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Saturday 30 November 2019


आकाश कैसे बंध गया?

सर्वमंगला मिश्रा 


उद्धव का उद्भव आखिरकार हो ही गया।  जिस ठाकरे परिवार के आगे आज भी जनता झुकती है उद्धव ठाकरे ने शपथ समारोह में शपथ लेने के बाद मंच पर सिर झुकाकर जनता को नमन किया। इस विश्वास के साथ कि आज भी महाराष्ट्र की जनता उद्धव और शिवसेना को उसी तरह देखती है, जिसतरह वो बालासाहेब को देखती थी। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार तिकड़ी में बन तो गई है और साथ ही एक इतिहास भी रच चुकी है। देवेन्द्र फड़नवीस का इस्तीफा देना अपने आप में पर्दे के पीछे की रहस्यमयी कहानी है। अमित शाह का वचन अब झूठा साबित हो गया। महाराष्ट्र चुनाव के पहले से शाह ने मुख्यमंत्री के तौर पर देवेन्द्र को ही देखा था। कारण यह था कि महाराष्ट्र की सरकारों में आजतक कितना उलटफेर हो चुका है इतिहास इसका गवाह है। भाजपा की छत्रछाया में देवेंद्र फड़नवीस ने पांच साल का कार्यकाल बखूबी पूरा किया। एक स्थिर सरकार राज्य को दी। राज्य में विकास का आंकाड़ा कहां तक पहुंचा इसकी विवेचना एक लम्बी बहस का मुद्दा है। राजनैतिक विवेचनाकार इस बात की अलग अलग तरीके से आलोचना या प्रशंसा करेंगे। पर बात यहां ठाकरे परिवार की है जो बिना ताज बादशाह अब ताज पहन के सीमाओं में घिर गया है। जाहिर है जहां सीमा और गठबंधन होगा वहां समस्याएं भी आंतरिक रुप से होंगी।

बालासाहेब ठाकरे जिसने एकछत्र अखंड राज किया जो सभी सीमाओं से ऊपर उठकर हिन्दुओं की रक्षा हेतु सामने आए और विकल्परिहत समाज के सामने एक विकल्प के रुप में उभरे। 1966 में शिवसेना की स्थापना की। राजनैतिक पद की लालसा तब भी शायद कहीं मन में उठी थी तभी कांग्रेस के साथ सामने आए थे बालासाहेब ठाकरे। पर, कांग्रेस की फितरत कहें या राजनैतिक दावपेंच बालासाहेब भी धोखा खाए और अपनी पार्टी का अस्तित्व स्वयं खड़ा किया। सम्पूर्ण महाराष्ट्र में बालासाहेब ने निरंकुश शासन किया बिना किसी पद की गरिमा को स्वंय या अपनी पार्टी पर लपेटे हुए। देखा जाए तो उद्धव ठाकरे भी अपने पिता के प्रभाव से वंचित नहीं रह पाए और राजनीति में शांति से प्रवेश कर पिता का अनुसरण करने लगे। पार्टी को दिशा देने का काम उन्होंने बालासाहेब ठाकरे से ही सीखा। उद्धव के चचरे भाई राज ठाकरे कुछ आक्रामक नीतियों का अनुसरण करने में यकीन रखते थे। मीडिया राज ठाकरे को ज्यादा तवज्जो देती थी। जनता को भी राज ठाकरे बालासाहेब के उत्तराधिकारी के रुप में दिखते थे। उद्धव ठाकरे ने इन बातों का कभी खंडन नहीं किया। जो भी समस्याएं रही वो आंतरिक रुप से ही रहीं। यह सत्य है कि बालासाहेब ठाकरे ने अपने पोते आदित्य ठाकरे को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था क्योंकि बालासाहेब को अपनी झलक अपने बड़े पोते में झलकती रही होगी।

