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Monday 20 April 2015

ये कैसा अन्नदाता ??

सर्वमंगला मिश्रा
9717827056

जीवन की प्रक्रिया एक चक्र में बंधी है। चक्रक्रम में उलट –फेर होने से नियमितता अनियमितता में परिवर्तित हो जाती है। ऐसा ही कुछ इस साल हमारे देश के अन्नदाताओं के साथ हो गया। किसानों का देश कहा जाने वाला भारत यूं तो कई दशकों के बाद अब दूसरी चीजों में पारंगत हो जाने से कई क्षेत्रों में अपने विशेषाधिकार के लिए जाना जाता है। पर, इस साल, मौसम की मार ने हमारे देश के अन्नदाताओं को तोड़ दिया। किसान फसल उगाही के लिए बीज खरीदने से लेकर ट्रैक्टर से खेत जोतने तक के काम के लिए किसान कर्ज लेता है। कर्ज बैंक अथवा किसी व्यक्ति से लेता है। जिसकी सीमा और आस दोनों फसल के उगने तक होती है। किस्मत बन जाती है अथवा सब बिखर जाता है। इस साल मध्य प्रदेश के भिंड जिले में पिछले 10 दिनों में 6 किसानों ने आत्महत्या कर ली। महाराष्ट्र के कई इलाकों में ऐसा वाकया प्राय: हर साल देखने में आता है। विदर्भ के इलाकों में किसानों की यह दशा आम हो गयी है। पिछले वर्ष के आंकड़ों पर गौर करें तो 510 किसानों ने खुदखुशी कर ली थी। जबकि 2015 का यह चौथा महीना ही है और आंकड़ा 105 तक पहुंच चुका है। किसानों की मृत्यु का एक ही कारण सामने आता है- फसल की बर्बादी। जिससे निराश हताश किसान जो अपनी उम्र के मध्य में संघर्ष को झेल सकने में स्वंय को असमर्थ पाते हैं और जीवन का अंत कर बैठते हैं। ओलावृष्टि के हथगोलों ने इस बार किसानों की जैसे कमर ही तोड़ दी। अकेले मराठवाड़ा में किसानों के आत्महत्या का सिलसिला 200 के पार पहुंच चुका है। सवाल यह उठता है कि जिस किसान के भरोसे देश की आबादी अपना भरण पोषण करती है आज वही किसान अपनी दर्दनाक कहानी बिना किसी को सुनाये अपनी जमीन में दम तोड़ने को मजबूर हो रहा है। केंद्र और राज्य सरकारें योजनायें तो कई लाती हैं जिससे किसान फलीभूत हों पर वास्विकता सच से परे ही होती है। सच्चाई आज देश के सामने है जवान देश के लिए देश की सरहद पर दम तोड़ रहा है और अन्नदाता घर के अंदर। दोनों अपने सपनों का गला घोंट रहे हैं। तमाम आफिसर्स जिनकी सरकार नहीं बदलती उन्हें मात्र अपनी रिटार्यमेंट के अलावा कभी नौकरी या रोजी रोटी की चिंता नहीं होती। शायद यही वजह है कि उन्हें किसानों का या किसी भी बेसहारों का दर्द कचोटता नहीं। तभी गफलत करने में माहिर, जब सरकारें योजना बनकर बांध के पानी की तरह छोड़ती है तो जरुरतमंदों तक प्लास्टिक पाउच में पानी पहुंच पाता है। जिससे योजनाओं की किरकिरी हो जाती है।

