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Sunday 15 April 2018


  कैंडल मार्च की लौ कितनी बुलंद ?
सर्वमंगला मिश्रा
युवा हर देश के भविष्य का प्रतिनिधित्व करता है। युवा सुरक्षित है तो देश सुरक्षित है। युवा वर्ग की अपनी पहचान हर युग में, हर समाज में परिलक्षित होती आई है। नव युवक यदि संतुलित, समझदार और निर्णय लेने की क्षमता रखता है तो देश का भविष्य और आज के युग की बनाई गयी धरोहर भी सुरक्षित रहेगी। परन्तु देश का युवा वर्ग जब संयम नियम से विपरीत दिशाहीन हो जाता है तब देश का भविष्य खतरे में नजर आने लगता है।
आज का युवा सोशल मीडिया से ओतप्रोत रहता है। उसकी दुनिया इंटरनेट से शुरु होती है और वहीं लगभग समाप्त भी होती है। जीवन में दिखावापना और हठधर्मीता दिन पर दिन बढ़ती ही चली जा रही है। व्यक्तित्व में गंभीरता का अभाव सा रहने लगा है। हर शक्स अजीब सी उधेड़ बुन में उलझा रहता है। नौकरी ढूंढनी है –इंटरनेट पर, दोस्तों से बात करनी है वाट्सअप या फेसबुक पर, देखकर बात करनी है वीडियो कालिंग। विडियो कालिंग भी कई किस्म की है- वाट्सअप पर, फेसबुक पर, ज़ीमेल पर, आईएमओ पर..इसके अलावा भी हजार संसाधन उपलब्ध हैं।
देश या विदेश में कोई भी घटना घटती है तब युवा वर्ग प्रो- एक्टिभ हो जाता है। सारे वाट्सअप ग्रूप में सारी खबरें फार्वर्ड करेगा। उत्तेजित होगा फेसबुक पर एसी कमरों में बैठकर देश के लिए चिंता करेगा। कालेज में बहस होगी। आफिस में चाय पर चर्चा होगी। विरोध प्रदर्शन में हक ती लड़ाई लड़ने के लिए बैनर पोस्टर बनवाएगा और दोस्त एक दूसरे की अच्छे पोज़ में फोटो खींचकर तुरंत फेसबुक पर अपलोड कर देंगें। अथवा मकड़ी के जाल जैसी उलझी और दुनिया को एक मंच पर ला देने वाली सुविधा इंटरनेट पर लाइभ अपने मोबाइल से हो जायेगा। ऐसे कामों में तो न्यूज चैनलों को भी मात देने का दम भरता है आज का युवा। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी गर्व से हाथ उठाकर कहते हैं कि आज का युवा माउस पर उंगली घुमाता है और एक क्लिक से पूरी दुनिया घूम लेता है। बिल्कुल सही बात है इसमें कोई दो राय नहीं परन्तु, मंगल पांडे, सुभाषचंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह इनके जैसी ऊर्जा आज के युवा वर्ग के मानस पटल से नदारद है। इन सभी क्रांतिकारियों के समय सोशल मीडिया नदारद था। उसके बावजूद भी अंग्रजों के विरुद्ध कितनी तगड़ी सोशल नेटवर्किंग थी।  न्यूजपेपर छापकर सारे क्रांतिकारियों तक गपचुप तरीके से, जानपर खेलकर पहुंचाना उनके अंदर की ज्वाला और देशप्रेम की भावना को उजागर करता है।
