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Tuesday 22 April 2014

राजनीति का भविष्य 

हमारे विचार,देखी गयी [ 10 ], रेटिंग :

Monday, April 21, 2014
पर प्रकाशित:10:23:19 AM
टिप्पणी
राजनीति का भविष्य
...सर्वमंगला मिश्रा
लोकतंत्र की गरिमा में अब धीरे-धीरे सेंध लगनी शुरु हो गयी है। 2014 का चुनाव जिसमें कुछ नेताओं ने अपनी शाख पर ऐसी पकड़ बनायी है कि पार्टी की अहमियता अब अपनी प्रतिष्ठा बचाने को कहीं न कहीं किसी के ऊपर निर्भर नजर आ रही है। आत्मनिर्भरता की गरिमा में कुछ लुढकाव सा आ गया है। जहां देश में नमो-नमो का नारा चारो ओर जपा जा रहा है, देश को अपने कंधों पर बैठाकर जिस तरह बच्चे को मेला घुमाया जाता है उसी तरह के दावे कुछ नरेंद्र मोदी भी करते नजर आ रहे हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस के दीपक राहुल गांधी पार्टी की शाख के दम पर हवाई किले बना रहे हैं तो कहीं न कहीं दो महिलाओं के बल पर अपना राजतिलक जनता के हाथों करवाना चाहते हैं। मसला यह भी है और साथ ही की आज की राजनीति किस ओर जाने को उत्सुक है ? बात पुराने जमाने की तो कहीं न कहीं लीडर या वरिष्ठ नेताओं के जुबान और चरित्र की अहमियता अपने आप में झलकती थी। जनता उन्हें आदर्श मानती थी उनके पद चिन्हों पर चलती थी। पर, आज की आधुनिक युग में चरित्र को ताख पर रखकर राजनीति की परंपरा को निभाने की अलख सी जग गयी है। 
राजनीति हमेशा से एक ऐसा पहलू दिखाती है जिसकी कल्पना जनता जनार्दन नहीं कर पाती है। चाहे वो महाभारत का युग हो या कलयुग। अकल्पनीय दृश्यों से परे राजनीति का जीवन न जाने उसे किस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है। जहां अब लोग नफरत करने लगे हैं। मानसिक स्वस्थ विचार धाराओं का अभाव सा दिखने लगा है। जहां राजनीति अब महारानी से परिचारिका सी बन चुकी है। जिसकी अब अपनी कोई मर्यादा ही नहीं रही। खोया हुआ राज्य पाने के लिए जिस तरह एक राजा अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ता है। राजनीति के दिन भी अब ऐसे ही दिखाई दे रहे हैं। 
आज राजनीति में औपचारिकता का हनन सा हो गया है। राजनीति होती है जनता की सुख सुविधा के लिए, देश की उन्नति, प्रजा में सुख शांति बनी रहे, नियम कानून का दबदबा ऐसा हो जिससे अराजकता ना फैले। पर, आज मुद्दों से पिछड़ी राजनीति, स्वांत: सुखाय पर केन्द्रित दिखती है। हर कोई अपना सपना पूरा करना चाहता है। किसी को भी जनता के दुख दर्द से कोई सरोकार ही नहीं रहा। अब सिर्फ  "मैं ", "मेरा " तक जीवन की राजनीति और राजनीति की राजनीति सिमट कर रह गयी है। कटाछ के वाण ऐसे होते हैं जिससे परिवार वाले भी शर्मिंदगी महसूस करते हैं। आर-पार की इस लड़ाई में मर्यादा की सीमायें दिन पर दिन खाई की तरह बढ़ती जा रही हैं और सम्मान का आंचल दिन पर दिन संकुचित होता जा रहा है। इसकी वजह क्या है?
