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Saturday 19 July 2014

         
                          आस्था और अनुकरण

सर्वमंगला मिश्रा
9717827056

आस्था से श्रद्धा और श्रद्धा से विश्वास कायम होता है। जीवन अति सरल पर कठिन पाठ पढ़ाता है। धर्म में आस्था रखना और अंधानुकरण करना दो अलग बातें हैं। धर्म में आस्था रखना -इंसान के अंदर विश्वास, प्रेम और पथ प्रदर्शक बनने का गुण पनपाती है। तो अंधानुकरण करने वाले लोग बिना विचारे ढाक के तीन पात ही चल पाते हैं। उनमें मात्र कट्टरता की भावना रहती है। इंसानियत की मर्यादा समाप्त हो जाती है। धर्म मर्यादा पालन सीखाता है ना कि आपस में फूट डालता है।धर्म की मानसिकता एकता को मजबूती प्रदान करती है। द्वारका-शारदा पीठाधीश्वर जगदगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानन्द जी महाराज ने साईं पूजा को हिन्दू धर्म के विरुद्ध बताया। हर बड़े चैनल पर उनका इंटरव्यू भी चला। साईं भक्तों ने आग बबूला होकर जगदगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानन्द जी महाराज का पूतला भी फूंक डाला। पर, ध्यान देने योग्य बात यह रही कि हिन्दू धर्म के समर्थकों ने साईं का पुतला न फूंका और ना ही अनैतिक कदम उठाये। मसला यह है कि सामाजिक कुरीतियों से बचाना समाज के लोगों को यह धर्म गुरु का काम होता है। हम सभी लोग अपने बचपन में अपने बड़े –बजुर्गों से यही सुनते आये हैं कि अच्छे लोगों की संगत करो। इससे आपमें अच्छे गुण पनपते हैं। यह जीवन है जहां इंसान को कदम कदम पर भिन्न- भिन्न गुरुओं की आवश्यकता पड़ती है और एक ही गुरु से जीवन चल तो सकता है पर आज जिंदगी की लाइफस्टाइल चेंज़ हो जाने से जीवन के पहलू को देखने और सोचने का नजरिया भी बदल सा गया है। इसलिए जैसे हर विषय के लिए बच्चा अलग अलग टीचरों से ट्यूशन लेता है उसी तरह जीवन को भी अलग अलग डाक्टर से कंस्ल्ट करना पड़ता है। हालांकि पहले गुरुकुल में एक ही गुरु अपने सभी शिष्यों को उनके समर्थता के आधार पर विकसित करते थे और जीवन के मार्ग पर चलने में कठिनाइयों का सामना कम करना पड़ता था। उसी तरह 33 करोड़ देवा देवता हिन्दू धर्म में बताये जाते हैं। पर क्या उन 33 करोड़ देवी –देवताओं के नाम भी हम जानते हैं ?? जाहिर सी बात है उत्तर ना ही निकलेगा। उसी तरह साईं बाबा, गुरुनानक जी, मुहम्मद पैगम्बर और जिसस क्राइस्ट ये सभी आज परमपूज्य और साधना के प्रेरणास्त्रोत हैं। वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह...आमीन....ओ जिसस- मे गोड बेल्स यू माई चाइल्ड जैसे कई आस्थावान शब्द  और वाक्य है जो आपके मन के अंदर एक अद्भुत ऊर्जा का संचार करते हैं। उस अविश्वसनीय, परम शक्तिमान और जगत संचालक को किसी ने नहीं देखा। वो सुप्रीम लार्ड है, भगवान है, जगत विधाता, शिव, ब्रह्मा या विष्णु रुपेण है..या अल्लाह, गुरुनानक साहेब या जिसस है । हममें से किसी को नहीं पता। पर एक परम शक्ति है कहीं न कहीं जो इस जगत का संचालन करती है। हमें नदी की धारा के सामान गोमुख से निकालकर महासमुद्र में विलीन कर देती है। यही सत्य है।

जगदगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानन्द जी महाराज के साईं पूजा का विरोध मात्र विरोध नहीं था। एक पहल एक आगाह था जो हिन्दू अपने धर्म से भटक रहे हैं उनके लिए। उनका कहना यही रहा कि साईं को आप मानो मुझे कोई आपत्ति नहीं पर हिन्दू शास्त्रों में वर्णित देवी देवताओं का स्थान उनसे निम्न मत करो। साईं –राम , साईं कृष्ण, साईं-श्याम मत कहो। यदि आप को भजना है तो साईं का नाम सांई की तरह लो। उसमें राम-कृष्ण मत जोड़ो। पर बेबाक मीडिया थोड़ा मुखर हो गया। इसे चढ़ावा और साईं से शंकराचार्य का टकराव घोषित कर दिया। संत होना अलग बात है पर परमात्मा बनना अलग बात है। सनातन धर्म में वैसे ही इतने शास्त्र, पुराण और वेद होने के कारण वैचारिक