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Friday 18 September 2015


किसकी राह देख रहा बिहार ? 




सर्वमंगला मिश्रा





बिहार प्रारम्भ से ही क्रांति प्रदेश रहा है। संघर्ष के दौर का हर शुभारम्भ बिहार की भूमि से होता आया है। परिवर्तन की चिनगारी यहीं से सुलगी है। इस माटी का रंग चाहे जो हो पर यहां से क्रांति की बुलंदी परवान ही चढ़ी है। गांधी मैदान से निकली हर ज्वाला दिल्ली की सत्ता को हिलाने में अमूमन कामयाब रही है। देश की आजादी से लेकर आजादी के बाद एक छत्र राज को तोड़ने का जज्बा बिहार की माटी ने ही दिखाया। इंदिरा गांधी को लुकी-छिपी चुनौती ही नहीं दी बल्कि ललकारा- जे पी आन्दोलन ने। देश के कोने कोने से बहती हवा ने एक नारा आकाश में गुंजायमान कर दिया। हर युवा से लेकर बजुर्ग तक ने जे पी आन्दोलन में शिरकत की। देश में जे पी नाम की आंधी ने कहीं न कहीं इंदिरा गांधी के मन में भय अवश्य पैदा कर दिया था। जिससे वो सचेत हो गयीं और फिर देश ने भारतीय अंग्रेजी हूकूमत का एक दृश्य देखा। वो मंजर आज 40 साल पुराना हो चुका है। पर, यादें उस वक्त के लोगों के जहन में आज भी आंखों देखी समान बसी है। जीवंत वो गाथा, भारत के इतिहास में, आजादी के बाद, अमर हो चुकी है। एमरजेंसी- यही वो 1975 का वक्त था जब इस शब्द को परिभाषित होते लोगों ने देखा। शायद कहीं न कहीं इंदिरा गांधी को इस घटना के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा। एमरजेंसी इंदिरा गांधी की पहचान बन गयी। सत्ता दिल्ली की हो या बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश अथवा कर्नाटक की हिलती है फिर परिवर्तित होती है। सत्ताधारी जब निश्चिंत हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि अब उनकी खिलाफत करने वाला कोई नहीं तो मंगल पांडे का जन्म कहीं न कहीं हो ही जाता है।
बिहार की मिट्टी में एक क्रांति करने की पहल समायी हुई है। इसीलिए अन्ना हजारे हों या प्रधानमंत्री मोदी सभी ने अलख यहीं से जगायी। अब जब बिहार में चुनाव सिर पर मंडरा रहे हैं तो, हर बड़ी पार्टी इस मिट्टी पर अपना भाग्य आजमाना चाहती है। इस बार क्रांति की लहर ऐतिहासिक होने जा रही है। ओवैसी जो हैदराबाद से एमपी हैं और एआई एम आई एम के कर्ताधर्ता, बिहार में भाग्य आजमाना चाह रहे हैं। उधर, अपने राज्य से बिहारवासियों पर अंग्रेजों के समान जुल्म करने वाले महाराष्ट्र के शेर शिवसेना अपनी ऊंचाई मापना चाहती है। मुलायम अपने समधियाने में अकेले ही सबकुछ समेटने पर आमादा हैं। यह सभी पार्टियां चुनावी दंगल में वि-धरती पर अपना परचम लहराने को बेताब दिख रहीं हैं।
समझने की आवश्यकता आज यह है कि क्या बिहार की राजनीतिक धरती इतनी कमजोर पड़ गयी है कि बाहरी ताकतें उसे उसकी ही धरती पर ललकारने में संकोच महसूस नहीं कर ही हैं। क्या बिहार की धरती इतनी गिली हो गयी है कि अब दलदल का रुप लेने लगी है या इतनी दरारें आ चुकीं हैं कि धरती के अंदर की गहराई आसानी से नापी जा सकती है। आखिर बिहार को इस कगार पर लाकर किसने खड़ा किया ? जहां जे पी की भूमि आज शर्मिंदगी महसूस कर रही है। आपसी कलह, फिर एकजुटता – राजनीतिक मर्यादाओं की हर सीमा का उल्लंघन तो कभी वर्चस्व की लड़ाई। इन सभी बातों ने बिहार की पुष्ट राजनीति को खोखला कर दिया है। शायद यही वजह है कि आज बिहार में हर पार्टी अपना दम अकेले ही दिखाना चाहती है।
बिहार की जनता जो काफी चीजों में आगे है तो कहीं उन्नति की दिशा में अग्रसर पर कहीं सबसे अंतिम पायदान पर भी खड़ी है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जो बिहार को स्पेशल स्टेटस से नवाजना चाहते हैं। जिससे बिहार भारत के नक्शे में भिन्न दिखे। बिहार ने अस्तित्व की लड़ाई लड़ी है तो कहीं आज भी नक्सल प्रभावित इलाकों तौर के पर लड़ाई जारी है। ओवैसी जिनका बिहार से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है वो बिहार से अपनी पार्टी को नैश्नल लेवल के रुप में उभारकर केंद्र की सत्ता में अपनी जगह बनाने का मंसूबा लेकर बिहार के रास्ते अपनी राह आसान कर लेना चाहते हैं।
