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Thursday 29 March 2018


दूसरे कश्मीर की आहट बंगाल में




सर्वमंगला मिश्रा--
सन् 2011 जब ममता दीदी ने लाल किले पर फतह की थी. ढाह दिया था 34 वर्षों के शासन को। उस वक्त ममता दीदी ही पूरे बंगाल को एकमात्र चांदनी की तरह महसूस हो रही थीं। पर 2014 यानी मोदी जी के शासनकाल की शुरुआत होते ही ममता दीदी पर गाज़ गिरनी शुरु गयी। पहले शारदा फिर नारदा जैसे मामलों के बीच उलझ कर रह गयीं ममता बनर्जी। फिर बंगाल की जनता का प्रेम दीदी के प्रति कुछ हिस्सों में बंटने सा लगा। पिछले कुछ सालों से ममता दीदी ने मोदी जी के खिलाफ सीधा मोर्चा खोल रखा है। सरस्वती पूजा न करने देना, पिछले साल मोहर्रम और दुर्गा पूजा के जूलूस एक ही दिन निकलने पर महीनों बवाल मचा रहा। कोर्ट को मध्यस्थता करनी पड़ी, आदेश सुनाना पड़ा। अंतत: शांति पूर्वक दोनों धर्मों के त्यौहार निपट गये। इस साल फिर सरस्वती पूजा स्कूल में करने को लेकर बवाल मचा। और अब आसनसोल और रानीगंज के इलाकों में रामनवमी के दिन जूलूस निकालने को लेकर बवाल मच गया। ममता दीदी ने अपने एक भाषण में उन हिन्दू जूलूसकारियों को राम का विरोधी तक बता दिया। आखिर ऐसा क्या हो गया दीदी को कि वो बंगालवासियों को असुरक्षित महसूस करवा रहीं हैं। क्या चल रहा है ममता दीदी के दिमाग में...?  
आपको याद दिलाना चाहूंगी कि पिछले विधानसभा चुनाव को जीतने की मंशा से भाजपा अध्यक्ष अमित शाह बंगाल के चक्कर लगाने लगे जो ममता दीदी को रास नहीं आ रहा था। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भाजपा को जूलूस निकालने की परमिशन से वंचत करवा दिया जिससे भाजपा और आर एस एस आग बबूला हो गये। उसी समय भाजपा के बंगाल अध्यक्ष राहुल सिंन्हा को हटा दिया जिससे पार्टी की छवि पर अच्छा असर पड़े। लेकिन सारी मेहनत भाजपा की बंगाल में छू मंतर हो गयी और दीदी अपने सिंहासन पर काबिज़ रहीं। अब लड़ाई आर या पार की हो गयी है। इधर भाजपा भी हनुमान की तरह अपना विशाल रुप दिखाये चली जा रही है। पूरब से लेकर पश्चिम, उत्तर से लेकर दक्षिण का कुछ हिस्सा छोड़कर हर राज्य का रंग भगवा हो चला है। जिससे सभी पार्टियों के शीर्ष नेताओं की हालत और उनके दल के हालात बिगड़ते चले जा रहे हैं। चंता में डूबी हर पार्टी बचने का एक ठांव खोज लेना चाहती है जिससे उसका अस्तित्व बचा रहे। इसी सिलसिले में ममता दीदी, चंद्रबाबू नायडु शरद पवार और हर पार्टी को बचाने और डूबोने वाली पार्टी कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर ममता दीदी बंगाल को जलता छोड़ दिल्ली में नये जोड़ तोड़ बैठाने में लगी हुई हैं।
आश्चर्य होता है यह वही ममता दीदी है जो सिंगूर के गरीबों के लिए तकरीबन एक महीने तक अनशन पर बैठी रहीं। गरीबों के दुख दर्द को अपनी पीड़ा समझने वाली ममता दीदी के अंदर की ममता कहां मर गयी है। या फिर भाजपा से बदला लेने की सोची समझी रणनीति। भाजपा हिन्दूत्व को आगे बढाने में लगी है तो क्या ममता दीदी इसी बीज को अपना हथियार बना ली हैं। और आसनसोल में हुए धार्मिक दंगे को हवा देकर हिन्दुओं को भगा कर मोदी जी को ठेंगा दिखाना चाहती हैं। मोदी जी के कलेजे पर वार करना चाहती हैं। या यू कहें कि अमित शाह जी के वार का पलटवार है। ममता दीदी इतनी हिन्दू विरोधी पहले तो नहीं थीं। राजनीति की चाह उन्हें यह सब करने को मजबूर कर रही है।