आधुननिकता में सिमटी परंपराओं और आदर्शों को जैसे देश निकाला मिल गया है। वनवास का जीवन झेलती परंपरायें अब बेबस, लाचार और अपना हक तलाशती परंपरायें राजनीतिज्ञों और उनके अहम की लड़ाई में घुटन का जीवन जीने को मजबूर हो गयी है। बड़बोलापन, अभद्रता, तुच्छ भाषाओं का प्रयोग इस तरीके से होने लगा है जैसे चाइनीज प्रोडक्ट इंडिया में लांच हो गया हो। जिसकी जीवन अवधि बहुत नहीं होती पर एक बार मार्केट में कंपनियों के लिए दहशत का माहौल तो खरीददारों के लिए नए आयाम और वराइटिज़ उपलब्ध हो जाती हैं। आजकल के नेतागण चाइनिज मोबाइल या फास्ट फूड की तरह काम कर रहे हैं। जिन्हें जल्द ही डाक्टरों द्वारा अपने मरीजों से एहतियात बरतने का निर्देश मिल जाता है। जिस तरह जीवन शैली आज भटक गयी है उसी तरह देश के युवा नहीं राजनेता भटक गये हैं अपने मुद्दों से, अपने कार्यप्रणाली से, जनसामान्य की भावना से। इसका उदाहरण है मनरेगा में धांधली, हर सरकारी योजना का बीच में ही दम तोड़ देना। क्योंकि सरकार योजना तो बनाती है पर शायद अपने लिए एक रास्ता दिखाती है कि आओ मिलकर घोटाला करें। पर, मायूस जनता हरबार धोखा खाती है। उत्तराखण्ड में इतनी बड़ी त्रासदी आयी पर इतने लोगों ने एन.जी.ओ. ने राहत सामग्री पहुंचायी, सरकार ने करोड़ों रुपये उत्तराखण्ड की झोली में डाल दिये पर, आज तक वहां के ऐसे कई इलाके हैं जहां लोगों का जीवन दुख के चरम पर है। इसी तरह उड़ीसा में आयी त्रासदी, बंगाल का आइला सबने तबाही खूब मचायी केन्द्र से अनुदान भी मिला पर, सबकुछ आकाश में धुंएं की तरह उड़ गया। उसके बाद आसमान साफ। हर सीएम के हाथ खाली और फिर राजद्वार पर आ जाते हैं दुखियारे की तरह। एक महानगर जो अपने शानो-शौकत के लिए चर्चित है जहां वालीवुड सांस लेता है वहां हर साल वारिष के मौसम में म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन की कलई खुल जाती है। 2007 से अमूमन हर साल यही दृश्य देखने को मिलता है। इसका मतलब साफ है कि जनता के प्रति किये गये वादों से दूर नेता सिर्फ अपनी दुनिया सजाने और अपनी आने वाली पीढ़ी की चिन्ता में राजनीति की जाब कर रहे हैं। उन्हें अनुभव कितना है यह राजनीति में यह बात मायने नहीं रखती पर आपका दबदबा कितना है। आप कैसे अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए दूसरे की ताख पर रख सकते हैं और किस हद तक आप गिर सकते हैं , इन बातों के मायने ज्यादा हो गये हैं। जिसे जब जहां जैसे मौका मिले एक बयान का तीर फेंको मिडिया खड़ी है उनके कारनामे दिखाने के लिए और बदले में घर-घर में व्यक्ति चर्चित हो जाता है। लोग उसे पहचानने लगते हैं। पप्पू सिंह का नाम आपको याद ही होगा। 
आज हम किन बातों पर वोट देने की सोचते हैं। जमीनी स्तर पर जो नेता हमारे लिए काम करे। हमारी समस्याओं को समझे, समाधान निकाले। पर आज मोदी जी भारत की हर समस्या या राहुल जी को जनता की इतनी फिक्र क्यों सताती है क्या मदर टेरेसा की आत्मा इन्हें व्याकुल करती है, या वो जनता का दुख देख नहीं पा रहे। अगर ऐसा ही था तो इतने घोटले कैसे हुए? इतने लोग बेरोजगार क्यों? लोगों को एक मौका फिर से किसी और को देने की बात क्यों सोचनी पड़ती। कभी