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Saturday 11 July 2015

सी बी आई

सर्वमंगला मिश्रा
9717827056

सी बी आई  यानी सेंट्रल ब्यूरो आफ इंन्वेस्टिगेशन। सी बी आई एक विकसित जानी मानी अपनी एक पहचान पूरे विश्व में बनाये हुए है। सी बी आई की जांच प्रक्रिया पूरी होते ही माहौल शांत और तमाम तरह की जवाबदेही का अंत हो जाता है। यानी सी बी आई एक ऐसी गवर्निंग बाडी है जिसपर पूरे देश को भरोसा रहा है।


क्या है यह सी बी आई??
स्पेशल पुलिस स्टैब्लिशमेंट (एस पी ई) का गठन 1941 में भारत सरकार द्वारा किया गया था। जिसका मकसद घूस एवं करप्शन से लड़ना था।तभी द्वीतीय विश्व युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध के दौरान भारत द्वारा युद्ध सामग्री की सप्लाई विभाग में हुए ट्रांजैक्शन की जांच करने के उद्देश्य से एस पी ई को निर्देशित किया गया। अति संवेदनशील प्रोजेक्ट को हैंडल करने के बाद देश एवं सरकार को बड़े पैमाने पर इस टीम की आवश्यकता महसूस हुई। फलत: दिल्ली पुलिस स्टैब्लिशमेंट एक्ट के तहत 1946 में इस संगठन को मान्यता मिली। साथ ही इसका विस्तारीकरण भी किया गया। जिसके तहत गृह मंत्रालय इनका प्रमुख बना ताकि सभी सरकारी विभागों के तहत धांधली एवं भ्रष्टाचार को रोका जा सके। 01 अप्रैल 1963 को इसका नाम बदलकर स्पेशल पुलिस स्टैब्लिशमेंट (एस पी ई) से सेंट्रल ब्यूरो आफ इंन्वेस्टिगेशन (सी बी आई)कर दिया गया। संस्थापक एवं डाइरेक्टर डी पी कोहली को इस जांच ऐजेंसी को राष्ट्रीय स्तर तक लाने में योगदान देने के लिए -पद्म भूषण- से नवाज़ा भी गया। जो एस पी ई टीम के सदस्य भी रह चुके थे। अब तक कुल 24 डायरेक्टर्स इस संस्था को अपना योगदान दे चुके हैं। जिसमें से एक नाम बहुचर्चित रहा जोगिन्दर सिंह जी का। बिहार का बहुचर्चित चारा घोटाला के दौरान जोगिन्दर सिंह जी चर्चा का विषय बने रहे। 25 वें रंजीत सिंन्हा और 26वें अनिल सक्सेना हैं जो वर्तमान में इस पद को सुशोभित कर रहे हैं। 
सवाल उठता है कि आज देश में कोई भी कांड हो जाये जनता जनार्दन की आवाज सी बी आई की जांच के लिए उठने लगती है। सी बी आई ने ऐसे कई मसले सुलझाये हैं जिनका कोई सानी नहीं है। जिसतरह देश के कानून के आंखों पर पट्टी लगी है उसी तरह सी बी आई की जांच को देश तवज्जो देता है। यानी बेबाक, बेखौफ और निष्पक्ष। जनता को भरोसा रहा या नहीं सरकार पर यह बेहद गंभीर और चर्चा से परे विषय है। सरकार ने जनता जनार्दन के लिए नियम से लेकर योजनाएं बनायीं। चाहे वह शेरशाह सूरी हों, बादशाह अकबर हों या मुहम्मद बिन तुगलक हों।  