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Saturday, 19 July 2014

         
                          आस्था और अनुकरण

सर्वमंगला मिश्रा
9717827056

आस्था से श्रद्धा और श्रद्धा से विश्वास कायम होता है। जीवन अति सरल पर कठिन पाठ पढ़ाता है। धर्म में आस्था रखना और अंधानुकरण करना दो अलग बातें हैं। धर्म में आस्था रखना -इंसान के अंदर विश्वास, प्रेम और पथ प्रदर्शक बनने का गुण पनपाती है। तो अंधानुकरण करने वाले लोग बिना विचारे ढाक के तीन पात ही चल पाते हैं। उनमें मात्र कट्टरता की भावना रहती है। इंसानियत की मर्यादा समाप्त हो जाती है। धर्म मर्यादा पालन सीखाता है ना कि आपस में फूट डालता है।धर्म की मानसिकता एकता को मजबूती प्रदान करती है। द्वारका-शारदा पीठाधीश्वर जगदगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानन्द जी महाराज ने साईं पूजा को हिन्दू धर्म के विरुद्ध बताया। हर बड़े चैनल पर उनका इंटरव्यू भी चला। साईं भक्तों ने आग बबूला होकर जगदगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानन्द जी महाराज का पूतला भी फूंक डाला। पर, ध्यान देने योग्य बात यह रही कि हिन्दू धर्म के समर्थकों ने साईं का पुतला न फूंका और ना ही अनैतिक कदम उठाये। मसला यह है कि सामाजिक कुरीतियों से बचाना समाज के लोगों को यह धर्म गुरु का काम होता है। हम सभी लोग अपने बचपन में अपने बड़े –बजुर्गों से यही सुनते आये हैं कि अच्छे लोगों की संगत करो। इससे आपमें अच्छे गुण पनपते हैं। यह जीवन है जहां इंसान को कदम कदम पर भिन्न- भिन्न गुरुओं की आवश्यकता पड़ती है और एक ही गुरु से जीवन चल तो सकता है पर आज जिंदगी की लाइफस्टाइल चेंज़ हो जाने से जीवन के पहलू को देखने और सोचने का नजरिया भी बदल सा गया है। इसलिए जैसे हर विषय के लिए बच्चा अलग अलग टीचरों से ट्यूशन लेता है उसी तरह जीवन को भी अलग अलग डाक्टर से कंस्ल्ट करना पड़ता है। हालांकि पहले गुरुकुल में एक ही गुरु अपने सभी शिष्यों को उनके समर्थता के आधार पर विकसित करते थे और जीवन के मार्ग पर चलने में कठिनाइयों का सामना कम करना पड़ता था। उसी तरह 33 करोड़ देवा देवता हिन्दू धर्म में बताये जाते हैं। पर क्या उन 33 करोड़ देवी –देवताओं के नाम भी हम जानते हैं ?? जाहिर सी बात है उत्तर ना ही निकलेगा। उसी तरह साईं बाबा, गुरुनानक जी, मुहम्मद पैगम्बर और जिसस क्राइस्ट ये सभी आज परमपूज्य और साधना के प्रेरणास्त्रोत हैं। वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह...आमीन....ओ जिसस- मे गोड बेल्स यू माई चाइल्ड जैसे कई आस्थावान शब्द  और वाक्य है जो आपके मन के अंदर एक अद्भुत ऊर्जा का संचार करते हैं। उस अविश्वसनीय, परम शक्तिमान और जगत संचालक को किसी ने नहीं देखा। वो सुप्रीम लार्ड है, भगवान है, जगत विधाता, शिव, ब्रह्मा या विष्णु रुपेण है..या अल्लाह, गुरुनानक साहेब या जिसस है । हममें से किसी को नहीं पता। पर एक परम शक्ति है कहीं न कहीं जो इस जगत का संचालन करती है। हमें नदी की धारा के सामान गोमुख से निकालकर महासमुद्र में विलीन कर देती है। यही सत्य है।

जगदगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरुपानन्द जी महाराज के साईं पूजा का विरोध मात्र विरोध नहीं था। एक पहल एक आगाह था जो हिन्दू अपने धर्म से भटक रहे हैं उनके लिए। उनका कहना यही रहा कि साईं को आप मानो मुझे कोई आपत्ति नहीं पर हिन्दू शास्त्रों में वर्णित देवी देवताओं का स्थान उनसे निम्न मत करो। साईं –राम , साईं कृष्ण, साईं-श्याम मत कहो। यदि आप को भजना है तो साईं का नाम सांई की तरह लो। उसमें राम-कृष्ण मत जोड़ो। पर बेबाक मीडिया थोड़ा मुखर हो गया। इसे चढ़ावा और साईं से शंकराचार्य का टकराव घोषित कर दिया। संत होना अलग बात है पर परमात्मा बनना अलग बात है। सनातन धर्म में वैसे ही इतने शास्त्र, पुराण और वेद होने के कारण वैचारिक मतभेद आपस में संकीर्णता को जन्म दे चुके हैं। ऐसे में स्वामी नारायण की पूजा, शिरणी के साईं की पूजा अपने आप में आने वाली पीढियों को भ्रमित करने वाली है। मेरे पिताजी आज से अमूमन 42 अथवा 45 वर्ष पूर्व देवरहवा बाबा से मिल चुके हैं। अद्भूत, चमत्कारी, मचान पर रहना, खड़ाऊं पहनना, स्पृश्यता एकदम वर्जित, हर आधे घंटे में स्नान करना, इच्छा मन में की और उत्तर तुरंत पा जाना। पर आज उनका कोई मंदिर या धाम नहीं है। बहुत लोग शायद उनके विषय में सुने भी नहीं होंगे। इसी तरह फहरिस्त काफी लम्बी है। गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी इन्हें हम संत और धर्म प्रदर्शक के रुप में जानते और मानते हैं। साईं बाबा जिनके पूरे विश्व में करोड़ों अनुयायी हैं कुछ काल पूर्व ही उनका शरीर पंच तत्व में विलीन हुआ। उनका कोई मंदिर नहीं। पर आज उनके अनुयायी ट्रस्ट का पैसा लगाकर मंदिर खोलें और उन्हें भगवान के रुप में स्थापित कर दें तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। पर क्या जानने वाले ज्ञानी क्या इस अनछुए पहलू से अनभिज्ञ हैं  ??  निर्मला देवी जिन्होंने खुद को ईश्वर स्वरुपा बताया और लोगों के घरों से देवी देवताओं की मूर्तियां तक हटवा दी, और स्वघोषित ईश्वर के रुप में आज भी कई घरों और मस्तिष्क में विद्दमान हैं। एक और स्वघोषित ईश्वर की बात न की जाय तो बात अधूरी रह जायेगी। वो हैं आशाराम बापू- जो आजकल किस कारण जेल में हैं इस बारे में बात करना समय की नष्टता होगी। ओशो- जिसकी बातें और नाम आध्यात्म जगत में पूजा है। करोड़ों भक्त उनकी आस्था के सागर में गोते लगाते हैं। उनकी पुस्तकें पढ लेने मात्र से- जीवन का सार और स्वर्ग की अनुभूति उनके लिखित विचारों से झलकती है। पर क्या वो ईश्वर थे??  आजकल एक नाम जिसकी कश्ती डूबी पर लक्ष्मी मैया ने फिर उन्हें सहारा दे दिया है। निर्मल बाबा जो व्यापार में फेल हो गये थे पर आज दूसरों पर ईश्वरीय कृपा कैसे होगी सरल भाव में बताते हैं। उनके अनुयायी जिनकी आस्था कहीं न कहीं प्रबल है या जिंदगी को राह देने वाली मशीन पर एक भरोसा उमड़ा हुआ है। कहा नहीं जा सकता। तो क्या ये ईश्वर हैं??
सचिन तेंदुलकर-क्रिकेट के भगवान, रफी साहब, लता मंगेशंकर इन्हें आज के युग का सर्वश्रष्ठ माना जाता है। देश नहीं विदेशों में भी पूजे जाते हैं। अपने कर्म के लिए। पर अपवाद यहां भी है- एक बार पढा था ,जब माधुरी दीक्षित का बहुत बोलबाला था, तो एक पान वाला दुकान खोलने के साथ सबसे पहले उनकी तस्वीर को धूप –बत्ती दिखाता और उसके बाद अपनी दुकान शुरु करता। इसी तरह विद्दा भारती, अमिताभ बच्चन-जैसे चर्चित अभनेता व अभिनेत्रियों को सत्कार और प्रेम मिलता रहा तो क्या ये ईश्वर हैं?? हर क्षेत्र में एक इतिहास रचयिता आता है। उस इतिहास रचने वाले को आम लोगों के जीवन में विशेष स्थान मिलता है। लोग उसे अनुकरण करते हैं, पूजते हैं अपना दिन उसके दर्शन से सुखद होता मानते हैं। वकालत में इतिहास रचयिता और उपलब्धि हासिल करने वाले को वकालत पढ़ने वैले बच्चे पूजेंगें। टीचर्स डे के दिन हम शिक्षकों को पूजते हैं। परीक्षा में जाने के पहले उनका आईशीर्वाद लेते हैं। बहुत से श्रवण कुमार कहीं न कहीं तो धरती पर होंगे जो माता पिता को पूजते होंगे। पर क्या दुनिया उस व्यक्ति के माता पिता को पूजती है??  जानती भी नहीं है। ठीक उसी तरह जिसतरह टेनिस खिलाड़ी शारापोवा का मैच देखने गये क्रिकेट के भगवान सचिन को शारापोवा नहीं जानती थीं। यहां मेरा मकसद किसी विवाद को जन्म देना नहीं बल्कि मात्र एक संयोग पेश करना था। मैं खुद भी सचिन तेंदुलकर की बड़ी या छोटी नहीं कहूंगी पर जबरदस्त फैन अवश्य हूं। सभी की तरह मेरी आंखों में भी आंसू थे जिस दिन उन्होंने क्रिकेट से संयास लिया था। कहने का तात्पर्य यह है कि हम सबमें वो परम आत्मा कहीं न कहीं विद्दमान है। जो हम सबको सांस लेने से लेकर जीना सीखाता है और सांस रुकते ही परम धाम या पंच तत्व या मिट्टी में मिल जाने का संकेत देता है। क्योंकि इस शरीर को बर्दाश्त करना लोगों के लिए असहनीय बन जाता है। वहीं मोरारी बापू, किरीट भाई जी ईश्वर के अस्तितव का बखान करते हैं पर स्वंय को कभी भी ईश्वर बताने का भ्रम नहीं पाला। संत ईश्वर और मानव के बीच मात्र माध्यम है एक ब्रिज मात्र है। ईश्वर नहीं। उन्हें आभास है कि इस नश्वर शरीर में उस परम शक्ति का कण मात्र सही पर है पर कण कण से बना वो परम जिसकी कल्पना अकल्पनीय. या बियांड एक्सपेक्टेशन है। हम मानव वो हो नही सकते। अब सवाल एक और भी उठता है-राम और कृष्ण भी तो मानव रुप में धरती पर अवतरित हुए। उन्हें ईश्वर के रुप में क्यूं पूजा जाय ?? शास्त्रों में वर्णित है कि आदिगुरु शंकराचार्य स्वयं शंकर भगवान के अवतार थे। जिन्होंने मात्र धर्म की स्थापना व्यापक रुप में करने के लिए ही इस धरती पर उस काल में पदार्पण किया था। आज लोग शंकराचार्य को साईं के तर्ज पर तो ईश्वर नहीं मानते।   
कहने का पर्याय यह है कि धर्म की नीतियां जीवन में समभाव, चरित्र की उत्तमता की ओर मानव जीवन को प्रेरित करती हैं। धर्म अवहेलना नहीं संतुलन सीखाता है। संतुलन ही यह बताता है कि समभाव रखते हुए बगुला और हंस में अंतर कैसे किया जाना चाहिए।
 






 
              क्या जैसा देश वैसा ही भेष ??