मतभेद आपस में संकीर्णता को जन्म दे चुके हैं। ऐसे में स्वामी नारायण की पूजा, शिरणी के साईं की पूजा अपने आप में आने वाली पीढियों को भ्रमित करने वाली है। मेरे पिताजी आज से अमूमन 42 अथवा 45 वर्ष पूर्व देवरहवा बाबा से मिल चुके हैं। अद्भूत, चमत्कारी, मचान पर रहना, खड़ाऊं पहनना, स्पृश्यता एकदम वर्जित, हर आधे घंटे में स्नान करना, इच्छा मन में की और उत्तर तुरंत पा जाना। पर आज उनका कोई मंदिर या धाम नहीं है। बहुत लोग शायद उनके विषय में सुने भी नहीं होंगे। इसी तरह फहरिस्त काफी लम्बी है। गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी इन्हें हम संत और धर्म प्रदर्शक के रुप में जानते और मानते हैं। साईं बाबा जिनके पूरे विश्व में करोड़ों अनुयायी हैं कुछ काल पूर्व ही उनका शरीर पंच तत्व में विलीन हुआ। उनका कोई मंदिर नहीं। पर आज उनके अनुयायी ट्रस्ट का पैसा लगाकर मंदिर खोलें और उन्हें भगवान के रुप में स्थापित कर दें तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। पर क्या जानने वाले ज्ञानी क्या इस अनछुए पहलू से अनभिज्ञ हैं  ??  निर्मला देवी जिन्होंने खुद को ईश्वर स्वरुपा बताया और लोगों के घरों से देवी देवताओं की मूर्तियां तक हटवा दी, और स्वघोषित ईश्वर के रुप में आज भी कई घरों और मस्तिष्क में विद्दमान हैं। एक और स्वघोषित ईश्वर की बात न की जाय तो बात अधूरी रह जायेगी। वो हैं आशाराम बापू- जो आजकल किस कारण जेल में हैं इस बारे में बात करना समय की नष्टता होगी। ओशो- जिसकी बातें और नाम आध्यात्म जगत में पूजा है। करोड़ों भक्त उनकी आस्था के सागर में गोते लगाते हैं। उनकी पुस्तकें पढ लेने मात्र से- जीवन का सार और स्वर्ग की अनुभूति उनके लिखित विचारों से झलकती है। पर क्या वो ईश्वर थे??  आजकल एक नाम जिसकी कश्ती डूबी पर लक्ष्मी मैया ने फिर उन्हें सहारा दे दिया है। निर्मल बाबा जो व्यापार में फेल हो गये थे पर आज दूसरों पर ईश्वरीय कृपा कैसे होगी सरल भाव में बताते हैं। उनके अनुयायी जिनकी आस्था कहीं न कहीं प्रबल है या जिंदगी को राह देने वाली मशीन पर एक भरोसा उमड़ा हुआ है। कहा नहीं जा सकता। तो क्या ये ईश्वर हैं??
सचिन तेंदुलकर-क्रिकेट के भगवान, रफी साहब, लता मंगेशंकर इन्हें आज के युग का सर्वश्रष्ठ माना जाता है। देश नहीं विदेशों में भी पूजे जाते हैं। अपने कर्म के लिए। पर अपवाद यहां भी है- एक बार पढा था ,जब माधुरी दीक्षित का बहुत बोलबाला था, तो एक पान वाला दुकान खोलने के साथ सबसे पहले उनकी तस्वीर को धूप –बत्ती दिखाता और उसके बाद अपनी दुकान शुरु करता। इसी तरह विद्दा भारती, अमिताभ बच्चन-जैसे चर्चित अभनेता व अभिनेत्रियों को सत्कार और प्रेम मिलता रहा तो क्या ये ईश्वर हैं?? हर क्षेत्र में एक इतिहास रचयिता आता है। उस इतिहास रचने वाले को आम लोगों के जीवन में विशेष स्थान मिलता है। लोग उसे अनुकरण करते हैं, पूजते हैं अपना दिन उसके दर्शन से सुखद होता मानते हैं। वकालत में इतिहास रचयिता और उपलब्धि हासिल करने वाले को वकालत पढ़ने वैले बच्चे पूजेंगें। टीचर्स डे के दिन हम शिक्षकों को पूजते हैं। परीक्षा में जाने के पहले उनका आईशीर्वाद लेते हैं। बहुत से श्रवण कुमार कहीं न कहीं तो धरती पर होंगे जो माता पिता को पूजते होंगे। पर क्या दुनिया उस व्यक्ति के माता पिता को पूजती है??  