने पर गुमराह किया, कितनों का जीवन बर्बाद किया, जिसने न जाने कितने घरों के चिराग छीन लिये, उस बुरहान की मौत के जनाजे के साथ ऐसी भीड़ उमड़ी जो अकल्पनीय थी। यह वही था जिसने अपनी सेल्फी सोशल मीडिया में सबसे पहले डाली थी । सोशल मीडिया पर छाया यह क्रूर आतंकी, अपनी मासूम शक्ल और हैंडसम पर्सनालिटी के कारण,चर्चा का विषय रहा। उसके लिए शहादत का ऐसा शोक ? जो सैनिकों की शहादत पर सवालिया निशान सा लगा देता है। उन शहीदों की अंतिम विदायी में मात्र उनके परिजन और एक सेना की टुकड़ी जो सलामी देती है और कुछ गणमान्य नेतागण मौजूद रहते हैं और वह सैनिक पंचतत्व में विलीन या सुपुर्द ए खाक हो जाता है। क्या भारतवासियों को शर्मिंदगी महसूस नहीं होती। क्या देश के नेताओं को यह बात सोचने पर मजबूर नहीं करती कि किस देश की गरिमा और शान की बात करते हैं। बड़ी बड़ी बातें लोकतंत्र के तमाम मंच पर आतंकवाद के खिलाफ बयान देते हैं। ऐसे में यह समझना और सोचना आज लाजमी हो गया है कि कश्मीर में चल रही सरकार और उसकी आतंरिक मंशा क्या है।

कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती हों या ओमर अब्दुल्ला कश्मीर की घाटी के नियम वही हैं, जो चले आ रहे हैं। जबतक उनमें कोई परिवर्तन नहीं होगा देशवासियों को इस सोच से निज़ाद नहीं मिल पा रहा कि देश में ही कश्मीर है जिसके लिए आज तक अनगिनत शहादतें हो चुकी हैं। देश के नौजवान हजारों हजार किलोमीटर दूर देश की सरहद बचाने चले जाते हैं। अगर यूंही शहादतें सरकारों को दिलवानी है तो मांये अपने बच्चों को कदापि नहीं भेजेंगी शरहद की शान बचाने । हर बार एल ओ सी का उल्लंघन हर बार फायरिंग, हर बार वार्ता विफल, हर बार बाहरी देशों का हस्तक्षेप। फलस्वरुप, आगरा हो या ताशकंद भारत की शांति में ग्रहण बनता है पाकिस्तान । दोनों देश के राजनेताओं की मजबूरी है कश्मीर को मुद्दा बनाये रखना या पाकिस्तान की मंशा। कश्मीर के हुक्मरान क्या इस आतंकी जेहाद से अपने निवासियों को महफूस करने की कोई पहल की या योजना बनायी है। जिसपर राज्य और केंद्र संयुक्त रुप से एकजुट होकर क्रियान्वयन करें । कश्मीर से जेहादी क्रांति दिल्ली के जेएनयू तक पहुंच चुकी है। जेहादी नेटवर्क हर रुप में देश के हर कोने में जह़र की तरह धीरे धीरे फैलता जा रहा है। कश्मीर में रहने वाले कुछ समुदाय बेखौफ होकर पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाते हैं । इस पर न तो वहां की राज्य सरकार और न ही केंद्र सरकार कोई एक्शन लेती है । जबकि पाकिस्तान में एयरपोर्ट पर ही उस व्यक्ति को टार्गेट कर लिया जाता है जो भारत की तारीफ कर दे। क्या यही वजह है कि अदनान सामी जैसे गायक पाकिस्तान वापस नहीं जाना चाहते। दूसरे पाकिस्तानी सितारे भी भारतीय मुल्क की नागरिकता हासिल करने के इच्छुक हैं।


अब समय आ चुका है कि भारतवाासी कश्मीर में रह रहे नागरिकों से यह सवाल पूछ लें कि उनका मुल्क कौन सा है ?जहां उन्हें हिफाजत दी जा रही है या जहां उनके अपने भी महफूज नहीं। तालीबानी सरजमीं हिंदोस्तान को बनाने का इरादा या तो दरकिनार कर सही राह चुन लें अथवा पाक जिसे वो अपना मुल्क, अपनी जमीन, अपना वतन समझते हैं, रुख कर लें। यूं थाली में छेद कितने दिन? जख्म पर जख्म कितने दिन ? वार पर वार कितने दिन ?

