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Saturday 19 December 2015

महाचिंतन 



सर्वमंगला मिश्रा
9717827056


भाजपा ने चुनावी युद्धभूमि में जो ललकार लगायी थी, जिससे विरोधियों के रोंगटे खड़े हो गये थे। हर कोई एक कोना ढूंढ़ता था अपने छिपने के लिए। ललकार, जिससे विरोधियों के हौसले पस्त हो गये थे। समय कभी एक सा नहीं रहता। मोदी के भाषण के कद्रदान आज भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी हो चुके हैं। मंत्रमुग्ध कर देने वाला भाषण अटलबिहारी के बाद, मोदी ही दूसरे स्थान पर आते हैं। गुरु गुड़ पर चेला चीनी की कहावत यहां सही बैठती है। अटल आडवाणी को पीछे छोड़ते हुए मोदी आज लोकप्रियता की दृष्टि से आगे बढ़ते चले जा रहे हैं। जिस जोश के साथ मोदी का भाषण शुरु होता है उससे भी ज्यादा लोग भावविभोर होकर अमेरिका से लेकर सिंगापुर-जापान तक सब सुनते हैं। पर सवाल उठता है कि इन मनभावन, लोकलुभावन भाषणों का अस्तित्व कितना ठोस या खोखला है। लोकसभा चुनाव से लेकर अब तक राजस्थान, मध्य प्रदेश, पंजाब, जम्मू कश्मीर और बिहार हर स्थान पर मोदी स्वयं को ही ब्रांड अम्बेस्डर बनाये और चुनाव का खूब जमकर प्रचार प्रसार किया। खूब भीड़ जुटी पश्चिम से पूर्व तक। पर रिजल्ट क्या रहा। मध्य प्रदेश से लेकर बिहार तक अमित शाह जी खूब गरजे। लेकिन बादल गरज कर बरस नहीं पाये। काले बादलों ने डराया खूब, पर, बारिश की बौछार में कमी रह गयी। आज मोदी जी की पंक्तियों पर टिप्पणी करने का साहस किसी में नहीं। मोदी विदेशों में रह रहे भारतीयों को भारत में निवेश करने के सुगम मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। जिससे देश की आर्थिक उन्नति में भागीदारी हर कोने से बढ़े। कितना निवेश होगा यह तो भविष्य निर्धारित करेगा।
भाजपा लोकसभा चुनाव के दौरान सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी तो मोदी सबसे बड़े जननायक। चिंता का विषय यहां यह नहीं, बल्कि जननायक पार्टी से ज्यादा ऊंचा हो रहा है। किसी भी दल या देश से ऊंचा कोई व्यक्ति विशेष नहीं हो सकता। दल की नीतियां ही उस व्यक्ति की पहले पहचान होती है। फिर, उस व्यक्ति की नीतियां दल के रुप में समझी जाती हैं। आज मोदी का दृष्टिकोण भाजपा का दृष्टिकोण समझा जा रहा है। हर हार के बाद मोदी महानायक की तरह नये जोश के साथ उठ खड़े होते हैं और पुरानी विरदावली सुनाकर जनता को रिझाने में एड़ी-चोटी का जोर लगा देते हैं। जनता ने बिहार चुनाव में मोदी के रुप में भाजपा को दरकिनार कर दिया। केंद्र की सत्ता को नकार दिया। केंद्र की सरकार की छाया उसे मंजूर नहीं हुई। उसे बाहरी और बिहारी में फर्क लगा। वादों और बातों में जमीन आसमान नप गया। नतीजा हंस के देखना पड़े या खामोशी की चिंता में –उसमें परिवर्तन नहीं होता है। वक्त- अब ठहराव का आ चुका है भाजपा के कैरियर में, मोदी के लीडरशीप में। जहां चिंतन की आवश्यकता जोर पकड़ने लगी है।
भाजपा की नीतियां सही हैं या गलत। अब इसका फैसला करने की घड़ी आ चुकी है। मोदी ने जो लोकसभा चुनावों के दौरान सब्जबाग दिखाये थे वो मृगमरीचिका ही रहेंगे या कभी आकाशगंगा धरती पर अवतरित भी होगी। कांग्रेस का परिवारवाद पार्टी को आज हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया। तो भाजपा की तानाशाह व्यवस्था ने लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया है। कांग्रेस अपनी विफलता के उपरांत चिंतन शिविर जरुर लगाती है। भले चिंतक चिंतन करें या ना करें। एक समारोह अवश्य होता है जहां राहुल बाबा के लिए आगे की रणनीति पर चिंतन होता है कि अब राहुल बाबा को कौन सी जिम्मेदारी दी जाय कि नैया पार लग जाय।