राजनैतिक लोग राजनीति करते आये हैं और करते रहेंगें। एक सोच युवा वर्ग की होनी चाहिए कि वह कैसे देश या समाज में जीवन जीना चाहता है। उसके भविष्य का सपना कैसा है। क्या बापू जैसा सपना है या जे पी जैसा या उसकी कोई नयी विचारधारा। आज वही सोच न जाने किन सपनों में खोई हुई है। सिर्फ अपना काम बना लेना ही मात्र उद्देश्य रह गया है। हम किसी से कम नहीं- बस इसी जद्दोजहद में जीना शान सा बन गया है। अच्छी व्यवसायिक पढ़ाई कर लेना और जुगाड़ लगाकर मोटी तनख्वाह वाली नौकरी पा लेना एकमात्र लक्ष्य रह गया है। कंपनी से देश का नुकसान हो रहा हो तो भी युवा वर्ग को फर्क नहीं पड़ता। उसकी ख्वाहिशें किसी भी कीमत पर पूरी होनी चाहिए। देश से उसे क्या ? उसका जीवन खुशियों से भरा होना चाहिए। जहां वो और उसका परिवार खुशी के मायने महसूस कर सकें।
आज का युवा सोशल मीडिया क्रांतिकारी बन चुका है। जोश तो है पर होश कहीं खो गया है। विरोध प्रदर्शन सिर्फ टायर जलाने, पुतला फूंकने, रोड जाम करने, पत्थरबाजी या स्टेटस अपडेट करने से धरातल की दुनिया में हलचल तो संभव है पर परिवर्तन असंभव। आज का युवा क्रांति तो लाना चाहता है। रातोंरात विश्व परिवर्तन कर देना चाहता है। पर अदृश्य बंधनों ने मानो उसको विवश कर रखा हो।
आज से तकरीबन 40 वर्ष पूर्व से पाश्चात्य सभ्यता ने अपने पैर भारत में पसारने शुरु किये तो किसीने यह अनुमान भी नहीं लगाया होगा मशाल जलाकर अपना विरोध प्रदर्शन करने वाला यह भारत देश सभ्यता के नये पैमाने रचेगा और मोमबत्ती की तरह कुछ समय तक आवाज उठाएगा और फिर सब समाप्त।
देश को बदलना है तो आचरण मजबूत करना होगा। आचरण मजबूत रहेगा तो डगमगाने का खतरा भी कम रहेगा। सोशल मीडिया का उपयोग यदि युवा सही ढंग से करे तो इससे बेहतर कोई साधन नहीं। ग्रूप तो बनते हैं पर पार्टी करने के लिए और हंसी चुटकुल्ले या वायरल मेसेज पढ़ने पढ़ाने के लिए। आज जेसिका, निर्भया या कठुआ कांड सबके लिए कैंडल मार्च, मुंह पर काली पट्टी बांधकर मौन प्रदर्शन करने की जरुरत क्यों पड़ती है। क्योंकि आज के युवा को देश के भविष्य से कोई सरोकार नहीं है। भविष्य से सरोकार हो भी तो उसे अपने भौतिक सुखों की इतनी चाह होती है कि उसके आगे देश असुरक्षित हो तो हो। उसे फर्क तो पड़ता है। पर उसका एहसास बाहोश हो गया है। आजाद पंक्षी बनकर उड़ना चाहता है मस्त गगन में। स्वछंदता होनी चाहिए पर देश को सिर्फ राजनैतिक वर्ग ही क्यों चलाये। सारी जिम्मेदारी राजनेताओं की ही क्यों हो। आज देश में ऐसी कुछ संस्थाएं हैं और लोग भी जो सोशल मीडिया का उपयोग देश को बचाने या सहयोग करने में उत्तम भूमिका निभा रहे हैं। सिर्फ कुछ लोगों से देश एकजुट नहीं हो सकता है। स्वछंदता, एकजुटता और एकनिष्ठता का समागम स्वयं में करना होगा। तभी देश में ऐसे विभत्स कृत्य पर लगाम लग सकेगी।
इंसाफ कैंडल मार्च करने से नहीं मिलता। इंसाफ के लिए कानून व्यवस्था को मजबूत करना होता है। ऐसी सभ्यता का उदय करना होता है जहां सुशासन परिलक्षित हो एवं उसमें पारदर्शिता हो। जब तक किसी देश का न्याय विधान कठोर नहीं होगा तब तक देश समाज के लोग मशाल जलायेंगें या कैंडल मार्च करते रहेंगे।
  

Monday 9 April 2018


डिजिटल चुनावी प्रक्रिया ?