सोनिया जी अपने भाषणों में कहती थीं, अटल जी झूठ बोलते हैं, तो कभी लालू मोदी को कहते हैं- ऐसे ही वो बोलता है, तो इमरान मसूद के वाक्य लिखे नहीं जा सकते और सपा प्रमुख के शब्द हर सज्जन व्यक्ति को शर्मसार कर दे। पर, माथे पर कहीं शिकन नहीं, कोई अफसोस नहीं, ये राजनीति है या मात्र एक व्यापार. जिसे हर हाल में चलाना है "बाइ हूक और बाई क्रूक"  जब मैं अकेले में बैठती हूं तो सोच आती है कि राजनीति में आने वाले युवा क्या सीख रहे हैं या क्या सीखेंगें। क्योंकि भ्रष्टता और दिन पर दिन भ्रष्ट होती जा रही है। भ्रष्टता भी उन्नति करना चाहती है। जैसे सम्मान, आत्म-सम्मान , आकांक्षा, महत्वाकांक्षा, सादा जीवन उच्च विचार पर अब इनका युग नहीं रहा अब ये सब बूढे हो गये हैं। अब जमाना है भ्रष्टाचार, घोटाला, अभद्रता, बेचैनी, अपमान और असहज विचारों का जो हर नेता में साफ तौर पर झलकती है। नेता गणमान्य तो होते हैं पर उन्हें इस बात का इहसास नहीं होता कभी संसद का अपमान तो कभी विधानसभा का चीप पब्लिसिटी के लिए कुछ भी करने को तैयार। जिन्हें मुद्दों की फिक्र नहीं सिर्फ अपने राजनीतिक जीवन की चिन्ता सताती रहती है। विचारों की गरिमा घट गयी है। आणवाडी जी इतने वरिष्ठ पर बात बात पर नाराज होते हैं फिर पार्टी वाले मनाते हैं तो बच्चे की तरह मान जाते हैं फिर मोदी की प्रशंसा भी कर देते हैं। इतना ओछापना क्यों ? आज राजनीतिज्ञ सोशल मीडिया और टेलीविजन में अपना काम दिखाने की होड़ में मात्र लगे हैं। भले शिलांयास तक कार्य का न किया हो पहले राजा गण वेश बदलकर राज्य का हाल जानने जाते थे। पर अब सिक्यूरिटी के साथ जाते हैं ताकि लोग पहचान सकें, रुतबा कायम हो कितना परिवर्तन आ गया है मानसिकता में , अपने पन की भावना में। क्या ऐसे समाज का सपना बापू ने या भगत ने देखा था?
लोकतंत्र शबद किताबी रह गया है। जिसे पढना और समझना आज के नेताओं के वश की बात नहीं। हो सकता है आये कोई सुभाषचंद्र, कोई चन्द्रशेखर, कोई भगत सिंह, कोई मंगल पांडे पर कब जो समझा सके देशभक्ति उसकी गरिमा और एहसास जब आजादी मिलती है देश को गरीबी से, बेरोजगारी से और अराजकता से जहां राजनीति लक्ष्य ना हो सेवा लक्ष्य हो, जहां कोई काम करने में शर्मिंदगी महसूस न हो फक्र से इमानदारी से पहले के लोगों की तरह ये भावना हो।
"कबीरा मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय"

Monday 14 April 2014


                                          रबर स्टैंप या मजबूर ???






-सर्वमंगला स्नेहा
9717827056

संजय बारु ने आज न्यूज़ रुम में ही नहीं बल्कि पूरे राजनीति में हलचल पैदा कर दी। संजय बारु जिन्होंने 301 पन्नों की एक किताब  " THE ACCIDENTAL PRIME MINISTER"  जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री को एक मजबूर और सबसे कमजोर प्रधानमंत्री का एक और तमगा पहना दिया। यूं तो 2004 साल के कुछ महीनों बाद ही यह एहसास होने लगा था कि प्रधानमंत्री का पद डा. मनमोहन सिंह के लिए मात्र छलावा हैं। क्योंकि देश की बागडोर उन्हें कागज़ी तौर पर उन्हें दी जरुर गयी है पर, असली बागडोर मैडम अध्यक्षा सोनिया गांधी के हाथों में ही मजबूती से थम ली गयी है। खैर, यह तो प्रधनमंत्री की चुप्पी ने साफ कर ही दिया था। संजय बारु ने अपनी पुस्तक में भीतरी बातों को जगजाहिर किय है पर सोचने वाली बात यह है कि कब किया???  