किसान दो तरीके से खेती से जुड़ा होता है। उसकी ज़मीन, उसकी खेती पूर्णरुपेण खेती पर निर्भर। परिवार के कुछ सदस्य जो दूसरे शहरों में जाकर नौकरी करते हैं तो परिवार को आर्थिक तंगी का सामना करने में कुछ राहत मिल जाती है। परन्तु जिनका परिवार ही कृषि कार्य पर निर्भर है समस्या उनकी है। दूसरा किसान कम, मजदूर होता है और दिहाड़ी पर पलता है। यानी उसकी जमीन और कर्ज से कोई वास्ता नहीं होता। आत्महत्या का रास्ता वही किसान अपनाते हैं जिनका सारा दारोमदार उनकी खेती पर होता है। जिनकी आमदनी का और कोई जुगाड़ नहीं होता। अपनी छोटी सी जमीन पर खेती कर साल भर जीवन यापन का स्वप्न पालते हैं। बच्चों की पढाई, शादी, घर के तमाम खर्च कर्ज चुका पाने के बाद एक मुस्कान की आस में पूस की रात में खेतों में आकाश के नीचे सोते हैं तो कहीं अपनी मिट्टी की कुटिया में या झोपड़ी में। नैशनल क्राइम रिकार्डस ब्यूरो के अनुसार 2012 में 135,445 मौतें हुई। जिसमें तमिलनाडु, महाराष्ट्र, पं. बंगाल, आंध्र प्रदेश राज्यों में पाया गया कि 25.6 पारिवारिक समस्या, 20.8 बीमारी, 2.0 अकस्मात आर्थिक अवस्था में परिवर्तन, 1.9 गरीबी के कारण मौतें हुई। गुजरात का प्रतिशत बहुत कम रहा। गंभीर समस्या यह भी है कि सालों से देश कृषि कार्य पर निर्भर है। मौसम की मार अमूमन कुछ एक साल को छोड़कर प्राय: यही दृश्य देखने को मिलता है। सरकार को छोटे किसानों की अवस्था को ध्यान में रखते हुए बीमा पालिसी जैसी कुछ योजनाओं को प्रश्रय देना चाहिए। जिससे फसल नुकसान भी हो जाये तो आत्महत्या की नौबत उनके दहलीज पर कदम ना रखे।सरकार हर साल प्रकृति के कुपित होने पर ही नहीं बल्कि, उनके परिवार के भरण पोषण की समस्या उनके सामने दानव की तरह मुंह फैलाकर ना खड़ी हो। एक सर्वे में यह भी पाया गया की 1953 से लेकर अब तक किसानों की संख्या में भारी कमी आई है। इसकी बड़ी वजह खेती को शहरी एवं पढे लिखे ज्ञानी जन का हेय दृष्टि से देखना, उनके कार्यक्षमता को कम आंकना। जिससे कृषक वर्ग पहले से ही शहरी नौकरी से प्रभावित होने लगा। अब देश की आस्था और कृषक विलुप्त ना हों इसके लिए केँद्र एवं राज्य सरकारों को मुहिम चलानी आवश्यक है। प्रधानमंत्री मोदी जी ने किसानों से अपने मन की बात तो कह दी पर शायद उनकी सुनी नहीं। कम ब्याज दर पर उपलब्ध ऋण से किसान अपना व्यवसाय शुरु तो तब कर सकेंगें जब ग्राम प्रधान से लेकर तमाम बाबूओं को घूस देने से कुछ बच पायेगा। आखिर किसान कितनी परीक्षा देगा अपनी सहनशक्ति की। देश अपने अन्नदाताओं के लिए कब सोचेगा।




