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Friday 8 April 2016


सियासत में आह्वाहन की भूमिका





 सर्वमंगला मिश्रा

एकजुटता और अखंडता को दर्शाता है- आह्वाहन। श्रेष्ठ नेतागण या किसी समुदाय विशेष को दिशा निर्देशित करने वाले व्यक्ति किसी विशेष कार्य के लिए लोगों के एकजुट होकर कदम से कदम मिलाकर चलने का आह्वाहन करते हैं। महात्मा गांधी ने आह्वाहन किया था उन बिखरे लोगों का जो आजके बने भारत में तो थे पर उनमें मिलकर चलने की असल भावना गांधीजी ने ही जगायी। लाल बहादुर शास्त्री जी ने देशवासियों का आह्वाहन् किया था कि देशवासी कुछ दिनों के लिए एक वक्त का भोजन छोड़ दें। ताकि ग्रामीण इलाकों में चल रही भूखमरी की समस्या से कुछ हद तक निज़ाद मिल सके। उस वर्ष फसलों को काफी नुकसान पहुंचा था। किसानों की हालत दयनीय हो गयी थी। इसी तरह समय समय पर अनेक गणमान्यों ने जनसाधारण को एकजुट होने के लिए आवाज लगायी। जनसैलाब तो हर बार उमड़ पड़ता है। भले वो जन साधारण स्वयं पधारी हो या आमंत्रण पर।
आह्वाहन हर नेता करता है।यही आह्वाहन जिसकी एक पुकार पर जनता भागी चली आती है और एक साधारण नेता भी गणमान्य की उपाधि हासिल कर लेता है। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जो अपने कालेज के वक्त से राजनीति में अपनी दखल बना चुकी थीं। उनका सर्वोत्तम प्रिय नारा रहा- ब्रिग्रेड चलो। उनके पक्षधर एवं जुगाड़ु जनता भीड़ बनने एवं भीड़ का हिस्सा बनने चल देते थे। एक दिन के नाश्ते के इंतजाम पर ये गरीबी और भूखमरी से जुझते लोग जो अपने विवेक का प्रयोग किये बिना अंधानुकरण करने चल देते हैं। उन्हें यह भी पता नहीं कि वो किसको सपोर्ट करने जा रहे हैं। क्या वह व्यक्ति देश अथवा राज्य के हित में है या नहीं। सवाल यहीं उठता है कि जिस व्यक्ति पर परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी है पर अर्थिक तंगी के कारण बेबस और लाचार जब अपनी रोजमर्रा की हालत सुधार पाने में असक्षम है तो देश के विषय में सोचना उसके विवेक से परे है। राजनीति यहीं खत्म नहीं होती। पलटवार जब सीपीएम करती थी- तो फिर ब्रिगेड चलो। आधी भीड़ जो ममता के जूलूस में शामिल होती थी वही सीएम में भी जाती थी। वही इंसान जो सरकार से सवाल पूछता था नारे लगाकर वही दूसरे दिन दूसरा नारा बोलकर अपना विरोध दर्शाता था। आज भी यही हाल है।
देश के प्रधानमंत्री मोदी जी और दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल जी ने भी जनता को कई कार्यों में शामिल होने और मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए जनता का आह्वाहन किया। मोदी जी ने गंगा सफाई अभियान से लेकर स्वच्छता अभियान के तहत अपने मंत्रियों से लेकर आम जनता को भी अच्छे कार्यक्रम में भागीदार बनने के लिए आह्वाहन किया। बड़े बड़े उद्दोगपतियों से लेकर अभिनेता मंत्री सबने अपने हाथ में झाड़ु उठाया और नौ रत्नों ने सफाई करके मुहिम का शुभारंभ किया। पर हाल ही में एक सर्वे के मुताबिक बनारस- मोदी जी का संसदीय क्षेत्र सबसे गंदे शहर की फहरिस्त में शामिल दिखा। केजरीवाल जी तो जनता के अनन्य भक्त हैं। कोई भी काम जनता से पूछे बिना करते ही नहीं। बस अपने सभी एमएलए की तनख्वाह चार गुनी बढ़ाने के वक्त पूछना भी लाज़मी नहीं समझा।