 सर्वमंगला मिश्रा
वो लोग सौभाग्यशाली होते हैं जिन्हें कोई शहर पहली बार में अपना लेता है। उन लोगों को इस वाक्य से ज़रा भी परहेज़ नहीं होगा जिन लोगों ने दूसरे शहर में जाकर अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष किया होगा। कश्मकश से भरी जिन्दगी इतनी आसान नहीं होती। कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिन्हें देखते देखते आदत पड़ जाती है और फिर आप कहते हैं हां यार, नाट बैड.....राजनीति भी एक ऐसा मंच है जहां हजारों कलाकार आते और जाते रहते हैं। कुछ दिल में बस जाते हैं, तो कुछ को देखने और सुनने की आदत पड़ जाती है। राजनीति लोगों को हमेशा दोराहे पर खड़ा कर देती है। उन्नति भी कराती है पर अवनति की सीढियां चढ़वाकर। जब आपका चारित्रिक पतन हो जाता है और आप स्वंय के लिए न जाने कितनी भावनाओं की लाशों पर चढकर अपना आशियाना खड़ा करते हैं, तो यही कहा जा सकता है कि जीवन सरल पर कठिन हो गया है।
यह राजनीति ही है जो विदेशी मूल की महिला को बाल काले करने पर मजबूर कर देती है। ममता बनर्जी जिन्होंने 34 साल के मजबूत लाल किले को गिरा डाला, पर अपनी हवाई चप्पल और सादी साड़ी का साथ नहीं। लालू यादव को उनका हेयर स्टाइल नहीं बदलने देती। तो मुलायम को दाढी नहीं बढाने देती। वहीं झारखंडी विश्वविख्यात हीरो महेन्द्र सिंह धोनी जिसका नाम ही काफी है अपनी हेयर स्टाइल बदलने के लिए फेमस है। पहले लम्बे लम्बे बाल तो 2008 में बाल छोटे कर सबको चौंका दिया। फिर वल्ड कप जीतने के बाद मन्नत के कारण सिर मुंडवा लिए.....ऐसा सौभाग्य इन नेताओं का कहां ???? वहीं भारत के पूर्व बहुचर्चित राषट्रपति डा. अब्दुल कलाम आजाद के बालों को लेकर अमूमन हर चैनल ने पब्लिक ओपिनियन ले डाला। अपने बालों के कारण उनकी चर्चा घर घर होती रही। वृंदा करात अपनी बिन्दी छोटी नहीं कर सकती तो शैलजा और प्रिया दत्त लगा नहीं सकती। सुषमा स्वराज सलवार कुर्ता नहीं कभी पहनीं तो उमा भगवा नहीं छोड़ सकतीं। पर, मायावती अपवाद हैं। पहले उनकी पोनी टेल हुआ करती थी जो अब बाय कट में परिवर्तित हो चुकी है और लगता नहीं कि अब वो अपना रुप बदलना चाहेंगी । कारण है कि अब अपनी इतनी मुर्तियां बनवा चुकी हैं कि पब्लिक में भ्रम का संचार हो जायेगा। अम्मा अपने जमाने की हिरोइन थी पर अब जिंन्स नहीं पहन पायेंगी, नेता बनने के बाद उनका लिबास सेट हो चुका है। राजनीति की चहेती हिरोइन प्रियंका वार्ड्रा गांधी अपने इन बालों के साथ इतनी फेमस हो चुकी हैं कि बाल लम्बे करने की इच्छा शायद अब सपने में ही करके संतोष करेंगी। उनकी दादी छोटे और हल्के घुंघराले बालों की मिशाल रह चुकी हैं। प्रियंका को उनकी छवि माना जाता है। राजनीति का साधु वेश वाले बाला साहब ठाकरे जी जिनके परिधान जैसा शायद ही कोई खुद को संजो कर रख सके....एक मिसाल थे। किरण बेदी जिन्हें न जाने कितने उपनाम मिले उनकी पहचान उनकी वर्दी और बाल रहे। पत्रकारिता में बरखा दत्त, प्रणव राय, पुण्य प्रसून वाजपायी, आशुतोष, दीपक चौरसिया भी अपनी वेश भूषा की वर्दियां छोड़ने में अब हिचकिचायेंगें।
पर, राजनीति में क्या वेश-भूषा ही महत्वपूर्ण है ??? क्योंकि पुराने जमाने में रजिया सुल्तान और लक्ष्मीबाई के बाल कैसे हुआ करते थे यह शायद मुझे लिखने की आवश्यकता नहीं है। यह वह समय था जब परंपरा और मान मर्यादाओं का काल था। आज आधुनिक युग में एक ऐसा नेता है हमारे बीच जिसने यह कहा था कि राजनीति करने के लिए कुर्ता पायजामा पहनना आवश्यक नहीं...जिन्स पहनकर भी राजनीति की जा सकती है। मुझे याद है एक बार सोनिया गांधी की रैली थी हम सब वही सुन रहे थे। भाषण खत्म होने के बाद सोनिया जी जब बैठीं तो अचानक हमारे एच ओ डी साहब के मुंह से निकला अरे!  सोनिया तो पूरी भारतीय हो गयी। उन्होंने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि सोनिया गांधी ने आंचल से अपना मुंह पोछा था गर्मी के कारण.....यानी पसीना...। राजनीति हर किसीको आकर्षित करती है पर यहां न जाने कितना पसीना और दम निकल जाता है और निकाल भी लिया जाता है। छुपी राजनीति करने में भी लोग नहीं हिचकते। जैसे वीरप्पन की मुंछे, तो किशन जी का गमछा कभी हटा नहीं। वहीं ओसामा बिन लादेन की दाढी और टोपी....पर ओसामा के बाद में कई रुप फूल्लन देवी की तरह सामने आये।  अपनी छवि बनाने के लिए ही चार्ली चैपलीन की मुंछ की साइज और शेप को बरकरार रखा गया। चार्ली चैपलीन की असल तस्वीरों में शायद ही उन्हें कोई पहचान सके। पी सी सरकार, तो भूटानी राजा अपना पारंपरिक ड्रेस पहनकर ही घूमते हैं, फारमल्स नहीं पहन सकते। आडवाणी जी की मुंछों का साइज कभी नहीं हिलता, और मोदी जी के कुर्ते का हाथ लम्बा नहीं होता.... पर बनारस में नामांकन के दिन मोदी ने फूल स्लीव का कुर्ता डाला था। राज शायद आने वाले दिनों में खुलेगा। अब हर कोई अमोल पालेकर की गोल माल पिक्चर को फालो तो नहीं कर रहा होगा।

पर, कुछ अपवाद भी हैं अटल बिहारी वाजपायी, पी वी नरसिम्हा राव, चिदंबरम, समय समय पर अपनी वेश भूषा में भी दिख जाते हैं और अंग्रेजी पहनावे में भी। यह राजनीति ही है जो इंग्लैंड की महारानी ऐलिज़ाबेथ को अपना पहनावा मिडिया और जनता के सामने आने पर अपनी पारंपरिक वेश –भूषा में ही सामने आती हैं। हर समाज की अपनी पहचान, मर्यादा और प्रतिष्ठा बनते बनते बनती है। जिसतरह मंदिर का पुजारी अपने धोती और चादर में रहता है, मौलवी अपनी वेश भूषा में तो पादरी अपनी....पर वेश भूषा से उपर है आंतरिक वेश भूषा को ठीक करना अपनी मानसिकता को हमें ऐसे वस्त्र पहनाने चाहिए जिससे समाज और देश का पहनावे का रंग आसमानी हो जाये। जिससे विश्व में एक संदेश जाये कि मन को सुंदर बनाने के लिए भारत का अनुकरण करना चाहिए जैसा संदेश मदर टेरेसा ने दिया, गौतम बुद्ध और अशोक ने दिया। मजेदार बात अब कहना चाहूंगी कि सम्पूर्ण भारतीयता के समर्थक माने और जाने जानेवाले प्रधानमंत्री जी श्री नरेंद्र मोदी जी विदेश में जाकर हिन्दी ही बोलेंगें तो परिधान भी भारतीय ही होना चाहिए। अब मोदी जी कभी हाफ सिल्व तो कभी फुल बांह के कुर्ते में भी दिख जाते हैं।
                   