शासक और शासन

सर्वमंगला मिश्रा
9717827056


कुछ चीजों का जिक्र होते ही मस्तिष्क कौंधने लगता है। एक छवि जो चैतन्यअवस्था अथवा अर्धसुसुप्तावस्था में भी एक समान अपनी प्रक्रिया देता है। जिसतरह भारत पाक का क्रिकेट मैच, कश्मीर मसला या आरक्षण का मुद्दा। देश जब एक छत्र शासन के तहत था, जब अंग्रेजों के अधीन था और जब स्वतंत्र हो गया पर, प्रत्येक शासनकाल के तहत वैमनस्यता शासन प्रणाली, शासक और जनता के बीच एक अविश्वसनीय विवाद के रुप में जन्म लेता आया है और लेता रहेगा। यह प्रकृति का नियम है।शासक आदिकाल से अपने प्रभुत्व को स्थापित करने वाला होता है। समय का कालचक्र जब अपनी परिधि बदलता है तो आकाश से लेकर पाताल तक परिस्थतियां पूर्णरुपेण बदल जाती हैं। इसी तरह समय ने करवट ली और हिन्दु शासकों के स्थान पर मुस्लिम शासनकाल आया। समय चक्र फिर घूमा और दासत्व का जीवन भोगने को मजबूर हो गये भारतवासी। काल परिधि फिर बदली और देश स्वतंत्र हो गया। इसी तरह सरदार पटेल के रहते हुए भी जवाहरलाल देश के पहले प्रधानमंत्री बने। उसके बाद धीरे धीरे परंपरावाद में शासनकाल परिवर्तित होने लगा और इंदिरा गांधी के मरणोपरांत राजीव गांधी को देश के सबसे प्रमुख पद पर आसीन कर दिया। समय की सीमा समाप्त हो गयी और सोनिया गांधी ने सीताराम केसरी को रिप्लेस किया। हवा यूं तो रुकती नहीं पर लगता है ठहर सी गयी है। चुनौती हर किसी के सामने खड़ी होती है। चुनौती आज राहुल गांधी है-देश के लिए, देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए। आज देश का हर शक्स यह जानने को कहीं न कहीं उत्सुक है कि राहुल बाबा कहां गायब है। क्या यह समझा जाय कि राहुल अब बोझिल राजनीति से बोर हो चुके हैं और अपने जीवन को किसी दूसरी राह की तरफ मोड़ने को उत्सुक हैं। देश आज यही विचार कर रहा है कि अगर राहुल बाबा को दायित्व दिया होता तो क्या होता ? चुनौतियों से क्या मुंह मोड़ लेते राहुल गांधी। जिस परिवार ने तानाशाही से लेकर हर चुनौती को परास्त किया। उसी घर का चिराग आज कमजोर साबित हो रहा है।
चुनौती मोदी ने दी-राहुल को।
मोदी ने अनगिनत बीहड़ पहाड़ को काटकर अपना रास्ता स्वंय बनाया। पथिक जंगल-पहाड़ जैसे दुर्गम रास्तों से होता हुआ मंजिल तक जब पहुंचता है तो विश्वविजेता कहलाता है। मोदी आज विश्वविजेता के रुप में देखे जा रहे हैं। इस विश्वविजेता के सामने देश की तमाम चुनौतियां हैं। गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी, धांधली, घोटाला, भ्रष्टाचार और आतंकवाद। प्रधानमंत्री ने देश की 100 करोड़ जनता से यह वायदा किया है कि देश को बदलकर रख दूंगा आप मुझे एक मौका तो दो। जनता जनार्दन कही जाती है। जनता ने अपने आर्तनाद को सुना और बाहर से मोदी के शंखनाद को। अब साल पूरा होने जा रहा है मोदी सरकार को। मोदी जी ने सबसे छोटे देश भूटान से लेकर सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश तक की यात्रा कर ली और आमंत्रित कर मेहमाननवाज़ी भी कर डाली। अब तक एक दर्जन से भी ज्यादा विदेश यात्रा कर चुके मोदी जी ने देश के कितने महत्वपूर्ण मसले सुलझाये ? स्वयं प्रधानमंत्री बनने से पहले कर्नाटक में अपना दम खम दिखाने से शुरु कर अपने प्रधानमंत्री बनने के बाद भी दिल्ली की कुर्सी के लिए सतत प्रयत्नशील रहे मोदी। यानी चुनाव-चुनाव और सिर्फ चुनावों में व्यस्त रहे मोदी जी। अभी कनाड़, जर्मनी जैसे देशों की यात्रा पर 09 अप्रैल को रवाना हो गये। अगले महीने फिर चीन के बिजिंग की यात्रा पर रवाना होंगे।