जब कोई नेता देश के नवयुवकों का आह्वाहन करता है तो देश में नवसंचार होता है। संचार होता है जोश का, नयी उम्मीद और दिशा का। नेतृत्व अगर सही है तो दिशा सही होगी अन्यथा नेतृत्वविहीन संचालन भटकाव की ओर ले जाता है। आज देश में गुलामी की बंदिशें नहीं है। स्वतंत्रता, स्वछंदता पर्याप्त है। पर हार्दिक पटेल और कन्हैया जैसे लोगों को राजनीति के पल्लू में ढकी आजादी लहराने की स्वतंत्रता की मांग कर देश में आह्वाहन कर भटकाव की राजनीति को हवा दे रहे हैं। जनमानस आज सबको टी वी चैनलों के माध्यम से आसानी से देख सुन सकता है। सही गलत का आंकलन कर सकता है। यह जे पी जी का समय नहीं है कि मात्र एक रेडियो या दूरदर्शन पर समाचार आने का इंतजार करना होगा। या दूर दूर से आकर अपने नेता को एक झलक देखकर याद रखना होगा। चौबीस घंटे न्यूज चैनल घर घर पल पल की खबरें पहुंचा रहे हैं। जहां जनता को परखने के संसाधन अधिक से अधिक उपलब्ध हो रहे हैं वहीं इसका दूरुपयोग भी हो रहा है। जानबूझकर ऐसे हत्कंडे अपनाये जा रहे हैं कि मीडिया बाध्य हो उन्हें दिखाने को। जिससे उन्हें आसानी से पब्लिसिटि उपलब्ध हो जाती है। देश में बेवजह बहस के मुद्दे सिर उठाने लगते हैं। नाम दे दिया जाता है क्रांति का, आजादी का। इन्हें क्या पता अंग्रेजों के शासनकाल में क्या इन्हें इतनी छूट मिलती जिसतरह जेनयू कैम्पस में ये लोग नारे लगाये। जेल जाकर कन्हैया ने कोई तमगा हासिल नहीं किया। लेकिन, छूटने के बाद उसके कैम्पस में उसकी लोकप्रियता जैसे रातों रात बंदर के हाथ मोतियों की माला लग जाना।
साम्यवाद, भूखमरी से आजादी की मांग कर रहे इन छात्रों को सही गलत का एहसास नहीं। इतनी ही आजादी पसंद है तो दिल्ली और उससे सटे एनसीआर में सुव्यवस्था लाने के लिए इन छात्रों ने कौन सी ऐसी मुहिम छेड़ी जो सफल या असफल हुई। भूखमरी की समस्या मिटाने के लिए क्या कदम उठाये इन्होंने। आवाज बुलंद होनी चाहिए पर शिगूफे छोड़ने के लिए नहीं। देश को परस्पर उन्नति की दिशा में आगे बढ़ाना है तो नवयुवकों को अपनी सोच को विवेक से तालमेल बैठाना होगा। वरना एक दिन के हीरो बनने को जारों लोग लालायित हैं। जिससे देश का भला नहीं हो सकता।  
आह्वाहन, को भ्रमित नहीं होने दें। सशक्तता का द्दोतक यह शब्द कहीं शब्दकोश से गायब न हो जाय। यह एक शक्ति है। जिससे बलहीन को बल और विरोधी पक्ष में भय का संचार हो जाता है। यह बिगुल है। युद्ध की पहली इकाई है। ऐसे समय में देश को समझने वाले बुद्धिजीवियों की पहल होनी चाहिए कि ऐसे नवयुवकों को सही मार्ग प्रशस्त करें।