                         गंगा




सर्वमंगला मिश्रा-
9717827056
देवलोक में विचरण करने वाली, ऋषियों के कमंडल में रहने वाली गंगा, अपनी एक बूंद के छिड़काव मात्र से स्थान, मन को पवित्र करने वाली गंगा, पवित्रता का सूचक गंगा आज खुद पवित्र होने की आकांक्षा लिए उस वीर सिद्ध पुत्र का शायद इंतजार कर रही थी। मोक्षदायिनी गंगा को अब शायद मोक्ष मिल जायेगा। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का यह संकल्प पूरे देश में एक जूनून का रुप ले रहा है। गंगा एक अति पवित्र और स्वर्ग से उतरी जल धारा है। जिसे कई वर्षो की तपस्या के उपरांत धरती पर लाने वाले भगीरथ जी का नाम आज भी आध्यात्म के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से अंकित है। धरती पर आने के बाद गंगा की दशा धीरे धीरे परिवर्तित होती चली गयी और आज यह दशा हो चुकी है कि गंगा की मलीनता कहीं न कहीं चरम पर मानी जा रही है। गंगा की अविरल धारा में नदी नाले सभी सिमट से गये हैं। भगवान शिव की जटा से निकली गंगा का रुप इतना कलुषित हो गया है। जिसे फेशियल की जरुरत नहीं पूल बाडी मसाज और प्रापर ट्रीटमेंट की आवश्यकता आन पड़ी है। मां गंगा को शायद भागीरथ के आमंत्रण का एहसास नहीं था कि धरती पर इतने कलुषित और पापी प्राणियों का वास है जिनके पाप धोते धोते उन्हें उबारते –उबारते खुद उन्हें स्वंयं को उबारने की आवश्यकता आन पड़ेगी। अन्यथा स्वर्ग लोक से दिव्य वस्त्र धारण कर आती सीता जी और भीष्म पीताम्मह की तरह..जो कभी कलुषित न होते। गंगा गोमुख से निकलकर पहाड़ पठार फिर नदी नाले पार करती बंगाल की खाड़ी में सम्मिलित हो जाती है। जहां महत्ता को चार चांद लग जाते हैं और प्रति वर्ष गंगासागर का मेला लगता है। जिसमें देश ही नहीं विदेशों से पर्यटक, देशी साधु संत अपनी जटा जुट लपेटे, नागा साधु भी पहुंचकर गंगा की महत्ता और पवित्रता का साक्ष्य बनते हैं। क्योंकि माता कभी कुमाता नहीं होती पुत्र भले कुपुत्र हो जाये- उसका आंचल बच्चों के लिए कभी मैला या छोटा नहीं पड़ता। उसका आंचल आसमान की तरह विकसित है उसके करुणामयी दिल की तरह। बच्चों के कष्ट को न देख पाने वाली मां गंगा अपनी अविरल धारा से सतत पापों की बेड़ी में जकड़े धरती के लोगों को मुक्ति देने में जुटी है।
श्री राम शर्मा द्वारा लिखित एक कहानी स्मृति में उन्होंने लिखा था कि- दृढ़ संकल्प से दुविधा की बेड़ियां कट जाती हैं। आज वही याद आ गया और सच भी लग रहा है। कई बार कई विदेशी रिपोर्टों में यह उल्लेख किया गया कि गंगा का जल अति प्रदूषित और संक्रामक हो चुका है। गंगा पर चिंता और चिंतन करना भारतीयों के लिए अति स्वाभाविक है पर, विदेशी संस्थाओं की चिंता और चेतावनी सदा सर्वदा अनसुनी कर दी गयी। केंद्र सरकारों ने कभी इसकी व्यापक तौर पर सुध नहीं ली।  ऐसा नहीं है कि केंद्र सरकारें मौन मूक बधिर बनी रहीं। गंगा एक्शन प्लान बना। राजीव गांधी ने गंगा के लिए सोचा प्लान बनाया पर धरातल पर सक्सेसपूल नहीं हो सका। जिम्मेदारी का एहसास हुआ पर दृढ़ संकल्प की कमी रह गयी। सरकारें हमेशा बेरोजगारी, भुखमरी और आतंकवाद के मसलों पर उलझी रही और देश को भी उलझाती रही। आतंकवाद पर बैठकों पर बैठकें हुईं, विकास के मुद्दे पर चर्चा और आलोचना हुई, बेरोजगारी के मुद्दे पर चिंता ज़ाहिर हुई भूखमरी से मरने वाले मासूम बच्चे, महिलायें और किसानों के आंकड़े कुछ बताये गये तो कुछ छुपाये गये। पर अंतोगत्वा, देश में अराजकता की धूल भरी आंधी तूफान और फिर चक्रवात में परिवर्तित हो गयी। जनता की आंखों में धूल की किरकिरी ऐसी घुसी की सरकार पर निगाहें रख पाना मुश्किल हो गया। जिससे गंगा की धारा अन्य नदियों की भांति दिन पर दिन अपना अस्तित्व खोती चली गयी और जनता अपने दुर्दशा के बांध को ठेलती ढकेलती रही ताकि जीवन की आवश्यकताओं की कमी से निज़ाद पा ले पर ऐसा हो न सका। जीवन में बेरोजगारी, भुखमरी और सरकारी तरकशों से बच न सकी। पर हर समस्या का हल होता जरुर है। उस शोधकर्ता की आंखें बस होनी चाहिए। व्यापक अंदाज़, बहुआयामी सोच और सरस भाव होने चाहिए।
आज गंगा को बचाने की मुहिम पूरे देश में एक एकता के रुप में उजागर हो रही है। गंगा कितनी लम्बी या चौड़ी है इसका अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है। देवलोक से आयी इस देवी का मान आकाश में  चमकने वाले  सूर्य और चन्द्रमा से भी अति वन्दनीय है। गंगा में लगता है जितनी बूंदे हैं उतनी जनता अब जागरुक होकर खड़ी हो जायेगी और अति संवेदनाहीन पक्ष को एक संगठित और मर्यादित औऱ सराहनीय विश्वस्तरीय ख्याति का पुनार्जन होगा। इस परिपेक्ष्य में एक सवाल कहीं न कहीं जन्म अवश्य लेता है।मोदी जी ने एक महीने 12 दिन के अंदर कई ऐसे फैसले और घोषणायें कर दी है जो सपनों में विचरण करने से कम नहीं। गंगा सफाई अभियान, बनारस में अमूल की फैक्ट्री से हजारों की संख्या में रोजगार देकर बेरोजगारी की समस्या को कम करने की अद्भूत योजना और रेल बजट में दिया गया और टेस्टीफाइड हाई स्पीड ट्रेन की मनभावन योजना। जिसतरह मोदी जी चुनावों के दौरान रैलियों में बोले उससे यही लगता था अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज के बाद अब एक अच्छा वक्ता भाजपा ने पेश किया है। पर एक कहावत है कि जो बरसते हैं वो गरजते नहीं और जो गरजते हैं वो बरसते नहीं। इसी तरज पर मोदी जी ने हाल ही में हुए सूरजकुंड मेले में जो कैम्प लगाया और अपने सांसदों को मूलमंत्र दिया कि बेवजह विवाद से बचें, समाज के हित में कार्य करें, किसी से डरे नहीं, निष्पक्ष और निडर होकर फैसले लें। स्वयं के ऊपर अति साजो सज्जा से दूर रहने की सलाह दी। तो इस सलाह को सलाह के तौर पर नहीं बल्कि आदेश के तौर पर देखा जाना चाहिए, क्योंकि मोदी का दूसरा नाम हिटलर और डान माना जा रहा है।हर विभाग के फैसले में उनकी हामी निर्विवाद रुप से आवश्यक मानी जा रही है। क्योंकि मोदी जी कोई रिस्क नहीं लेना चाहते। पांच वर्ष का कार्यकाल पूर्ण करने में कोई त्रुटि या बाधा नहीं आने देना चाहते हैं। वैसे भी मुझे मां गंगा ने बुलाया है- यह वाक्य कि मोदी मां गंगा के सुपुत्र हैं तो मां को बेटा तकलीफ में कैसे देख सकता है। इसके अलावा वाराणसी मोदी के लिए वो यादगार पावन धरती है जिसने उन्हें प्रधानमंत्री के पद पर उच्चासीन कर दिया। तो मां गंगा का कर्ज जिसकी सौगात प्रधानमंत्री होने के पूर्व ही उन्होंने अपने इस संकल्प को जगजाहिर कर दिया था। मां का हृदय तो यंही कोमल होता है। बेटे ने कहा मां गदगद हो गयी अब वक्त है प्रधानमंत्री मोदी जी अपनी बात पर खरे उतर जायें। निर्विवाद रुप से अगर मोदी जी अपने कम बोलकर ज्यादा काम को तवज्जो दे रहे हैं तो निश्चित तौर पर गुजराती माडल स्वर्णिम अक्षरों में विश्व के मानस पटल पर अंकित हो जायेगा और युगों युगों तक याद रखा जायेगा।

कहते हैं ना कि जब मूल समस्या की जड़ तक यदि आप पहुंच जाएये तो छोटी –छोटी समस्यायें पलक झपकाते हवा में कर्पूर की तरह उड़ जाती हैं। ठीक उसी तरह गंगा सफाई अभियान ने दूसरी मैली नदियों जैसे यमुना नदी पर भी लोगों का ध्यान केंद्रित हो रहा है। इसी तरह स्वच्छ जल स्त्रोत का अभाव झेल रहा भारत देश स्वच्छता की पटरी को चाक चौबंद करने में जुट गया है। पर, इसके साथ ही कई गांव, शहर और राज्य आज भी ऐसे हैं जहां पानी की किल्लत से आम जनजीवन अमर्यादित है। इस सफाई अभियान के साथ या उपरांत यदि उन सूदूर ग्रामीण इलाकों में पानी का स्त्रोत पहुंच जाय तो महिलाओं के जीवन को सम्मान व परिवारों को परेशानी से जूझना नहीं पड़ेगा। ध्यान देने योग्य बात यह है कि सरदार पटेल का विश्व का सबसे ऊंचा स्टैच्यू बन जायेगा, हाई सपीड ट्रेनें चलेंगी और गंगा की अविरल धारा सिर्फ सूरज की रौशनी में नहीं बल्कि गंगा आरती के वक्त भी चाहे वह हरिद्वार का तट हो या बनारस के घाट एक परिदृश्य दिखेगा –चमचमाती, उजली मां गंगा जिसे देखने विश्व का सबसे बड़ा समूह एवं पर्यटक जत्था आयेगा तो विदेशी मुद्रा का आगमन अधिकाधिक मात्रा में होगा जिससे चमकती जल की बूंदों के रख रखाव पर कोई कष्ट नहीं मंडरायेगा।
                 इंसानियत और राजनीति

