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Thursday 28 July 2016


बहुजन में अब कितने जन
-सर्वमंगला मिश्रा




1984 में कांशीराम द्वारा स्थापित बहुजन समाज पार्टी उस वर्ग का वकील बनकर सामने आयी जिनका कोई सहारा न था। पिछड़ा, दलित वर्ग जिन्हें समाज ने नकार दिया था, अछूत की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया था। हमारा देश जाति भेदभाव से पूर्णरुप से शायद कभी उपर नहीं उठ पाया। आजादी के पहले भी जब हिन्दू शासक हुआ करते थे तब भी छुआछूत, जाति-पांति आदि समस्याओं से एक वर्ग जूझता था। उसे जीवन की उन कठिनाइयों से गुजरना पड़ता था जिनका वह हकदार नहीं था। इन्हीं कारणों से समाज कुरुप एवं कुपोषित हो गया। फलस्वरुप समाज में असंतोष व्याप्त हो गया और आंतरिक रुप से बंट गया। जिसके उपरांत मुस्लिम शासन और फिर अंग्रेजी सत्ता का आगमन हो गया भारत में। विदेशी हूकूमत की ताकत ने पूरे देश और समाज को ऐसा झकझोरा कि जांति पांति, छुआछूत सब भेदभाव मिट गया और एकजुटता और दृढ़ता का संकल्प समाज में कट्टरपंथी के रुप में जागा। देश आजाद हुआ। फिर देश का विभाजन हुआ । सत्ता और पदलोलुपता ने देश में कहीं न कहीं अलगाववाद को जन्म दिया। इसी अलगाववाद की धारा को पकड़कर बसपा के संस्थापक कांशीराम ने एक नयी क्रांति लाने का बेड़ा उठाया। जिसमें दबे कुचले, बेसहारा, पिछड़ी जाति के लोगों की आवाज बुलंद करने का जिम्मा, इस पार्टी का उद्देश्य बना। हालांकि, 1925 में सी पी आई पार्टी का गठन सभी समुदाय के लोगों को समान दर्जा देने के उद्देश्य से किया गया था । ताकि समाज में एकसमानता का भाव पनप सके । लेकिन समाज की मानसिकता, ऊंच नीच की खाई, बड़े -छोटे की खाई कभी पट नहीं पायी ।

जगजीवन राम जी भी पिछड़े वर्ग से आते थे। पर पूरा देश जानता है कि कितने गणमान्य पदों पर उनका नाम अंकित है। उनकी सुपुत्री मीरा कुमार भी लोकसभा की स्पीकर के पद तक पहुंच चुकी हैं। सीताराम केसरी जिन्होंने कांग्रेस के सर्वोत्तम पद  - कांग्रेस अध्यक्ष- तक पहुंचकर वो तमगा हासिल किया जो बहुत कम लोग कर पाते हैं। केसरी जी कांग्रेस पार्टी में पहले जश्न होने पर ढोल बजाते थे। वहां से वहां तक का सफर बेशक आसान नहीं था पर सफर मुकम्मल रहा । परन्तु, इस समय कोई आरक्षण नामकी चीज नहीं थी समाज में ।

"यूं तो फहरिस्त काफी लम्बी है दासतां ए जंग की। पर जीवन का सबब अंतहीन है कहीं।  "