आधुनिक युग की बात कर लें- तो जवाहर लाल नेहरु हो, इंदिरा गांधी हों या नरेंद्र दामोदर दास मोदी। योजनायें किस हद तक जनता तक पहुंचीं हर काल में- यह चिंतन का विषय है। कानून की हमेशा से एक परंपरा चली आ रही है। दंड विधान से लेकर खुफिया तंत्र प्रजा के लिए काम करते थे। वो सेवक राजा के ही होते थे पर कार्य देश और जनता के हितों के मद्देनज़र ही किया जाता था। कार्य में किसी भी प्रकार की धांधली या उलटफेर की इज़ाजत नहीं थी। एक सर्वोच्च अधिकारी राजा ही सर्वमान्य था जिसके मुख से निकला हर वाक्य आदेश होता था। उस काल में टेलीविजन या रेडियो भी नहीं हुआ करते थे। पर फिर भी अपने वचन पर कायम रहने का उस ज़माने में उन राजाओं का कोई सानी नहीं था। आज हर नेता टी वी पर अपने ही दिये बयान से पलट जाता है। जन जन तक प्रचारित और पहचान में आने वाला शख्स अपनी वाणी को हर पल झुठलाता नज़र आता है। वहीं जांच प्रक्रिया भी शक के घेरे में आ चुकी है। निष्पक्ष शब्द कहीं दुर्लभ प्रजाति की भांति अकेला संघर्ष कर रहा है। आज सी बी आई के बड़े ओहधों पर ऐसे लोग विराजमान हैं जो सरकारों की हां में हामी मिलाकर चलते हैं। आज सी बी आई के कुछ ऐसे प्रकरण सामने आ चुके हैं जिससे उसे पैरट की संज्ञा दे डाली गयी। अपने अस्तित्व को कहीं न कहीं सी बी आई ने खोया है। खोयी हुई सत्ता हासिल करना यूं आसान तो नहीं होता। वहीं, देश की मानसिकता, लोगों की श्रद्धा आज भी सी बी आई नाम की संस्था पर कायम है। आज सी बी आई सरकार के पक्ष को ही अपना पक्ष मानकर चलती है या अलग हटकर सच्चाई की दांसता सामने लाने और मजबूती से पेश करने की ताकत रखती है ? आज निर्भया कांड से लेकर मोहनलालगंज मामले तक या बोफोर्स घोटाला, कोयला घोटाला भोपाल गैस त्रासदी,सोहराबुद्दीन केस, प्रियदर्शीनी मट्टू से लेकर 2ज़ी घोटाला, आई पी एल घोटाला हर घोटाले की जांच सी बी आई ही कर रहा है। उधर ताबूत घोटाले से लेकर चीनी घोटाला हो,1993 का बम बालस्ट, 26/11  कांड या सुनन्दा पुष्कर मौत की जांच, सब सी बी आई को सौंप दी गयी। फहरिस्त लम्बी होने के कारण मुकाम अनकहे से हो रहे हैं। जाहिर सी बात है जब एक ही संस्था के ऊपर लाखों केसस का भार डाल दिया जायेगा तो टीम जितनी मजबूत हो शायद कहीं न कहीं कहे अनकहे दबाव और अनसुनापन उभरने लगता है। वरिष्ठ जांच ऐजेंसी की अपनी भी कुछ सीमायें होती हैं. यूं तो सी बी आई की कुल – पूरे देश में 52 शाखायें है। इसमें लगभग 5666 कर्मचारी कार्यरत हैं। 1122 केसस 31 मई 2014 तक अभी भी पेंडिंग लिस्ट में है। सी बी आई ने अपने कार्यकाल के 52 वर्ष पूरे भी कर लिए। पर यह उच्च वरियता प्राप्त जांच ऐजेंसी की अहमियत ऊंची दुकान फीका पकवान की तरह स्तर गिरने लगा है जनता की निगाह में। सी बी आई को अब सरकारी मुलाजिम के तौर पर देखा जाने लगा है। क्योंकि कुछ केसस का समाधान सरकार के इशारों के अनुरुप हुआ जैसे- पी वी नरसिम्हाराव को बरी कर दिया गया उसके कुछ दिन बाद ही उनका देहान्त हो गया था। बोफोर्स मामले में क्वात्रोची के देहान्त के साथ ही बोफोर्स घोटाले की फाइल बंद करनी पड़ी। इसी तरह तमाम ऐसे मामले जो सी बी आई के साथ लुका-छिपी का खेल खेल रहे हैं।