ऐसे माहौल में 1990 में कश्मीर में रह रहे पंडितों की वापसी किस तरह संभव हो सकेगी। जिनकी वापसी की
सरकार कोशिश कर रही थी। जिनके लिए अलग एक क्षेत्र बनाया जा रहा था। किस कांफिडेंस से सरकार आमंत्रण दे रही हैउन पीड़ितों को। ताकि जो जिंदगी उनकी जैसे तैसे चल रही है फिर से उनके पट्टी चढ़े इरादों को तोड़ दिया जाय। जीवन जीने की हसरत ही खत्म हो जाय। कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती जी और प्रधानमंत्री मोदी जी दोनों को कदम मिलकर उठाने का वक्त आ चुका है। केंद्र पल्ला नहीं झाड़ सकता कि उसके हाथ बंधे हैं या सरकार उसकी नहीं। पाकिस्तान के अंदर से इंसानियत साफ हो चुकी है। तभी तो बच्चों को मारकर भी जश्न मनाता है। कोई कैसे भूल सकता है उस मंजर को जब एकसाथ 142 बच्चों को गोलियों से भून दिया गया था। उस दिन मात्र एक बच्चा दाउद बचा था..क्योंकि वो उस दिन स्कूल ही नहीं गया था । पाकिस्तान को उस वक्त शोक करने की नहीं सूझी थी। पर बुरहान जो कत्ले आम मचाये, जो शाति को भंग कर दे, ऐसे मानवता के दुश्मन के लिए शोक ?

Monday 18 July 2016

कांग्रेस के दो तीर

सर्वमंगला मिश्रा

कांग्रेस पार्टी स्वतंत्रता से पहले से जंग लड़ रही है। कभी देश की आजादी के लिए तो कभी अपने वर्चस्व के लिए। पहले सिर्फ एक मकसद था अंग्रेजों से आजादी। देशहित परमोधर्मम्। पर आज आज देश बदल चुका है। धारणाओं से लेकर आशायें और उम्मीदों से लेकर मकसद, सब बदल चुका है। पार्टी जहां इकलौती शान हुआ करती थी। वहीं, आज अपना खोया वजूद तलाश कर रही है। जिसके लिए साम दाम दंड भेद सब अपनाने से पीछे नहीं हट रही। ऐसे में प्रशांत किशोर जीपार्टी के लिए द्रोणाचार्य की तरह साबित हो सकते हैं। जिन्हें यह पता है कि युधिष्ठिर कौन है, भीम कौन है और अर्जुन से कैसे निशाना लगवाना है। उनकी  बुद्धिजीविता कांग्रेस के कितने काम आयेगी, यह तो वक्त ही बता सकता है या उत्तर प्रदेश का चुनावी परिणाम। प्रशांत किशोर जी अव्वल दर्जे के बुद्धिजीवी के रुप में देखे जा रहे हैं। उनके पास मोदी प्रशांत किशोर जी ने अपने तरकश से पहला तीर निकाला और अफवाह हवा में तैरने लगी कि राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के सी एम कैंडिडेट होंगे। आकाश में बादल उमड़ने घुमड़ने लगे। जनता में कौतुहल पैदा कर नयी चाल चली और शीला दीक्षित को आगे कर सबके मुंह पर ताला लगाने का प्रयास किया। पर, जुबान तो जुबान है न जानता की और न किसी पार्टी की रुकती ही नहीं। शीला दीक्षित का अनुभव भी यू पी के सामने बौना सा माना जा रहा है। शीला दीक्षित का अनुभव तो कहीं न कहीं पार्टी को कुछ राहत दे सकेगा पर अभिनेता राजबब्बर कांग्रेस पार्टी में ऐसा कौन सा अध्याय जोड़ेगें यह सोचनीय है। राजबब्बर जी की रणनीति कांग्रेस को किस पायदान पर ले जायेगी यह तो प्रशांत किशोर जी भी शायद नहीं सोचे होंगे। आलाकमान की सहमति पर भी सवाल सा खड़ा नजर आता है।