चिंतक और चिंतन एक सिक्के के दो पहलू हैं। देश का भविष्य परिवारवाद और व्यक्ति विशेष से उपर उठकर होना चाहिए। आज सोनिया गांधी इसलिए हर जद्दोजहद से जूझ रही हैं क्योंकि उन्हें अपने पुत्र को राजगद्दी पर बैठाने का सपना पूरा करना है। मोदी, जो एक अति सामान्य परिवार से संबंध रखते हैं, योग्यता के बल पर आज देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर अपनी दावेदारी ठोंकी। जनता ने एक उद्घोष के साथ उस योग्यता को स्थान दिया। पर, जनता का एक पक्ष अपनी विचारधारा को बदल देना चाहता है। उसे अब एहसास होने लगा है कि भावावेश में उसने फैसला लिया पर विकल्प भी उसके समक्ष दूसरा उपलब्ध न था। ऐसे में अब महागठबंधन जनता के सामने नए विकल्प के रुप में उभर रहे हैं। दो बड़े राज्यों के चुनाव सामने हैं- बंगाल और उत्तर प्रदेश। बंगाल जहां भाजपा की स्थिति प्रारंभ से लेकर अबतक दयनीय रही है और उत्तरप्रदेश जहां सपा और बसपा का सी-सा का खेल चलता रहता है। वर्तमान परिस्थिति तो भाजपा को संकट के बादल इंगित कर रही है। खोखले भाषणों पर पांच साल का कार्यकाल तो चल जायेगा क्योंकि सरकार पूर्ण बहुमत में है गिरने के खतरे से कोषों दूर। पर, इसी रवैये के साथ क्या 2019 का चुनाव भी भाजपा पूर्णबहुमत लाने में सफल हो पायेगी।    
अखिलेश की सरकार


सर्वमंगला मिश्रा


सत्ता विरासत में मिल तो सकती है पर, बुद्धिजीविता नहीं। सपा प्रमुख मुखिया मुलायम सिंह यादव ने विरासत के तौर पर जब अखिलेश को सत्ता देनी चाही तो गाड़ी से अनमने रुप में उतर कर ठीक से वोट न मांग पाने वाले अखिलेश हार गये थे। वहीं दूसरी बार अखिलेश का टोन मीडिया और मतदाताओं के प्रति बदल चुका था। अब अखिलेश यादव पांच साल अपनी सरकार के पूरे करने वाले हैं। साथ ही विधानसभा चुनाव आ रहे हैं। जिसकी तैयारी में अखिलेश यादव की पूरी टीम जुट चुकी है। अब उत्तर प्रदेश सरकार के द्वारा हायर की गयी कंपनियां रेडियो, टी वी, सोशल साइट्स के जरिये अखिलेश सरकार के कामों का विवरण दे रही हैं। रेडियो पर सरकार के बनने वाले प्रोजेक्ट्स से लेकर आधुनिक तंत्रों से लैस पुलिस अब सफल रुप से उत्तर प्रदेश की जनता की रक्षा करने में समर्थ है। ऐसा जनता जनार्दन को बताया जा रहा है। सत्ता का सुख और लत दोनों की आदत जिसे एक बार लग जाय तो मोहभंग होना दुश्वार है।
अखिलेश युवा वर्ग के राजनेता है। उनके सोचने और काम करने का ढंग आज की युवा पीढ़ी की तरह है। पर, सच्चाई कितनी है। अखिलेश ने सरकार चलायी या उनके पिताजी मुलायम सिंह यादव ने या आज़म खान ने। सुव्यवस्थित और सुनियोजित ढ़ंग से काम करने के लिए सलाहकारों का होना अनिवार्य है। पर अखिलेश सरकार पर पूर्ण नियंत्रण तो सपा सुप्रीमो का ही रहा। अखिलेश मात्र मुखौटा समान, परिवर्तन का नाम है। बदांयू मामले से लेकर शायद ही कोई जिला बचा हो जहां क्राइम की वारदात न हुई हो। सवाल यह नहीं है कि सरकार के रहते क्यों हो रहा है। बल्कि सवाल यह है कि कोई ठोस कदम सरकार की ओर से क्यों नहीं उठाया गया। कड़े नियमों का प्रावधान क्यों नहीं लाया गया। जिससे राज्य में रह रहे लोग अखिलेश की सरकार के तहत स्वयं को सुरक्षित महसूस करें।