First Published: Monday, March 14, 2016 - 16:45
शेरनी या शाह




सर्वमंगला मिश्रा


पं बंगाल का इतिहास अविस्मरणीय रहा है। बंगाल, जो अंग्रेजों के समय देश की राजधानी हुआ करती थी। जहां नवावों की गाथा से लेकर रवीन्द्रनाथ टैगोर की कलाकृतियां आज भी बंगाल अपने में समेटे हुए है। आज भी बंगाल की मिट्टी में नजरुल गीति समायी है तो खुदीराम बोस और नेताजी का नाम लेकर लोगों में जोश और गर्व का एहसास पनपता है। कहा जाता है कि बंगाल जो आज सोचता है पूरा देश कल सोचता है। बंगाल की दहाड़ पूरे देश में गूंजती है। पर, आजकल गुजरात के शेर अमित शाह 34 वर्षों के शासनकाल को उखाड़ फेंकने वाली तृणमूल नेत्री ममता बनर्जी के सामने दहाड़ लगाये चले जा रहे हैं। बंगाल के इतिहास में भाजपा की स्थिति शून्याकार ही रही है। भाजपा जिसने पूरे देश में अपने जीत का डंका बजा लिया है। तो अनछूये बंगाल में अपना परचम लहराना चाहती है। वहीं 34 साल तक राज करने वाली सी पी एम अपनी वापसी को आतुर है।
भाजपा जहां पीडीपी के साथ मिलकर जम्मू- कश्मीर में वहीं हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में अपनी सरकार चला रही है। बिहार जो कूटनीतिक षणयंत्र के कारण हाथ से फिसल गया। ऐसी गलती भाजपा के तुर्रमखा दोहराना नहीं चाहते। सबसे बड़ा विधानसभा यू पी विधानसभा पर भी इसका असर साफ पड़ने वाला है। जिस तरह बिहार की जनता अपने और पराये में भेद जानती है उसी तरह बंगाल की जनता नये आगन्तुक का स्वागत सत्कार तो कर देगी पर बागडोर सौंपने में हिचकेगी।
16वीं विधानसभा के लिए चल रहा यह चुनावी रण 15वीं विधानसभा की तरह नजर नहीं आ रहा है। जिसतरह 2011 में ममता दीदी का एक मिशन था- सीपीएम हटाओ तृणमूल लाओ। अपनी तृण समान पार्टी को ऐसी बुलंदी पर ले गयीं जहां उनकी पार्टी कंगूरे कलश में जाकर विद्दमान हो गयी। धुंआधार रैलियां, एक दिन में चार-पांच रैलियां। फिर भी ममता दीदी के चेहरे पर न थकान न तनाव दिखता था।दिखता था तो सिर्फ और सिर्फ जोश, उत्साह- कुछ कर गुजरने का बंगाल के माटी के लिए, बंगाल के लोगों के लिए। इस बार टीएमसी को लगता है कि जनता उन्हें फिर चुनेगी। सीपीएम असमंजस में है तो भाजपा केंद्र की चाल चलकर बंगाल में लंकादहन करने की मनसा रख रही है। दीदी को अपने नारा- मां- माटी-मानुष पर भरोसा है। उन्हें लगता है कि बंगाल की बेटी को एक और मौका देगी उनकी मां उन्हें बंगाल के लोगों के लिए कुछ कर जाने को। विरोधी पस्त थे पिछली बार। इस पर मौके की ताक में हैं। क्योंकि अंजान राह पर भी जयकार उद्घोष हो रहा था तो सिर्फ ममता दीदी का। बंगाल की शेरनी सशक्त है इसबार। लेकिन 5 साल बाद जनसंदेश क्या निकला। बंगाल