सर्वमंगला मिश्रा
9717827056

धर्म में आस्था रखने वाला इंसान अपने दिन का शुभारम्भ उस सर्वशक्तिमान के नाम के साथ करता है। सुबह उठते ही हिन्दू पूजा करता है तो मुस्लिम नमाज़ अदा करता है, सिक्ख वाहेगुरु के सामने मत्था टेकना शुभ मानता है तो क्रिश्चियन चर्च जाकर जीसस के सामने प्रेयर करता है।पर, धर्म जब इंसानियत को पीछे छोड़ कट्टरता की ओर उन्मुख हो तब यह समझ लेना चाहिएकि खुद को सुधारने का वक्त आ गया है। कबीरदासजी जो हिन्दू और मुस्लिम दोनों माने जाते थे । साथ ही उनकी रचनायें प्रारम्भ से दोनों वर्गों तथा बाकी जातियों पर भी कुठाराघात करने से नहीं चूकते थे।
पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार,
ताते वह चक्की भली , जाको पीस खाय संसार।
कांकर पाथर जोड़ के मस्जिद लयी चुनाय
ता चढि मुल्ला बांग दे, बहिरा हुआ खुदा।
 
अयोध्या-बाबरी मस्जिद, गोधरा, मुज़फ्फरनगर और अब मुरादाबाद। धर्म के नाम पर आस्था की आड़ में जातिवाद का खेल आज तख्तो ताज के लिए खेलना राजनीति का हिस्सा बन चुका है। बहरा खुदा नहीं मानव की चेतना हो गयी है। इंसानियत बहरी हो गयी है, शायद पंगु भी। अयोध्या की कहानी इतिहास के पन्नों में ब्लैक बैकग्राउण्ड पर बलैक लेटर से लिखा जा चुका है। कितने धर्म में आस्था रखने वाले अभिभावकों को यह कहते सुना गया था कि मेरा बेटा राम की भक्ति के लिए बलिदान हुआ है। उसका जीवन धन्य हो गया। राम नाम के लिए मेरे बेटे ने अपना जीवन समर्पित किया है। ऐसे ही न जाने कितने माता पिता, बहन और परिवार वालों ने अपने सगों के लिए ऐसी मर्यादित भाषा का प्रयोग किया था। उस समय इतने न्यूज चैनल नहीं हुआ करते थे। दूरदर्शन, बीबीसी प्रमुख थे। अयोध्या काण्ड की टेपें लोगों ने उन दिनों चोरी छुपे देखी थी। कोई भी टेप को अपने घर नहीं रखना चाहता था कारण जिस व्यक्ति के घर से ऐसी कोई सामग्री बरामद होगी तो पुलिसिया कार्रवाही होगी। मुझे याद है हमने दो बार दो घरों में देखा था। आज, खुले आम टी वी चैनलों पर खुले आम कवरिंग होती है और भावना जनमानस में हिलोरे पल पल में लेने लगता है। कभी ज्वार कभी भाटा की तरह कभी सरकार के विरुद्ध बिगुल बजने लगता है तो कभी जनमानस के क्रियाकलाप पर सवालिया निशान चिन्हित होता दिखता है। आज इस बात को उठाने का मकसद यह है कि धर्म की आड़ में राजनीति कब बंद होगी?? कभी वृंदा करात यह कहने से नहीं चूकीं कि बाबा रामदेव की दवाइयों में हड्डी मिली हुई है तो कभी बीजेपी कार सेवकों का नारा था- कसम राम की खाते हैं, मंदिर यहीं बनायेंगे। साढे 23 साल बीत गये राम का मंदिर और मस्जिद में आजतक कलह का आसमान छाया हुआ है। जिस तरह भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर सालों से सांप छुछुदंर का खेल चलता आ रहा है। करोड़ों हिन्दुओं की आस्था माता वैष्णों धाम में टिकी है पर अगर केंद्र सरकार और राज्य सरकार में सहमति का बीज़ नहीं पनपा तो धारा 370 के साथ वीजा का नियम न लागू हो जाय माता वैष्णों के दर्शन के लिए। आशंकाओं से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। जीवन अनिश्चितताओं से भरा है। ख्वाजा की दरगाह मुक्त हस्त से दर्शनार्थियों का स्वागत करता है जहां पाक के नामचीन हस्तियां भी आयीं दरगाह पर मत्था टेकने..चादर चढाने। पर, मुरादाबाद में लाउडस्पीकर लगाने और न लगाने के मामले ने ऐसा तूल पकड़ा कि महापंचायत बुलानी पड़ी। महापंचायत में पथराव और दंगे के चलते डी एम को अपनी बांयीं आंख की रौशनी से हाथ धोना पड़ गया। क्या सहिष्णुता ने इस संसार से सन्यास ले लिया है? धीरज अपनी कर्मनिष्ठा से मुंह मोड़ चुका है? शांति सीताजी की तरह भूगर्भ में जा चुकी है? प्रेरणा स्त्रोत जीवन और व्यक्तियों का अकाल पड़ चुका है? असहजता, अशांति और  अराजकता ही राज्य करेंगे?
दंगा चाहे गोधरा का हो या मुजफ्फरनगर का इससे राजनीतिज्ञों के अलावा किसी का भला नहीं हुआ। आज भी मुज़फ्फरनगर के दंगा पीड़ित किस दहशत के साये और खुले आसमान के नीचे, बदतर हालात में जीने को मजबूर हैं। यह बयां नहीं किया जा सकता। बेसहारा हुए वो परिवार आज दहशत की लाश बनकर जी रहे हैं। राज्य सरकार घोषणा जरुर करती रहती है कि हमने फलां फलां चीज़ें उपलब्ध करायीं पर, धर्म की आड़ में फैलायी गयी आग में झुलसे उन परिवारों से कोई तो उनकी दासतां, दरदे हाल कैमरा बंद करके पूछो। सभी तो इंसा है खून तो लाल ही है फिर मज़हब को खून का रंग देने पर क्यों तूले हैं। इसका तात्पर्य क्या अब जनमानस को यह समझना चाहिए कि पंचायतें और महापंचायत अस्तित्वविहीन हो चुकी हैं। महापंचायत मात्र नाम के लिए या दबंगों की राजनीति का हिस्सा या उनके हाथों की कठपुतली मात्र रह गयी हैं। तो बापू ने जो सपना देखा था पंचायतों के निर्माण और कानून व्यवस्था बनाये रखने का उत्तम माध्यम हो बेबुनियाद था या अब बन गया है। जिस पंचायत और महापंचायत पर गांव और गांवों के समूह का दायित्व रहता है वो कंधे अब चोटिल हो चुके हैं या बूढे और आदर्शविहीन ? जिससे पंचायत का मुख मलीन पर दिन मलीन होता चला जा रहा है।
धर्म की आड़ में राजनीति की लड़ाई ने इंसानियत को बेजुबां कर दिया है। कोलकाता के टीमसी के एक नेता ने यह कहकर कि यदि किसी सीपीएम के कार्यकर्ता ने उनके कार्यकर्ता या उनके परिवार वालों पर जरा सी भी आंच आयी तो वो दहशत का ऐसा पाठ अपने लोगों के जरिये सीखा देंगें। शब्द लिखे तो नहीं जा सकते परन्तु अमर्यादित अतिसंकीर्ण और विचित्र मानसिकता राजनीति में कदम रख चुकी है। ऐसी मानसिकता को जल्द काबू में नहीं किया गया या इन बदजुबानों को कड़ा सबक नहीं सिखाया गया या ऐसा कोई कानून लागू न किया गया कि फ्रीडम आफ स्पीच एंड इक्स्प्रेशन का गल्त इस्तेमाल न हो इसके लिए समाज को खुद सुधरना होगा और सरकारों को कड़े नियम इख्तियार करने होंगें। आजकल टी वी पर संसद का सत्र हो, या विधानसभा का लगता है जैसे यह देश की वरिष्ठ गवर्निंग बाडी नहीं बल्कि गांव के नुक्कड़ पर आये कुछ अति समझदार नौटंकी वालों की टोली हो जिसे सिर्फ तमाशा दिखाना है और चर्चा का हिस्सा बनना है।जिसे नाटक के ओर अंत से कोई वास्ता नहीं। जिसकी समझ कुएं के मेंढ़क की तरह सीमित हो। कुछ नौटंकी वालों की फहरिस्त बढ़ती जा रही है और इसमें वो अच्छे फूल मुर्झा रहे हैं। सांसद अब प्रश्न पूछते हैं तो लगता है मकसदमात्र सदन में बोलना है। मीडिया अट्रैक्शन लेना आजकल नेताओं का पहला मकसद हो गया है।
इंसानियत को जिंदा रखना हम इंसानों का ही परम एवं सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य होना चाहिए। ताकि आने वाली पीढियां गर्व के साथ खुद को भारतीय परंपरा का हिस्सा कहने से संकोच न करें.
  