आसनसोल-रानीगंज, पुरुलिया जैसे जगहों में रामनवमी के पर्व के दिन जूलूस निकालकर उद्घोष करना इतना अनुचित लग गया प्रशासन को और नौबत लाठी, ड़ंड़ो और पत्थरबाजी तक आ गयी। यहां हिन्दुओं की संख्या अधिक है। गरीब तबके के यह लोग राजनीति से दूर रहते हैं पर फिर भी चपेट में आ ही जाते हैं। कितने गरीब लोगों के घर, दुकानें तक जला दी गयीं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ हिन्दुओं के घर ही जले हैं..मुसमानों की दुकानें भी जली हैं। लोग कम्यूनिटी हाल या खाली स्थानों में शरणार्थी बनने को मजबूर हो रहे हैं। धारा 144 में जीवन कितने दिन सुरक्षित और शांतिपूर्ण रह सकता है। क्या बंगाल दूसरा कश्मीर तो नहीं बनने जा रहा है। क्या कसूर है उन लोगों का जो सद्भाव से रहते थे। लड़ाई कुर्सी की होती है, अपने शानो शौकत, हूकूमत के ड़ंडे की होती है पर गरीब हर बार भागता है और मरता भी। डिप्यूटी कमीशनर आफ पुलिस बुरी तरह जख्मी हो गये। पर, सवाल उठता है कि क्या इन दंगों के पीछे सचमुच तृणमूल थी या भाजपा या अन्य दल।

दीदी वैसे किसी से मदद भी नहीं लेती। केंद्र सरकार से नाराज और बौखलायी दीदी 
राजनीति की सारी चालें चल देना चाहती हैं। जिससे बंगाल में भाजपा का पदार्पण न हो सके। भाजपा के फतह के सिलसिले को रोक कर नया झंड़ा गाड़ना चाहती हैं दीदी। हालांकि बंगाल में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब हिन्दुओं पर गाज़ गिरी हो। तकरीबन दो दशक पहले भी कोलकाता शहर से दूध खटाल वालों को हटाया गया था। भारी तादात में गाय और उनके रहनुमाओं को शहर से दूर जाने का आदेश दे दिया गया था। जिससे उन्हें कितनी तकलीफों का सामना करना पड़ा था। आज फिर ममता दीदी भी लाल फीता शाही के पथ पर अग्रसर हो रही हैं। इन्हीं कारणों से वामदल के प्रति लोगों के मन में असुरक्षा की भावना पैदा हुई थी और फिर एक बार वही दृश्य शहर से दूर उन इलाकों में घटना घट रही है।

बंगाल में हिन्दुओं की संख्या भारी तादात में हैं। यहां राजस्थान, गुजरात उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से लोग आकर बसे हुए हैं। चूंकि कोलकाता नये तरीके से बस रहा है और वहां आईटी क्षेत्र में नौकरी करने वाले लोग दिल्ली, फरीदाबाद, हैदराबाद, इंदौर, नागपुर जैसे शहरों से आकर काम कर रहे हैं। तो क्या इनका जीवन भी भविष्य की दृष्टि से असुरक्षित है दीदी की छत्रछाया मे। धर्म और मजहब से उपर कब उठेगी राजनीति।


विजय रथ किस ओर...