-सर्वमंगला मिश्रा-
राजनीतिक हलचल राजनीति की सौगात होती है। हलचल कभी परिणामस्वरुप सामने आता है तो कभी विद्रोह के रुप में। आजकल बंगाल में पंचायत चुनाव को लेकर संग्राम छिड़ा हुआ है। 22 राज्यों में अपना परचम लहरा चुकी केंद्र सरकार बंगाल में जीत का परचम लहराने को बेताब है। वहीं बंगाल की शेरनी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पुरु की तरह सिकंदर यानी भाजपा को बंगाल में न घुसने देने के लिए अपनी सेना के साथ बंगाल की हर सीमा पर चौकस है। पर, सिंकदर को रोक पाना क्या इतना भी सहज है?
बंगाल में विधानसभा चुनाव से लेकर पंचायत चुनाव तक भाजपा हर मोड़ पर अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर रही है। जिससे भाजपा को बंगाल में विजय हासिल हो सके। परन्तु, ममता दीदी किसी भी कीमत पर अपना सिंहासन खोने को तैयार नहीं है। तृणमूल पार्टी के कार्यकर्ता इतने चौकस हैं कि भाजपा सदस्य अपना नामांकन तक भरने के लिए कड़ी मशकक्त कर रहे हैं। चुनाव के लिए नामांकन कर पाना भाजपा प्रत्याशियों के लिए अपने आप में एक बड़ी जीत है। पूर्व मेदिनीपुर जहां तृणमूल का गढ़ माना जाता है, वहां भाजपा के प्रत्याशियों ने अपने नामांकन दाखिल कर जीत का सेहरा पहनने की तैयारी तो मानो कर ही ली है। पंचायत चुनाव में विद्रोह का आलम ऐसा है कि महिला प्रत्याशी पुलिस प्रशासन द्वारा पटक पटक कर पीटी जा रही हैं। ऐसे में क्या चुनावी प्रक्रिया बदलने की आवश्यकता नहीं है। जिससे नामांकन भरना सरल हो सके। डिजिटल इंडिया जहां ईवीएम मशीनों का इस्तेमाल वोट डालने के लिए किया जाता है। वहीं नामांकन भरने का तौर तरीका इतना पुराना होने से ही बंगाल में विद्रोह पनपा। यदि आधुनिककरण अब भी नहीं लाया गया तो अन्य राज्यों में जहां आने वाले समय में चुनाव होंगे, ऐसे दृश्य परिलक्षित होते रहेंगे।  
भारत डिजिटल मोड में परिवर्तित हो रहा है। भारत अब डिजिटल इंडिया बन रहा है। ऐसे में चुनाव के नामांकन भी आनलाइन ही होने चाहिए। जिससे महिला प्रत्याशियों को पुलिस के हाथों अपमानित न होना पड़े। देश का संविधान इस बात को स्पष्ट करता है कि हर भारतीय नागरिक को चुनावी प्रक्रिया में शामिल होने का पूर्णरुप से अधिकार है। पर बंगाल की दशा इससे बिल्कुल विपरीत नजर आती है। भारत के संविधान का, बाबा साहेब अंबेडकर का खुले रुप से उल्लंघन हो रहा है। क्या ऐसे भारत का सपना बापू ने देखा था या अंबेडकर जी ने। चुनावी संग्राम में हार जीत अलग मुद्दा होता है। परन्तु व्यक्ति के अधिकारों का हनन, यह भारत के संविधान का अपमान है।