आज नेतागण संभावनाएं तलाशने में जुटे रहते हैं। लोहिया ही लालू प्रसाद और नीतीश कुमार, दोनों के गुरु रहे। पर शिष्य मौकापरस्त निकले। या कहा जाय कि वर्चस्व की लड़ाई ने दोनों को अलग अलग रास्ते अख्तियार करने पर मजबूर कर दिया। दोनों ने राजनीति का स्वाद भरपूर चखा। कट्टर विरोधी रहे तकरीबन दो दशकों तक। पर समय को भांपते हुए, सत्ता के मोह ने दोनों को एकमंच पर ला खड़ा कर दिया। इसे समय बलवान ही कहा जायेगा जब लालू प्रसाद यादव को अपनों के खिलाफ फैसला लेना पड़ा। मीसा भारती, अब पप्पू यादव की कहानी बिहार में गुंजायमान है। क्या ये आपसी रिश्ते सियासत के लिए बिखर रहे हैं अथवा यह भी रंगमच का एक दृश्य मात्र है।
बिहार में जातिगत वोटों की परंपरा आज भी विद्दमान है। कुर्मी, यादव और भूमिहार बाकी जातियों के अलावा इनकी पैठ मानी जाति है। केंद्र की सत्ता ने एक बार फिर परिस्थिति अपने हाथ में होने का आभास कराया है। दिल्ली यूनिवर्सिटी में 4 में से 4 सीटें एबीवीपी ने जीतीं हैं जिससे हौसला बुलंद है। पर, बिहार क्या लोकसभा की कहानी दोहराने की हिम्मत दिखा पायेगा। परिस्थिति में परिवर्तन की आस आज से कई साल पहले नीतीश कुमार ने भी दिखायी थी। परिवर्तन हुआ भी, क्राइम रेट घटा भी। लेकिन, ज़मीनी हकीकत से राजनेता शायद कोसों दूर हैं। आज भी भूखमरी, बेरोजगारी जैसी तमाम समस्याएं जीवन को उलाझाए हुए हैं। यह समस्या सिर्फ बिहार की नहीं पूरे देश की है। मीडिया हर मोड़ पर ध्यान आकर्षित करती है पर नेताओं का ध्यान चुनाव के दौरान जाता है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जनता दरबार तो लगाते थे पर कितनी समस्याओं का निराकरण हुआ इसका उत्तर शायद उनके पास या तथाकथित विभाग के पास भी न होगा। आज भी बाढ़, खस्ताहाल रोड और 29 नक्सल प्रभावित इलाकों से जूझ रही हैं तमाम जिंदगियां जीवन जीने को मजबूर हैं।
बिहार आसमान और जमीन हर तरफ से एक जे पी की राह तक रहा है। क्योंकि खून सूख गया है। दिमाग की नसों में वो रवानी नहीं रही। जो बिहार को गरीब देश नहीं बताये, दुनिया के सामने, बल्कि उन्नतशील राज्य बताने की कूबत रख सके। स्पेशल स्टेटस से क्या बिहार की अंदरुनी दशा जमीनी हकीकत के तौर पर परिवर्तित हो जायेगी। शिक्षा के आंकड़ों में उछाल आ जायेगा। नक्सली आतंक खत्म हो जायेगा। ऐसा होना संभव नहीं है आज की तारीख में। आज प्रत्येक नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री फेसबुक, ट्विटर पर उपलब्ध हैं अपनी गाथा बखान करने के लिए। गरीब जनता चलाना तो सीख जायेगी जब उसके घर कम से कम 18 घंटे बिजली मिले, उसे दो जून की रोटी की चिंता न सताये। लेकिन, सरकारें अपनी उहापोह में ऐसी फंसी रहती हैं कि जनता दरबार नाम मात्र का बन जाता है।
सवाल यह भी उठता है कि बाहरी ताकतों को क्या बिहार की जनता खुद पर हुकूमत करने की इज़ाजत देगी ? शिवसेना जिसने उनके भाइयों को अपने राज्य से बेदखल कर दिया था। उस मंजर को याद कर कितने बिहारवासी शिवसेना को वोट देने जायेंगे या बागी होकर उसके विरोधी को वोट देना ज्यादा बेहतर समझेंगे। शिवसेना ने आजतक बिहार के लिए क्या किया है ? किस आधार पर शिवसेना चुनाव लड़ना चाहती है। महाराष्ट्र की राजनीति में दबदबा रखने वाली शिवसेना मात्र कल्पना शिविर लगा रही है। गठबंधन नहीं बना। यह लालू और मुलायम की चाल है या राजनीतिक रणनीति। मामला विदेशी चहलकदमियों से त्रिकोणी और सबको मिला दें तो षणकोणिय हो जायेगा। शिवसेना, एआई एम आई एम और सपा इन तीन पार्टियों ने लालू, नीतीश, सोनिया और एकतरफा उद्घोष करती बीजेपी को एक ही नाव पर सवार करा दिया है। कौन पहले गिरेगा और अंत तक कौन तैर कर उबर पायेगा दिलचस्प होगा देखना। क्योंकि ऐसी हलचल विधानसभा चुनावों में कम मिलती है जहां मेहमान पार्टियां अपने पैर को अंगद का पैर बताना चाहती हैं।    





























































