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Friday 8 April 2016

मस्तानी चुनावी चाल





--सर्वमंगला मिश्रा




चुनाव, देश में एक सेलेब्रेशन की तरह होता है। जिसमें सत्तारुढ़ पार्टियों से लेकर जमी जमायी, मजी मजायी और उभरती पार्टियां अपनी दखलनदाजी करके रणक्षेत्र में आकर महासमुद्र में बूंद की तरह हिस्सा बनने से नहीं चूकती। भाग्य साथ दे दिया तो सूर्य रश्मी पड़ जाती है और वो बूंद सागर में चमक उठती है। राष्ट्रीय स्तर की पार्टियां अपना वर्चस्व बचाने और जमाने में कोई कसर नहीं छोड़ती। थोड़ी सी जुगत और पांच वर्ष का निरंकुश शासनकाल। पर, कई बार कई राज्यों में और केंद्र में भी यह फार्मूला भी मध्यकाल में डंक मार जाता है। जिस तरह उत्तराखण्ड में हाल ही में नौ बागी विधायकों का कारनामा। दो मजबूत दलों की शतरंजी चाल अब सांप और सीढी में तब्दील हो चुकी है।

चुनावी नाव महासमुद्र में हिलोरों के साथ कभी उपर तो कभी नीचे होती चल रही है। ऐसे में अप्रैल–मई का महीना बहुत खास हो चला है। जहां बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पांडुचेरी में चुनावी घमासान मचा है। वहीं 34 साल के शासन को जड़ से उखाड़ फेंकने वाली ममता दीदी का पहले कार्यकाल के बाद यह पहला टेस्ट मैच है जिसमें दीदी की फिल्डिंग नेतृत्व की क्षमता की परख जनता करेगी। साथ ही बैंटिंग कितनी कमाल की दीदी करने वाली है यह भी देखना दिलचस्प रहेगा। ऐसे में कोलकाता में कांग्रेस से छिटककर अपनी अलग पहचान बनाने वाली ममता दीदी जो तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा हैं, अब अगली पारी पांच साल की खेलने में उतनी सक्षम हैं जितनी पहले थीं। कोलकाता में विकास का ढांचा मात्र है। असलियत खोखली है।यह जरुर है कि आज भी महानगरों में शामिल होने के बावजूद कोलकाता दिल्ली और मुम्बई की तरह मंहगा नहीं है। सुविधाओं से लैश है। पर, नयी रणनीति खास कुछ कमाल नहीं कर सकी। आज भी सुस्त बंगाल कुछ इंटरनैश्नल कंपनियों की वजह से अपने में स्फूर्ति का एहसास करा देता है। नया कोलकाता में पहुंचकर मायूसी थोड़ी कम हो जाती है। नये रोजगार बोरोजगारों को कितने मिले और आने वाले समय में पलायन रुकेगा इसकी कोई गारंटी नहीं। वहीं जयललिता –अम्मा का दिमागी खेल उन्हें छठवीं बार सिंहासन पर पदासीन करेगा या कोई नया करिश्मा होगा। उनके जैसी पकड़ और उनके सामने किसी दूसरे के खड़े होने की ताकत तो अम्मा ने सारी जड़े जैसे उखाड़ फेंकी है। ऐसी परिस्थिति में करिश्मा होने के आसार नजर तो नहीं आ रहे।


तमिलनाडु हो या बंगाल, पार्टी रणनीतियां घमासान मचाकर रखती हैं। कोलकाता में फ्लाईओवर का अचानक गिरना, आग लगना, लोगों को मारना सांप्रदायिक सौहार्द्र को ताख पर रखकर पार्टीबाजी करना क्या स्थानीय जनता के साथ न्यायोचित होता है। उधर अगले साल यूपी विधानसभा के चुनाव भी आने वाले हैं। ऐसे में केंद्र सरकार के पास मौका है कि नये राज्यों में अपनी पैठ बनाये तो राज्य सरकार के लिए चुनौती बड़ी बन जाती है अपने घर को बचाने की। सत्ता की शाख फिर से जमाने में जुटी कांग्रेस जहां राहुल गांधी के नेतृत्व को मजबूती देने में कुछ हद तक दिख रही है वहीं उत्तराखंड में हुई राजनीतिक उठा पटख ने ईंट से जुड़ी दीवारों को ढहते देख, हौसले को अविश्वास के मचान पर ला खड़ा कर दिया है।  