का विकास जस का तस है। लोगों को रोजगार के साधन उपलब्ध करने में आज भी वहां की सरकारें असक्षम सी दिखती हैं। एक बात है जहां बिहार और उत्तर प्रदेश में आये दिन अपहरण होते रहते हैं। बंगाल को आज भी इस दृष्टिकोण से सुरक्षा प्राप्त है। बड़े बड़े सेठ साहूकार वर्षों से कोलकाता के बड़ाबाजार से लेकर अन्य इलाकों में इतमिनान से अपना व्यापार करते हैं।
सवाल उठता है कि भाजपा ने आजतक बंगाल के लिए या बंगालवासियों के लिए क्या किया है। जो जनता उनसे प्रभावित होकर पुराने घटक दलों को छोड़कर अन्य पार्टियों पर फोकस करे।गुंडागर्दी, दादागिरी बंगाल में भी चलती है। दुर्गापूजा के समय मनमाने ढंग से कई जगह वसूली की वारदातें सामने आयीं। पर, आज भी वहां मानव चरित्र जिंदा है। परोपकार, अपनेपन की भावना मरी नहीं है। देश के दूसरे राज्यों की तरह बंगाल का किसान फसल खराब होने से परेशान नहीं है। अच्छी फसल होने के बावजूद कंगाली हालत में जीने को मजबूर है। अर्थात् किसानों की ओर राज्य सरकार ने ठीक से ध्यान केंद्रित नहीं किया। वहीं केंद्र की सरकार ने ऐसे क्या कदम उठाये गरीब किसानों के लिए जिससे उनकी पनपती दुर्दशा का अंत हो। योजनायें लागू करना अलग बात है। पर, उन योजनाओं का फायदा कितने प्रतिशत किसानों को केंद्र सरकार पहुंचाने में सफल हो सकी।
इतिहास गवाह है भाजपा ने आज तक 1 या 2 सीटों से ज्यादा अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा पायी है। ऐसे में भाजपा के लिए बंगाल गले की हड्डी है। यहां न तो मोदी जी की रैलियों का असर होता है न अमित शाह के जुझारुपने का। देश के प्रधानमंत्री जो विदेश दौरे पर आये दिन रहते हैं। मात्र उन्हें देखने की ललसा से लोग उनकी रैलियों में शामिल होते हैं। उधर अब फारवर्ड ब्लाक का भी असर समाप्त सा हो गया है। बंगाल की लड़ाई में आमने –सामने सीपीएम- सीपीआईएम और तृणमूल कांग्रेस के बीच है। पूरा देश का हाल देखने के बाद बंगाल के लोग रिस्क नहीं लेना चाहते। सवाल बहुत है- क्या ममता दीदी की वापसी गारंटी है। या विकास न होने से झल्लायी जनता पुरानी सरकार को फिर से बहुमत में लाने का गुणा भाग कर रही है।
भाजपा का मजबूत तंत्र बंगाल. बिहार और ओड़िसा में आसानी से अपनी पैठ नहीं बना सकता। स्थानीय चेतना मुक्त है। जिससे बाहरी चेतना को रग रग में पहुंचने के लिए काफी मशक्कत करनी होगी। तब शायद जिस तरह दीदी ने 34 साल बाद लाल रंग को हरे रंग में तब्दील किया उसी तरह तृण को हटाने में शायद अभी भाजपा को न जाने कितने साल लगेगें। देखने में वो एक तृण है पर उसकी जड़े अंदर काफी मजबूत है जहां कमल को अभी अपने बीज सही स्थान पर लगाना है।
मस्तानी चुनावी चाल