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































 


हिन्दी की अमर गाथा
 सर्वमंगला मिश्रा




बुलंदी का कारवां यूं बनता नहीं,
शिखर का मुकद्दर यूं मिलता नहीं,
सरज़मीं पर कदम जब बेबाक होंगे,
ए लब्ज़ हम तुझ पे कुर्बान होंगे।

विश्व में तकरीबन 6500 भाषाएं बोली जाती हैं। जिनमें से 1652  भाषाएं भारत में बोली जाती हैं। जिनमें 22 आफिशियल तौर पर बोली जाती हैं। भारत में आदिकाल से आज आधुनिक काल तक एक ही भाषा का प्रभुत्तव कायम है जिसे हम और आप हिन्दी भाषा के नाम से जानते हैं।

हिन्दी काल को तीन भागों में बांटा गया – आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल.यूं तो 7वीं 8वीं शताब्दी से ही पद्द की रचना प्रारंभ हो गयी थी। हिन्दी भाषा के जन्म की बात करें तो दसवीं शताब्दी का जिक्र आता है। प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव माना जाता है। साहित्य की दृष्टि से पदबद्ध रचनायें जो मिलती हैं वो दोहा के रुप में मिलती हैं। उस काल के रचनाकारों का प्रमुख विषय धर्म , नीति और उपदेश हुआ करते थे.उसकाल के राजाश्रित कवि और चारण नीति , श्रृंगार शौर्य, पराक्रम आदि के वर्णन से अपनी साहित्य रुचि का परिचय दिया करते थे.ये रचना परंपरा आगे चलकर शौरसेनी अपभ्रंश या प्राकृताभास हिन्दी में कई वर्षों तक चलती रही और, पुरानी अपभ्रंश भाषा और बोलचाल की देशी भाषा का निरंतर प्रयोग बढ़ता चला गया। इसी भाषा को विद्दापति ने देसी भाषा के नाम से नवाज़ा।

लेकिन, हिन्दी शब्द का प्रयोग सबसे पहले कब और कहां हुआ ये कहना कठिन है। जानकारों की मानें तो मुस्लिम समुदाय ने शायद इस शब्द हिन्दी का प्रयोग शुरु किया था। जिसतरह गोमुख से गंगा निकलती है और उसके बाद नदियों का कारवां सा बन जाता है । ठीक उसी तरह संस्कृत भाषा से ही सभी भाषाओं की उत्पत्ति भी हुई है। हिन्दी साहित्य में हिन्दी भाषा के जन्म और कालों के विभाजन को लेकर भ्रांतियां इतिहास में दर्ज हैं।
       