सर्वमंगला मिश्रा

भाजपा का विजय रथ पूरे भारत में अपना परचम लहरा रहा है। मई 2014 से लेकर 2018 के मध्य तक भारत की दशा और दिशा ही भाजपा ने बदल कर रख दी है। कांग्रेस की पनाह में सदैव से पलने वाला नार्थ ईष्ट, अब पूर्णतया भाजपा के कब्जे में आ गया है। पहली बार सेंध असम में हुए विधानसभा चुनाव से भाजपा ने लगायी थी। उसके बाद तो अब त्रिपुरा भी वाम दलों से छीन गया है। 25 वर्षों का निरंकुश शासन टूटकर बिखर गया। इसी तरह बंगाल में भी 34 वर्षों के पुराना लाल महल को ममता दीदी ने खंडहर में तब्दील कर दिया था। अब केरल में ही वामपंथी सरकार बची है। हाल ही में हुए चुनावों ने यह दर्शा दिया है कि नागालैंड, त्रिपुरा और मेघालय भी भाजपा के प्रभाव से अछूता नहीं रह पाया। भाजपा का जादू अबीर गुलाल की तरह हर राज्य, हर गली और हर इंसान के दिमागी कोने तक पहुंच गया है।
वाम दल के एक नेता ने कहा कि इसमें कोई आश्चर्य नहीं है नार्थ ईष्ट सदैव से केंद्र की ओर देखती रही है। पर यहां आपको याद दिलाना आवश्यक है कि अटल बिहारी वाजपायी जी के कार्यकाल में भी नार्थ ईष्ट के राज्य कांग्रेस की मुट्ठी में ही बंद रहे। यह पहली बार हुआ है जब किसी प्रधानमंत्री ने नार्थ ईष्ट के राज्यों पर भी अर्जुन वाली तरकश चढ़ायी, और इस बात को उद्घोषित कर दिया कि छोटा हो या बड़ा, हर राज्य महत्तवपूर्ण है और भारत का अभिन्न अंग है।हर राज्य का विकास होगा जैसे गुजरात का 15 सालों में नरेंद्र दामोदर दास मोदी ने किया है। हर राज्य अपने विकास की गाथा भाजपा के साथ लिखेगा। कोई भी राज्य अब पिछड़ा न कहलाये भाजपा सरकार इसकी पूरी कोशिश कर रही है।
पिछले कई दशकों से नार्थ ईष्ट के राज्य आतंकवाद की चपेट में जी रहे हैं। यहां नागालैंड, त्रिपुरा और मेघालय की जनता ने भाजपा को वोट कर चुनावी रणनीति की चाल ही बदल डाली। कांग्रेस की पुरानी सुस्त चाल से त्रस्त जनता ने उंगली से बिगुल बजा डाला। क्योंकि 2019 मे होने वाले लोकसभा चुनाव को कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ने के प्रस्ताव को भी वामपंथी सरकार ने खारिज कर अपनी रुढिवादी रवैये को जगजाहिर कर दिया है। हालांकि इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने का हश्र क्या होता है ? सपा ने उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव (2017) में कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया तो सपा की रही सही शाख भी चरमर्रा गयी थी।  
वामपंथी सरकार भाजपा की जीत से अब इतनी घबरा गयी है कि 12 मार्च को हुए चुनाव में चारिलम सीट से अपने उम्मीदवार भी नहीं उतारी। मन से आतंकित वामपंथी दल हार जाने की सुनिश्चितता से बचने के अल्फाज़ बदल डाले- कहा कि भाजपा द्वारा चनावी हिंसा का वो वायकाट करने के लिए उम्मीदवार नहीं उतारेंगें। केरल में भी विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। जाहिर सी बात है त्रिपुरा में हुए इस आसमान को छूने वाली जीत का असर तो नजर आएगा ही। असफल हो रही वामपंथी सरकार के आगे अब करो या मरो की स्थिति पैदा हो गयी है। जिस