कश्मीर के साथ- साथ चीन से भी भारत को एक अनजान सी बेरुखी का एहसास बीच बीच में होता रहता है। कश्मीर मुद्दा भारत की आजादी के साथ साथ चल रहा है। अरुणांचल प्रदेश पर चल रही सहमी राजनीति कहीं खुलकर विरोध की चिनगारी से ज्वालामुखी न बन जाये। मसले मात्र दो नहीं अनेक हैं पर मोदी जी की रमनीति क्या है। क्या सिर्फ विदेश यात्रा करने से देश सफलता की ऊंचाइयों को छूने में सक्षम हो सकेगा। आज मौसम की मार से किसान पूरे देश का सिसक रहा है। मजबूरी की इंतेहां जबाव दे दे रही है और किसान मौत को गले लगा रहा है। देश का किसान जब मौत की नींद सो जायेगा तो भविष्य खुशहाल कैसा जिंदा रह पायेगा। विडियो कांफ्रेसिंग और रेडियो के जरिये बात करना एक सुखद एवं सरल माध्यम है अपनी बात उन लोगों तक पहुंचाने के लिए जिनसे संपर्क साधना कठिन है। पर, मोदी अपनी प्लानिंग के लिए जाने जाते हैं। गरीब किसानों, बेसहारा बच्चों और महलाओं के लिए कया स्ट्रैटेजी है सरकार की। योजना लागू करना तो प्रत्येक शासनकाल से होता चला आ रहा है। नयापन और वायदा किस उम्मीद केसागर में गोते लगा रहा है।