जानती भी नहीं है। ठीक उसी तरह जिसतरह टेनिस खिलाड़ी शारापोवा का मैच देखने गये क्रिकेट के भगवान सचिन को शारापोवा नहीं जानती थीं। यहां मेरा मकसद किसी विवाद को जन्म देना नहीं बल्कि मात्र एक संयोग पेश करना था। मैं खुद भी सचिन तेंदुलकर की बड़ी या छोटी नहीं कहूंगी पर जबरदस्त फैन अवश्य हूं। सभी की तरह मेरी आंखों में भी आंसू थे जिस दिन उन्होंने क्रिकेट से संयास लिया था। कहने का तात्पर्य यह है कि हम सबमें वो परम आत्मा कहीं न कहीं विद्दमान है। जो हम सबको सांस लेने से लेकर जीना सीखाता है और सांस रुकते ही परम धाम या पंच तत्व या मिट्टी में मिल जाने का संकेत देता है। क्योंकि इस शरीर को बर्दाश्त करना लोगों के लिए असहनीय बन जाता है। वहीं मोरारी बापू, किरीट भाई जी ईश्वर के अस्तितव का बखान करते हैं पर स्वंय को कभी भी ईश्वर बताने का भ्रम नहीं पाला। संत ईश्वर और मानव के बीच मात्र माध्यम है एक ब्रिज मात्र है। ईश्वर नहीं। उन्हें आभास है कि इस नश्वर शरीर में उस परम शक्ति का कण मात्र सही पर है पर कण कण से बना वो परम जिसकी कल्पना अकल्पनीय. या बियांड एक्सपेक्टेशन है। हम मानव वो हो नही सकते। अब सवाल एक और भी उठता है-राम और कृष्ण भी तो मानव रुप में धरती पर अवतरित हुए। उन्हें ईश्वर के रुप में क्यूं पूजा जाय ?? शास्त्रों में वर्णित है कि आदिगुरु शंकराचार्य स्वयं शंकर भगवान के अवतार थे। जिन्होंने मात्र धर्म की स्थापना व्यापक रुप में करने के लिए ही इस धरती पर उस काल में पदार्पण किया था। आज लोग शंकराचार्य को साईं के तर्ज पर तो ईश्वर नहीं मानते।   
कहने का पर्याय यह है कि धर्म की नीतियां जीवन में समभाव, चरित्र की उत्तमता की ओर मानव जीवन को प्रेरित करती हैं। धर्म अवहेलना नहीं संतुलन सीखाता है। संतुलन ही यह बताता है कि समभाव रखते हुए बगुला और हंस में अंतर कैसे किया जाना चाहिए।
 






 
              क्या जैसा देश वैसा ही भेष ??

 सर्वमंगला मिश्रा
वो लोग सौभाग्यशाली होते हैं जिन्हें कोई शहर पहली बार में अपना लेता है। उन लोगों को इस वाक्य से ज़रा भी परहेज़ नहीं होगा जिन लोगों ने दूसरे शहर में जाकर अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष किया होगा। कश्मकश से भरी जिन्दगी इतनी आसान नहीं होती। कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिन्हें देखते देखते आदत पड़ जाती है और फिर आप कहते हैं हां यार, नाट बैड.....राजनीति भी एक ऐसा मंच है जहां हजारों कलाकार आते और जाते रहते हैं। कुछ दिल में बस जाते हैं, तो कुछ को देखने और सुनने की आदत पड़ जाती है। राजनीति लोगों को हमेशा दोराहे पर खड़ा कर देती है। उन्नति भी कराती है पर अवनति की सीढियां चढ़वाकर। जब आपका चारित्रिक पतन हो जाता है और आप स्वंय के लिए न जाने कितनी भावनाओं की लाशों पर चढकर अपना आशियाना खड़ा करते हैं, तो यही कहा जा सकता है कि जीवन सरल पर कठिन हो गया है।
यह राजनीति ही है जो विदेशी मूल की महिला को बाल काले करने पर मजबूर कर देती है। ममता बनर्जी जिन्होंने 34 साल के मजबूत लाल किले को गिरा डाला, पर अपनी हवाई चप्पल और सादी साड़ी का साथ नहीं। लालू यादव को उनका हेयर स्टाइल नहीं बदलने देती। तो मुलायम को दाढी नहीं बढाने देती। वहीं झारखंडी विश्वविख्यात हीरो महेन्द्र सिंह धोनी जिसका नाम ही काफी है अपनी हेयर स्टाइल बदलने के लिए फेमस है। पहले लम्बे लम्बे बाल तो 2008 में बाल छोटे कर सबको चौंका दिया। फिर वल्ड कप जीतने के बाद मन्नत के कारण सिर मुंडवा लिए.....ऐसा सौभाग्य इन नेताओं का कहां ???? वहीं भारत के पूर्व बहुचर्चित राषट्रपति डा. अब्दुल कलाम आजाद के बालों को लेकर अमूमन हर चैनल ने पब्लिक ओपिनियन ले डाला। अपने बालों के कारण उनकी चर्चा घर घर होती रही। वृंदा करात अपनी बिन्दी छोटी नहीं कर सकती तो शैलजा और प्रिया दत्त लगा नहीं सकती। सुषमा स्वराज सलवार कुर्ता नहीं कभी पहनीं तो उमा भगवा नहीं छोड़ सकतीं। पर, मायावती अपवाद हैं। पहले उनकी पोनी टेल हुआ करती थी जो अब बाय कट में परिवर्तित हो चुकी है और लगता नहीं कि अब वो अपना रुप बदलना चाहेंगी । कारण है कि अब अपनी इतनी मुर्तियां बनवा चुकी हैं कि पब्लिक में भ्रम का संचार हो जायेगा। अम्मा अपने जमाने की हिरोइन थी पर अब जिंन्स नहीं पहन पायेंगी, नेता बनने के बाद उनका लिबास सेट हो चुका है। राजनीति की चहेती हिरोइन प्रियंका वार्ड्रा गांधी अपने इन बालों के साथ इतनी फेमस हो चुकी हैं कि बाल लम्बे करने की इच्छा शायद अब सपने में ही करके संतोष करेंगी। उनकी दादी छोटे और हल्के घुंघराले बालों की मिशाल रह चुकी हैं। प्रियंका को उनकी छवि माना जाता है। राजनीति का साधु वेश वाले बाला साहब ठाकरे जी जिनके परिधान जैसा शायद ही कोई खुद को संजो कर रख सके....