आदिकाल 7 वीं शताब्दी के मध्य से लेकर 14 वीं शताब्दी के मध्य माना जाता है। भक्तिकाल 14 वीं शताब्दी से लेकर 17 वीं शताब्दी तक रीतिकाल17 वीं शताब्दी वसे लेकर 19 वीं शताब्दी तक और आधुनिक काल 19 वीं शताब्दी से अब तक वहीं, 1918 से लेकर 1938 तक का समय छायावाद का काल कहा जाता है। छायावाद के बाद का समय प्रगतिकाल का समय 1938 से 1953 तक का माना जाता है और उसके बाद नवलेखन काल का समय आया जो 1953 से अब तक चला आ रहा है।

हिन्दी साहित्य की अपनी एक गरिमा है। हिन्दी भाषा राष्ट्र की धरोहर है। हिन्दी ने कभी आसमान में उड़ान भरी तो कभी हवा के रुख ने उसकी दिशा ही बदल डाली। पर हिन्दी को कभी कोई खोखला नहीं कर पाया। इस भाषा ने अपनी सत्ता को बरकरार रखते हुए अपने अस्तित्व की लड़ाई सदैव लड़ी है। दसवीं शताब्दी से अपने पैरों पर खड़ी होकर चलने वाली हिन्दी भाषा ने अपने जीवन में कई उतार और चढ़ाव देखे हैं। आदिकाल, जिसे वीरगाथाकाल भी कहा जाता है.इस काल में राजाओं की वीरता का बखान मिलता है। जिसे सुनकर वीरों में जोश भर जाये...ऐसी रचनाओं को तवज्जो दी जाती थी। इस काल के कवि राजाओं को खुश करने के उद्देश्य से भी रचना करते थे।

हर काल का एक महानायक होता है। उस शक्शियत के बिना एक काल उन्नति की दिशा खोज पाने में असमर्थता महसूस करता है। उस महानायक के साथ एक धारा प्रवाहित होती है जिससे उस काल के रचयिता भी कहीं न कहीं प्रभावित अवश्य होते हैं। ऐसे ही वीरगाथाकाल के महानायक आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आदिकाल के हजारी प्रसाद , चारणकाल के ग्रिथर्सन- प्रारंभिक काल के मिश्रा बंधु- बीजवपनकाल के महावीर प्रसाद द्वेदी। संधिकाल एवं चारणकाल के रामकुमार वर्मा, वीरकाल के विश्वनाथ प्रसाद और सिद्धसामंतकाल के राहुल सांस्कृतयान को याद किये बिना हिन्दी रचना जगत में सूनापन महसूस होता है।

7वीं शताब्दी के मध्य से 14 वीं शताब्दी का काल अद्भूत था। पृथ्वीराज रासो जैसी रचनायें लिखी गयीं । चंद वरदायी पृथ्वीराज चौहान के दरबार की शान हुआ करते थे। जयचंद के समय संस्कृत भाषा का उत्थान हुआ। पर, पृथ्वीराज के तराइन 2 युद्ध में हारने के बाद मुहम्मद गोर के सैनिकों ने इस काल में रची गयी रचनाओं को ध्वस्त कर डाला था। इस समय से मुगल शासकों का देश पर आधिपत्य होने लगा और हिन्दी के विलुप्त होने का डर लोगों को सताने लगा। इस काल में ही रामानंद और गोरखनाथ ने अपनी अमिट छाप छोड़ी थी। आदिकाल में जहां अपभ्रंश, पाली जैसी भाषाओं का प्रयोग होता था। ऐसे में अमीर खुसरो खड़ी बोली में लिखने का अकेले दम रखते थे।


भक्ति काल में ऐसे ऐसे कवि पैदा हुए, ऐसी रचनायें लिखी गयीं कि ये काल स्वर्णिम काल के नाम से जाना जाने लगा। भक्ति से सराबोर कर देने वाली कविताओं की रचना इसी काल की देन है- तुलसी, मीरा, कबीर, रहीम, सूरदास और जायसी जैसे अनगिनत रचयिता। इस युग के रत्न थे।