शीला दीक्षित की राह पहले भी इतनी आसान नहीं रही। दिल्ली में तीन दशक राज करना कोई करिश्मा से कम नहीं था। शीला दीक्षित का चेहरा जहां कांग्रेस को सुदृढ़ता, परिपक्वता और आदर्शवादिता की झलक पेश करता है। जिससे बहुतायत तो नहीं पर हां कुछ प्रतिशत लोग अवश्य द्रवित हो सकेंगे। पर, राजबब्बर जी की झलक से कितने प्रतिबिंब यथार्थ रुप में परिवर्तित होंगे, इसमें आशंका की झलक उनके भाषणों में ही देखी जा सकती है। भले ही राजबब्बर जी अपना पूरा दम खम लगा दें पर, यूपी की जनता को याद है कि राजबब्बर जी भी कभी सपा में हुआ करते थे और सपा में उनका योगदान क्या रहा। कांग्रेस पार्टी में ऐसे बहुत से चेहरे अभी भी हैं जो जनता और पार्टी में जोश भर सकते थे। पर, वो अभी भी पीछे हैं। प्रियंका गांधी, पार्टी की मांग, देश की मांग, हर दिल में इंदिरा छवि लिए , पार्टी की रीढ़ की हड्डी को पता नहीं पीछे रखने की राजनीति क्या है। शायद, प्रशांत किशोर जी उन्हें तब उतारें जब चुनाव चरम पर होंगे। हालांकि प्रियंका का चुनाव प्रचार आजतक कभी खाली नहीं गया। उनके शब्द उनके भाव जनता के दिलोदिमाग में पहुंचते हैं। जनता के भावों को समझती हैं प्रियंका। उनकी भावना को एक आस की उड़ान तो कुछ पलों के लिए दे देती हैं पर पार्टी हर बार धोखा ही दे जाती है जिससे जनता में प्रियंका भी कहीं न कहीं दबती सी जा रही हैं।


सोनिया गांधी जो 2004 में साध्वी समान दिख रही थीं। अब वो छवि धुंधली सी हो चुकी है। अब पार्टी को यूपी में अपनी जगह बनाने के लिए नये चेहरे के साथ साथ नयी सोच की भी जरुरत है। नयी पहल ही नया करिश्मा कर सकती है। ऐसे में पुराने चेहरे कितने कारगर साबित होगें यह कहना मुश्किल है। चेहरों पर लगी छाप, जनता में नये जोश की जगह एक असंतोष की भावना ही पनपती है। सरकार की असक्षमता विरोधियों को मजबूत करती है तो आह्वाहन भी करती है अपनी भूमि पर पनपने देने का। ऐसे में जहां दो दिग्गज अपने पैर जमा चुके हों। वहां तीसरी और चौथी चुनौती सशक्त रुप से पनपती तो है पर बिहार में हुए विधानसभा चुनाव बड़ा उदाहरण है जहां गैर जमीनी लोगों को वहां की जनता ने उखाड़ फेंका था। भले वो नैश्नल पार्टियां ही क्यों न हों या केंद्र में चल रही सरकार ।


परिस्थितियां अनुकूल हों या प्रतिकूल जंग ए मैदान में उतरे हैं तो पीछे हट नहीं सकते। ऐसे में कांग्रेस ने तीर निशाने पर लगाने के लिए एक सेनापति और दूसरा फौजी को उतारकर भीड़ को बहलाने के साथ जनता की नब्ज टटोलने का काम किया है। यूं तो प्रशांत किशोर ने अपने तरकश के दो ही तीर निकालें हैं पर, अभी ब्रह्मास्त्र को संभाल कर रखा है। सही वक्त पर, अंतिम क्षणों में उसका उपयोग कर पार्टी को लगता है कि उसकी नैया पार लग ही जायेगी।




















  मिस्टिरियस मुम्बई  में-  सुशांत का अशांत रहस्य सर्वमंगला मिश्रा मुम्बई महानगरी मायानगरी, जहां चीजें हवा की परत की तरह बदलती हैं। सुशां...