मुजफ्फरपुर दंगा कांड, गोधरा और ग्रेटर नोएडा में अखलाख कांड। इसके अलावा फहरिस्त लम्बी है। इन दंगों के बाद राहत देकर एक वर्ग की सहानुभूति लेने में माहिर राजनीतिक पार्टियां सत्ता की चाल बदल कर रख देती हैं। चुनाव के दौरान पार्टियां मुस्तैदी से हर कार्य को अंजाम देती हैं। प्रचार विभाग से लेकर दूसरी पार्टियों में फूट डालने और दूसरे दल के नेताओं को अपने में शामिल करने की गतिविधि भी चलती रहती है।
लोकसभा चुनाव- अंतर्राष्ट्रीय खेल, विधानसभा चुनाव- नैश्नल लेवल, नगर निगम, पंचायत जैसे चुनाव भी कलाबाजी करते हैं। पंचायत और नगर निगम राज्य सरकार के लिए अपनी पैठ मजबूत करने का दरवाजा यहीं से खुलता है। जब घर के लोग आपका साथ नहीं देगें तो बाहरी लोगों से लड़ना मुश्किल हो जाता है। खिलाड़ी पहले घर से खेलना शुरु करता है फिर लोकल लेवल पर जीत हासिल करता है जिससे उसके आत्मविश्वास में मजबूती दिन प्रति दिन आती चली जाती है। फिर राज्य स्तरीय खेलों में पुरस्कृत होकर नैश्नल स्तर पर खिलाड़ी खेलने जाता है और तब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना डंका बजवाने में सक्षम हो पाता है। यही कहानी चुनावों की भी होती है।
हर पार्टी ऐजेंडा बनाने में, रैली करने में, रोड शो, मंच से संबोधन, घर घर जाकर हाथ जोड़ने में व्यस्त हो जाती है। इन सबके अलावा सोशल मीडिया पर अपडेट रहना और समाचार पत्रों और टी वी चैनलों के माध्यम से अपनी बात घर घर पहुंचाना भी नैतिक जिम्मेवारी बन जाती है। समझना यह है कि ये तमाम उहापोह, माथापच्ची किसलिए.. ? जाहिर सी बात है देश की जनता शांतिपूर्ण, सुरक्षित और उन्नतिशील जीवन जी सके। हर चुनाव के बाद सरकार किसी तरह गठित होती है। चाहे गठजोड़ की हो या पूर्णबहुमत वाली एकछत्र सरकार। जनता के हाल में कितना परिवर्तन आ जाता है। एक बार जो पुल बना जीवन भर सरकार आये या जाये आपको नियमित रुप से टोल टैक्स देना ही है। उसके निर्माण पर व्यय किया हुआ धन सरकार द्वारा जनता से वसूल ही नहीं हो पाता। जिसतरह किसान पुश्त दर पुश्त एक ही जमीन पर ली गयी राशि का भुगतान जन्म से मरण तक करता ही रहता था। पर ब्याज चुकता नहीं हो पाता। उसी तरह देश आज इतनी उन्नति कर चुका है। हमारे देश में इतने धनी हैं कि रुपया कालेधन के तौर पर बाहर है। यहां सरकार जतन कर रही है कि धन वापस आये तो देशहित में प्रयोग हो। किसान त्रस्त है कभी सूखे से तो कभी बाढ़ से। अनाज गोदामों में सड़ जाता है पर गरीब को नेवाला नसीब नहीं हो पाता। ऐसा अगर हो गया तो रामराज्य कायम हो जायेगा। विरोधी दल किस मुद्दे को लेकर सरकार पर उंगली उठायेगी। सत्ता का षणयंत्रकारी खेल का मात्र अवशेष रह जायेगा। इसलिए सत्ता का खेल चलते रहने के लिए गरीब को दो वक्त की रोटी नसीब मत होने दो- ये आंतरिक नारा शायद हर नेता का होता है, हर पार्टी का। क्योंकि इनकी समस्या खत्म हो गयी तो किसके लिए लड़गें ये नेता आपस में। दिखावी लड़ाई का रंगमंच समाप्त हो जायेगा।   

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