तब जब लोकसभा चुनाव के तीन चरण पूरे हो चुके हैं। पूरे देश में विरोधी भी चुपके दुबके शर्माते उनकी आंखें कहीं न कहीं देश में मोदी के लहर को नकार नहीं पा रही है। ऐसे समय में मनमोहन सिंह की खामियों की परतों का पोस्टमार्टम कर देश के सामने बिना क्लोरोफार्म दिये खुले आकाश के नीचे आपरेशन करने जैसा मामला नजर आ रहा है। हांलाकि बचाव और आरोप प्रत्यारोप का दौर चूहै बिल्ली के खेल की तरह शुरु हो चुका है। मामला दस सालों से चल रहा था। सवाल कई उठते हैं जहन में- यह पुस्तक लिखने का विचार उनके मन में कब और कैसे आया? इसे चुनाव के ज्वलंत माहौल में लाने का क्या मकसद है ? अगर संजय बारु जी इतना सबकुछ जानते थे और उनके मन में घुटन या परेशानी महसूस कर रहे थे तो उन्होंने अब क्यों पिटारा खोला? क्या उनके और डा. मनमोहन सिंह जी के रिश्तों में कुछ खटास आ गयी थी जिसका बदला वो इस किताब के जरिये लेना चाहते हैं? या एक अहम सवाल कि मनमोहन जी के कारण चुप रहे और और अब कांग्रेस पर अपनी भढांस निकाल रहे हैं? जिससे इस गिरते हुए चुनावी बाजार में कांग्रेस के पाले से एक गोल और छीनकर बीजेपी को नवाज़ा गया है या, अपनी घुसपैठ से पैठ बनाने का जरिया है। ऐसा कहने का तात्पर्य यह है कि जब इतने दिन तक चुप थे तो थोड़े दिन और चुप रहते और इलेक्श्न हो जाने देते और उसके बाद अपनी पुस्तक का विमोचन करते। पर, संजय बारु जो मनमोहन जी के पूर्व मीडिया सलाहकार रह चुके हैं एक अजब सी रणनीति अपनाने का प्रयास किया है। इस किताब से तो यही साबित होता है कि सोनिया जी की सोची समझी चाल थी। तो यह एक्सीडेंटल दुनिया की नजर में हुआ पर आंतरिक तौर पर यह भारतवासियों के साथ धोखा या षणयंत्र के तौर पर देखा जा सकता है।

सोनिया गांधी के हाथ में हर मंत्री और अमूमन हर विभाग कठपुतली ही रहा पूरे एक दशक तक.....देश सहा, देखा पर 5 सालों बाद भारत की जनता ने एक बार फिर उन्हें उस गद्दी पर उन्हें सुरक्षित कर दिया था। पर, अब शायद सपना टूट चुका है। किला ढह चुका है। एहसास, आभास और विश्वास टूट चुका है। देश जगा है या सोया यह नहीं समझ आता पर हां जब बर्दाश्त का बांध टूट जाता है तो एक बदलाव जरुर उपजता है और आज शायद उसी बदलाव का नाम मोदी है। जो देश के जन- जन में बच्चे- बच्चे में क्रांति का सूत्रपात कर चुका है। यह क्रांति, यह बदलाव कितने दिन के लिए देश में शांति और सूकून कायम कर पायेगा ??  या दिल्ली में हाल ही में आयी क्रांति की तरह देश की आस को एक बार फिर डूबो देने वाली नव टाइटैनिक है??? ध्यान से सोचा जाय तो पुस्तक में उन्होंने ऐसा क्या लिख दिया जो तकरीबन पूरे देश को पता था उसे पुस्तक बद्ध सिर्फ कर दिया गया है। पुस्तक में लिख गय है कि मनमोहन सिंह की एक नहीं चलती थी। सोनिया गांधी के हर फैसले के सामने मनमोहन सिंह मात्र स्टैंप के अलावा कुछ नहीं थे। वो कोई भी फैसला नहीं ले सकते थे। राहुल गांधी को प्रौजेक्ट करने के लिए मनमोहन सिंह को मात्र टाइम पास थे। जिनकी आड़ में भविष्य के प्रधानमंत्री को संवारा जा सके। क्योंकि अगर सरकार न होती तो राजकुमार को राजनीतिक पहलुओं से अवगत करने में सोनिया गांधी को काफी मशक्कत करनी पड़ती। जो पगड़ी की आड़ में राजकुमार को खेलते खेलते सीखा दिया। पर, धोखा हो गया ...