--सर्वमंगला मिश्रा




चुनाव, देश में एक सेलेब्रेशन की तरह होता है। जिसमें सत्तारुढ़ पार्टियों से लेकर जमी जमायी, मजी मजायी और उभरती पार्टियां अपनी दखलनदाजी करके रणक्षेत्र में आकर महासमुद्र में बूंद की तरह हिस्सा बनने से नहीं चूकती। भाग्य साथ दे दिया तो सूर्य रश्मी पड़ जाती है और वो बूंद सागर में चमक उठती है। राष्ट्रीय स्तर की पार्टियां अपना वर्चस्व बचाने और जमाने में कोई कसर नहीं छोड़ती। थोड़ी सी जुगत और पांच वर्ष का निरंकुश शासनकाल। पर, कई बार कई राज्यों में और केंद्र में भी यह फार्मूला भी मध्यकाल में डंक मार जाता है। जिस तरह उत्तराखण्ड में हाल ही में नौ बागी विधायकों का कारनामा। दो मजबूत दलों की शतरंजी चाल अब सांप और सीढी में तब्दील हो चुकी है।

चुनावी नाव महासमुद्र में हिलोरों के साथ कभी उपर तो कभी नीचे होती चल रही है। ऐसे में अप्रैल–मई का महीना बहुत खास हो चला है। जहां बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पांडुचेरी में चुनावी घमासान मचा है। वहीं 34 साल के शासन को जड़ से उखाड़ फेंकने वाली ममता दीदी का पहले कार्यकाल के बाद यह पहला टेस्ट मैच है जिसमें दीदी की फिल्डिंग नेतृत्व की क्षमता की परख जनता करेगी। साथ ही बैंटिंग कितनी कमाल की दीदी करने वाली है यह भी देखना दिलचस्प रहेगा। ऐसे में कोलकाता में कांग्रेस से छिटककर अपनी अलग पहचान बनाने वाली ममता दीदी जो तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा हैं, अब अगली पारी पांच साल की खेलने में उतनी सक्षम हैं जितनी पहले थीं। कोलकाता में विकास का ढांचा मात्र है। असलियत खोखली है।यह जरुर है कि आज भी महानगरों में शामिल होने के बावजूद कोलकाता दिल्ली और मुम्बई की तरह मंहगा नहीं है। सुविधाओं से लैश है। पर, नयी रणनीति खास कुछ कमाल नहीं कर सकी। आज भी सुस्त बंगाल कुछ इंटरनैश्नल कंपनियों की वजह से अपने में स्फूर्ति का एहसास करा देता है। नया कोलकाता में पहुंचकर मायूसी थोड़ी कम हो जाती है। नये रोजगार बोरोजगारों को कितने मिले और आने वाले समय में पलायन रुकेगा इसकी कोई गारंटी नहीं। वहीं जयललिता –अम्मा का दिमागी खेल उन्हें छठवीं बार सिंहासन पर पदासीन करेगा या कोई नया करिश्मा होगा। उनके जैसी पकड़ और उनके सामने किसी दूसरे के खड़े होने की ताकत तो अम्मा ने सारी जड़े जैसे उखाड़ फेंकी है। ऐसी परिस्थिति में करिश्मा होने के आसार नजर तो नहीं आ रहे।


तमिलनाडु हो या बंगाल, पार्टी रणनीतियां घमासान मचाकर रखती हैं। कोलकाता में फ्लाईओवर का अचानक गिरना, आग लगना, लोगों को मारना सांप्रदायिक सौहार्द्र को ताख पर रखकर पार्टीबाजी करना क्या स्थानीय जनता के साथ न्यायोचित होता है। उधर अगले साल यूपी विधानसभा के चुनाव भी आने वाले हैं। ऐसे में केंद्र सरकार के पास मौका है कि नये राज्यों में अपनी पैठ बनाये तो राज्य सरकार के लिए चुनौती बड़ी बन जाती है अपने घर को बचाने की। सत्ता की शाख फिर से जमाने में जुटी कांग्रेस जहां राहुल गांधी के नेतृत्व को मजबूती देने में कुछ हद तक दिख रही है वहीं उत्तराखंड में हुई राजनीतिक उठा पटख ने ईंट से जुड़ी दीवारों को ढहते देख, हौसले को अविश्वास के मचान पर ला खड़ा कर दिया है।  