आज देश भ्रष्टाचार और घोटाले की जमीन पर बैठा है। सी बी आई को अपनी जांच पूरी करने में मुश्किलों के साथ-साथ सरकारी दबाव का भी सामना करना पड़ता है। क्या जांच ऐजेंसियां खुलकर काम कर पाती हैं?? इन्हीं पेंचिदा बातों के कारण अन्ना लोकपाल के तहत सी बी आई को भी लाने की मांग कर रहे थे। पर लोकपाल अब किसी पाले में नहीं है। देश में करप्शन और जालसाज़ी की मात्रा इतनी बढ़ गयी है कि जांच का आदेश देने वालों पर ही जांच कमिटी बनाने की आवश्यकता एक बार नहीं बल्कि हर बार ही पड़ जाती है। मसला यह है कि शासन तंत्र ही अगर इतना अनियंत्रित, उच्चाकांक्षा से परिपूर्ण, द्वेषभाव पनपाने वाला, संकुचित जीवन यापन शैली को महत्तव देने वाला परोपकार तो दूर विचारणीय पहलुओं पर भी अनदेखी करेगा तो जनता बेहाल होकर दम तोड़ती रहेगी। विचारणीय विषय यह है कि क्या ऐसी जांच ऐजेसियों को सरकारी दायरे में रहकर काम करना चाहिए?? क्योंकि काल चाहे कोई भी रहा हो या आनेवाले कल में भी ऐजेंसी हों या सरकारी अदालतें परोक्ष अथवा अपरोक्ष रुप से प्रभावित होती आईं हैं और शायद होती भी रहेंगी। तभी 32,92,758 मामले कोर्ट में फंसे पड़े हैं। शासनकर्ता की साम दाम दंड भेद की नीति जगजाहिर रही है। ऐसी परिस्थिति में जनता सदैव से नीले आकाश के साथ शासनकर्ता के आगे हाथ ही जोड़ती आई है। जबकि विचित्र पहलु सर्वदा से अचम्भित करते रहे हैं। जहां वरिष्ठता प्राप्त व्यक्ति शासनतंत्र पर भी शासनकर्ता द्वारा शासन कर लेता है। सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय कभी होगा??  
पेट्रोलियम विभाग में हुए खुलासे के बाद, जिस तरह फाइलों का आगमन और बहिर्गमन होने की प्रक्रिया देश के हित में गढ्ढा खोदने का काम काम कर रही थी, उससे देश के मस्तिष्क पर चिंता की रेखाएं खिंचती नजर आ रही हैं। जासूसी कांड का ऐसा खुलासा पहली बार नहीं हुआ है। इससे पहले भी जासूसी कांड के खुलासे होते रहे हैं। समस्या यह है कि हर बार मामले की तह तक सरकार नहीं पहुंच पाती या बचने में ही अपनी भलाई समझती है।  भारतीय दूतावास में भी ऐसा किस्सा छनकर आया था। पर कोई सख्त़ कदम नहीं उठाया गया। वैसे जब ऐसे खुलासे होते हैं तो जाहिर सी बात है आखें बड़ी हो जाती हैं और माथे पर जिंता की लकीरें उकरने लगती हैं। सरकारें बदलती हैं पर मुलाजिम नहीं। सालों से कार्यरत कर्मचारी नेताओं से भी भलीभांति जानते हैं सरकार चलाना। उन्हें किसी बाहरी या भीतरी समर्थन की आवश्यकता नहीं होती। रिटायर्मेंट के वक्त ही उनका काम पूरा होता है। सरकारी मुलाजिम को संसद या विधानसभा में बहुमत साबित नहीं करना होता। इसलिए यह शिनाख़्त कर पाना काफी जद्दोजहद का काम है। इतना बड़ा देश, इतनी बड़ी सरकार, अनगिनत मुलाजिम, मुश्किल है इस बात की तफ़्तीश करना –कौन अपना और कौन बेगाना। रेगिस्तान और दलदल से भरी राजनीति की जमीन को नये रुप से उपजाऊ बनाना किसी एक किसान के बस की बात नहीं। अब धीरे धीरे हर मंत्रालय के दरवाजे से कई सूत्र निकलेंगें।
अन्तोगत्वा, फिर इस मामले की जांच भी बाकी अन्य बड़े मामलों की तरह सीबीआई को सौंप दी जायेगी। सीबीआई जो एक रुप से सरकारी इशारों पर चलने की आदि सी हो गयी है। हर मामले के साथ कितनी निष्पक्षता दिखा पायेगी।

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