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Thursday 28 July 2016

कांग्रेस का यू पी टेंट

सर्वमंगला मिश्रा

देश में चुनाव हो या सरकार चलाने का चलन, दोनों ही सूरत में देश की सबसे पुरानी पार्टी का नाम जुबान पर आ ही जाता है। आजकल उत्तर प्रदेश में रोज नयी हलचल सी मची रहती है। जैसे उत्तर प्रदेश का ब्याह होने वाला है। रोज नये कार्यक्रम, रोज नये मेहमानों का आगमन लगा हुआ है। कभी मुखिया के तौर पर राजबब्बर तो कभी घर की बजुर्ग के तौर पर दिल्ली की महिला शान शीला दीक्षित, जिनका लंबे अंतराल के बाद, उत्तर प्रदेश में पदार्पण हो चुका है। कभी खुशी कभी गम के दौर से गुजर रही कांग्रेस पार्टी ने अब शीला आंटी की शरण ले ली है। उन्हें उम्मीद है कि बुरे वक्त में अनुभव की पतवार ही नैया को पार लगाने में काम आती है। हालांकि शीला दीक्षित अपने बूढ़े कंधों पर 403 सीटों वाली उत्तर प्रदेश विधानसभा का बोझ संभाल पाने में कितनी सक्षम है इस पर उन्हें भी शक जरुर होगा। लेकिन, अनुभव और किसी की आस को टूटने न देना बुजुर्गियत की निशानी है। खामोश चेहरों के पीछे कितनी चालें अभी चली जायेंगी कहना मुश्किल है। वक्त के साथ कितने पैंतरे बदले जायेंगें यह देखना निश्चित तौर पर हम सबके अनुभव की किताब में कुछ अध्याय जुड़ने जैसा होगा।
कांग्रेस पार्टी एक सागर की तरह है। जहां अंदर पैठो तो मोती ही मोती मिलेंगें। भले ही कुछ पुराने तो कुछ घिसे पिटे। इस समय सबको नयी मशीन के जरिये माडिफाई किया जा रहा है। सबको चुस्त दुरुस्त बनाया जा रहा है। चुनावी बिगुल हर पार्टी अपना अपना फूंक चुकी है। तो तैयारियां उसी हिसाब से चल रही हैं। स्तब्ध जनता सिवाय खेल देखने के कुछ कर नहीं पाती। जनता जैसे जैसे खेल देखती जाती है वैसे वैसे उसका भावनात्मक परिवर्तन भी होता रहता है। परिस्थितात्मक परिवर्तन पार्टियों में होना कोई नई बात नहीं होती है। लेकिन नेतृत्व के संगठनात्मक गठन में बार बार परिवर्तन का होना आंतरिक हलचल की अनुभूति कराता है। राहुल गांधी की नाकामी छुपाने के लिए, लक्ष्य हासिल करने के लिए, कांग्रेस की कमान संभाले प्रशांत किशोर ने नये नये दांव पेंच  के खेल में जनता को कहीं न कहीं भ्रमित करने का काम किया है। कांग्रेस के कर्मीयों से लेकर आम जनता तक प्रियंका की पक्षधर रही है। 1997 से लेकर आजतक प्रियंका गांधी ने सिर्फ चुनावी कैंपेन में ही बढ़ चढ़कर सदैव हिस्सा लिया। उनकी पर्सनालिटि ने अच्छे अच्छों के जहां छक्के छुड़ा दिये वहीं उनका ओजस्वी भाषण कहीं न कहीं दिल को छू सा जाता है। जिस तरह राजीव गांधी ने अपने बर्ताव से लोगों के दिलों में एक अलग स्थान बनाया था। ठीक उसी तरह इंदिरा गांधी की पोती प्रियंका ने पार्टी से लेकर जनता के दिलो दिमाग में अपनी एक छवि जरुरी उकेर ली है।