मुजफ्फरपुर दंगा कांड, गोधरा और ग्रेटर नोएडा में अखलाख कांड। इसके अलावा फहरिस्त लम्बी है। इन दंगों के बाद राहत देकर एक वर्ग की सहानुभूति लेने में माहिर राजनीतिक पार्टियां सत्ता की चाल बदल कर रख देती हैं। चुनाव के दौरान पार्टियां मुस्तैदी से हर कार्य को अंजाम देती हैं। प्रचार विभाग से लेकर दूसरी पार्टियों में फूट डालने और दूसरे दल के नेताओं को अपने में शामिल करने की गतिविधि भी चलती रहती है।
लोकसभा चुनाव- अंतर्राष्ट्रीय खेल, विधानसभा चुनाव- नैश्नल लेवल, नगर निगम, पंचायत जैसे चुनाव भी कलाबाजी करते हैं। पंचायत और नगर निगम राज्य सरकार के लिए अपनी पैठ मजबूत करने का दरवाजा यहीं से खुलता है। जब घर के लोग आपका साथ नहीं देगें तो बाहरी लोगों से लड़ना मुश्किल हो जाता है। खिलाड़ी पहले घर से खेलना शुरु करता है फिर लोकल लेवल पर जीत हासिल करता है जिससे उसके आत्मविश्वास में मजबूती दिन प्रति दिन आती चली जाती है। फिर राज्य स्तरीय खेलों में पुरस्कृत होकर नैश्नल स्तर पर खिलाड़ी खेलने जाता है और तब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना डंका बजवाने में सक्षम हो पाता है। यही कहानी चुनावों की भी होती है।
हर पार्टी ऐजेंडा बनाने में, रैली करने में, रोड शो, मंच से संबोधन, घर घर जाकर हाथ जोड़ने में व्यस्त हो जाती है। इन सबके अलावा सोशल मीडिया पर अपडेट रहना और समाचार पत्रों और टी वी चैनलों के माध्यम से अपनी बात घर घर पहुंचाना भी नैतिक जिम्मेवारी बन जाती है। समझना यह है कि ये तमाम उहापोह, माथापच्ची किसलिए.. ? जाहिर सी बात है देश की जनता शांतिपूर्ण, सुरक्षित और उन्नतिशील जीवन जी सके। हर चुनाव के बाद सरकार किसी तरह गठित होती है। चाहे गठजोड़ की हो या पूर्णबहुमत वाली एकछत्र सरकार। जनता के हाल में कितना परिवर्तन आ जाता है। एक बार जो पुल बना जीवन भर सरकार आये या जाये आपको नियमित रुप से टोल टैक्स देना ही है। उसके निर्माण पर व्यय किया हुआ धन सरकार द्वारा जनता से वसूल ही नहीं हो पाता। जिसतरह किसान पुश्त दर पुश्त एक ही जमीन पर ली गयी राशि का भुगतान जन्म से मरण तक करता ही रहता था। पर ब्याज चुकता नहीं हो पाता। उसी तरह देश आज इतनी उन्नति कर चुका है। हमारे देश में इतने धनी हैं कि रुपया कालेधन के तौर पर बाहर है। यहां सरकार जतन कर रही है कि धन वापस आये तो देशहित में प्रयोग हो। किसान त्रस्त है कभी सूखे से तो कभी बाढ़ से। अनाज गोदामों में सड़ जाता है पर गरीब को नेवाला नसीब नहीं हो पाता। ऐसा अगर हो गया तो रामराज्य कायम हो जायेगा। विरोधी दल किस मुद्दे को लेकर सरकार पर उंगली उठायेगी। सत्ता का षणयंत्रकारी खेल का मात्र अवशेष रह जायेगा। इसलिए सत्ता का खेल चलते रहने के लिए गरीब को दो वक्त की रोटी नसीब मत होने दो- ये आंतरिक नारा शायद हर नेता का होता है, हर पार्टी का। क्योंकि इनकी समस्या खत्म हो गयी तो किसके लिए लड़गें ये नेता आपस में। दिखावी लड़ाई का रंगमंच समाप्त हो जायेगा।   
रिंग का किंग कौन?