साल 2019, जब महाराष्ट्र के बेताज बादशाह के परिवार ने मैदान में आम नेता की भांति घर घर जाकर वोट मांगने का निर्णय किया। अर्थात् चुनावी मैदान में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की आवश्यकता ठाकरे परिवार को महसूस हो ही गई। आदित्य भी नए दांव पेंच सीखने में जुट गए हैं। आखिर उद्धव ठाकरे की अगली पीढ़ी हैं जो शिवसेना को दिशा देने के लिए तैयार हो रहे हैं। युवा नेता को अपने पिता से ना सिर्फ राजनैतिक लूड़ो खेलने की शिक्षा प्राप्त होगी वरन कहां पहुंचकर सीढ़ी मिलेगी ये भी भलीभांति सीख जाएंगे। उनके पिता ने उन्हें विधानसभा के चुनाव में मुख्यमंत्री के पद के दावेदार के रुप में उतारा था बल्कि एनसीपी और कांग्रेस के साथ समझौते के दौरान एक बार उन्होंने अपनी नामंजुरी जाहिर की। जिससे यह तो स्पष्ट झलक रहा था कि वो स्वंय बालासाहेब की कुर्सी पर रहकर बेटे के हाथ सत्ता देकर दोहरी राजनीति कर सकते थे। लेकिन आदित्य राजनीति में एक हरे पौधे के समान हैं जिन्हें विरासत में राजनैतिक माहौल तो मिला है पर स्वंय को परखना और उन पायदानों पर चलने की कूबत स्वयं हासिल करनी होगी। जाहिर है कि दिग्गजों के सामने आदित्य बच्चे हैं और एनसीपी जिसमें शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले और कांग्रेस के अशोक चौहाण जैसे लोग इस बात को मानने से साफ इंकार की हरी झंड़ी दिखाई जिससे सत्ता और विरासत को अमिट कलंक से बचाने के लिए उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री का पद स्वीकार किया।

भविष्य के बादल में क्या छिपा है इसको भांपते हुए उद्धव ने सेक्यूलर और हिन्दुत्व सबको ताख पर रखना ही उचित समझा। यह बात अलग है कि उद्धव और राज के मन में मुख्यमंत्री के पद को पाने की लालसा और होड़ दोनों मच चुकी थी। पर व्यक्ति अपने पुत्र में अपना आज देखता है वही उद्धव भी करना चाहते थे। महाराष्ट्र का मराठी मानुष ठाकरे परिवार के आगे सालों से सिर झुकाता आया है। इस पल का साक्षी पूरा महाराष्ट्र हो जाता कि सत्ता हाथ से निकल गई। जिससे वर्षों की बालासाहेब की तपस्या मिट्टी में मिल जाती और इसी तपस्या को बचाने के लिए उद्धव ठाकरे बंधन में आ गए। इन बंधनों की पकड़ सिर्फ बाहर से ही मजबूत रहेगी या आंतरिक तौर पर भी हो पाएगी। इसके लिए शतरंज की अगली चाल का इंतजार करना ही होगा।