आजकल रेड़ियो पर नीलेस मिश्रा अपनी छोटी छोटी कहानियों के जरिये सरकार के काम और उस स्थान की प्रसिद्धि के कारण को दिखाते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को प्रमोट कर रहे हैं। उसका टाइटल ही है यूपी की कहानियां। इसी तरह हर रेडियो स्टेशन पर अलग अलग तरह के विज्ञापन आजकल सुने जा सकते हैं। तात्पर्य यह है कहने का कि काम करके नहीं विज्ञापन के जरिये दिखाया जा रहा है जनता को। जिससे जनता आपके रिपोर्ट कार्ड का आंकलन करने में समर्थ हो पायेगी। अखिलेश युवा नेता हैं तो क्या जनता इतनी बूढ़ी है कि उसे अपने काम दिखाने के लिए करोड़ो रुपये सरकार विज्ञापन पर फूंक रही है। यह बात अलग है कि एक इंडस्ट्री को लाभ पहुंचता है। देश उन्नति करता है। पर नजरिया और नियत में बदलाव आवश्यक है। इसी बजट का आधा हिस्सा प्रजेक्ट्स को सही रुप से प्रोजेक्ट करने में अखिलेश सरकार विचार करती तो उत्तर प्रदेश का चेहरा ही बदल जाता। यूपी, महाराष्ट्र, बिहार, गुजरात या राजस्थान, नेतागण मात्र विवादित बयान देकर ही स्वयं को प्रमोट करने के उद्देश्य से मीडिया पर अपनी छवि बनाने में लगे रहते हैं। जिससे देश और गणमान्य नागरिकों से लेकर जन साधारण तक का दिमाग व्यर्थ की उलझनों में उलझ कर रह जाये। सर्व साधारण से जुड़े अहम मसलों पर कितनी सरकारें ध्यान केंद्रित कर पाती हैं। मात्र सपा सुप्रीमो मलायम सिंह यादव के स्टेज पर यूपी के सीएम और अपने पुत्र से यह पूछना कि बताओ सरकार ने अब तक यह काम क्यों नहीं किया और दूसरे काम को करने के लिए सरकार क्या कर रही है। जनता को क्या ज्ञात नहीं कि लोग नेहरु परिवार पर जो तंच कस रहे हैं पर वहीं मुलायम का परिवार उत्तर प्रदेश में तो बिहार में लालू का परिवार अपनी जड़ों को राजनीति की जमीन पर मजबूत कर रहा है। इलेक्शन के समय प्रमोशन करके अपनी सरकार को बेहतर बनाना पर कार्यशैली वही परंपरागत रखना कितना न्यायोचित है। एक ओर कांग्रेस को ढाल बनाकर देश में डंका पीटना कि यह परिवार सालों से राज कर रहा है देश पर। वहीं दूसरे परिवारों को शह देना कितना तर्कसंगत है। जनता का पैसा एक ही परिवार में भिन्न भिन्न तरीकों से शाही कोष के स्थान पर अपने घर की तिजोरी भरे। इससे बड़ा लोकतंत्र का उपहास और क्या हो सकता है।
मसला यह भी है कि सरकार हार गयी तो क्या करेगी। जाहिर सी बात है विपक्ष में बैठेगी। पर, काम चल निकला है तो चलते रहना चाहिए। हर व्यापार का उसूल होता है। अखिलेश-डिम्पल, डिम्पल की देवरानी और मुलायम के एक और बेटे हैं जिनके लिए सपा सुप्रीमो ने सीट छोड़ दी। इसके अलावा कुछ और लोगों को यथोचित स्थान पर सेट करना होगा। तो दम खम लगाकर जीतना है। यह अखिलेश सरकार का खुद से वादा है।

Saturday 5 December 2015

मन की बात


सर्वमंगला मिश्रा
9717827056


मन – वो घोड़ा है जो किसी भी इंसान तो क्या देवता के वश में भी नहीं रह पाता। मन की छलांग हर सीमा से परे होती है। मन अद्वितीय सिंहासन का मालिक होता है। जो स्वंय अपना राजा और स्वयं की प्रजा होता है। मन अकस्मात जन्म लेता है और अचानक अदृश्य हो जाता है। हर संघर्ष से परे, हर बंधन से मुक्त, उन्मुक्त आकाश और सागर के समान अनगिनत लहरों वाला होता है मन। मन को समझना यानी अज्ञात किरणों को पढना। मन की तमाम गतिविधियों पर नजर रखने वालों ने यहां तक कह दिया कि जिसने अपने मन पर कंट्रोल कर लिया दुनिया उसके कदमों में।