उत्तर प्रदेश, जहां लखनऊ ,नवाबों के शहर से लेकर सुहागा की पहाड़ियां बसती हैं। जहां रईसी है तो अभाव का भयानक चेहरा भी। जहां यादवों की भरमार है तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और माइनारिटी वोटों का बाहुल्य भी। ऐसे में पार्टी शीला दीक्षित के ब्राह्मण होने का फायदा उठाना चाहती है। साथ ही बची खुची राजनीति पर भी कोई सेंध न लगाये इसके लिए कांग्रेस पार्टी ने मुश्तैदी दिखायी है। राहुल गांधी 45 सावन के बाद अब ब्राह्मण परिवार से गठजोड़ कर पुराने जमाने की तरह राजनीतिक शादी की चाल में जनता को मानसिक रुप से फांसना चाहते हैं। इससे पूरा ब्राह्मण समाज क्या राहुल गांधी के प्रति समर्पित हो जायेगा? कहां जायेगा यादव वोट बैंक ?  कहां जायेगा ओबीसी वोट बैंक ? जिसके लिए हर पार्टी की लार टपकती है। अगर ब्राह्मण समाज कांग्रेस के पक्ष में वोट करता है तो क्या मुस्लिम समाज उसी शिद्दत से सामने आ सकेगा। कांग्रेस के कर्णधारों को यह समझना होगा कि पार्टी की मंशा जनता तक न पहुंचे। जनता जो समझ रही है वो है नहीं और जो समझ ही नहीं पा रही वो है। यादवों और ब्राह्मणों की जमीन पर कांग्रेस का यह चुनावी टेंट सपा और बसपा के गरजने बरसने के बावजूद टिका रह पायेगा या हवा के झोंके के साथ शामियाना उड़ जायेगा।
ऋगवेद की तरह सबसे पुरानी पार्टी भले ही है पर सामवेद और अथर्ववेद अगर किसी की पसंद है तो कोई क्या कर सकता है। सम्मान कर देगा पर स्थान नहीं। कांग्रेस की रणनीति में क्या घोड़ा ढाई टांग ही चलेगा। यह प्रशांत किशोर जी ही तय कर सकते हैं। अभी तो सोनिया और प्रियंका उन्हें उनके अनुभव के आधार पर आंक रही हैं। इसी आधार पर ही उन्हें अपने खेमे में लाया गया है। उनकी रणनीति ने बिहार में नीतीश कुमार और केंद्र में मोदी को ताज दिलवाया है। सोनिया गांधी को अपने राजकुमार के लिए ताज चाहिए, जिसकी कीमत कुछ भी हो। सिपाहसलार किशोर जी अपनी तरकश से तीर पर तीर निकाले जा रहे हैं। क्योंकि उन्हें अपने गांडीव पर भरोसा है। पर, समस्या है कि राहुल नकुल सहदेव की तरह हैं युधिष्ठिर, भीम या अर्जुन की तरह नहीं।
कांग्रेस जिस तरह पहले हर बात हर मुद्दे को राहुल के अनुरुप खेलती थी जिससे उनका राजनीतिक दबदबा कायम हो। पर ऐसा हुआ नहीं। हर दांव उल्टा पड़ा। कांग्रेस यूं तो राहुल को ही हर बड़े पोस्ट के लिए प्रोजेक्ट करती रही है। पर, कुछ दहशत की गली से बाहर झांकने का प्रयास तो किये जिससे नजरबंद लोगों की एक झलक जनता को दिखायी तो दी पर कैदी तो कैदी ही होता है और पहरेदार पहरेदार ।

उत्तर प्रदेश का चुनाव तो मात्र ट्रायल मैच है। इसमें जितने भी एक्सपेरिमेंट करने हैं उतने प्रशांत किशोर जी को करने की छूट होगी। लेकिन फाइनल मैच तो 2019 का होगा जिसमें शायद माफी की बटन ही नहीं बनायी गयी हो। इसमें जनता का मूड आने वाले लोकसभा के लिए भांपना और उसे मोल्ड करना है । कांग्रेस के हाथ से उसका सबसे पुराना किला असम निकल चुका है। बाकी पूर्वोत्तर राज्यों को हड़पने की पूरी तैयारी कर रही है भाजपा । ऐसे में परिस्थितियां कठिन हैं। पूरे देश में कांग्रेस की लहर को एक बार फिर उठाना किशोर जी की अहम जिम्मेदारी दिख रही है। राजबब्बर जी जिन्हें उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी गयी है। उनका व्यक्तित्व पार्टी पर कौन सा रंग उड़ेलेगा यह तो देखना पड़ेगा।  आज तक कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सपा -बसपा जैसा अपना दबदबा नहीं बना पायी।  बल्कि उत्तर प्रदेश में भाजपा और बसपा की जोड़ी ने कई अबूझ इतिहास रच डाले । पर, कांग्रेस यहां तीसरे -चौथे पायदान पर रहती है। देश का सबसे बड़ा राज्य पर हूकूमत की मंशा इसबार रेस में किस पायदान तक पहुंचाती है यह दिलचस्प होगा। शीला दीक्षित के दोनों हाथों में लड्डू जरुर रहेगा। कांग्रेस का बेहतर प्रदर्शन उन्हें मुख्यमंत्री का पद देगा और संदीप दीक्षित का भाग्य भी भविष्य के लिए संवर जायेगा। कुछ न हुआ तो टेंट उखाड़ कर कहीं और जाने में देर कितनी लगती है।

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