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Wednesday 18 June 2014

पुलिस प्रशासन कितना सच्चा

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हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। एक पहलू जो आपको किसी का आदर्श बना दे और दूसरा पहलू जो किसी के मन को घृणा से भर दे। किसी बच्चे से अगर सवाल किया जाय कि वह क्या बनना चाहता है तो अधिकतर जवाब मिलता है आई ए एस आफिसर या आई पी एस। पर क्या वो सच्चाई से भरा सपना जिसमें गरीबों की मदद, कानून व्यवस्था को बदलने का मिज़ाज होता है पद तक पहुंचते – पहुंचते खोखला हो जाता है। पुलिस प्रशासन का गठन समाज में कानून व्यवस्था को दुरुस्त रखने और सामाजिक सामंजस्यता बरकरार रखने के मकसद से किया गया था। एक समय था जब देश में राजाओं का चलन हुआ करता था। उस समय के कायदे –कानून काफी सख्त होते थे। आज जिस तरह महिलाओं के उपर अत्याचार का बोलबाला बढ़ रहा है उस समय के नियमों के अनुसार दोषी व्यक्ति के हाथ काट दिये जाते थे, आंखें निकाल ली जाती थीं। इन नियमों के द्वारा यह संदेश दिया जाता था कि अपराध करने वालों का अंजाम कैसा होता है। जिससे भविष्य में कोई ऐसा अपराध ना करे। लोग सबक के तौर पर याद रखते थे। समय परिवर्तनशील है और एक ऐसा समय आया जब हमारा प्यारा भारत देश छोटे –छोटे राज्यों में विभक्त था।जहां हर देश का राजा अपनी सत्ता बचाने और झूठी शान के पशोपेश में रहता था। फलस्वरुप छोटे छोटे देशों के राजा आपस में लड़ने लगे। आंतरिक कलह से सुशासन की मजबूत स्थितियां जड़ से उखड़ने लगीं। जिससे बाहरी देशों के राजा परिस्थतियों को भांपते हुए अनेकों बार इस देश पर आक्रमण किये। सत्ता की जड़, जो पत्तों के झड़ने से शुरु हुई थी वो उसकी पहुंच पेड़ की जड़ों तक दीमक की भांति पहुंचकर खोखला करती चली गयी। जिससे देश पर बाहरी शक्तियों का प्रभुत्व जमने लगा और देश एक दिन अंग्रेजों के हाथ चला गया। वो अंग्रेज, जो व्यापार करने आये थे पर 300 वर्षों तक राज़ कर गये। अंग्रेज चले गये पर हूकूमत ए दासतां छोड़ गये। जिसतरह अंग्रेज भारतीयों को बिना किसी जुर्म के यातनाएं देते थे, और बेचारा बिना जुर्म का कैदी कराहता मर जाता था। जिस तरह पानी पर कंकड़- पत्थर मारकर व्यक्ति अपनी दुर्भावना का प्रदर्शन करता है। चोट तो जल को भी लगती है पर वह कहता नहीं, उसी तरह अंग्रेजों के कब्जे में भारतीय भी जुर्म सहता था। आजादी की उसी लड़ाई में खूनी कहनियां सामने आयीं तो कितनी गुमनामी के अंधेरे में दब गयीं। सावरकर, भगत सिंह, खुदीराम और चन्द्रशेखर आजाद जैसे अनगिनत नामो ने जिंदगी का अंत कर देश और देशवासियों को सिर उठाकर जीने का हक दिलवाया।
आज पुलिस तंत्र के कामकाज के रवैये पर सवाल उठना बहुत लाजमी हो गया है। जिस तरह फर्जी एन्काउंटर के नाम पर मासूमों की जान के दुश्मन बन जाते हैं और अपनी अंह की झूठी शान को दर्शाने के लिए कई बार नकली एंनकाउंटर कर डालते हैं। 