तीन चरण में होने वाला बंगाल पंचायत चुनाव, जिसमें 48751 ग्राम पंचायत सीटें, 9240 पंचायत समिति और 825 जिला परिषद की सीटें हैं। बंगाल का इतिहास इस बात का गवाह है कि अपने समय में सीपीएम हो या तृणमूल निर्विरोध कई सीटों पर बिना लड़े कब्जा किया है। सन् 2003 में 6800 सीटों पर निर्विरोध सीपीएम पार्टी ने कब्जा किया तो 2013 में 6274 सीटों पर तृणमूल ने। क्या पंचायत चुनावों में ऐसी हरकतों को तवज्जों देना चाहिए। ऐसी स्थिति में चुनाव करवाने का क्या फायदा। क्या फायदा इतने पोलिंग बूथ बनवाने, पुलिस प्रशासन बल और तमाम खर्च करने का क्या फायदा। अगर चुनावी प्रक्रिया में स्वाभाविक स्वतंत्रता का अभाव रहता है।
अधिकारों के हनन को लेकर पार्टीयां चैतन्य तो रहती हैं परन्तु, वर्चस्व की लड़ाई में विद्रोह के शामियाने में कब, कहां और कैसी आग भड़क जाती है कि खबर ही नहीं होती। क्या मालदा, क्या वीरभूम पूरा बंगाल जैसे पंचायत चुनाव के पहले ही जल रहा है तो चुनाव के वो तीन दिन जो आने वाले हैं क्या होगा...इसका अंदाजा बहुत आसानी से लगाया जा सकता है। बंगाल की सीमा इतनी चौकस है कि केंद्र से पुलिस बल यदि आ भी जाती है तो बंगाल के अंदर कितनी देर शांति का माहौल बना रह पायेगा। इसकी कोई गारंटी नहीं है। भाजपा और तृणमूल की आमने सामने की यह लड़ाई आर या पार की बन चुकी है।
भारत विश्व का दूसरा बड़ा लोकतांत्रिक देश है। लेकिन, अधिकारों की स्वतंत्रता का हनन देखकर ऐसा कहने पर मन व्यथित हो उठता है। जिले के गांवों में रहने वाले वो निरीह लोग हर बार चुनावी संग्राम के शिकार हो जाते हैं। जिनका चुनाव से कोई सरोकार नहीं होता। रिज़वानुर रहमान भी एक ऐसा ही शक्स था। ऐसे में चुनावी प्रक्रिया को नया रुप देने की आवश्यकता है। जहां भारत का आम नागरिक चाहे चुनाव लड़ने की बात हो या मतदान करने की, अपने हक का उपयोग कर सके। तभी तो लोकतंत्र की जीत सही मायने में संभव हो पायेगी।
राज्य सरकार हो या केंद्र सरकार आम नागरिक को उनके हक से उन्हें वंचित रखना एक तरह का अपराध है। राजनैतिक भाषा में जनता पर अंकुश लगाने के समान है जो धीरे धीरे निरंकुशता की ओर अग्रसर होती है।
यह पंचायत चुनाव भाजपा का लिटमस परिक्षण है। 2019 अब सिर पर है। बंगाल लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए कितनी अहम भूमिका निभाएगा इसकी झलक पंचायत चुनाव के परिणाम से ही मिल जायेगी। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह या बंगाल की दीदी किसकी रणनीति कितनी दमदार है यह परिक्षण की घड़ी है। भाजपा बंगाल में सेंध लगाना चाहती है तो दीदी केंद्र सरकार में। महागठबंधन में गठबंधन भी कितना शानदार होगा यह कहना बहुत मुश्किल है। कठिन परिस्थिति में तिकड़ी काम आएगी या नहीं परन्तु संविधान का सच आज कितना धरातल पर उतरा है यह पूरा देश देख रहा है।