Saturday, 28 June 2014

दहशत का कब्रगाह




उत्तर प्रदेश उत्तम प्रदेश की संज्ञा से नवाजा जाता रहा है। पर पिछले कई हफ्तों से इस दी हुई संज्ञा पर विचार करना अनिवार्य सा हो गया है। महिलाओं को जहां पूजने की बात, लक्ष्मी का वास माना जाता है वहीं आजकल महिलाओं पर हो रहे अति निन्दनीय अत्याचारों का घड़ा एक पर एक करके फूटता ही चला जा रहा है। यूं तो दिल्ली 2012 में शर्मसार हो चुकी थी लेकिन बदायूं मामले ने ऐसी अवांछनीय घटना को न जाने कैसे अपराधी वर्ग को इतना जागरुक कर दिया है कि समझ नहीं आता क्या कहा जाय। अंधेर नगरी चौपट राजा, या जैसा राजा वैसी प्रजा। वैसे तो पूरे देश में महिलाओं पर हो रहे अत्याचार का कोई तोड़ नहीं। एक से बढकर एक घटनायें समय समय पर सामने आती हैं। पर आज फिर उत्तर प3देश के कानपुर में अतिक्रमण का विरोध कर रही कुछ महिलाओं पर ऐसा कहर पुलिस ने बरपाया कि दिमाग को झकझोर कर रख दिया। ऐसी बर्बरता, ऐसी घृणित अवस्था महिलाओं की समाज में ?? जिन्हें उनके केश पकड़- पकड़ कर घसीटा गया । मानो उन्होंने कैसा दण्डनीय अपराध कर डाला हो। समाज में वो लोग शान से घूम रहे हैं जिन्होंने अति घृणित कार्य भी किया है और उन्मुक्त रुप से खुले आसमान के नीचे घूम रहे हैं और अत्याचार के कुकर्मों को अजाम दिये चले जा रहे हैं लेकिन उनके साथ ऐसा कोई व्यवहार नहीं। आखिर क्यों ??  उत्तर प्रदेश का पड़ोसी राज्य बिहार जहां महिलाओं के उत्पीड़न की दांसता बयां से परे, शब्दों से परे है। जहां महिलाओं को पुलिस दौड़ा -दौड़ा कर मारती है। तो कभी बच्चियों को मौत के घाट उतारकर पेड़ से लटका दिया जाता है। तो एक नया ट्रेंड सा जाने निकल आता है और हर मौत का अंजाम पेड़ से लटकाने के उपरांत ही जैसे नदी गंगा से मिलती है उसी तरह मौत का मुहाना पेड़ बन गया। प्रशासन की चुप्पी न जाने इन मसलों पर कब तक बरकरार रहेगा।
महिलाओं पर प्रारम्भ से आज तक चाहे-अनचाहे न जाने क्यों और कैसे । क्या बर्बरता की दासतां महिलाओं पर यूंही चलती रहेगी। रिजर्वेशन से लेकर जीवन पर्यन्त हक की लड़ाई लड़ते ही रहना होगा। कहने के लिए पुरुष समाज यूं तो देवी शब्द का प्रयोग करता है पर क्या उस बिन बोली मूरत पर अनगिनत प्रहार नहीं करता जा रहा है । जब तक कि वह मूरत टूट के बिखर ना जाय। सवाल यहां यह उठता है यह मासूम बच्चे बच्चियां जिनके हंसने खेलने, दुनिया को समझने -देखने का वक्त है उनके साथ ऐसा बर्ताव क्यों समाज के कुछ अवाछनीय लोग उनसे उनका हक छीन रहे है??  जिन्दगी खिली नहीं कि आपने उसे मर्झाने भी नहीं मौत के घाट उतार दिया?? मर्यादा में रहने वाली को हर बार उस रावण का दंश क्यों झेलना पड़ता है। हर बार उसकी कोख अपने ही चचरे भाई कंस के कारण क्यों उजड़ जाती है। हाल ही में एक नाबालिक बच्ची जिसे उसके रिश्ते में लगने वाले मामा ने कलंकित किया तो उसकी अपनी मां और बुआ और उस मामा ने मिलकर उसे नहर में ढकेल दिया। पर, बेचारी बच्ची अमूमन 55 किमी तैरती हुई एक किनारे पहुंची । जहां उसे बचा लिया गया। पर रिश्ते आज अपनी मर्यादा खोते चले जा रहे हैं। न जाने हम कैसा समाज बना रहे हैं जहां हम खुद ही चैन की सांस नहीं ले पा रहे। दम घुटता है ऐसे समाज में जहां दिल यही हुक के साथ कह उछता है- कि ना आना इस देश मेरी लाड़ो.....क्योंकि हैवानियत को भी शर्मसार करने वाले कारनामे यहां अंजाम दिये जाते हैं। पं. बंगाल में एक अति निन्दनीय घटना कुछ महीनों पहले आयी थी जहां रिश्ते में लगने वाले चाचा, ताऊ, भाइयों ने मिलकर उसे पंचायत के कहने पर शर्मसार कर डाला। उसका जुर्म मात्र इतना था कि वह विजातीय व्यक्ति से प्यार और शादी करना चाहती थी। हालांकि पंचायत ने उसपर 25 हजार का जुर्माना लगाया जब उसने अपनी विवशता जाहिर की उस मूल्य को चुकाने में तो उस पंचायत ने ऐसा दण्ड निकाला कि दण्ड भी सोचा होगा कि मैं तो ऐसा नहीं था। मेरा रुप इतना कैसे परिवर्तित हो गया।