2009 में जुलाई के महीने में एम बी ए छात्र, गाजियाबाद निवासी जिसकी देहरादून में हल्की कहासुनी के कारण जान से हाथ गवाना पड़ा। दया नायक, प्रदीप शर्मा जैसे नाम किसी से छुपे नहीं है। हालांकि सबूत के तौर पर कुछ न मिलने से अब कोई चार्ज भी नहीं रहा पर, सवाल यहीं उठता है कि क्या समाज के लिए बनायी गयी व्यवस्था के मालिकान और उन पर अमल करने वाले पदासीन अफसर ही गैरजिम्मेदाराना हरकत और विरोधी रवैया अपनायेंगे तो जनता किसके कंधे पर सिर रखकर चैन की सांस ले पायेगी। फर्जी एन्काउटर के एक नहीं अनगिनत फाइलें दबी पड़ी हैं। जिन्हें कुरेदने की ताकत शायद किसीमें नहीं। बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में न जाने कितनी ऐसी घटनायें होती हैं जहां पुलिस पूछताछ के नाम पर व्यक्ति को लेकर जाती है और दूसरे या तीसरे या अगली सुबह ही उसकी लाश जेल के अंदर पायी जाती है। यूं तो दयानायक जी सरकारी अफसर हैं पर मामलों का खुलासा होने से सच्चाई कुछ और ही कह रही थी। सवाल उठे कि क्या सरकारी आड़ में कहीं अफसर किसी और की नौकरी तो नहीं कर रहा ?? सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 555 मामले जुलाई 2013 तक दर्ज हुए। जिसमें सबसे कम संख्या मध्य प्रदेश और सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में दर्ज किये गये। जिसमें मात्र 144 मामलों का समाधान हुआ। वहीं असम,बंगाल, झारखण्ड और जम्मू –कश्मीर में भी फेक एन्काउटर हुए। सामान्यतया राज्य सरकारें ऐसे मामलों को दबाने का भरसक प्रयास करती हैं, और केन्द्र इस पर सुध नहीं लेता। एक केस की बात नहीं कि तो लेख शायद अधूरा लगे पाठकों को। इशरत जहां फेक एन्काउटर केस –जिसने पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया। जसमें एक 19 साल की लड़की की हत्या हो गयी। क्यूं और कैसे समय के पन्नों में राज की तरह ही है। सच्चाई शायद ही खुले कभी। बाटला हाउस एन्काउंटर केस जो दिल्ली में हुए सीरीयल बम बलास्ट के बाद अंजाम दिया गया था। फहरिस्त लम्बी है पर ऐसा करना किस हद तक लाज़मी है, ये सरकार और राज्य सरकारों के लिए चिंतन का विषय है। क्योंकि समाज और देश हित में किये जाने वाली इस प्रक्रिया का दुरुपयोग हो रहा है। कस्टडी में मौत और फर्जी एन्काउंटर में मौत- मसला वहीं अटकता है कि मौत देने वाला वही सरकारी अफसर ही है जो कभी अपने पद की धौंस में तो कभी आलाधिकारियों के दबाव में उस बेबस को मौत की नींद सुला देता है। पर, भारतीय कानून कहीं न कहीं इस बात की चेतावनी जरुर देता है कि ट्रिगर पसंद करने वाले भी अपनी मनमानी हरकतों के लिए पूरी तरह जिम्मेवार हैं और जवाबदार हैं। यूं आसानी से कानून उन्हें वर्दी में लिपटा रहने से बक्क्षेगा नहीं। यह बात अलग है कि कानून के हाथ लम्बे होने के बावजूद बेहस और लाचार जरुर रहते हैं।

आज इशरत का परिवार, रणवीर का परिवार किस बात की सज़ा भुगत रहा है। सुप्रीम कोर्ट भी मानता है कि यह मात्र नृशंस हत्या ही नहीं बल्कि एक क्रूर अपराध भी है क्योंकि पुलिस अधिकारी की ड्यूटी होती है लोगों की रक्षा करना ना कि अपने उत्तरदायित्तव के विरुद्ध कार्य करना। ट्रिगर दबाने के शौकीन पुलिसवाले क्या आज अपने कर्तव्य से इतने विमुख हो चुके हैं कि कर्तव्यपरायणता शेष मात्र रह गयी है। शपथ कागजी और बेबसी में पढ़ा जानेवाला ढोंग है   
 

 

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