Tuesday 26 November 2019

Monday 25 November 2019


दिल्ली का अगला मुख्यमंत्री – मनोज तिवारी
सर्वमंगला मिश्रा

कहते हैं भारत का दिल दिल्ली है पर दिल्ली के दिल में क्या छिपा रहता है ये शायद ही कोई भांप पाता है। दिल्ली सदियों से शासकों का सपना रही है। महाभारत का काल हो या मुगल सल्तनत का या आज का शासन खुद नजरें घुमाकर देख लीजिए दिल्ली ही शासकों को ताज पहनाती आई है। इसी तख्तो ताज के लिए सिंहासन लाल हुए तो इक्कसवीं सदी में पोस्टर वार से राजनीति की आंखें अब डिजिटल वार पर टिक गई हैं। अब भी शासकों का दिल दिल्ली की आबो हवा में बसता है। इसी तरह 2014 का लोकसभा चुनाव में एक सशक्त सरकार देने वाले और उसकी पुनरावृत्ति भी करने वाले प्रधानमंत्री मोदी के हाथ से जब दिल्ली की सल्तनत फिसली कर केजरीवाल के हाथों गई थी तो मन में कुछ कसक रह गई थी। मोदी जी ने अपना कर्तव्य तो पूरा किया था केजरीवाल जी को बधाई देकर पर दिल्ली के शासन का न होना एक कसक जरुर बनी रही। शायद अब मोदी जी पूरे देश में भाजपा का परचम फहराने के बाद दिल्ली के फिसलने का रिस्क नहीं लेना चाहते। वैसे भी इंसान से गलती एक बार होती है। यदि दुहरा दी जाय तो यही समझा जाता है कि पहली गलती से सीख नहीं ली गई।
वैसे देखा जाये तो दिल्ली में महानुभावों की कमी नहीं है। दिग्गजों की भरमार है। पर मेरे दिमाग में एक नाम कई महीनों से कौंध रहा है। वो नाम है मनोज तिवारी। आज की तारीख में नाम ही काफी है। गायकी और अभिनय के बल पर भोजपुरी सिनेमा के जरिए लोगों के दिलों पर लम्बे समय तक राज करने के बाद मनोज जी का अमूमन हृदय परिवर्तन हुआ और 2009 में आदित्यनाथ योगी के विपरीत खड़े होने का साहस दिखाने वाला ये शक्स और कोई नहीं आज के दिल्ली के भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी ही हैं। पर उस समय मुलायम सिंह की लाल टोपी वाली पार्टी से उम्मीदवार बने थे। गायकी का अपना भोला अंदाज रखने वाले और अभिनय में लगातार नम्बर वन के पायदान पर खड़े रहने वाले मनोज तिवारी ने ससुरा बड़ा पैसावाला और दरोगाबाबू आई लभ यू जैसी फिल्में की। इन फिल्मों ने मानो एक नई दिशा का आगाज़ करवा दिया। वहीं दिल्ली में पूरे देश से आए लोग बसते हैं उत्तर, पूर्व, दक्षिण और पश्चिम के अलावा देश विदेश के छात्र छात्राएं, काम करने वाले लोग, वहीं बस जाने वाले लोग। उत्तर प्रदेश और बिहार दिल्ली से बहुत प्रभावित रहता है। गतिविधियां प्राय:  समान सी चलती हैं। हवा का रुख दिल्ली से बहना शुरु होता है और उत्तर प्रदेश और बिहार को घेर लेता है। 
कहने का अभिप्राय यह है कि मनोज तिवारी भोजपुरी सिनेमा के दमदार नायक होने के कारण उत्तर प्रदेश और बिहार के राज्यों पर पूरी पकड़ होने के कारण भाजपा ने उन्हें पहले शामिल किया पार्टी में और फिर मोदी रुख हवा और अपनी माटी से अनंत प्रेम करने वाला भोजपुरी समाज ने जी भर के वोट दिया और दिल्ली में मनोज तिवारी जी की जय जयकार हो गई 2014 में वो भी आप प्रत्याशी के विरुद्ध 1,44,084 वोटों से। वहीं 2019 के चुनाव में कांग्रेस की भूतपूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को 3.66 लाख मतों से पराजित करने के बाद मनोज तिवारी का कद और भी ऊंचा हो गया। तो मोदी सरकार भी क्यों ना उन पर विश्वास करे जो दो बार दिल्ली की जनता के दिल में आसानी से बैठ गया। इन बातों को ध्यान में रखकर ये विश्वास किया जा सकता है और मोदी शाह की रणनीति यही होगी कि जीत गए तो दिल्ली का सिंहासन पर भाजपा के बीच मनोज तिवारी ही सुशोभित होंगे।

अब बात करते हैं दिल्ली के उत्तर पूर्व इलाके के वोटधारकों के बारे में। उन्हें मनोज तिवारी तो जीतने के बाद भी शायद कुछ न दे पाए हों क्योंकि केजरीवाल की सरकार बन गई तो ठिकरा फोड़ने के लिए एक सिर और कंधा तो अभी है। वहीं मनोज तिवारी के पास उत्तर प्रदेश और बिहार का दिल है जो दिल्ली में रहकर एक बार वो भुना चुके हैं जिससे पार्टी को भी फायदा पहुंचा और अब 2019 का साल जाने को है एक माह शेष है जिसमें मनोज तिवारी ने हौले हौले अपनी चाल और तेज कर ली है। अब अपने भोजपुरिया समाज के दिल को जीतना उनके लिए शायद ज्यादा कठिन नहीं होगा। अब भाजपा सरकार के दमदार काम लोगों के सामने हैं जैसे – तीन तलाक से मुस्लिम महिलाओं को आजादी, कश्मीर को धारा 370 से आजादी, उरी अटैक, पाकिस्तान को विश्व के समक्ष नतमस्तक कर देना और करवा देना जैसी और भी कई उपलब्धियां हैं जिन्हें दिल्लीवासी जरुरी समझते हैं। उन्हें लगता है कि गुजरात का प्रधानमंत्री होकर जब हर राज्य और हर वर्ग के लिए कुछ नहीं बहुत कुछ सोच रहा है तो ये तो अपनी माटी से जुड़े हैं अपने हैं अपना भी भला ही होगा। अपने बड़े बड़े घर छोड़कर फुटपाथ और झोपड़ पट्टियों में रहने को मजबूर ये तबका अपनी दरियादिली अपने चहेते नायक और गायक के प्रति दिखा भी दे तो क्या मनोज तिवारी भी उसका प्रतिउत्तर दे पाएंगे, महसूस कर पाएंगें उनकी तकलीफों को उनकी मांगों को असलीयत में।