हां धोखा हो गया। कैसे ? जनता को सरकर ने दिया, मनमोहन की आड़ में सोनिया गांधी का राज़ चला। जो लोगों को धीरे धीरे समझ आया। जहर जैसे धीरे धीरे गले में उतरता है तो मौत भी रिस रिस कर आती है। व्यक्ति एक बार में नहीं मरता...तिल तिल कर मरता है। वहीं कांग्रेस ने भी देश के साथ किया है। बारु जी ने उन बातों से एक तरीके से मात्र पर्दा हटाया है , जिसका अंदेशा लोगों को अब तक हो चुका है। एक से बढकर एक घोटाले सामने आए पर, सरकार अपनी चाल ही चली.....देश की चाल को सुधारने की सुध तक लेने की आवश्यकता नहीं समझी। मंहगाई बढ़ गयी। देश की हालत चरमरा गयी। असुरक्षा की भावना में देश बह रहा था। पर, संजय बारु की इस पुस्तक ने राजनीति के गलियारे में गहमागहमी बढा दी. ऐसा उन्होंनें क्यों किया यह तो बाद में पता चलेगा। पर दो पावर सेंटर सोनिया गांधी और डा. मनमोहन सिह को लिखकर इतिहास सा रचने की कोशिश की है। सोनिया गांधी का पी एम पद स्वीकार न करना एक चाल बताया तो जनता में एक संत की छवि जो ताज की तरह मिली थी कहीं न कहीं ज उस ताज की गरिमा नष्ट सी हो चुकी है। उस पर धूल चमक रही है। लेकिन सपने पर सोनिया गांधी ने अब तक धूल को जमने नहीं दिया है और उसे शबरी की तरह राम के आने की आस में रोज रास्ते को आज भी सवार रही है। देखना है कि राम आ पायेंगें ...शबरी को दर्शन होगा राम का....   

Thursday 3 April 2014

लौ अभी जल रही है, इसे जलने दो! 





लौ अभी जल रही है, इसे जलने दो!
सर्वमंगला मिश्रा...
गहरी सोचप्रभावशाली जीवनआत्मविश्वास से भरे शब्दउन्नतिके पथ पर अग्रसर होना यह सभी गुण किसी एक व्यक्ति में मिलनाआसान नहीं। कुछ लोगों में ही विद्दमान होते हैं ऐसे गुण। ऐसे हीप्रखर वक्ताजिनमें उत्तम गुणवत्ता है जिन्होंने अपना सम्पूर्णजीवन समर्पित कर दिया। वो कोई सैनिक नहीं है परएक कुशलनेतृत्वकर्ता जरुर हैं। आज उनकी एक अमिट छाप है समाज मेंदेशमें जिन्होंने जरुरत पड़ने पर अपने सहयोगियों को बड़े छायादार वृक्षकी तरह धूपआंधी और बारिष से बचाया। पर आज वो नन्हें फूलबड़े पेड़ में तब्दील हो चुके हैं। जिन्हें गुमान हो गया है अपने बड़े होनेका। आज तन कर उसी बड़े पेड़ को छोटा समझने लगे हैं और खुदको आकाश की तरह असीम। एक वक्त हुआ करता था जब प्रभातफेरी गांवगांव में हुआ करती थी। 1951 में जनसंघ ने इस संसार में सांस लेनी शुरु की थी। जिसके जन्मदाता श्यामा प्रसादमुखर्जी थे। जिसमें युवा अधिक संख्या में हिस्सा लेते थे। लोग देशभक्ति की भावना से पूरी तरह ओत प्रोत हो चुके थे। सुबहसुबह प्रार्थना से सभा गुंजायमान हो जाती थी। 