समय परिवर्तनशील है। अगर कोई खुद में सुधर लाना चाहता है तो उपाय कई हैं प्लास्टिक सर्जरी, होमियोपैथी, आयुर्वेदा पर किस पर क्या सूट करता है उसका डाक्टरी परामर्श ही उसे सुधर सकता है।
बात प्रदेश की है तो शासनतंत्र और शासनकर्ता ही नब्ज टटोल कर उपचार बता सकते हैं। मुश्तैद शासन प्रक्रिया ही राज्य को सुधारने का काम कर सकती है। जिससे राज्य आज और कल फलीभूत होता रहे।

Wednesday, 18 June 2014

पुलिस प्रशासन कितना सच्चा

9717827056

हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। एक पहलू जो आपको किसी का आदर्श बना दे और दूसरा पहलू जो किसी के मन को घृणा से भर दे। किसी बच्चे से अगर सवाल किया जाय कि वह क्या बनना चाहता है तो अधिकतर जवाब मिलता है आई ए एस आफिसर या आई पी एस। पर क्या वो सच्चाई से भरा सपना जिसमें गरीबों की मदद, कानून व्यवस्था को बदलने का मिज़ाज होता है पद तक पहुंचते – पहुंचते खोखला हो जाता है। पुलिस प्रशासन का गठन समाज में कानून व्यवस्था को दुरुस्त रखने और सामाजिक सामंजस्यता बरकरार रखने के मकसद से किया गया था। एक समय था जब देश में राजाओं का चलन हुआ करता था। उस समय के कायदे –कानून काफी सख्त होते थे। आज जिस तरह महिलाओं के उपर अत्याचार का बोलबाला बढ़ रहा है उस समय के नियमों के अनुसार दोषी व्यक्ति के हाथ काट दिये जाते थे, आंखें निकाल ली जाती थीं। इन नियमों के द्वारा यह संदेश दिया जाता था कि अपराध करने वालों का अंजाम कैसा होता है। जिससे भविष्य में कोई ऐसा अपराध ना करे। लोग सबक के तौर पर याद रखते थे। समय परिवर्तनशील है और एक ऐसा समय आया जब हमारा प्यारा भारत देश छोटे –छोटे राज्यों में विभक्त था।जहां हर देश का राजा अपनी सत्ता बचाने और झूठी शान के पशोपेश में रहता था। फलस्वरुप छोटे छोटे देशों के राजा आपस में लड़ने लगे। आंतरिक कलह से सुशासन की मजबूत स्थितियां जड़ से उखड़ने लगीं। जिससे बाहरी देशों के राजा परिस्थतियों को भांपते हुए अनेकों बार इस देश पर आक्रमण किये। सत्ता की जड़, जो पत्तों के झड़ने से शुरु हुई थी वो उसकी पहुंच पेड़ की जड़ों तक दीमक की भांति पहुंचकर खोखला करती चली गयी। जिससे देश पर बाहरी शक्तियों का प्रभुत्व जमने लगा और देश एक दिन अंग्रेजों के हाथ चला गया। वो अंग्रेज, जो व्यापार करने आये थे पर 300 वर्षों तक राज़ कर गये। अंग्रेज चले गये पर हूकूमत ए दासतां छोड़ गये। जिसतरह अंग्रेज भारतीयों को बिना किसी जुर्म के यातनाएं देते थे, और बेचारा बिना जुर्म का कैदी कराहता मर जाता था। जिस तरह पानी पर कंकड़- पत्थर मारकर व्यक्ति अपनी दुर्भावना का प्रदर्शन करता है। चोट तो जल को भी लगती है पर वह कहता नहीं, उसी तरह अंग्रेजों के कब्जे में भारतीय भी जुर्म सहता था। आजादी की उसी लड़ाई में खूनी कहनियां सामने आयीं तो कितनी गुमनामी के अंधेरे में दब गयीं। सावरकर, भगत सिंह, खुदीराम और चन्द्रशेखर आजाद जैसे अनगिनत नामो ने जिंदगी का अंत कर देश और देशवासियों को सिर उठाकर जीने का हक दिलवाया।
आज पुलिस तंत्र के कामकाज के रवैये पर सवाल उठना बहुत लाजमी हो गया है। जिस तरह फर्जी एन्काउंटर के नाम पर मासूमों की जान के दुश्मन बन जाते हैं और अपनी अंह की झूठी शान को दर्शाने के लिए कई बार नकली एंनकाउंटर कर डालते हैं। 2009 में जुलाई के महीने में एम बी ए छात्र, गाजियाबाद निवासी जिसकी देहरादून में हल्की कहासुनी के कारण जान से हाथ गवाना पड़ा। दया नायक, प्रदीप शर्मा जैसे नाम किसी से छुपे नहीं है। हालांकि सबूत के तौर पर कुछ न मिलने से अब कोई चार्ज भी नहीं रहा पर, सवाल यहीं उठता है कि क्या समाज के लिए बनायी गयी व्यवस्था के मालिकान और उन पर अमल करने वाले पदासीन अफसर ही गैरजिम्मेदाराना हरकत और विरोधी रवैया अपनायेंगे तो जनता किसके कंधे पर सिर रखकर चैन की सांस ले पायेगी। फर्जी एन्काउटर के एक नहीं अनगिनत फाइलें दबी पड़ी हैं। जिन्हें कुरेदने की ताकत शायद किसीमें नहीं। बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में न जाने कितनी ऐसी घटनायें होती हैं जहां पुलिस पूछताछ के नाम पर व्यक्ति को लेकर जाती है और दूसरे या तीसरे या अगली सुबह ही उसकी लाश जेल के अंदर पायी जाती है। यूं तो दयानायक जी सरकारी अफसर हैं पर मामलों का खुलासा होने से सच्चाई कुछ और ही कह रही थी। सवाल उठे कि क्या सरकारी आड़ में कहीं अफसर किसी और की नौकरी तो नहीं कर रहा ?? सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 555 मामले जुलाई 2013 तक दर्ज हुए। जिसमें सबसे कम संख्या मध्य प्रदेश और सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में दर्ज किये गये। जिसमें मात्र 144 मामलों का समाधान हुआ। वहीं असम,बंगाल, झारखण्ड और जम्मू –कश्मीर में भी फेक एन्काउटर हुए। सामान्यतया राज्य सरकारें ऐसे मामलों को दबाने का भरसक प्रयास करती हैं, और केन्द्र इस पर सुध नहीं लेता। एक केस की बात नहीं कि तो लेख शायद अधूरा लगे पाठकों को। इशरत जहां फेक एन्काउटर केस –जिसने पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया। जसमें एक 19 साल की लड़की की हत्या हो गयी। क्यूं और कैसे समय के पन्नों में राज की तरह ही है। सच्चाई शायद ही खुले कभी। बाटला हाउस एन्काउंटर केस जो दिल्ली में हुए सीरीयल बम बलास्ट के बाद अंजाम दिया गया था। फहरिस्त लम्बी है पर ऐसा करना किस हद तक लाज़मी है, ये सरकार और राज्य सरकारों के लिए चिंतन का विषय है। क्योंकि समाज और देश हित में किये जाने वाली इस प्रक्रिया का दुरुपयोग हो रहा है। कस्टडी में मौत और फर्जी एन्काउंटर में मौत- मसला वहीं अटकता है कि मौत देने वाला वही सरकारी अफसर ही है जो कभी अपने पद की धौंस में तो कभी आलाधिकारियों के दबाव में उस बेबस को मौत की नींद सुला देता है। पर, भारतीय कानून कहीं न कहीं इस बात की चेतावनी जरुर देता है कि ट्रिगर पसंद करने वाले भी अपनी मनमानी हरकतों के लिए पूरी तरह जिम्मेवार हैं और जवाबदार हैं। यूं आसानी से कानून उन्हें वर्दी में लिपटा रहने से बक्क्षेगा नहीं। यह बात अलग है कि कानून के हाथ लम्बे होने के बावजूद बेहस और लाचार जरुर रहते हैं।