आजकल हर किसी की जुबान पर मन की बात सुनायी देती है। यूं तो मन की बात हर किसी से नहीं की जाती। पर, मन की बात अगर कोई सुनने वाला हो तो, दिल हल्का जरुर हो जाता है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी विगत कई महीनों से मन की बात रेडियो के जरिये करते हैं। आकाशवाणी के जरिये प्रधानमंत्री जी अपने मन की बात कभी स्कूल के बच्चों से, कभी किसानों से, कभी युवाओं से तो कभी लोगों की राय भी जानना चाहते हैं। हाल ही में देश के कई हिस्सों में हमारे देश के अन्नदाताओं ने सूखा पड़ने और फसल नष्ट होने के कारण कर्ज के दबाव में आत्महत्या का रास्ता अपनाया। तब प्रधानमंत्री ने किसान बिरादरी से अपील की कि वो ऐसे कदम ना उठायें। जिससे कहीं न कहीं एक ढांढस सा जरुर बढ़ा, एक राहत, एक आस जरुर बनी कि देश का संचालक आपके साथ कहीं न कहीं खड़ा है। आत्महत्याओं का सिलसिला भले न थमा हो पर विचार जरुर पनपा कि किसानों की समस्या उन तक सीमित नहीं है बल्कि पूरा देश जान रहा है और देश को चलाने वाले की नजर भी उन समस्याओं पर है। विदर्भ के कई इलाकों से लेकर मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश के कई जिलों में किसानों की स्थिति आज भी दयनीय है। प्रधानमंत्री ने शिक्षक दिवस जैसे महत्वपूर्ण दिन को बच्चों से बात कर अपने जीवन के महान शिक्षकों के योगदान को याद किया। देश के प्रति समर्पित लोगों की कहानियां बच्चों के साथ शेयर की ताकि बच्चे उन महान विभूतियों को भूलें नहीं बल्कि याद रखें और उनके दिखाये ये मार्ग को अपने जीवन में उतारें। यही नहीं मार्च- अप्रैल में हुई बोर्ड परीक्षाओं के मद्देनजर बच्चों के सामने अपनी बात रखी। उनका हौसला बढ़ाया। इसके अलावा स्वच्छता अभियान को लेकर भी नरेंद्र मोदी ने देश की जनता के सामने अपने मन की बात की। लोगों से सफाई से रहने और सफाई करने की गुजारिश की। जिसका नतीजा हाल ही में मुम्बई के एक स्टेशन को साफ करने के लिए कालेज के बच्चों ने एकजुट होकर पूरे मटुंगा स्टेशन को चकाचक बना डाला।
रेडियो एक अचूक माध्यम है अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने का। इसमें दिल की बात जुबान से निकलकर दिमाग में तुरंत घर कर जाती है। समाचार पत्रों के बाद रेडियो ही संपर्क साधन बना। उसके बाद टी वी का जन्म हुआ। पहले विविध भारती के प्रोग्राम लोग रेडियो पर सुनते थे। मनोरंजन का एक मात्र साधन यही था। ज्ञानवर्धक प्रोग्राम से लेकर संगीत अथवा हास्य सभी को जनता तक पहुंचाने का रेडियो ही माध्यम हुआ करता था। अमीन सायानी जैसे संचालक श्रोताओं का मन मोह लेते थे और आवाज का जादू आज तक बरकारार है। उस समय भी गांव- गांव में रेडियो पर समाचार सुनकर लोग खबरों से अवगत हुआ करते थे। धीरे धीरे चलन बदला और कान की जगह आंख ने ले ली। लोगों को सुनने की जगह जब चीजें आंखों के सामने आ गयीं। फेसबुक कमाल है पर वाट्सअप ज्यादा करीबी बन चुका है। इसी तरह रेडियो की जगह टीवी ने ले ली। पर सुधारकों और व्यापारियों ने रेडियो में फिर जान फूंकने की जुगत लगायी और 21वीं सदी में कई शहरों में ताबड़तोड़ लोकल और नैश्नल लेवल पर रेडियो को नये फार्मेट में पेश किया जाने लगा। रेडियो मिर्ची, 92.7, 93.5 104.8 आदि आज की तारीख में बेतहाशा बिजनस कर रहे हैं। अब यह भी एक सेक्टर बन गया है। खबरों के अलावा या कोई महत्तवपूर्ण सूचना छोड़ यह इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि देश का प्रधानमंत्री रेडियो का उपयोग जनता से जुड़ने के लिए कर रहा है। इससे सौहार्द्र का सूर्य निकलेगा या नहीं, यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। उम्मीद की किरण, चाय की चुस्की और रेडियो पर दिमाग की निगाह ने टकटकी लगानी शुरु तो कर दी है। पर यह कहना अभी मुश्किल है कि मोदी जी की बात तबाही से बर्बाद किसानों के दिलों में कितनी घर कर पायी। देश की दशा और दिशा कितनी सुदृढ़ हो रही है यह मन की बात में पूर्णतया स्पष्ट तो नहीं हो पा रहा है। पर, केंद्र के कार्यकलापों की जानकारी स्वंय प्रधानमंत्री देने के लिए सामने जरुर खड़े होने का दम दिखा रहे हैं।