आज देश में दलितों और  पिछड़ों के नाम पर आरक्षण घोषित है। सरकारी नौकरी से लेकर रेलवे की टिकट बुकिंग तक। शिक्षा से लेकर जीवन यापन तक। पर सवाल यहीं उठता है कि क्या दलितों और पिछड़ों को अपना बतानेवाली पार्टियां समानता लाने में सक्षम हुईं । क्या आज भेदभाव खत्म हो गया। क्या आज ग्रामीण इलाकों में कुम्हार, नाई, धोबी आदि बिरादरी से संबंध रखने वाले लोग पिछड़ेपन की भावना से मुक्त हो चुके हैं। क्या आज ब्राह्मण, क्षत्रिय जैसी उच्च जातियां उन्हें समान दृष्टि से देखने लगी हैं। जातिगत भेदभाव मानसिक रुप से आज भी कहीं न कहीं कायम है। हां, पार्टियों के खुलकर सामने आने से कुछ कागजी रुप से खाई पटी है।
गरीबों और दलितों  की देवी बहन मायावती और तीन बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकीं बहनजी की लड़ाई सदा सर्वदा से सपा पार्टी से ही रही है। लेकिन इस पार्टी ने चुनावी भोज का आनन्द लेने के लिए जिनके खिलाफ हथियार उठाये थे उन्हें ही उच्च पदों पर आसीन कर दिया और अपनी पार्टी के चेहरे का स्वरुप ही बदल डाला। इससे सिर्फ दलितों का वोट न मिलकर ब्राह्मणों का वोट भी बहनजी ने जुगत से हासिल कर लिया। पर, कहते हैं ना -साधु सब दिन होत न एक समाना। समय का स्वरुप क्या होगा यह सिर्फ समय ही तय कर सकता है और कोई नहीं। इस पार्टी ने एक वर्ग समुदाय को एक पहचान दी। एक अलग विकास की बात की। एक नारा लगाया। एक आजादी का सपना दिखाया कि यह पिछड़ा, अतिपिछड़ा वर्ग अब पीछे नहीं रहेगा सबके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलेगा। अपना स्वाभिमान किसी की मिल्कियत के पैमाने पर, सूली पर नहीं चढ़ाएगा। आज उत्तर प्रदेश की जनता की हालत देखिए। क्या परिवर्तन आया उन दलितों के जीवन में। जिनके नाम पर मायावती ने तीन बार मुख्यमंत्री पद की कुर्सी संभाली। क्या आज भी यह वर्ग शोषण का शिकार नहीं होता। बेरोजगारी और भूखमरी से मौत नहीं हो रही या बहनजी के राज में नहीं हुआ।  



आज बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय- के स्थान पर कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी बहुजन दुखाय। पार्टी से निकलने से लेकर बहन मायावती जी पर लोग लांछन लगाने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। कभी स्वामी प्रसाद मौर्य उन पर टिकट बेचने का आरोप लगाते हैं तो कभी बीजेपी के नेता उनपर अभद्र टिप्पणी करते हैं। 2014 के लोकभा चुनाव के दौरान सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने इतने अपशब्दों का प्रयोग किया था बहन मायवती के प्रति और अखिलेश यादव उनके सुपुत्र और मुख्यमंत्री उत्तरप्रदेश ने बुआ कहकर संबोधित किया था। कहने का पर्याय यह है कि आज बहुजन समाज पार्टी की अस्मिता कहां खोती चली जा रही है। पिछले चुनाव में इस पार्टी ने बुरी तरह हार का सामना किया था । 2014 लोकसभा चुनाव बसपा के लिए साख में बट्टा लगाने जैसा रहा।
आखिर बसपा पार्टी जो क्षेत्रिय तौर पर अपना दबदबा रखती थी आज विकटतम परिस्थितियों से जूझ रही है । क्या इसकी वजह मायावती का पार्टी के अंदर हिटलरशाहीपना जिम्मेदार है। कांशी राम जी के जीवित रहने तक पार्टी औंधे मुंह गिरना शुरु कर चुकी थी। पर आज लगता है जैसे बसपा नाम की बूंद अब सीप में, सर्प के फन में या समुद्र में कहां गिरेगा किसीको पता नहीं। पार्टी को एकजुट रखने के लिए मायावती जी को अंदरुनी रणनीति पर विचार करना आवश्यक हो गया है। क्योंकि इसी तरह प्यादे गिरते रहे तो चुनावी रण में सेंध लगाना बहुत आसान हो जायेगा जिससे पार्टी के अस्तित्व पर संकट घिर जायेगा। जो रत्न बचे हैं उन्हें संभालकर मायावती रख लें तो सत्ता भले हाथ न आये पर, अस्तित्व कायम रहेगा । वरना बहुजन में कुछ ही जन रह जायेंगे जो पार्टी के लिए अतिचिंतनीय विषय होगा।

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