आज इशरत का परिवार, रणवीर का परिवार किस बात की सज़ा भुगत रहा है। सुप्रीम कोर्ट भी मानता है कि यह मात्र नृशंस हत्या ही नहीं बल्कि एक क्रूर अपराध भी है क्योंकि पुलिस अधिकारी की ड्यूटी होती है लोगों की रक्षा करना ना कि अपने उत्तरदायित्तव के विरुद्ध कार्य करना। ट्रिगर दबाने के शौकीन पुलिसवाले क्या आज अपने कर्तव्य से इतने विमुख हो चुके हैं कि कर्तव्यपरायणता शेष मात्र रह गयी है। शपथ कागजी और बेबसी में पढ़ा जानेवाला ढोंग है   
 

 
सरकार की सौगात

सर्वमंगला मिश्रा
9717827056

हर नयी चीज मार्केट में एक नया उत्साह भर देती है।मार्केट में जब नया ब्रैंड लांच होता है तो उस सेक्टर के आलोचक, उसके ब्रैंड के फालोअर्स सभी टकटकी लगाये रहते हैं। सेक्टर चाहे कोई भी हो न्यू लांच करने वालों से लेकर जब तक प्रोडक्ट लांच नहीं जाता तब तक उसके प्रति जिज्ञासा और उत्कंठा बनी रहती है। फैन फालोअर्स और एक्सपेरिमेंटल वर्ग उसके हर गतिविधी से परिचित होना चाहता है। जैसे उसके फंग्शन्स, फीचर्स या बात करें फैशन वल्ड की या नयू एल्बम या फिल्म जब रिलीज़ होने वाली होती है तो उसके लांचिंग के अनुसार लोग अपना शिड्यूल प्लान करते हैं। किसी पुस्तक के मार्केट में आते ही पुस्तक प्रेमी या उस लेखक की शैली को पसंद करने वाला व्यक्ति पहले से बुकिंग कर रखता है उसके पहली कापी की। घर में जब नया नवजात आता है तो उससे सबको नयी खुशी मिलती है। क्योंकि परिवार को एक उर्जा की प्राप्ति होती है और भविष्य उन्नति की ओर अग्रसर होता दिखता है।नयी बहू,नये डिजाइन्स, नया व्यक्ति आफिस में यह सारी बातें यही संदेश देती है कि हर नये सिक्का पहले अपनी चमक से सबको प्रभावित करता है। बाद में उसकी चमक कितनी देर तक नयी रहती है यह उसके गुणों पर निर्भर करती है। ठीक कुछ इसी तरह मोदी सरकार के आने से लेकर अब तक एक नयी उर्जा शक्ति का संचार जन मानस में हुआ है। पर, यहां मोदी सरकार की विरदावली पढना मेरा मकसद नहीं। मन में विचार उठ रहा है कि क्या सरकार सही दिशा में चल रही है। जितने वायदे किये हैं देशवासियों से उन्हें निभाने में सक्षम है यह सरकार ??
केंद्र में भाजपा की सरकार के बनते ही उत्तर प्रदेश में जंगल राज या बर्बरता इतनी चरम पर कैसे पहुंच गयी। जबकि सरकार को जुम्मा – जुम्मा चार दिन ही बीते है। अभी एक माह भी पूरे नहीं किये हैं इस सरकार ने। बिजली आपूर्ति की समस्या इतनी चरम पर आ गयी। अखिलेश सरकार ने बीते एक माह में तकरीबन 66 आई ए एस और आई पी एस के तबादले कर डाले। 15 जून को फादर्स डे उपलक्ष्य में तो नहीं पर सपा प्रमुख ने बैठक बुलायी और 17 जून की रात होने से अमूमन कुछ घंटे पहले मंत्रियों के विभागों में फेर बदल कर डाले। इन सब बातों का तात्पर्य क्या निकाला जाय- कि सरकार के इस फेर बदल के भंवर में जनता को उलझाना या विधानसभा के चुनावों में अपनी ताकत को दर्शाने की रणनीति की नियत से काम कर रही है अखिलेश सरकार।इस बार लोस की हार के बाद अपनी शाख को बचाने में जुटी सपा सरकार सारे हथकण्डे अभी से अपनाने शुरु कर दी है।क्योंकि कमल का निशान खतरे के निशान से पूरे देश में उपर दिख रहा है। साथ ही बाकी पार्टियां खतरे के निशान के आस-पास भी दिखायी नहीं दे रहा। यूं तो सपा सरकार को अपना बचाव दो तरफ से करना है। पहला बचाव मोदी के आतंक से। तो दूसरा बहन मायावती की खार से। इस बार उनका खाता तक न खुलने से उनके अंदर की बेचैनी कभी भी राजनीति के घड़े में उबाल ला सकती है।वैसे भी बुआ और मुलायम के तानों के बाण अभी शरीर में ताजे घाव की तरह हरे हैं। तो बहन मायावती का हाथी यूं तो अधमरा है पर जीवनी शक्ति देने में जुटी बसपा सुप्रीमो अगर किसी तरह कामयाब हो जाती हैं तो साइकिल के टुकड़े होते देर नहीं लगेगी।
बदायूं मामले के उपरांत पेड़ से मानो लाशों को लटकाने का ट्रेंड सा निकल पड़ा है। सीतापुर में पति –पत्नी की लाश ..सरकार की कानून व्यवस्था मानो किसी सन्दूक में बंद कर पानी में पेंक दी गयी हो और हर कोई बेबस, लाचार खड़ा है। उधर भाजपा के नेता निशाने पर आ गये हैं या लाये गये हैं। कहा नहीं जा सकता। क्या ऐसा प्रतीत नहीं होता कि कहीं न कहीं इस राजनैतिक पार्टियों के आंतरिक कलह, द्वेष और अहं की लड़ाई में जनता पीसी चली जा रही है। इस बात से इंकार भी नहीं किया जा सकता कि बीजेपी अपना कमल को या कहीं अमित शाह को यू पी के उस कुर्सी से नवाज़ने का ध्येय तो नहीं साध लिया है।अगर ऐसा है तो इन आने वाले 2-3 सालों में बहुत कुछ देखना अभी बाकी होगा। तब राजनीति के इस खेल का यह प्रथम चरण है पर बाकी 3 चरण विधानसभा चुनाव तक पूरे हो जायेंगें। यह तो हुई बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश की बात। कारवां तो अभी शुरु हुआ है। दहशत के दौर ने अभी जन्म ही तो लिया है। आशंकायें फलीभूत हो रही हैं। बी एल जोशी का इस्तीफा संकेत है क्योंकि फहरिस्त लम्बी होने वाली है। शीला दीक्षित का इंकार इकरार में कैसे बदलेगा। यह मोदी सरकार ने मास्टर प्लान तैयार कर लिया होगा। ऐसा करना अनिवार्य भी है । भाजपा में वरिष्ठों की संख्या जितनी है उतने तो शायद राज्य भी नहीं हैं। सबको यथोचित स्थान से नवाजने के लिए कठोर कदम तो उठाना आंतरिक रुप से प्रतिबद्धता है मोदी सरकार की।


  मिस्टिरियस मुम्बई  में-  सुशांत का अशांत रहस्य सर्वमंगला मिश्रा मुम्बई महानगरी मायानगरी, जहां चीजें हवा की परत की तरह बदलती हैं। सुशां...