विचारधारा को लेकर आजतक वामपंथी दल आगे बढ़ा अब उसमें उर्जा शेष मात्र है। रक्तसंचार की कमी स्पष्ट रुप से दिखती है। कथनी और करनी में जमीन आसमान का फर्क नजर आता है। वाम दल जहां सिर्फ गरीबों की दुहाई देते हैं वहीं उनके पास उन्हीं गरीब लोगों के लिए कोई ठोस योजना भी दिखाई नहीं देती। गरीबों की अवस्था में कोई खास सुधार नहीं आया है। आज वामपंथी दल में कुछ गिनेचुने नेताओं के अलावा कोई विशेष युवा नेता उभरकर नहीं आया जिसपर युवावर्ग भरोसा कर सके। ऐसी स्थिति में वामपंथी दल के पास ना ही नया नेता है और ना ही नयी सोच...। इसी परिस्थिति का लाभ भाजपा ने झटक लिया और शतरंज की बिसात बिछाकर जनता को नयी राह भी सुझा दी।
आऱएसएस से भाजपा कार्यकर्ता बिप्लब देव ने सोचा भी नहीं होगा कि उनका सपने में देखा सपना हककीत में तब्दील हो जायेगा। 48 वर्षीय मुख्यमंत्री ने अब जब राज्य की कमान संभाल ली है तो जाहिर सी बात है कि चुनाव में जमीनी हकीकत को समझने और समझाने में बिप्लब कुमार देब सझम रहे। त्रिपुरा की 60 विधानसभा सीटों में से 35 पर भाजपा ने अधिकार जमा लिया तो सहयोगी क्षेत्रीय पार्टी आईपीएफटी ने 8 सीटें जीतकर भाजपा के साथ सत्ता का नया अध्याय लिखने चली है।
माणिक दा की सरकार को लोग सादगी वाली सरकार के तौर पर देखते थे। पर अब जामाना बदल गया है। लेग अपनी बात छायावादी तरीके से नहीं डायरेक्ट कहते हैं। यह 21 वीं सदी है जहां जो युवाओं और नयी टेक्नोलाजी को अपनाये बिना चलना चाहेगा जनता उसके साथ कदम मिलाकर नहीं चलना चाहेगी। सरकार राज्य की हो या केंद्र की जनता को उन्नति के पथ पर नहीं ले जा सकती तो कैसी सरकार है ये....? ऐसा ही कहेंगें लोग...और आपकी जगह उन्नति के पथ पर चलने वाले के साथ कदम मिलाकर चलना शुरु कर देंगें। माना कि संविधान बन गया है पर संसोधन तो होते रहना चाहिए।
गौर करने वाली बात है एक जमाना था- कांग्रेस का। फिर आया भाजपा का जमाना और गया पर 2014 से जो एक जीत की श्रृखंला शुरु हुई है वो तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही। स्वर्णिम अक्षरों में यह विजय गाथा भाजपा लिखने को तैयार है बशर्ते केरल, बंगाल और ओड़िसा में अपने विजय रथ को भाजपा बेरोक टोक पहुंचा दे। वहीं नागालैंड में भाजपा 29 में से 21 सीटों पर अपना अधिकार जमा लिया।
आज भाजपा की सरकार 21 राज्यों में अपने झंड़े गाड़ चुकी है। जिनमें से 15 राज्यों में भाजपा के अपने मुख्यमंत्री हैं तो 6 राज्यों में सहयोगी पार्ची के साथ। कभी केंद्र में अपनी शान पर गुरुर करने वाली कांग्रेस के पास आज मात्र 4 राज्य हैं और अन्य राजनैतिक दलों के पास 5 राज्य और 1 केंद्र शासित राज्य है जिनमें से टीएमसी के पास बंगाल, बीजू जनता दल के पास ओड़िसा, तेलंगाना राष्ट्र समिति के पास तंलंगाना, मार्कसवादी कम्यूनिष्ट पार्टी के पास केरल, एआईएडीएमके के पास तमिलनाड़ु और आम आदमी पार्टी के पास दिल्ली।


  मिस्टिरियस मुम्बई  में-  सुशांत का अशांत रहस्य सर्वमंगला मिश्रा मुम्बई महानगरी मायानगरी, जहां चीजें हवा की परत की तरह बदलती हैं। सुशां...