एक मिसाल थे। किरण बेदी जिन्हें न जाने कितने उपनाम मिले उनकी पहचान उनकी वर्दी और बाल रहे। पत्रकारिता में बरखा दत्त, प्रणव राय, पुण्य प्रसून वाजपायी, आशुतोष, दीपक चौरसिया भी अपनी वेश भूषा की वर्दियां छोड़ने में अब हिचकिचायेंगें।
पर, राजनीति में क्या वेश-भूषा ही महत्वपूर्ण है ??? क्योंकि पुराने जमाने में रजिया सुल्तान और लक्ष्मीबाई के बाल कैसे हुआ करते थे यह शायद मुझे लिखने की आवश्यकता नहीं है। यह वह समय था जब परंपरा और मान मर्यादाओं का काल था। आज आधुनिक युग में एक ऐसा नेता है हमारे बीच जिसने यह कहा था कि राजनीति करने के लिए कुर्ता पायजामा पहनना आवश्यक नहीं...जिन्स पहनकर भी राजनीति की जा सकती है। मुझे याद है एक बार सोनिया गांधी की रैली थी हम सब वही सुन रहे थे। भाषण खत्म होने के बाद सोनिया जी जब बैठीं तो अचानक हमारे एच ओ डी साहब के मुंह से निकला अरे!  सोनिया तो पूरी भारतीय हो गयी। उन्होंने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि सोनिया गांधी ने आंचल से अपना मुंह पोछा था गर्मी के कारण.....यानी पसीना...। राजनीति हर किसीको आकर्षित करती है पर यहां न जाने कितना पसीना और दम निकल जाता है और निकाल भी लिया जाता है। छुपी राजनीति करने में भी लोग नहीं हिचकते। जैसे वीरप्पन की मुंछे, तो किशन जी का गमछा कभी हटा नहीं। वहीं ओसामा बिन लादेन की दाढी और टोपी....पर ओसामा के बाद में कई रुप फूल्लन देवी की तरह सामने आये।  अपनी छवि बनाने के लिए ही चार्ली चैपलीन की मुंछ की साइज और शेप को बरकरार रखा गया। चार्ली चैपलीन की असल तस्वीरों में शायद ही उन्हें कोई पहचान सके। पी सी सरकार, तो भूटानी राजा अपना पारंपरिक ड्रेस पहनकर ही घूमते हैं, फारमल्स नहीं पहन सकते। आडवाणी जी की मुंछों का साइज कभी नहीं हिलता, और मोदी जी के कुर्ते का हाथ लम्बा नहीं होता.... पर बनारस में नामांकन के दिन मोदी ने फूल स्लीव का कुर्ता डाला था। राज शायद आने वाले दिनों में खुलेगा। अब हर कोई अमोल पालेकर की गोल माल पिक्चर को फालो तो नहीं कर रहा होगा।

पर, कुछ अपवाद भी हैं अटल बिहारी वाजपायी, पी वी नरसिम्हा राव, चिदंबरम, समय समय पर अपनी वेश भूषा में भी दिख जाते हैं और अंग्रेजी पहनावे में भी। यह राजनीति ही है जो इंग्लैंड की महारानी ऐलिज़ाबेथ को अपना पहनावा मिडिया और जनता के सामने आने पर अपनी पारंपरिक वेश –भूषा में ही सामने आती हैं। हर समाज की अपनी पहचान, मर्यादा और प्रतिष्ठा बनते बनते बनती है। जिसतरह मंदिर का पुजारी अपने धोती और चादर में रहता है, मौलवी अपनी वेश भूषा में तो पादरी अपनी....पर वेश भूषा से उपर है आंतरिक वेश भूषा को ठीक करना अपनी मानसिकता को हमें ऐसे वस्त्र पहनाने चाहिए जिससे समाज और देश का पहनावे का रंग आसमानी हो जाये। जिससे विश्व में एक संदेश जाये कि मन को सुंदर बनाने के लिए भारत का अनुकरण करना चाहिए जैसा संदेश मदर टेरेसा ने दिया, गौतम बुद्ध और अशोक ने दिया। मजेदार बात अब कहना चाहूंगी कि सम्पूर्ण भारतीयता के समर्थक माने और जाने जानेवाले प्रधानमंत्री जी श्री नरेंद्र मोदी जी विदेश में जाकर हिन्दी ही बोलेंगें तो परिधान भी भारतीय ही होना चाहिए। अब मोदी जी कभी हाफ सिल्व तो कभी फुल बांह के कुर्ते में भी दिख जाते हैं।
                   
                         गंगा




सर्वमंगला मिश्रा-
9717827056