लिंगायत से किसको फायदा?

सर्वमंगला मिश्रा

कर्नाटक राज्य में कांग्रेस ने भाजपा के विरुद्ध तब अपने फन फैलाकर फुफकारना शुरु कर दिया था जब सिद्दारमैया ने अपने राज्य के लिए एक अलग झंडे की मांग कर डाली। भारत देश का तिरंगा उन्हें न जाने क्यूं अप्रिय सा लगने लगा। देश में सुलगता यह बवाल कर्नाटक के चुनावी रणनीति का एक अहम हिस्सा था। जनता को इस बात का एहसास कराना था कि कांग्रेस ने कर्नाटक की जनता के हक के लिए केंद्र से ऊंची आवाज करने में भी नहीं हिचकिचाती है। 
22 राज्यों में अपना केशरिया परचम लहरा चुकी केंद्र सरकार कर्नाटक की जीत के लिए उद्दत है। जाहिर सी बात है पूरब से लेकर पश्चिम, उतर से लेकर दक्षिण तक केशरिया रंग में देश रंगा हुआ सा नजर आता है। कर्नाटक में भाजपा की जीत दक्षिण में फिर से एक नया अध्याय शुरु करेगी। जिससे भाजपा के विश्व विजय मिशन को यानी अश्वमेध यज्ञ को पूरा करने में एक सीढ़ी और चढ़ जायेगी। यूं तो कांग्रेस और भाजपा की नकेल कस टक्कर सदैव से चली आ रही है। वैसे हाल ही में हुए कुछ चुनाव और उप-चुनाव से राहुल गांधी भी उत्साहित नजर आ रहे हैं परन्तु अमित शाह को अपनी रणनीति पर पूरा भरोसा है। भरोसा है-लिंगायत वर्ग से मिलने वाली सत्ता के समर्थन का। हाल ही में हिन्दू धर्म से अलग हटकर अपनी अलग पहचान बनाने वाला लिंगायत धर्म को विश्व के समक्ष एक पहचान सी मिल गयी है। पर, राजनीति के विचारक इसे वोट बैंक के तौर पर आंकते हैं।
लिंगायत का भविष्य
कुछ लोगों को मानना है कि वीरशैव और लिंगायत एक ही आस्था के प्रतीक होते हैं। परन्तु, दक्षिण भारतीय खुद को वीरशैव से बिल्कुल अलग मानते हैं। वीरशैव शिव के उपासक होते हैं तो लिंगायत शिव की पूजा अर्चना नहीं करते बल्कि अपने शरीर पर ईष्टलिंग धारण करते हैं। इसकी आकृति गेंदनुमा होती है। इसे लिंगायत धर्म को मानने वाले समुदाय आतंरिक चेतना के रुप में देखते हैं। राजनीति की रेत वाली जमीन पर राहुल गांधी के अंदर गुजरात चुनावों के दौरान जो धार्मिक चेतना जगी उसकी चर्चा पूरी राजनीति के गलियारों से निकलकर आम जनता तक पहुंच गयी। जनेउधारी राहुल शिव भक्ति में अब सराबोर हो चुके हैं। वहीं वर्षों से तपोबल और शिव भक्त भारत के प्रधानमंत्री की आस्था किसी से छुपी भी नहीं है। शिव में आस्था के बल पर कांग्रेस शतरंज की बिसात बिछाना चाहती है तो भाजपा के बड़े नेता इस खेल में जनता की नजर में कहीं आगे चल रहे हैं। अमित शाह ने जहां लिंगायत प्रमुख शिवकुमार स्वामीजी से आशीर्वाद ले चुके हैं। वहीं राहुल गांधी भी पीछे नहीं रहना चाहते हैं और शिवकुमार स्वामीजी से आशीर्वाद लेकर कांग्रेस की दशा और दिशा बदलना चाहते हैं। स्वामी जी तो दोनों ही पार्टी के अध्यक्षों को हाथ उठाकर आशीर्वाद दे देंगें। पर, मन से किसको दिया ये तो परिणाम आने पर ही निर्णय किया जा सकेगा। लिंगायत समुदाय हमेशा से बड़ा वोट बैंक रहा है। जाहिर सी बात है वोट बैंक बड़ा है तो प्रयास और उसके अधिकार भी बड़े होने चाहिए। जो अब लिंगायत समुदाय को कहीं न कहीं मिलने की आस है। भविष्य में नौकरियां आरक्षित हो जायेंगी, स्कूल-कालेजों में कम नम्बर लाने के बावजूद आरक्षण के तहत दाखिला मिल जायेगा। रेल के सफर से लेकर संसद तक का सफर आसान हो जायेगा।
धर्म का कार्ड
कर्नाटक में लिंगायत समुदाय के सबसे बड़े नेता के रुप में यदुरप्पा उभरे परन्तु जिस तरह दलितों के नाम पर देश को कहीं जोड़ने तो कहीं तोड़ने का काम किया वर्षों पहले किया गया था। उसी तरह कांग्रेस ने फिर एक बार अपनी पुरानी चाल नये अंदाज में खेली है। लिंगायत समुदाय को ओबीसी समुदाय के तहत ही आंका जाता है।
2019 -सेमीफाइनल मैच
कर्नाटक का चुनाव 2019 का सेमी फाइनल मैच के समान है। यहां चार में से एक नेता लिंगायत समुदाय से जुड़ा हुआ है। राहुल गांधी यदि 2019 का सपना देख रहे हैं तो यह करो या मरो की स्थिति है। वहीं भाजपा के लिए 23वां राज्य झोली में आयेगा। साथ ही 2019 के पहले, दक्षिण भारत की जनता का विश्वास उनके उन्नत कार्यशैली पर मुहर लगाने का काम करेगी।
राहुल गांधी ने कर्नाटक के तकरीबन 70 प्रतिशत जिलों का दौरा कर लिया है। परन्तु जनता पर इस दौरे का क्या असर पड़ेगा..ये तो जनता ही बता सकेगी। समाज को बांटकर होने वाली राजनीति अभी और न जाने कितने धर्मों के टुकड़े करेगी। भारत की अनेकता में एकता की मजबूती को तोड़ने के मनसूबे न जाने कितनी बार कामयाब होंगें और देशवासी कामयाब होते हुए देखते रहेंगे।
मोदीजी का शासनकाल, जहां हिन्दुत्व का जीर्णोद्धार हो रहा है। वहीं मोदी सरकार दूसरे धर्मों से कुरीतियों को निकालने में भी सक्षम हो रही है। जैसे तीन तलाक और हलाला जैसी कुरीतियों से मुस्लिम महिलाओं को निज़ाद दिलाना। लेकिन राजनैतिक हितों के मद्देनजर हिन्दु धर्म के न जाने कितने टुकड़े होंगे और क्या असर होगा, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
धर्म और आस्था राजनीति की बड़ी ढ़ाल रहा है। पर देश में किसी भी एक समाज को वोट बैंक के तौर पर देखना और उसे भरपूर तवज्जो देना भविष्य के लिए खतरनाक साबित होता है। राजनीति के दलदल ने धर्म और इंसान में कितना फर्क ला दिया है।