प्रार्थना के बाद सुबह का सूरज लाल रंग में निकला जिन्हें हम सभी लाल कृष्ण आडवाणी के रुप में जानते हैं। जी हां इन्हेंकौन नहीं जानता जो जनसंघ ज्वाइन करने के बाद दिल्ली से राज्यसभा सांसद रहे। इसके बाद मोड़ आया 1973 में जबकानपुर में एक अधिवेशन के दौरान इन्हें अध्यक्ष घोषित कर दिया गया। रास्ता जब लम्बा हो और पथिक को दूर तलकजाना होता है तो मोड़ के साथ साथ पथरीले और सुगम दोनों रास्तों से मुलाकात हो ही जाती है। तभी तो कहानी के साथइतिहास बनता है। 1977 का वो साल जब “फूट” ने अपना मुंह खोलना शुरु किया तो लालकृष्ण आडवाणी और उनके परममित्र और करोड़ों दिल पर राज कर चुकेविरोधियों के भी चहेते रह चुके अटल बिहारी वाजपेयीजी ने जनता पार्टी में अपनानाम दर्ज करा लिया। मामला जायज था चुनाव जो सामने थे। पर उन दिनों एक अद्भुत आवाज पूरे देश में गूंज रही थी, जे पीआन्दोलन इतिहास में विख्यात है। बिहार की माटी से उड़ी धूल पूरे भारत के आकाश में बिखर गयी। उस धूल का एक ही रंगथा 'भ्रष्टाचार हटाओ', 'कांग्रेस हटाओ'। जो पूरे देश में दावानल की तरह भभक उठी। गुजरात ही वो प्रदेश था जहां उस वक्तमुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल राज कर रहे थे और करप्शन की सीमा अमूमन लांघी जा चुकी थी। जे.पी आन्दोलन निष्पक्ष औरबुलंदी की चरम पर था। वो पहली ऐसी आवाज थी जिसने परंपरावाद के सामने खड़े होकर ललकारने का दम दिखायाखुलेमैदान में। जिसकी आवाज़ में एक आगाज़ था। जिसके आवाज को कोई अनसुना  कर सका। गहमागहमी इतनी बढ़ गयीकि इंदिरा गांधी को एमरजेंसी तक लगानी पड़ी। जो इतिहास में लाल सलाम की तरह चिन्हित है। उस समय आडवाणी जीभी जेल में गये।उसके बाद उन्होंने 1976 से 6 सालों का कार्यकाल राज्यसभा सांसद के तौर पर निकला। खैर,1980 मेंआडवाणी जी के जीवन में नया दरवाजा खुल चुका था वो दरवाजा था भारतीय जनता पार्टी का। जहां आडवाणी के नेतृत्व मेंराम जन्म भूमि का मुद्दा एक विकसित आकार ले चुका था। वहीं 1984 के लोकसभा चुनावों में मात्र इस पार्टी ने 2 सीटों परअपनी विजय दर्ज करायी थी। काल परिवर्तन हुआ आज 2014 के चुनाव सामने हैं। 30 साल बाद आज की परिस्थति येनकेन प्रकारेण पूर्णतबदल चुकी है। आज पार्टी अपने दम पर 272 के मिशन को कहीं  कहीं पार करने में खुद को सक्षममानती है। मोदी जी आज पार्टी की तरफ से औपचारिक रुप से प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार हैं। हर जगह आज मोदीगुंजायमान हैं। हर तरफ एक ही नारा हैमोदी लाओ देश बचाओ-परउस व्यथा को कोई देख नहीं पाया जहां बेतहाशा प्रेमका मानो कत्ल हो गया हो। उस आह की कल्पना से मुंह फेर लेना मानो बेटे ने जिन कंधों पर बैठकर बंदूक चलानी सीखीहो आज वही पिता ही उसके निशाने पर खड़ा है।। क्या इस दर्द की दांसता कोई लिख पायेगा और कौन सुन पायेगा। 
30 साल कम नहीं होते। पर इन तीस सालों में उस बंजर जमीन पर खेती कर उसे उपजाऊ बनाने में जो खून पसीना औरअपनापन लगा उसकी कीमत आज बेदखलीपना है। मस्तिष्क के उस कोने में जहां यह एहसास सांस ले रहा था आज उसेशायद लकवा मार दिया है। वो बोलता था पहले पर आज चुप हो गया है। ना जाने कौन सा वो दर्द का आलम उसे चुप रहनेपर मजबूर कर दिया है या उसकी बजुर्गियत ने उसे चुप रहने की सलाह दी है कि होने दो जो हो रहा है मत बोलो। बोलोगे तोकहीं औंधे मुंह गिर ना जाओ। इसलिए खुद को संभालो और वक्त का रचा तमाशा देखो। वैसे तमाशा लोगों ने भी काफीतमाशा देखा। 