देवलोक में विचरण करने वाली, ऋषियों के कमंडल में रहने वाली गंगा, अपनी एक बूंद के छिड़काव मात्र से स्थान, मन को पवित्र करने वाली गंगा, पवित्रता का सूचक गंगा आज खुद पवित्र होने की आकांक्षा लिए उस वीर सिद्ध पुत्र का शायद इंतजार कर रही थी। मोक्षदायिनी गंगा को अब शायद मोक्ष मिल जायेगा। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का यह संकल्प पूरे देश में एक जूनून का रुप ले रहा है। गंगा एक अति पवित्र और स्वर्ग से उतरी जल धारा है। जिसे कई वर्षो की तपस्या के उपरांत धरती पर लाने वाले भगीरथ जी का नाम आज भी आध्यात्म के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से अंकित है। धरती पर आने के बाद गंगा की दशा धीरे धीरे परिवर्तित होती चली गयी और आज यह दशा हो चुकी है कि गंगा की मलीनता कहीं न कहीं चरम पर मानी जा रही है। गंगा की अविरल धारा में नदी नाले सभी सिमट से गये हैं। भगवान शिव की जटा से निकली गंगा का रुप इतना कलुषित हो गया है। जिसे फेशियल की जरुरत नहीं पूल बाडी मसाज और प्रापर ट्रीटमेंट की आवश्यकता आन पड़ी है। मां गंगा को शायद भागीरथ के आमंत्रण का एहसास नहीं था कि धरती पर इतने कलुषित और पापी प्राणियों का वास है जिनके पाप धोते धोते उन्हें उबारते –उबारते खुद उन्हें स्वंयं को उबारने की आवश्यकता आन पड़ेगी। अन्यथा स्वर्ग लोक से दिव्य वस्त्र धारण कर आती सीता जी और भीष्म पीताम्मह की तरह..जो कभी कलुषित न होते। गंगा गोमुख से निकलकर पहाड़ पठार फिर नदी नाले पार करती बंगाल की खाड़ी में सम्मिलित हो जाती है। जहां महत्ता को चार चांद लग जाते हैं और प्रति वर्ष गंगासागर का मेला लगता है। जिसमें देश ही नहीं विदेशों से पर्यटक, देशी साधु संत अपनी जटा जुट लपेटे, नागा साधु भी पहुंचकर गंगा की महत्ता और पवित्रता का साक्ष्य बनते हैं। क्योंकि माता कभी कुमाता नहीं होती पुत्र भले कुपुत्र हो जाये- उसका आंचल बच्चों के लिए कभी मैला या छोटा नहीं पड़ता। उसका आंचल आसमान की तरह विकसित है उसके करुणामयी दिल की तरह। बच्चों के कष्ट को न देख पाने वाली मां गंगा अपनी अविरल धारा से सतत पापों की बेड़ी में जकड़े धरती के लोगों को मुक्ति देने में जुटी है।
श्री राम शर्मा द्वारा लिखित एक कहानी स्मृति में उन्होंने लिखा था कि- दृढ़ संकल्प से दुविधा की बेड़ियां कट जाती हैं। आज वही याद आ गया और सच भी लग रहा है। कई बार कई विदेशी रिपोर्टों में यह उल्लेख किया गया कि गंगा का जल अति प्रदूषित और संक्रामक हो चुका है। गंगा पर चिंता और चिंतन करना भारतीयों के लिए अति स्वाभाविक है पर, विदेशी संस्थाओं की चिंता और चेतावनी सदा सर्वदा अनसुनी कर दी गयी। केंद्र सरकारों ने कभी इसकी व्यापक तौर पर सुध नहीं ली।  ऐसा नहीं है कि केंद्र सरकारें मौन मूक बधिर बनी रहीं। गंगा एक्शन प्लान बना। राजीव गांधी ने गंगा के लिए सोचा प्लान बनाया पर धरातल पर सक्सेसपूल नहीं हो सका। जिम्मेदारी का एहसास हुआ पर दृढ़ संकल्प की कमी रह गयी। सरकारें हमेशा बेरोजगारी, भुखमरी और आतंकवाद के मसलों पर उलझी रही और देश को भी उलझाती रही। आतंकवाद पर बैठकों पर बैठकें हुईं, विकास के मुद्दे पर चर्चा और आलोचना हुई, बेरोजगारी के मुद्दे पर चिंता ज़ाहिर हुई भूखमरी से मरने वाले मासूम बच्चे, महिलायें और किसानों के आंकड़े कुछ बताये गये तो कुछ छुपाये गये। पर अंतोगत्वा, देश में अराजकता की धूल भरी आंधी तूफान और फिर चक्रवात में परिवर्तित हो गयी। जनता की आंखों में धूल की किरकिरी ऐसी घुसी की सरकार पर निगाहें रख पाना मुश्किल हो गया। जिससे गंगा की धारा अन्य नदियों की भांति दिन पर दिन अपना अस्तित्व खोती चली गयी और जनता अपने दुर्दशा के बांध को ठेलती ढकेलती रही ताकि जीवन की आवश्यकताओं की कमी से निज़ाद पा ले पर ऐसा हो न सका। जीवन में बेरोजगारी, भुखमरी और सरकारी तरकशों से बच न सकी। पर हर समस्या का हल होता जरुर है। उस शोधकर्ता की आंखें बस होनी चाहिए। व्यापक अंदाज़, बहुआयामी सोच और सरस भाव होने चाहिए।