 कश्मीर का ब्रह्म

सर्वमंगला मिश्रा-स्नेहा
9717827056


1947 में आजादी मिली और साथ ही एक नये देश का आविर्भाव भी हुआ। जनमानस से कहा गया कि जो जिधर जाना चाहता है वो उधर जा सकता है। जिस तरह महाभारत के युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व युद्ध में खड़े दोनों पक्षों को खुली छूट दी गयी थी कि जो योद्धा दल बदलना चाहते हों वो युद्ध छिड़ने के अंतिम क्षणों में दल परिवर्तन कर सकते हैं।उस समय सिर्फ युयुत्सु ही मात्र आये थे कौरवों से पांडवों की सेना में। ठीक इसी तर्ज पर भारत और पाकिस्तान बंटवारा के वक्त मुस्लिम समुदाय को पूर्णरुपेण छूट दी गयी कि वो जिधर चाहें उधर जा सकते हैं। कुछ लोग जो बंटवारा होने से पहले पाकिस्तान नहीं गये और फैसला लेने में देर कर दी उन्हें आज भी पाकिस्तान में शरण नहीं मिली अलबत्ता उन्हें काफिर की संज्ञा मिल गयी। भारत पाकिस्तान के बीच सीमा उल्लंघन विवाद वर्षों से चला आ रहा है। जिसके कारण हमारे हजारों जवान आज तक शरहद पर अपनी कुर्बानी दे चुके हैं। पर सरकारें चेतती नहीं है। कश्मीर जिसे धरती का स्वर्ग कहा जाता है।आज विवाद से युक्त और रक्तरंजित हो चुका है। यह राजनीतिक चाल ही लगती है जहां भारत के नियम कानून लागू नहीं होते। ऐसा प्रतीत होता है जैसे एक छत के नीचे दो दुनिया बसा दी गयी हो। भारत में आने जाने पर कश्मीरी अवाम को रोक नहीं पर भारत के किसी भी हिस्से से जाकर खुद को उस राज्य में स्थापित करना कठिन प्रक्रिया है। क्या वहां प्रारम्भ से ही बंटवारे के बाद सांठ-गांठ हो गयी थी और देश की जनता को धोखे में रखा गया। मुद्दा विचारणीय है पर 1990 में जो हुआ वह देश के लिए शर्मनाक वाक्या था। कश्मीरी पंडितों को लाचार और बेबस कर उन्हें वहां से खदेड़ दिया गया था। पंडित जिन्हें वेद और शास्त्रों के अनुसार ब्राह्मण ब्रह्म के समान माना जाता रहा है। शरीर में उसका निवास मस्तिष्क से लेकर मुख तक का भाग बताया गया है। आदिकाल से ब्राह्मण वेदों और शास्त्रों के ज्ञाता होते थे। वो देश और समाज को ज्ञान दिया करते थे। कहा भी जाता है कि राजा की पूजा सिर्फ उसके राज्य अथवा देश में की जाती है पर ज्ञानी जन की पूजा पूरे धरती पर होती है। पर यह कैसा सम्मान जो अपमान के घूंट पीने पर उन ब्रह्मणों को मजबूर किया गया। जिसकी पूजा तो दूर शांति और सम्मान से उन्हें उनके घरों में रहने तक नहीं दिया, बेघर कर दिया गया। वो जख़्म अब दो दशक से भी ज्यादा वक्त बीत जाने के बाद हरे हो रहे हैं।
हाल ही में ओमर अबदुल्ला की सरकार को पटखनी देकर और बीजेपी से हाथ मिलाकर पीडीपी सत्ता पर काबिज़ हुई है। नई पार्टी के साथ नये मुद्दे भी राज्य में गरमा रहे हैं। हालांकि कई बार कश्मीरी पंडितों को वापस बुलाने का मसला उठता रहा है। पार्टी उन कश्मीरी पंडितों को वापस बुलाने का सपना सा दिखा रही है या बीजेपी को जमीनी हकीकत से आगाह करा रही है कि अगर इस मुद्दे का इम्प्लीमेंटेशन हुआ तो कश्मीर की हालत क्या हो सकती है। क्योंकि हाल ही में कश्मीरी पंडितों को एक अलग इलाके में स्थापित करने की योजना पर पहल हुई है। यह योजना कितनी कारगर साबित होगी यह तो भविष्य में की जाने वाली पहल से ही निर्णय निर्धारित हो सकेगा। यह जग जाहिर बात है कि यदि उन खदेड़े हुए लोगों से कश्मीरी सरकार को इतना लगाव होता तो यह कदम ही क्यों उठाते ?इतनी संख्या में कश्मीरी पंडित अपनी जान बचाकर क्यों भागते ? उन पर जो अमानवीय अत्याचार हुए ह्यूमन राइटस का खुलकर उल्लंघन हुआ। इसकी जवाबदेही किसकी हुई। नैशनल काफ्रेंस की जिसकी सरकार उस वक्त राज कर रही थी और सीएम फारुक अबदुल्ला साहब थे। देखा जाय तो कश्मीर पर सबसे ज्यादा 1982 से एकाधिकार सा रहा अबदुल्ला साहब का। हालांकि राष्ट्रपति शासन भी हर एक साल अथवा 2 साल के अंतराल पर लगता रहा। विचारणीय है कि नैशनल कांफ्रेस पार्टी कश्मीरी पंड़ितों के हक में नहीं सोचती। पुनर्वास की योजना में कई दिलचस्पी नहीं रही ओमर अबदुल्ला साहब की। इसका तातपर्य स्पष्ट है कि संदिग्धता बरकरार है।