मन की बात करना जरुरी है। इससे शासक की  महत्तवाकांक्षा, देश के प्रति उसकी भावना प्रतिबिंबित होती है। आज गरीब की थाली से दाल गायब हो गयी है। प्याज के पकौड़े तो दूर, सूखी रोटी के साथ प्याज भी गरीब के नसीब से कोसों दूर हो चुका है। क्योंकि प्याज और दाल अब अमीरों की थाली में ही दिखता है। गरीब को नीतियां समझ नहीं आती। जब उसका बच्चा भूख से तड़पता है तो उसे रोटी समझ आती है। मन की बात का असर हवा हो जाता है। वहीं मध्यम वर्ग देश के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहता है। कुछ दिन सब्र कर लेता है, क्योंकि उसकी रोजी रोटी चलती रहती है। उसके घर में भूख का अकाल नहीं पड़ता। आज राजनीति इस कदर राजनीतिज्ञों पर हावी हो चुकी है कि हकीकत और जमीनी हकीकत में एक खाई  खिंच गयी है। आज विरोधी दल हो या शासक पक्ष सभी एक होड़ में व्यस्त हैं। जनता से शासक है पर शासक इस हकीकत से छुपने की लाजवाब चेष्टा करता है।
आज, मोदी सरकार को एक साल से ज्यादा समय बीत चुका है। जनता की अपेक्षा बहुत है इस सरकार से। 24 कैरेट का सोना यह सरकार है या नहीं, यह बात मोदी जी पर ही पूर्णतया निर्भर है। रेडियो पर इतनी अपील और विज्ञापन संदेशों के बावजूद आज भी देश की जनता का बड़ा हिस्सा अपने रोजमर्रा के जीवन में सफाई के तौर तरीके सही मायने में नहीं अपना पाया है। बुद्धिजीवी वर्ग इस अभियान को एक नयी शुरुआत के तौर पर देख रहा है। उनका मानना है कि लोगों में ऐसी चेतना को जागृत करना भी एक अनूठी पहल है। देश के शासक जहां बड़ी –बड़ी नीतियों और सुधारों की बात करते नहीं थकते थे वहीं मोदी ने छोटी –छोटी बातों पर पहल कर पूरे देश की जनता का ध्यान आकृष्ट किया है। जिससे युवा पीढ़ी इन बातों को तवज्जो देगी और अपने जीवन में ढालने का विचार अवश्य पनपेगा। जिससे आने वाले समय में एक नयी विचारधारा का विकास बड़े पैमाने पर होगा।
रविवार, सुबह ठीक 11 बजे हर गांव, हर मुहल्ला, हर गली, अमूमन हर घर और शहरों में मोदी को चाहने वाला वर्ग और विपक्षी वर्ग रेडियो ट्यून कर बैठ जाते हैं। मोदी जी अपने मन की बात तो कह देते हैं। सरकार की गंभीरता, सतर्कता और भविष्य में होनेवाली गतिविधियों से भी अवगत कराने की कोशिश करते हैं। पर, सवाल उठता है कि प्रधानमंत्री और विभिन्न विभाग कितने सतर्क हैं या योजनाएं कितनी पुख्ता हैं ऐसी गंभीर परिस्थितियों से निबटने के लिए। हर साल बाढ़ या सूखा किसी न किसी राज्य में बांहें पसारे खड़ा हो जाता है। राज्य सरकार विवश, लाचार पंगु की तरह खड़ी हो जाती है और केंद्र सरकार से राहत राशि मांगने लगती है। मन की बात करना अच्छी पहल है। पर बातों से नेतागण कबतक जनता को उलझा सकेंगे। रणनीति राजनीति से कब अलग होगी जिससे किसान अपने उपजाये दाने से अपने परिवार के पेट की आग बुझाने में कामयाब हो पायेगा। मन की बात केवल चाय पर चर्चा बनकर ना रह जाय। इसके लिए केंद्र सरकार को अपनी नीतियों के द्वारा कथनी और करनी में समानता लानी होगी। जब बदहाल वर्ग मजबूत होगा। महिलाओं को नाम का सशक्तिकरण नहीं बल्कि, उचित सम्मान और न्याय मिलना शुरु होगा। तभी रेडियो पर मन की बात का असली असर होगा।
कांग्रेस का कांफिडेंस



सर्वमंगला मिश्रा