आज गंगा को बचाने की मुहिम पूरे देश में एक एकता के रुप में उजागर हो रही है। गंगा कितनी लम्बी या चौड़ी है इसका अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है। देवलोक से आयी इस देवी का मान आकाश में  चमकने वाले  सूर्य और चन्द्रमा से भी अति वन्दनीय है। गंगा में लगता है जितनी बूंदे हैं उतनी जनता अब जागरुक होकर खड़ी हो जायेगी और अति संवेदनाहीन पक्ष को एक संगठित और मर्यादित औऱ सराहनीय विश्वस्तरीय ख्याति का पुनार्जन होगा। इस परिपेक्ष्य में एक सवाल कहीं न कहीं जन्म अवश्य लेता है।मोदी जी ने एक महीने 12 दिन के अंदर कई ऐसे फैसले और घोषणायें कर दी है जो सपनों में विचरण करने से कम नहीं। गंगा सफाई अभियान, बनारस में अमूल की फैक्ट्री से हजारों की संख्या में रोजगार देकर बेरोजगारी की समस्या को कम करने की अद्भूत योजना और रेल बजट में दिया गया और टेस्टीफाइड हाई स्पीड ट्रेन की मनभावन योजना। जिसतरह मोदी जी चुनावों के दौरान रैलियों में बोले उससे यही लगता था अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज के बाद अब एक अच्छा वक्ता भाजपा ने पेश किया है। पर एक कहावत है कि जो बरसते हैं वो गरजते नहीं और जो गरजते हैं वो बरसते नहीं। इसी तरज पर मोदी जी ने हाल ही में हुए सूरजकुंड मेले में जो कैम्प लगाया और अपने सांसदों को मूलमंत्र दिया कि बेवजह विवाद से बचें, समाज के हित में कार्य करें, किसी से डरे नहीं, निष्पक्ष और निडर होकर फैसले लें। स्वयं के ऊपर अति साजो सज्जा से दूर रहने की सलाह दी। तो इस सलाह को सलाह के तौर पर नहीं बल्कि आदेश के तौर पर देखा जाना चाहिए, क्योंकि मोदी का दूसरा नाम हिटलर और डान माना जा रहा है।हर विभाग के फैसले में उनकी हामी निर्विवाद रुप से आवश्यक मानी जा रही है। क्योंकि मोदी जी कोई रिस्क नहीं लेना चाहते। पांच वर्ष का कार्यकाल पूर्ण करने में कोई त्रुटि या बाधा नहीं आने देना चाहते हैं। वैसे भी मुझे मां गंगा ने बुलाया है- यह वाक्य कि मोदी मां गंगा के सुपुत्र हैं तो मां को बेटा तकलीफ में कैसे देख सकता है। इसके अलावा वाराणसी मोदी के लिए वो यादगार पावन धरती है जिसने उन्हें प्रधानमंत्री के पद पर उच्चासीन कर दिया। तो मां गंगा का कर्ज जिसकी सौगात प्रधानमंत्री होने के पूर्व ही उन्होंने अपने इस संकल्प को जगजाहिर कर दिया था। मां का हृदय तो यंही कोमल होता है। बेटे ने कहा मां गदगद हो गयी अब वक्त है प्रधानमंत्री मोदी जी अपनी बात पर खरे उतर जायें। निर्विवाद रुप से अगर मोदी जी अपने कम बोलकर ज्यादा काम को तवज्जो दे रहे हैं तो निश्चित तौर पर गुजराती माडल स्वर्णिम अक्षरों में विश्व के मानस पटल पर अंकित हो जायेगा और युगों युगों तक याद रखा जायेगा।

कहते हैं ना कि जब मूल समस्या की जड़ तक यदि आप पहुंच जाएये तो छोटी –छोटी समस्यायें पलक झपकाते हवा में कर्पूर की तरह उड़ जाती हैं। ठीक उसी तरह गंगा सफाई अभियान ने दूसरी मैली नदियों जैसे यमुना नदी पर भी लोगों का ध्यान केंद्रित हो रहा है। इसी तरह स्वच्छ जल स्त्रोत का अभाव झेल रहा भारत देश स्वच्छता की पटरी को चाक चौबंद करने में जुट गया है। पर, इसके साथ ही कई गांव, शहर और राज्य आज भी ऐसे हैं जहां पानी की किल्लत से आम जनजीवन अमर्यादित है। इस सफाई अभियान के साथ या उपरांत यदि उन सूदूर ग्रामीण इलाकों में पानी का स्त्रोत पहुंच जाय तो महिलाओं के जीवन को सम्मान व परिवारों को परेशानी से जूझना नहीं पड़ेगा। ध्यान देने योग्य बात यह है कि सरदार पटेल का विश्व का सबसे ऊंचा स्टैच्यू बन जायेगा, हाई सपीड ट्रेनें चलेंगी और गंगा की अविरल धारा सिर्फ सूरज की रौशनी में नहीं बल्कि गंगा आरती के वक्त भी चाहे वह हरिद्वार का तट हो या बनारस के घाट एक परिदृश्य दिखेगा –चमचमाती, उजली मां गंगा जिसे देखने विश्व का सबसे बड़ा समूह एवं पर्यटक जत्था आयेगा तो विदेशी मुद्रा का आगमन अधिकाधिक मात्रा में होगा जिससे चमकती जल की बूंदों के रख रखाव पर कोई कष्ट नहीं मंडरायेगा।