जिस तरह महाराष्ट्र से उत्तर प्रदेश और बिहार के राज्यों से जाकर बसे लोगों को खदेड़ा गया था। यह मुद्दा उठाया गया कि मराठी लोगों का ही बोलबाला महाराष्ट्र में होना चाहिए। वहां के प्रमुख नेता ने अपनी बुलंद आवाज में अमिताभ बच्चन जैसे लोगों पर भी निशाना साधा कि आज तक उन्होंने महाराष्ट्र के लिए क्या योगदान दिया है। वैसे देखा जाय तो हर क्षेत्र में कुछ संदिग्ध मानसिकता व्याप्त है। जिससे देश के बने संविधान पर कहीं न कहीं प्रश्नवाचक चिन्ह सा लग जाता है। कि क्या भारतवासी एक राज्य से दूसरे राज्य में भ्रमण और निवास करने के लिए स्वतंत्र हैं या नहीं। संविधान की अवमानना नहीं तो और क्या है। पुनर्वास योजना उन कश्मीरी पंड़ितों के जख्म पर मरहम नहीं बल्कि उसे कुरेदा जा रहा है। यह कैसी प्लानिंग है कि जितने लोगों को पुनर्वास के तहत वापस आने का निमंत्रण दिया जा रहा है वह सब उस एक तरफा कालोनी में सुरक्षित रहेंगें। उन पर फिर कोई आक्रमण न होगा। अगर उन्हें उस प्रतिबंधित कालोनी में ही रहना है तो क्या उचित व्यवस्थाएं हैं जैसे अस्पताल, कालेज, यूनिवर्सिटी और मुख्य तौर पर व्यक्ति का व्यापार अथवा नौकरी। इन सब चीजों की आवश्यकता क्या उन लोगों को नहीं होगी जिन्हें पुनर्वास के तहत बसाये जाने की तैयारी का खाका खींचा जा रहा है। सवाल और भी बेहद गंभीर हैं जिन्हें समझने की आवश्यकता है यहां। सवाल क्या वहां के लोंगों के घूमने फिरने की जगह जहां वो लोग पहले जाने के आदि थे अब नहीं जा सकेंगे या उस जैसा स्थान उस प्रतिष्ठित कालोनी में बनाया जायेगा या ऐसी कोई योजना सरकारी पेपर पर आंकी गयी है। इसके अलावा जिन लोगों के घर उस वक्त औने पौने दाम में बेंच दिये गये थे क्या आज कश्मीरी हूकूमत अपने इस नये अव्यवस्थित आवाम को मुहैया कराने में सक्षम हो पायेगी। क्या सरकार उन लोगों को बरबस बेबस करेगी कि उनके कानून के तहत ही चलना होगा अन्यथा खामियाज़ा भुगतने को फिर तैयार रहना होगा। अमूमन 25 साल का वक्त दूसरे राज्यों में बीताने के बाद, हजारों संकट झेलने के बाद क्या यह जनता वापस जाना चाहती है। जहां उनके अपनों का कत्ल उनकी आंखों के सामने हुआ था। उस पीड़ा को भुलाने में जहां उन परिवारों को सालों लग गये और अब जब तस्वीर हल्की सी धुंधली होने लगी थी तो सरकार ने उस बंद घाव के उपर से पट्टी हटाकर उसका दर्द और बढ़ा दिया है। जिन लोगों ने 22-24 साल खून पसीना एक कर नये तरीके से अपने जिदगी की शुरुआत की और आगे बढे क्या वो लोग फिर से पीछे मुड़कर देखना चाहेंगे।
जिंदगी की शाम इंसान के जीवन में पल भर का ही सही एक ठहराव लाती है जहां व्यक्ति कुछ सोचना चाहता है आज वही शाम उन कश्मीरी पंड़ितों के जीवन में आ गयी है कि क्या करें और क्या ना करें। कानून और सरकार पर भरोसा करना यानी अपना और आने वाले कल को दांव पर लगाने जैसा है। पर जो आज तक इसी सपने के सहारे जी रहे थे उनके लिए अमृत की एक बूंद है जिनकी आंखों में आज भी अपने घर का लान की याद हरी घास की तरह ताजा है। सोचने वाली बात यह है कि क्या उन्हें उनकी पुरानी प्रापर्टी अब नसीब हो पायेगी? क्योंकि अब प्रापर्टी के दाम बढ चुके हैं। भले आज आतंकी साये में कश्मीर जी रहा हो पर मेहमान से व्यापारी वसूल ही लेगा और चाहत की कीमत इंसान को चुकानी ही पड़ती है।



केंद्र और राज्य सरकारें अगर वाकई इस मुद्दे को लेकर गंभीर हैं तो माहौल बदलना होगा आवाम का का आवाम के लिए। वरना जिस तरह दंगे आये दिन दिख रहे हैं ऐसे हालात में कोई कश्मीरी पंड़ित स्वयं को कैसे महफूस मान सकेंगे। वहां की सरकार को भरोसा दिलाना होगा कि अब उन पुनर्वासियों पर कोई हथकंड़ा नहीं अपनाया जायेगा या फिर से उन्हें बेघर नहीं किया जायेगा चाहे सरकार बदले या न बदले। त्रिशंकु वाली हालत फिर ना हों इसके लिए सरकार को मुनासिब कदम उठाने होंगे। जिससे पुरानी योदें कचोटे नहीं बल्कि मरहम का काम करें।

  मिस्टिरियस मुम्बई  में-  सुशांत का अशांत रहस्य सर्वमंगला मिश्रा मुम्बई महानगरी मायानगरी, जहां चीजें हवा की परत की तरह बदलती हैं। सुशां...