मनोज तिवारी पर राजनीति हावी है। जनता का मन उन्हें मोहना आता है। इसीलिए केजरीवाल को प्रदूषण की समस्या हो या पेय जल टेस्ट में दिल्ली का 20 वें पायदान के पार खड़ा होना- हर मुद्दे पर सावधान खड़े हैं सतर्क होकर विरोध करने का एक भी मौका चूके बिना दिल्ली की कुर्सी हासिल करने की होड़ में शायद वो अकेले राजकुमार हैं।

जाने वाले जरा होशियार यहां के हम हैं राजकुमार

सर्वमंगला मिश्रा



ये गाना इसलिए याद आ गया क्योंकि महाराष्ट्र की राजनीति के छुपे रण में कुछ ऐसा ही नजर आ रहा है। जब खबर आई कि ठाकरे परिवार का पहला शक्स चुनाव लड़ने जा रहा है यानी जनता के बीच जा रहा है उनसे उनकी अनुमति लेकर सिंहासन पर काबिज़ होने के लिए तो सुनकर बहुत खुशी हुई थी कि अब महाराष्ट्र में वर्षों से अपना वर्चस्व कायम कर लेने के बाद भी जनता के आदर और सम्मान का ध्यान रखा जा रहा है भले ही ये एक औपचारिकता मात्र हो। लोकतंत्र को शिरोधार्य करने वाले छत्रपति शिवाजी को मानने वाले, बालासाहब जैसे शेर की संतान आज लोकतंत्र का मान रखकर भारत के संविधान की मर्यादा का सम्मान कर देश को मराठा जाति को गौरवान्वित कर रहा है।
पर अफसोस, बंद कमरे में बालासाहब ठाकरे के कमरे में भाजपा और शिवसेना के बीच क्या सिद्धांत तय हुए थे जिसके सहारे महाराष्ट्र के रण में पार्टियां आईं और जमकर अपना कद मापा। उम्मीद के मुताबिक ही अमूमन परिणाम आए पर शायद शिवसेना ने जितने की आस की थी उसमें कुछ कमी रह गई और भाजपा- 105 तो शिवसेना -54। पर एक बात तो शुरु से शिवसेना की ओर से तय दिख रही थी कि वो अपने सुपुत्र आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री के पद पर आसीन करवाना चाहते हैं। इसी कारण उन्होंने आदित्य को जंग के मैदान में उतारा और जीत ने भी आदित्य के कदम चूमे। यहां सवाल किसी मुकाबले के लिए नहीं लड़ा गया या कोई भी चुनाव मुकाबला तो होता है पर काबिलियत और उसका प्रोफाइल ही अहम होता है। यहां जहां देवेंद्र फड़नवीस पांच साल की सफल सरकार दे चुके है। भले ही महाराष्ट्र की समस्याएं जस की तस हों पर सुदृढ़ता रही है। वहीं आदिच्य की बात करें तो राजनीतिक सशक्त परिवार से तो आते हैं पर राजनीति के प्रति उनका मोह या उनकी असलीयत में कितनी रुचि है जनता शायद इससे वाकिफ नहीं है। 29 वर्षीय आदित्य को बचपन से बालासाहब ठाकरे का प्रेम और आशीर्वाद मिलता आया है और वो आदित्य को ही उत्तराधिकारी मानते थे और कई बार उन्होंने अपने कई साक्षात्कार में इसे स्पष्ट भी किया था। लेकिन इसका अर्थ ये कतई नहीं लगाया जा सकता कि आदित्य राजनीति के प्रपंची खेल के लिए परिपक्व हैं। इसके इतर शरद पवार भी अपनी सुपुत्री सुप्रिया सुले के लिए दांव पर दांव खेल रहे हैं।