                 इंसानियत और राजनीति

सर्वमंगला मिश्रा
9717827056

धर्म में आस्था रखने वाला इंसान अपने दिन का शुभारम्भ उस सर्वशक्तिमान के नाम के साथ करता है। सुबह उठते ही हिन्दू पूजा करता है तो मुस्लिम नमाज़ अदा करता है, सिक्ख वाहेगुरु के सामने मत्था टेकना शुभ मानता है तो क्रिश्चियन चर्च जाकर जीसस के सामने प्रेयर करता है।पर, धर्म जब इंसानियत को पीछे छोड़ कट्टरता की ओर उन्मुख हो तब यह समझ लेना चाहिएकि खुद को सुधारने का वक्त आ गया है। कबीरदासजी जो हिन्दू और मुस्लिम दोनों माने जाते थे । साथ ही उनकी रचनायें प्रारम्भ से दोनों वर्गों तथा बाकी जातियों पर भी कुठाराघात करने से नहीं चूकते थे।
पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार,
ताते वह चक्की भली , जाको पीस खाय संसार।
कांकर पाथर जोड़ के मस्जिद लयी चुनाय
ता चढि मुल्ला बांग दे, बहिरा हुआ खुदा।
 
अयोध्या-बाबरी मस्जिद, गोधरा, मुज़फ्फरनगर और अब मुरादाबाद। धर्म के नाम पर आस्था की आड़ में जातिवाद का खेल आज तख्तो ताज के लिए खेलना राजनीति का हिस्सा बन चुका है। बहरा खुदा नहीं मानव की चेतना हो गयी है। इंसानियत बहरी हो गयी है, शायद पंगु भी। अयोध्या की कहानी इतिहास के पन्नों में ब्लैक बैकग्राउण्ड पर बलैक लेटर से लिखा जा चुका है। कितने धर्म में आस्था रखने वाले अभिभावकों को यह कहते सुना गया था कि मेरा बेटा राम की भक्ति के लिए बलिदान हुआ है। उसका जीवन धन्य हो गया। राम नाम के लिए मेरे बेटे ने अपना जीवन समर्पित किया है। ऐसे ही न जाने कितने माता पिता, बहन और परिवार वालों ने अपने सगों के लिए ऐसी मर्यादित भाषा का प्रयोग किया था। उस समय इतने न्यूज चैनल नहीं हुआ करते थे। दूरदर्शन, बीबीसी प्रमुख थे। अयोध्या काण्ड की टेपें लोगों ने उन दिनों चोरी छुपे देखी थी। कोई भी टेप को अपने घर नहीं रखना चाहता था कारण जिस व्यक्ति के घर से ऐसी कोई सामग्री बरामद होगी तो पुलिसिया कार्रवाही होगी। मुझे याद है हमने दो बार दो घरों में देखा था। आज, खुले आम टी वी चैनलों पर खुले आम कवरिंग होती है और भावना जनमानस में हिलोरे पल पल में लेने लगता है। कभी ज्वार कभी भाटा की तरह कभी सरकार के विरुद्ध बिगुल बजने लगता है तो कभी जनमानस के क्रियाकलाप पर सवालिया निशान चिन्हित होता दिखता है। आज इस बात को उठाने का मकसद यह है कि धर्म की आड़ में राजनीति कब बंद होगी?? कभी वृंदा करात यह कहने से नहीं चूकीं कि बाबा रामदेव की दवाइयों में हड्डी मिली हुई है तो कभी बीजेपी कार सेवकों का नारा था- कसम राम की खाते हैं, मंदिर यहीं बनायेंगे। साढे 23 साल बीत गये राम का मंदिर और मस्जिद में आजतक कलह का आसमान छाया हुआ है। जिस तरह भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर सालों से सांप छुछुदंर का खेल चलता आ रहा है। करोड़ों हिन्दुओं की आस्था माता वैष्णों धाम में टिकी है पर अगर केंद्र सरकार और राज्य सरकार में सहमति का बीज़ नहीं पनपा तो धारा 370 के साथ वीजा का नियम न लागू हो जाय माता वैष्णों के दर्शन के लिए। आशंकाओं से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। जीवन अनिश्चितताओं से भरा है। ख्वाजा की दरगाह मुक्त हस्त से दर्शनार्थियों का स्वागत करता है जहां पाक के नामचीन हस्तियां भी आयीं दरगाह पर मत्था टेकने..चादर चढाने। पर, मुरादाबाद में लाउडस्पीकर लगाने और न लगाने के मामले ने ऐसा तूल पकड़ा कि महापंचायत बुलानी पड़ी। महापंचायत में पथराव और दंगे के चलते डी एम को अपनी बांयीं आंख की रौशनी से हाथ धोना पड़ गया। क्या सहिष्णुता ने इस संसार से सन्यास ले लिया है? धीरज अपनी कर्मनिष्ठा से मुंह मोड़ चुका है? शांति सीताजी की तरह भूगर्भ में जा चुकी है? प्रेरणा स्त्रोत जीवन और व्यक्तियों का अकाल पड़ चुका है? असहजता, अशांति और  अराजकता ही राज्य करेंगे?