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बिहार में जीत हुई जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस की। पर सबसे ज्यादा आत्मविश्वास का खुमार कांग्रेस पार्टी में कुछ हद तक तो राहुल गांधी में अधिकतम मात्रा में नजर आ रहा है। राहुल गांधी को खुद से इतनी उम्मीदें बढ़ गयी हैं कि वो उत्तर प्रदेश में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव अकेले दम पर लड़ना चाहते हैं। उन्हें शायद इस बात का अंदाजा भी नहीं है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सबसे कमजोर कड़ी है। असम, अरुणांचल जैसे उत्तर-पूर्वी  भारत में शाख सालों से बनी है। साथ ही भारत के अन्य राज्यों में सांप –सीढी का खेल चलता रहता है। यह वही कांग्रेस पार्टी है जिसकी सत्ता एक समय पूरे देश में हुआ करती थी। धीरे धीरे जनता के अधिकार बढ़ते गये और कांग्रेस का आंचल सिमटता गया। पर एक वक्त आया जब देश में कांग्रेस का नेतृत्व जी खोलकर जनता के दिल में हिलोरें मारने लगा था। वो वक्त था राजीव गांधी का- यानी सन् 1987-89 का। पर 1991 में राजीव गांधी की मौत ने जहां पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। वहीं दूसरे नेतृत्वकर्ताओं ने बागडोर संभालने में देर नहीं की। फिर कांग्रेस के मूल पक्षधर कार्यकर्ताओं ने सोनिया लाओ देश बचाओ – का नारा लगाकर 1997 में सीताराम केसरी को पदच्यूत कर सोनिया के हाथों में कांग्रेस पार्टी की बागडोर सौंप दी। उसके बाद से लेकर अबतक नेतृत्व परिवर्तन तो नहीं हुआ पर, परिवर्तन ऐसा हुआ कि सत्ता क्या शाख ही हिल गयी है।
कांग्रेस पिछले कई सालों में विधानसभा चुनावों से लेकर पंचायत और बाकी इलेक्शन्स भी हारती चली आ रही है। ऐसे में जहां कांग्रेस राहुल गांधी के बल पर एक पर एक बिरासत खोती चली जा रही है। क्या एक बिहार विधानसभा चुनाव छलाग मारने के लिए सही पायदान साबित होगा। कांग्रेस पार्टी का फेस आज शून्य है। कोई फेस वैल्यू नहीं है। जिसके बल पर जता में उत्साह भर जाता हो, जिसे देखते ही युवा क्रांति की भावना पैदा हो जाये। पीछे मुड़कर देखा जाय तो इसी बाल तानाशाही के कारण कई दिग्गजों ने अपनी राह पकड़ ली। अगर राहुल गांधी और कांग्रेस को बिहार चुनाव स्वयं के बल पर फतेह किया हुआ राज्य लगता है तो स्थिति भ्रामक है।
कांग्रेस ने कई सालों बाद जीत का चेहरा देखा है। 2004 और उसके बाद के चुनाव सोनिया गांधी को देखकर लड़ा गया था और जनता का विश्वास कहीं न कहीं उन्होनें जीत लिया था प्रधानमंत्री की कुर्सी ठुकराकर। एक त्याग की मूर्ति वाली छवि ने वो कारनामा कर दिखाया था जो शायद बैठने पर न हो पाता। उन दिनों दो संभावी दिशायें भी थीं- राहुल और प्रियंका। प्रियंका ने राजनीति से किनारा कस लिया पर पार्टी की जरुरत की तरह बीच बीच में मां और भाई के लिए खेवनहार का काम भी की। धीरे धीरे जनता ने उनके इस अस्तित्व को नकार दिया। जिससे कांग्रेस का एक फेस वैल्यू धूमिल सा हो गया। आज भी एक धुंधली सी आस कहीं न कहीं जनता के दिमाग में है कि प्रियंका गांधी में वो छुपी प्रतिभा है जो नेतृत्व कर सकती है। दिशाहीन कांग्रेस को दिशा देने में सक्षम हो सकती है। पर, परिवारवाद से बिफरी भारतीय जनता ऐसी परिस्थिति आने पर क्या निर्णय लेगी, यह कहना उचित न होगा। हर बात, हर परिस्थिति की अपनी एक आभा होती है। जो निर्णय करती है, जो एक प्रभाव उत्पन्न करती है। अगर प्रियंका गांधी वाढरा का नाम सामने आता है तो काल तय करेगा उनका भविष्य। धरातल पर कागंरेस की छवि आज निशा समान है। जो एक आस पर जीवन जी रही है कि कभी तो सुबह आयेगी।