सर्वमंगला मिश्रा 


देश में चुनावों की सरगर्मी एक बार फिर तेज हो रही है। भाजपा जो आज सशक्त रुप से देश को भाजपा शासित राज्यों से जोड़कर नयी राष्ट्रनीति देने के पथ पर अग्रसर है तो वहीं देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अपने वर्चस्व को नया रुप देने में जुटी है। राहुल गांधी जहां एक आंधी तूफान की तरह इस साल और अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में अपना विजय उद्घोष करने को आतुर दिख रहे हैं। तो वहीं केंद्र सत्ताधारी भाजपा अपने विश्वविजय के रथ को रुकने देना नहीं चाहती है। इसी मद्देनजर चुनाव के दौरान पहले हाथ से फिसला हुआ राज्य जम्मू और कश्मीर में गठजोड़ की सरकार बनायी। तो अब जम्मू- कश्मीर को पहली महिला मुख्यमंत्री भी भाजपा के सहयोग से मिलने जा रही है। दिल्ली से सटा उत्तराखंड जहां कांग्रेस की ताकत को नष्ट करने का फार्मूला भी भाजपा ने निकाल ही लिया। बागी विधायकों ने तेवर दिखाये तो सरकार को शिकस्त का मुंह देखना ही पड़ा और राष्ट्रपति शासन के पत्र पर प्रणव मुखर्जी जी ने अपने हस्ताक्षर करके इस पर मुहर लगायी। अब ऐसी परिस्थिति में यदि भाजपा अभी से दो या तीन महीने बाद भी नयी रणनीति के साथ सरकार बनाने की पेशकश करती है तो देश के समक्ष भाजपा की देश विरोधी समकक्ष छवि प्रस्तुत होगी। ऐसे में फ्रेश मैन्डेट के लिए जनता के पास जाने से अच्छा विकल्प शायद मस्तिष्क में नहीं कौंध रहा होगा। उधर कांग्रेस के हाथ भी बटेर लग गया है। हरीश रावत सरकार ने भले पांच साल पूरे नहीं कर पायी पर अब मजबूत कड़ी पकड़ ली है- जनता को लुभाने के लिए। कांग्रेस के हाथ झुनझुना लग गया है। भाजपा का रचा षडयंत्र, जनता को समय से पहले ही संकट में डाल दिया है।    
राज्य का विकास देश की आर्थिक सुदृढता एवं उन्नति के पायदान के रुप में देखा जाता है। आज केंद्र में भाजपा की सरकार है तो जाहिर सी बात है सत्ता केंद्र में उसी पार्टी की बनती और टिकती है जिसकी सेना अधिक मात्रा में होती है। आज राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, झारखण्ड, ओडीशा, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों को मिलाकर देश की सत्ता पर भाजपा काबिज़ है। विरोधी दल के रुप में जकड़ी कांग्रेस के हाथ से एक और राज्य निकल गया। हरीश रावत सरकार उत्तराखंड की जमीन पर अपना कार्यकाल पूरा करने में असमर्थ रही। 28 मार्च को विधानसभा में फ्लोर टेस्ट से मात्र एक दिन पहले राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। सरकार ऐसी परिस्थिति में न्यायालय में गुहार भी लगायी। हरीश रावत की सरकार ने विकास कितना किया यह तो आंकलन का विषय है। गैरसैंड, अवैध खनन, अवैध कन्स्ट्रकशन जैसे मुद्दे विरोधी दल हमेशा से उठाता रहा है। पहाड़ों पर अवैध निर्माण हमेशा से पर्यावरण के लिए खतरा बना रहा।
सवाल उठता है कि आखिर कांग्रेस जहां अपने उत्थान के लिए नये नये विकल्प ढूंढ रही है वहीं पार्टी की नीतियों के प्रति असचेत है। जिसके कारण कांग्रेसी नेता दिन पर दिन बागी होते चले जा रहे हैं। ये बात अलग है कि प्रतिशोध की भावना अमूमन प्रत्येक पार्टी में रहती है। विभिन्न पदों को लेकर भिन्न भिन्न मुद्दों पर वैचारिक मतभेद रहते हैं। पर, कांग्रेस सबसे पुरानी पार्टी होकर भी अब सिकुड़ती चली जा रही है। अंतर इतना बढ़ता चला जा रहा है कि इंदिरा गांधी का समय और सोनिया राहुल का समय में जमीन –आसमान का अंतर आ चुका है। वैचारिक दृढ़ता अब तानाशाही की जंजीर तोड़ चुकी है। समस्याओं से जूझ रहा देश किस कड़ी को मजबूती से पकड़े। इसी विषय पर गंभीरता की पकड़ ढीली सी हो गयी है। सरकार को विचलित कर देने की परंपरा टूट ही नहीं पाती। बागी नेता यह विचार ही नहीं कर पाते कि जिस जनता ने उन्हें चुना है उनपर ही सरकार गिराकर राज्य के विकास में बड़ा रोड़ा साबित हो रहे हैं। स्टिंग विडियो के जरिये जो हरीश रावत जी का चेहरा सामने आया वो भी जनता को अचंभित कर देने वाला रहा या नहीं क्योंकि अब जनता ऐसी चीजों को देखने की आदि सी हो चुकी है। विकल्प में विकल्प तलाश करना मजबूरी सी बन गयी है देश की जनता के लिए।
इस साल जहां पं बंगाल, असम जैसे राज्यों में चुनावों की तारीख निर्धारित हो चुकी है। वहीं अगले साल उत्तर प्रदेश जो देश की सबसे बड़ी विधानसभा है उसका चुनाव भी कांग्रेस और भाजपा के लिए गले की हड्डी समान है। ऐसे में जनता किसका कहां कितना पक्ष लेगी, यह कहना मुश्किल होगा। पर इतना अवश्य है कि फंसती तो जनता ही है। अगर नोटा का भी प्रयोग करती है तो विकल्प क्या है। फिर से चुनाव राज्य अथवा देश पर आर्थिक दबाव और उसी सर्कल से ही प्रत्याशी उत्पन्न होते हैं। तत्पश्चात जनता भी परेशान होकर विकल्प में से एक विकल्प चुन लेती है और फिर कुछ अंतराल बाद हौर्स ट्रेडिंग जैसे मामलों पर हक्की बक्की सी रह जाती है। जनता अपने विकास में हर बार सेंध खुद ही लगाती है अपने गलत निर्णय के द्वारा। विकास अधूरा रह जाता है। समस्याएं जस की तस खड़ी रह जाती हैं।