भक्तिकाल में जितनी रचनायें रची गयीं उनका कोई सानी नहीं है। आदिगुरु शंकराचार्य ने भी इसी काल में चार मठों की स्थापना कर अपने 4 शिष्यों को चार दिशाओं में धर्म प्रचार के लिए भेजा था। तुलसीदास का- रामचरितमानस, विनय पत्रिका, सूरदास का -सूर सागर, कबीर- रहीम के दोहे, चौपाइयां, सोरठे सब इसी युग में इन कवियों के मस्तिष्क की देन है।सूरदास की अनंत रचनायें भक्ति की सच्ची राह बनकर उभरी। तो मीरा का कृष्ण प्रेम जग विख्यात हो गया। इस दौर में नये नये प्रयोग भी हुए। रसों का वर्णन भी इस काल के कवियों ने क्या खूब किया। श्रृंगार रस, वीर रस, करुण रस, विभत्स रस जैसे 9 रसों से सराबोर कर देने वाली रचनायें इसी युग की देन है। भक्ति के दो स्वरुप भी इस काल में विद्वानों ने देखे और दिखाये। एक पक्ष जो निर्गुण भक्ति में आस्था रखता था तो दूसरा सगुण में- सूर, तुलसी और मीरा सगुण के उपासक थे तो कबीरदास जी डंके की चोट पर हिन्दु और मुस्लिम दोनों के धर्म पालन पर कुठाराघात करते नहीं थकते थे।

    कांकर-पाथर जोरि के मस्जिद लयी चुनाय....
    ता चढि मुल्ला बांग दे बहिरा हुआ खुदाय....
    पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार...
    ताते वो चक्की भली , चाको पीसा खाय संसार
    गुरुनानक साहब भी इसी काल की देन हैं....

भक्तिकाल के बाद रीतिकाल आया। इस काल में भक्ति विलुप्त सी होने लगी और ये काल भावना प्रधान हो गया। कृष्ण बचपन की अटखेलियों से लेकर रास लीला और महिलाओं के नख से लेकर शिख तक का वर्णन रचनाकार करते थे। इस काल में राजागण काफी आमोद प्रमोद में जीवन बीताते थे। उन्हें युद्ध के समय भी संगीत की आवश्यकता महसूस होने लगी थी। रीतिकाल के बाद आधुनिक काल ने लेखन शैली को एक नयी दिशा ही दे डाली। भारतेंदु, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, निराला, दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त जैसे तमाम रचनाकार आधुनिक युग के खेवनहार बने।

यह काल प्रयोग की दृष्टि से काफी सफल रहा। क्योंकि आधुनिक काल के कवि छंद, अलंकार इन सबसे हटकर भी मनमाने तरीके से रचनाओं को पेश  करने लगे। इसी काल के तहत भारतेंदु युग और उसके पश्चात छायावादी धारा- जिसमें जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा की रचनायें घोषित हैं। इसी काल में महानायक महावीर प्रसाद द्वेदी ने अपनी अमूल्य लेखनशैली का योगदान दिया। मुंशी प्रेमचंद जैसे उपन्यासकार भी हुए जिन्होंने समाज के उस समय की व्यथा को बखूबी अपनी कलम से कागज के पन्नों पर उकेरा था। निराला, दिनकर, अज्ञेय और यशपाल की अद्भुत कलाकारी इसी युग की है। इस युग में लेखन शैली ने प्रगति की दिशा पकड़ी। 1918 से 1938 का समय छायावाद को समर्पित है। नयी विधाओं ने जन्म लिया। इस समय सोच नयी पनपी। क्योंकि राजा महाराजाओं का काल खत्म हो चुका था। नाटकों द्वारा चरित्र चित्रण बहुत मात्रा में किया गया। जहां उपन्यास की भाषा आम लोगों तक पहुंचने में प्रभावित दिखी। राजनीति नयी दिशा में प्रवेश कर चुकी थी। अंग्रेजों के शासनकाल से मुक्त होने के लिए लेखक नयी रणनीतियां अपनाते थे। जो उनके सोच में परिवर्तन को दर्शाता है। लोगों को जगाने का एक मात्र तरीका था लेखन जिसके सहारे क्रांतिकारी अपनी बात देश भर में चोरी चुपके ही सही फैला पाते थे।