1991 का वो साल जब सुपरस्टार राजेश खन्ना ने आडवाणी जी को कड़ी टक्कर दे डाली थी और बहुत हीसामान्य वोटों से पराजय स्वीकार करना उनके लिए विष का घूंट पीने के समान था। आडवाणी जी की शाख उसके बाद दिनपर दिन बढ़ती ही गयी। वो वरिष्ठ नेताओं की फहरिस्त में शामिल होते चले गये। उनके शब्दों को हर कोई सुनता और प्रशंसाउनके वाकपटुता की अवश्य करता। परयह वही देश और जनता है जिसे आडवाणी जी का जिन्ना की कब्र पर चले जानानागंवार गुजरा। बवाल मच गयाभारत मेंकि राम जन्म भूमि और हिन्दुत्व की बात करने वाले को वहां जाने कीआवश्यकता क्यों पड़ गयीजिससे काफी तनाव और आक्रोश भी झेलना पड़ा था लालकृष्ण जी को। फिर उनकी रथ यात्राहमेशा से पार्टियों के विरोध को झेलती रही। चाहे वह राममंदिर का मुद्दा को लेकर रहा हो या चुनावी रथ। कभी लालू प्रसादयादव ने उन्हें हिंसा फैलाने वाला करार दिया तो कभी सपा ने उनके कारसेवकों को रोका। राममंदिर को लेकर हमेशा से सेंटरआफ अट्रैक्शन रहे आडवाणी ने हमेशा अपनी वाणी से पार्टी को जो बल और जन जन तक पहुंचाने का काम किया उसमें कोईसंदेह नहीं। जब 1996 में 13 पार्टियों के गंठबंधन से बनी 13 दिन की सरकार गिर गयी थी और एक छोटे अंतराल के बाद1998 और पुन: 1999 में पार्टी ने अपना दमखम दिखाया और पहली बार भारतीय जनता पार्टी ने 5 साल का कार्यकाल पूराकिया जिसमें आडवाणी जी उप प्रधानमंत्री के पद पर भी सुशोभित हुए। भारतीय जनता पार्टी को हमेशा एक जलते हुए दीपककी तरह हथेली पर लेकर चले। लेकिन आज उस दीपक की लौ की जगह सीएफएल टूयूब लाइट्स ने ले ली है। जहां इकोफ्रेन्डली एटमोस्फेयर और आधुनिकता की चर्चा चल रही है पर बलिदान की वेदी पर।    
पिछले साल जब दोपहर तकरीबन 12.30 से एक बजे के आसपास खबर आयी की आडवाणी जी ने सभी पदों और पार्टी सेइस्तीफा दे दिया। अरेयह क्या हो गयापूरे देश की जबान पर यही सवाल था। पत्रकारों को लगा साल की सबसे बड़ी खबरहो गयी। क्योंकि तब तक क्रिकेट के भगवान ने संयास नहीं लिया था। उत्तराखण्ड की त्रासदी की किसी ने कल्पना तक नहींकी थी। काफी अंदरुनी प्रार्थनाओं के बाद हमेशा हाथ जोड़ने वाले सरल स्वभाव आडवाणी जी ने सबकी बात मान ली और घरसे बाहर उन्हें जाने से रोक लिया गया। परकितनी बार उन्हें मनाने का सिलसिला चलेगा। कब तक कोई इस बुजुर्ग की वाणीऔर भावनाओं पर अंकुश लगाने के लिए बॉडीगार्ड तैनातगी संभव हो सकेगी? व्यक्ति जब अपनी एक उम्र पार कर लेता हैऔर उसे उसकी मंजिल नसीब नहीं होती तो वो असमंजस की स्थिति में  जाता है। उसे सही गलत का भेदभाव आंकने मेंकहीं  कहीं परेशानी सी महसूस होने लगती है। हड़बड़ाहट में बहुत कुछ सही और गलत हो जाता है। कभी पड़ोसी के बेटे कीतारीफ निकल जाती है जिससे घर वाले नाराज़ से हो जाते हैं। पर अब क्या किया जाय वक्त का तकाजा है। दोष भी नहीं हैसपने पूरे करने की भला कोई उम्र भी तो नहीं होती। इतिहास गवाह रहा है कि राजनीति में खून के रिश्ते भी खून से लिखेजाते हैं। इंसानियत की शख्सियत एक मुखौटा मात्र रह जाती है।   

  मिस्टिरियस मुम्बई  में-  सुशांत का अशांत रहस्य सर्वमंगला मिश्रा मुम्बई महानगरी मायानगरी, जहां चीजें हवा की परत की तरह बदलती हैं। सुशां...