दंगा चाहे गोधरा का हो या मुजफ्फरनगर का इससे राजनीतिज्ञों के अलावा किसी का भला नहीं हुआ। आज भी मुज़फ्फरनगर के दंगा पीड़ित किस दहशत के साये और खुले आसमान के नीचे, बदतर हालात में जीने को मजबूर हैं। यह बयां नहीं किया जा सकता। बेसहारा हुए वो परिवार आज दहशत की लाश बनकर जी रहे हैं। राज्य सरकार घोषणा जरुर करती रहती है कि हमने फलां फलां चीज़ें उपलब्ध करायीं पर, धर्म की आड़ में फैलायी गयी आग में झुलसे उन परिवारों से कोई तो उनकी दासतां, दरदे हाल कैमरा बंद करके पूछो। सभी तो इंसा है खून तो लाल ही है फिर मज़हब को खून का रंग देने पर क्यों तूले हैं। इसका तात्पर्य क्या अब जनमानस को यह समझना चाहिए कि पंचायतें और महापंचायत अस्तित्वविहीन हो चुकी हैं। महापंचायत मात्र नाम के लिए या दबंगों की राजनीति का हिस्सा या उनके हाथों की कठपुतली मात्र रह गयी हैं। तो बापू ने जो सपना देखा था पंचायतों के निर्माण और कानून व्यवस्था बनाये रखने का उत्तम माध्यम हो बेबुनियाद था या अब बन गया है। जिस पंचायत और महापंचायत पर गांव और गांवों के समूह का दायित्व रहता है वो कंधे अब चोटिल हो चुके हैं या बूढे और आदर्शविहीन ? जिससे पंचायत का मुख मलीन पर दिन मलीन होता चला जा रहा है।
धर्म की आड़ में राजनीति की लड़ाई ने इंसानियत को बेजुबां कर दिया है। कोलकाता के टीमसी के एक नेता ने यह कहकर कि यदि किसी सीपीएम के कार्यकर्ता ने उनके कार्यकर्ता या उनके परिवार वालों पर जरा सी भी आंच आयी तो वो दहशत का ऐसा पाठ अपने लोगों के जरिये सीखा देंगें। शब्द लिखे तो नहीं जा सकते परन्तु अमर्यादित अतिसंकीर्ण और विचित्र मानसिकता राजनीति में कदम रख चुकी है। ऐसी मानसिकता को जल्द काबू में नहीं किया गया या इन बदजुबानों को कड़ा सबक नहीं सिखाया गया या ऐसा कोई कानून लागू न किया गया कि फ्रीडम आफ स्पीच एंड इक्स्प्रेशन का गल्त इस्तेमाल न हो इसके लिए समाज को खुद सुधरना होगा और सरकारों को कड़े नियम इख्तियार करने होंगें। आजकल टी वी पर संसद का सत्र हो, या विधानसभा का लगता है जैसे यह देश की वरिष्ठ गवर्निंग बाडी नहीं बल्कि गांव के नुक्कड़ पर आये कुछ अति समझदार नौटंकी वालों की टोली हो जिसे सिर्फ तमाशा दिखाना है और चर्चा का हिस्सा बनना है।जिसे नाटक के ओर अंत से कोई वास्ता नहीं। जिसकी समझ कुएं के मेंढ़क की तरह सीमित हो। कुछ नौटंकी वालों की फहरिस्त बढ़ती जा रही है और इसमें वो अच्छे फूल मुर्झा रहे हैं। सांसद अब प्रश्न पूछते हैं तो लगता है मकसदमात्र सदन में बोलना है। मीडिया अट्रैक्शन लेना आजकल नेताओं का पहला मकसद हो गया है।
इंसानियत को जिंदा रखना हम इंसानों का ही परम एवं सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य होना चाहिए। ताकि आने वाली पीढियां गर्व के साथ खुद को भारतीय परंपरा का हिस्सा कहने से संकोच न करें.
  

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