समय बीतता चला गया और आजादी भारत की झोली में आ चुकी थी। भारत माता आजाद हो चुकीं थीं। ये काल था नवलेखन काल। जिसने जनता के रक्त में नवसंचार की धारा बहा दी थी। ये वक्त था- खुले आसमान में सांस लेकर, बंधनमुक्त होकर अपने विचार प्रकट करने का।


    सिसक सिसक कर ठहरी हिन्दी, अनमने रंग में कभी बह चली हिन्दी।



    
मानव जीवन में जिस तरह हर एक काल में परिवर्तन देखने को मिलता है। सभ्यता ने भी अपने नये नये रुप रंग दिखाये। सभ्यता और संस्कृति को उस काल की भाषा से ही आंका जा सकता है। आदिकाल से लेकर आधुनिक काल यानी अब तक हिन्दी भाषा ने भिन्न भिन्न रुपों में स्वयं को समाज के सामने प्रस्तुत किया है। अपभ्रंश, पाली, प्राकृत जैसी भाषाओं के साथ चली हिन्दी ने आज विश्व के समक्ष विजेता होने का गौरव हासिल कर लिया है। रवीन्द्रनाथ टैगोर, निराला, यशपाल, अमृता प्रीतम, महादेवी वर्मा और तमाम ऐसे लेखक पनपे जिन्होंनें लिखने की विधा ही बदल डाली। हिन्दी जहां खड़ी, अवधि ब्रज के रुप में लोगों के दिलों पर राज की वहीं 90 के दशक के उपरांत परिवर्तन की लहर तेजी पर है। अब बोलचाल की भाषा का प्रयोग लेखन शैली में आसानी से किया जाका है। जिसमें उर्दू, संस्कृत, अंग्रेजी, फेंच, भोजपुरी जैसी भाषाओं को शामिल कर गद्द को बोभिल होने से लेखक बचाना चाहते हैं। ऐसा ही हाल पद्द रचनाओं में भी देखा जा सकता है। अलंकार, छंद से उपर उठकर मधुशाला जैसी रचनायें रची गयीं तो ठेले पर हिमालय, गोदान, कफन औऱ स्वर लहरी जैसी रचनायें भी सामने आयीं। शब्दों की गरिमा अब भावनात्मक हो चुकी है। लेखक उसी भाषा का प्रयोग करना चाहते हैं जिस भाषा में श्रोता या पाठक आसानी से समझ ले।



आधुनिक दौर में लोगों का जीवन इतना व्यस्त हो चला है कि पाठक पूरी कहानी या कविता चंद मिनटों या घंटों में पूरी कर लेना चाहता है। रहस्यमय शब्दों से वो बचना चाहता है। वालीवुड यानी हिन्दी भाषा का दूसरा स्तम्भ। हिन्दी भाषा ने फिल्मों के माध्यम से पूरे विश्व का भ्रमण कर लिया है तो अब देश के प्रधानमंत्री से लेकर आम जनता तक हिन्दी के लिए प्रेम हिंलोरे मार रहा है। हिन्दी भाषा अगर लोगों के जीवन में प्रवेश की तो उसका श्रेय हिन्दी फिल्मों को भी कहीं न कहीं जाता है। वालीवुड में भी भाषा के चाल चलन में अद्भुत प्रयोग हुए। पहले समाज की गरिमा को देखते हुए कहानियां लिखी जाती थीं। पर एक वक्त आया जब दूसरी भाषाओं के साथ हिन्दी को मिश्रित कर लोगों के सामने प्रस्तुत किया गया। जिससे हिन्दी भाषा संस्कारी से मार्डन हो गयी। अब ऐसी फिल्में भी दिखती हैं जिनमें घरेलु भाषा का जमकर उपयोग होता है। भावना प्रधान फिल्मी जगत और साहित्य जगत अब जनता की मर्जी से अपनी कलम को नये नये आयाम देने में जुटे हुए हैं। आजकल के लेखक जहनी भाषा को मस्तिष्क पटल पर छाप देना चाहते हैं। उम्मीद यही करते हैं कि भारत की भाषा विश्व की भाषा के रुप में उभरे।

  मिस्टिरियस मुम्बई  में-  सुशांत का अशांत रहस्य सर्वमंगला मिश्रा मुम्बई महानगरी मायानगरी, जहां चीजें हवा की परत की तरह बदलती हैं। सुशां...