Wednesday 4 April 2018


लिंगायत से किसको फायदा
सर्वमंगला मिश्रा



22 राज्यों में गेरुआ परचम लहरा चुकी केंद्र सरकार कर्नाटक की जीत के लिए उद्दत है। जाहिर सी बात है पूरब से लेकर पश्चिम, उतर से लेकर दक्षिण तक केशरिया रंग में देश रंगा हुआ सा नजर आता है। कर्नाटक में भाजपा की जीत दक्षिण में फिर से एक नया अध्याय शुरु करेगी। जिससे भाजपा के विश्व विजय मिशन को यानी अश्वमेध यज्ञ को पूरा करने में एक सीढ़ी और चढ जायेगी। राहुल गांधी भी हाल ही में हुए कुछ चुनाव और उप-चुनाव से उत्साहित नजर आ रहे हैं परन्तु अमित शाह को अपनी रणनीति पर पूरा भरोसा है। भरोसा है लिंगायत वर्ग से मिलने वाली सत्ता के समर्थन का। हाल ही में हिन्दू धर्म से अलग हटकर अपनी अलग पहचान बनाने वाला लिंगायत धर्म को विश्व के समक्ष एक पहचान सी मिल गयी है। पर, राजनिति के विचारक इसे वोट बैंक के तौर पर आंकते हैं।