अब जब उत्तराखंड की राजनीति ने सागर सी राजनीति में पेट्रोल का काम किया है। वहीं शतरंज की बाजी कांग्रेस और भाजपा में चरम पर पहुंच गयी है। देखना होगा कि राहुल गांधी इस खेल में खुद मुकाबला करेंगे या मैडम सोनिया गांधी इसे अपने वर्चस्व की लड़ाई मानकर पर्दे के पीछे से लड़ना पसंद करेंगी। मोदी ने जहां अपनी चाल चल दी है वहीं कांग्रेस गहन मुद्रा में चिंता करके ही अपनी अगली चाल चलेगी। 6 महीने तक के लिए राष्ट्रपति शासन तय है या नहीं या पार्टियां जनता से ही फैसले की मांग करना उचित समझेंगी। चुनाव 6 महीने बाद हो या 9 महीने बाद उत्तराखंड की जनता किस आधार पर वोट करेगी। क्या उन नौ बागी विधायकों के प्रति स्थानीय जनता की निष्ठा सवाल के रुप में परिणित नहीं हो जायेगी। जो अपने स्वार्थसिद्धि के लिए राज्य में संकट की घड़ी पैदा कर सकते हैं। उनका भरोसा शेषमात्र बचता है जनता के मस्तिष्क में। 

  मिस्टिरियस मुम्बई  में-  सुशांत का अशांत रहस्य सर्वमंगला मिश्रा मुम्बई महानगरी मायानगरी, जहां चीजें हवा की परत की तरह बदलती हैं। सुशां...