उत्तर प्रदेश जहां सपा और बसपा का सालों से अखाड़ा जमा हुआ है। जिसतरह राजस्थान में कांग्रेस और बीजेपी का, बहार में जेडीयू और राजेडी का। ऐसे में जिसतरह कमल खिलाने में भाजपा को कड़ी मेहनत के बाद जीत हासिल हुई थी उसी तरह कांग्रेस के लिए भी यूपी फतेह करना आसान न होगा। लालू- नीतीश गठबंधन के बाद मायावती और सपा भी कहीं एक मंच पर आ गये तो कांग्रेस क्या करेगी –अकेले अपना अखाड़ा खोलेगी या फिर बिहार की तरह स्टेज शेयर करने में अपनी भलाई समझेगी। मायावती जो अकेला चेहरा हैं अपनी पार्टी की पर अपने पार्टी के सिंबल की तरह काफी हैं। वहीं साइकिल पर चलने वाली सपा आजकल रफ्तार में है।पंचायत चुनाव जीत चुकी है।जिससे जीत का हौसला बुलंद है। अखिलेश यादव एक युवा चेहरा हैं जो पार्टी में जोश बरने का काम कभी कभी कर देते हैं। रणनीति सपा सुप्रीमो की चलती है या सीएम की । यह विषय दुविधाजनक है। पर, तारतम्य जरुर है पिता पुत्र में या पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में। मुलायम सिंह यादव बले कोई भी बयान दे दें पर पार्टी कार्यकर्ता इतने तटस्थ हैं कि उन्हें कैसे चुनाव में जीत हासिल करनी है। ऐसे में राहुल गांधी की रणनीति कहां और कितनी सपा और बसपा की लहरों के आगे रुक सकेगी या रेत की तरह फिसल जायेगी। कांग्रेस की रणनीति राहुल गांधी और सोनिया का अनमना पुत्र प्रेम जगजाहिर होने से जनता में ज्वार भाटा की तरह विचार आते जाते हैं। बालू से क्षणभंगुर घर की कल्पना मात्र की जा सकती है पर, स्थायी तौर पर नहीं।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                  

विज्ञापन राजनीति का


सर्वमंगला मिश्रा
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भारत विश्व का दूसरा बड़ा लोकतांत्रिक देश है। जहां निष्पक्ष चुनाव को तवज्जो दी जाती है। जहां जनता का निर्णय सर्वमान्य होता है। हर पांच साल में चुनावी प्रक्रिया पूर्ण की जाती है। लोकसभा, विधानसभा, नगरपालिका, पंचायत ऐसे तमाम चुनाव होते हैं जो हर एक-दो साल के अंतराल पर आते रहते हैं। यह प्रक्रिया जन जागरण हेतु उचित है। यदि एक सरकार चाहे विधानसभा की हो या पंचायत या नगरनिगम के रुप में जनता के पास सुनहरा अवसर होता है कि वो परिवर्तन कर सकती है। जिससे सरकार भी सजग रहती है कि अगले चुनाव में जनता को फेस करना होगा तो काम करते रहना होगा। कहते हैं कि हर नियम का काट भी होता है और सुनहरा अवसर फांसी के फंदे की तरह भी। हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। एक ओर जहां चुनावों का आना जाना लगा रहता है वहीं जनता के पैसों का उपयोग या दुरुपयोग इन्हीं चुनावों को जीतने में पार्टी करती है। अतिरिक्त भार जनता पर ही पड़ता है। इसके अलावा पार्टी का फोकस काम करने में कम और चुनाव जीतने में ज्यादा रहता है। जिससे अधिक से अधिक रैलियां, बैनर, पोस्टर्स, टीवी, न्यूज पेपर विज्ञापन, रेडियो विज्ञापन। इसके अलावा तमाम सोशल मीडिया पर विज्ञापन के लिए पार्टी बेतहासा रुपये खर्च करती है।
सवाल यहीं हैं कि सरकार को क्या अपने काम से ज्यादा टीवी,रेडियो विज्ञापन पर ज्यादा भरोसा होता है। या जनता की नस लोगों ने पकड़ ली है। देश में जितना बड़ा चुनाव उतनी भारी मात्रा में एडवर्टिजमेंटस देखने को मिलते हैं। चाहे वो पी वी नरसिम्हा राव का वक्त हो, अटल बिहारी बाजपायी, मनमोहन सिंह, मोदी, केरीवाल या हुड्डा सरकार, अखिलेश सरकार या टीएमसी की सरकार। हर पार्टी करोड़ों रुपये खर्च कर देती है विज्ञापनों पर। आजकल हर रेडियो पर टीवी पर अखिलेश सरकार के क्रिया कलाप को विज्ञापन के जरिये जनता तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं। फ्लाईओवर बनाने से लेकर आधुनिक सुख सुविधा से पुलिस को लैश करने तक की बात मात्र एडवर्टिजमेंटस में ही दिखता है। अभी से सरकार ने चुनाव की तैयारी करनी शुरु कर दी है। ताकि परीक्षा में फेल न हो। पर क्या ये परीक्षार्थी सच्चे विद्दार्थी हैं। कया ये जनता की सेवा के सही मायने में कर रहे हैं। पांच साल पूरा होते होते सरकार को बस इतना जरुर या आ जाता है कि –अरे! इलेक्शन आ गया। यानी फिर से जुगत लगानी है जीतने के लिए। फिर वही खोखले वायदों की लिस्ट बनानी है जनता को लुभाने के लिए। फिर वही बैनर्स, पोस्टर्स, रैलियां, हवाई यात्राये, रोड शो, घर-घर घूमना, बालीउड सेलेब्रिटीज को लाकर कैम्पेन करवाना। मीडिया में अपने तमाम अच्छे काम गिनाना। गुणवत्ता की दुहाई देना।
ठीक है रेडियो, टीवी या अन्य सोशल मीडिया जनता तक पहुंचने का माध्यम हो सकते हैं। पर अल्टीमेट टार्गेट नहीं। जितने रुपये सरकारें इन विज्ञापनों पर खर्च करती हैं उसका एक चौथाई भी सही तरीके से काम करती तो जनता अंधी नहीं है। बिना तामझाम को जनता बगुलों में हंस ढूंढ़ लेती। उसे पता होता है कि उसके इलाके में दस साल से टूटा पुल किस मंत्री या पार्टी ने बनवाया है। हां मायावती जी ने अपनी ही प्रतिमाओं का इतना अनावरण जरुर किया कि जनता समझ न सकी कि बहनजी ने हमारे लिए क्या किया तो उन्हें बताना जरुरी था कि वो बतायें कि अम्बेडकर पार्क बनाने के अलावा उन्होंनें और क्या किया अपने कार्यकाल में।
हरियाणा इलेक्शन में मोदी के चार कदम तो हुड्डा जी की विरदावली रेडियो के हर स्टेशन पर छायी रही। अब चुनावों के बाद कहां है विज्ञापन इसका मतलब चुनाव खत्म के बाद क्या पार्टी को अपना काम बताने की जरुरत नहीं होती जनता को। विज्ञापनो ऐसे दिखाये जाते हैं जैसे जनता त्रस्त नहीं सम्पन्न हो गयी उस सरकार से। इसी सरकार ने उसके जीवन की राह बदल डाली। बच्चे स्कूल जाने लगे, गरीब को रोजगार मिल गया, घर में खुशहाली ही खुशहाली छा गयी। अगर विज्ञापन इतने ही सच हैं तो जनता क्यों मर रही है?  फिर मीडिया इतनी खबरें कहां से दिखाता है। सूखे से परेशान किसान, तो बाढ़ से बेहाल जिन्दगियां। पुलिस तंत्र इतना ही सजग और मुस्तैद है तो क्रइम रेट कम क्यूं नहीं हो रहा। क्या कारण है पार्टी को फंड का एक बड़ा हिस्सा विज्ञापन पर खर्च करने की। क्या इसके बिना पार्टी चुनाव जीतने में असमर्थ हैं। पार्टी के पास लोगों के घर जाकर बताने के लिए कुछ नहीं होता। इसलिए स्वयं को बड़ा बनाने के लिए इन विज्ञापनों का सहारा लेना पड़ता है। जिससे जनता इनके मोहिनी जादू के वशीभूत हो जाये। जब नेतागण वोट मांगने पहुंचे तो गणमान्य की छवि जनता के मस्तिष्क में उभरे और स्वयं को छोटा और नेताजी के चरणकमल उसके घर की दहलीज़ पर पड़ गये, इससे खुद को गदगद महसूस करे।
विज्ञापन करना एक कला है जो कम समय में सहज तरीके से अपनी बात जनता तक पहुंचायी जा सकती है। जिसतरह केजरीवाल सरकार अपने नये नये ऐप्स को विज्ञापन के जरिये घर घर पहुंचा रही है। महिला सुरक्षा ऐप हो, किसी योजना को शुरु करने की पहल हो अथवा अवैध निर्माण की जानकारी पर कार्रवाही की बात हो। पर अपनी सरकार पर गाने बनवाना और अपनी विरदावली स्वयं गाना और गवाना कितना न्यायोचित है। जब जब चुनाव आता है अपने संग करोड़ों का व्यर्थ व्यय करवाता है। जनता प्रलोभन और झूठे वायदों के जाल में चाहे अनचाहे फंस ही जाती है। विकल्प की तलाश बनी रह जाती है। 

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