कुछ लोगों को मानना है कि वीरशैव और लिंगायत एक ही आस्था के प्रतीक होते हैं। परन्तु, दक्षिण भारतीय खुद को वीरशैव से बिल्कुल अलग मानते हैं। वीरशैव शिव के उपासक होते हैं तो लिंगायत शिव की पूजा अर्चना नहीं करते बल्कि अपने शरीर पर ईष्टलिंग धारण करते हैं। इसकी आकृति गेंदनुमा होती है। इसे लिंगायत धर्म को मानने वाले समुदाय आतंरिक चेतना के रुप में देखते हैं। राजनीति की रेत वाली जमीन पर राहुल गांधी के अंदर गुजरात चुनावों के दौरान जो धार्मिक चेतना जगी उसकी चर्चा पूरी राजनीति के गलियारों से निकलकर आम जनता तक पहुंच गयी। जनेउधारी राहुल शिव भक्ति में अब सराबोर हो चुके हैं। जहां शिव की आस्था के बल पर कांग्रेस शतरंज की बिसात बिछाना चाहती है तो भाजपा के बड़े नेता इस खेल में जनता की नजर में कहीं आगे चल रहे हैं। अमित शाह ने जहां लिंगायत प्रमुख शिवकुमार स्वामीजी से आशीर्वाद ले चुके हैं। वहीं राहुल गांधी भी पीछे नहीं रहना चाहते हैं और आशीर्वाद लेकर कांग्रेस के पक्ष में कुछ सीटें बटोर लेने का प्रयास करना चाहते हैं। लिंगायत समुदाय हमेशा से बड़ा वोट बैंक रहा है। जाहिर सी बात है वोट बैंक बड़ा है तो प्रयास और उसके अधिकार भी बड़े होने चाहिए। जो अब लिंगायत समुदाय को कहीं न कहीं मिलने की आस है।

राहुल गांधी ने कर्नाटक के तकरीबन 70 प्रतिशत जिलों का दौरा कर लिया है। परन्तु जनता पर इस दौरे का किया असर पड़ेगा..ये तो जनता ही बता सकेगी। समाज को बांटकर होने वाली राजनीति अभी और न जाने कितने धर्मों के टुकड़े करेगी। भारत की अनेकता में एकता की मजबूती को तोड़ने के मनसूबे न जाने कितनी बार कामयाब होंगें और देशवासी कामयाब होते हुए देखते रहेंगे।



मोदीजी का शासनकाल, जहां हिन्दुत्व का जीर्णोद्धार हो रहा है। वहीं मोदी सरकार दूसरे धर्मों से कुरीतियों को निकालने में भी सक्षम हो रही है। जैसे तीन तलाक और हलाला जैसी कुरीतियों से मुस्लिम महिलाओं को निज़ाद दिलाना। लेकिन हिन्दु धर्म के टुकड़े न जाने कितने होंगे। इससे समाज पर क्या असर होगा। यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।

धर्म और आस्था राजनीति की बड़ी ढ़ाल रहा है। पर देश में किसी भी एक समाज को वोट बैंक के तौर पर देखना और उसे भरपूर तवज्जो देना भविष्य के लिए खतरनाक साबित होता है। राजनीति की दरिया ने धर्म और इंसान में कितना फर्क ला दिया है।





  मिस्टिरियस मुम्बई  में-  सुशांत का अशांत रहस्य सर्वमंगला मिश्रा मुम्बई महानगरी मायानगरी, जहां चीजें हवा की परत की तरह बदलती हैं। सुशां...