यदि आदित्य ठाकरे महाराष्ट्र की गद्दी पर काबिज़ भी हो जाते हैं येन केन प्रकारेण तो क्या होगा- सिंहासन के पीछे की राजनीति शुरु हो जाएगी। क्योंकि आदित्य अभी कुमार हैं उगते हुए सूर्य की तरह मध्यान्ह का सूर्य बनने के लिए वक्त चाहिए होगा। अभी राजनीति और जनता के प्रति उत्तरदायित्व को समझने के लिए उन्हें और वक्त के साथ परिपक्व होना होगा। अभी राजनीतिक स्तर के फैसले लेने की दक्षता अभी अकल्पनीय है। सौराष्ट्र की जनता का हित अहित कहां निहित है इसे उन्हें समझना होगा तब होंगें सूर्य की तरह देदिप्यमान और समर्थन प्रकाश की किरणों की तरह उनका स्वागत करेगी। लेकिन सूर्य को पहले उगने तो दीजिए।  जिसतरह संजय राउत अभी अपना बड़बोलापन दिखा रहे हैं उसी प्रकार सारे फैसले कौन लेगा उद्धव ठाकरे, संजय राउत या और कोई। जैसे उत्तर प्रदेश में किसकी सरकार रही पिछले कुछ सालों में योगी जी के पहले पता नहीं चलता था कि अखिलेश की सरकार है या मुलायम की या आज़म खान की। ठीक वही स्थिति यहां भी नजर आ रही है।

एकतरह से देखें तो शिवसेना की हिंदूवादी राजनीति की पृष्ठभूमि खिसकती नजर आ रही है। जिस शिवसेना का जन्म 1966 में हुआ उसने भी बालासाहब ठाकरे के नेतृत्व में कांग्रेस से धोखा खाया था तबसे उससे किनारा ही कर लिया और भाजपा के साथ कदमताल करने लगी। पर, पूरे भारत ने देखा और आमची मुम्बई ने समझा कि सत्ता के आगे हथियारी हाथ हार जाता है। यूं तो सर्वविदित है कि जमीनी स्तर पर महाराष्ट्र और उसके आस पास के इलाकों में भी शिवसेना का वर्चस्व इस तरह कायम है जिस तरह बन्दूक और गोली का रिश्ता, सूर्य और प्रकाश का रिश्ता, जमीन और उससे लगे पेड़ों की जड़ों का रिश्ता। ऐसे में अगर शिवसेना चुनाव में उतरकर भी सत्ता हासिल नहीं कर पाती है तो शिवसेना का अस्तित्व प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रुप से सूर्य के अस्त होने का संकेत दे सकता है। वैसे आदित्य ठाकरे के पास अभी काफी वक्त है राजनीति की धुरी पर अपना सिक्का आजमाने और जमाने को।

अमान्य सरकार शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के मुताबिक जो देवेंद्र फड़नवीस और अजीत पवार ने बनाई है। उसके बनने से शिवसेना का अस्तित्व खतरे में आ जाएगा। उधर अमित शाह ने महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों से पहले अपने सभी साक्षात्कार में एक ही बात दुहराई थी कि महाराष्ट्र के सी एम देवेन्द्र फड़नवीस ही होंगें। उसके इतर चुनाव से पहले हरबार शिवसेना और भाजपा के बीच मान मनौउव्वल होता है पर इस बार संख्या ने जरा कदम खींच लिए और दोनों पार्टियां तैश में आ गईं। सबको अपनी शर्त पर सत्ता चाहिए। जिसने जो कहा वही होना चाहिए। इस बीच जनता का अधिकार और उसकी मान्यता नगण्य सी लग रही है।

  मिस्टिरियस मुम्बई  में-  सुशांत का अशांत रहस्य सर्वमंगला मिश्रा मुम्बई महानगरी मायानगरी, जहां चीजें हवा की परत की तरह बदलती हैं। सुशां...