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Friday 8 April 2016

रिंग का किंग कौन?





सर्वमंगला मिश्रा 


देश में चुनावों की सरगर्मी एक बार फिर तेज हो रही है। भाजपा जो आज सशक्त रुप से देश को भाजपा शासित राज्यों से जोड़कर नयी राष्ट्रनीति देने के पथ पर अग्रसर है तो वहीं देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस अपने वर्चस्व को नया रुप देने में जुटी है। राहुल गांधी जहां एक आंधी तूफान की तरह इस साल और अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में अपना विजय उद्घोष करने को आतुर दिख रहे हैं। तो वहीं केंद्र सत्ताधारी भाजपा अपने विश्वविजय के रथ को रुकने देना नहीं चाहती है। इसी मद्देनजर चुनाव के दौरान पहले हाथ से फिसला हुआ राज्य जम्मू और कश्मीर में गठजोड़ की सरकार बनायी। तो अब जम्मू- कश्मीर को पहली महिला मुख्यमंत्री भी भाजपा के सहयोग से मिलने जा रही है। दिल्ली से सटा उत्तराखंड जहां कांग्रेस की ताकत को नष्ट करने का फार्मूला भी भाजपा ने निकाल ही लिया। बागी विधायकों ने तेवर दिखाये तो सरकार को शिकस्त का मुंह देखना ही पड़ा और राष्ट्रपति शासन के पत्र पर प्रणव मुखर्जी जी ने अपने हस्ताक्षर करके इस पर मुहर लगायी। अब ऐसी परिस्थिति में यदि भाजपा अभी से दो या तीन महीने बाद भी नयी रणनीति के साथ सरकार बनाने की पेशकश करती है तो देश के समक्ष भाजपा की देश विरोधी समकक्ष छवि प्रस्तुत होगी। ऐसे में फ्रेश मैन्डेट के लिए जनता के पास जाने से अच्छा विकल्प शायद मस्तिष्क में नहीं कौंध रहा होगा। उधर कांग्रेस के हाथ भी बटेर लग गया है। हरीश रावत सरकार ने भले पांच साल पूरे नहीं कर पायी पर अब मजबूत कड़ी पकड़ ली है- जनता को लुभाने के लिए। कांग्रेस के हाथ झुनझुना लग गया है। भाजपा का रचा षडयंत्र, जनता को समय से पहले ही संकट में डाल दिया है।    
राज्य का विकास देश की आर्थिक सुदृढता एवं उन्नति के पायदान के रुप में देखा जाता है। आज केंद्र में भाजपा की सरकार है तो जाहिर सी बात है सत्ता केंद्र में उसी पार्टी की बनती और टिकती है जिसकी सेना अधिक मात्रा में होती है। आज राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, झारखण्ड, ओडीशा, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों को मिलाकर देश की सत्ता पर भाजपा काबिज़ है। विरोधी दल के रुप में जकड़ी कांग्रेस के हाथ से एक और राज्य निकल गया। हरीश रावत सरकार उत्तराखंड की जमीन पर अपना कार्यकाल पूरा करने में असमर्थ रही। 28 मार्च को विधानसभा में फ्लोर टेस्ट से मात्र एक दिन पहले राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। सरकार ऐसी परिस्थिति में न्यायालय में गुहार भी लगायी। हरीश रावत की सरकार ने विकास कितना किया यह तो आंकलन का विषय है। गैरसैंड, अवैध खनन, अवैध कन्स्ट्रकशन जैसे मुद्दे विरोधी दल हमेशा से उठाता रहा है। पहाड़ों पर अवैध निर्माण हमेशा से पर्यावरण के लिए खतरा बना रहा।
सवाल उठता है कि आखिर कांग्रेस जहां अपने उत्थान के लिए नये नये विकल्प ढूंढ रही है वहीं पार्टी की नीतियों के प्रति असचेत है। जिसके कारण कांग्रेसी नेता दिन पर दिन बागी होते चले जा रहे हैं। ये बात अलग है कि प्रतिशोध की भावना अमूमन प्रत्येक पार्टी में रहती है। विभिन्न पदों को लेकर भिन्न भिन्न मुद्दों पर वैचारिक मतभेद रहते हैं। पर, कांग्रेस सबसे पुरानी पार्टी होकर भी अब सिकुड़ती चली जा रही है। अंतर इतना बढ़ता चला जा रहा है कि इंदिरा गांधी का समय और सोनिया राहुल का समय में जमीन –आसमान का अंतर आ चुका है। वैचारिक दृढ़ता अब तानाशाही की जंजीर तोड़ चुकी है। समस्याओं से जूझ रहा देश किस कड़ी को मजबूती से पकड़े। इसी विषय पर गंभीरता की पकड़ ढीली सी हो गयी है। सरकार को विचलित कर देने की परंपरा टूट ही नहीं पाती। बागी नेता यह विचार ही नहीं कर पाते कि जिस जनता ने उन्हें चुना है उनपर ही सरकार गिराकर राज्य के विकास में बड़ा रोड़ा साबित हो रहे हैं। स्टिंग विडियो के जरिये जो हरीश रावत जी का चेहरा सामने आया वो भी जनता को अचंभित कर देने वाला रहा या नहीं क्योंकि अब जनता ऐसी चीजों को देखने की आदि सी हो चुकी है। विकल्प में विकल्प तलाश करना मजबूरी सी बन गयी है देश की जनता के लिए।
इस साल जहां पं बंगाल, असम जैसे राज्यों में चुनावों की तारीख निर्धारित हो चुकी है। वहीं अगले साल उत्तर प्रदेश जो देश की सबसे बड़ी विधानसभा है उसका चुनाव भी कांग्रेस और भाजपा के लिए गले की हड्डी समान है। ऐसे में जनता किसका कहां कितना पक्ष लेगी, यह कहना मुश्किल होगा। पर इतना अवश्य है कि फंसती तो जनता ही है। अगर नोटा का भी प्रयोग करती है तो विकल्प क्या है। फिर से चुनाव राज्य अथवा देश पर आर्थिक दबाव और उसी सर्कल से ही प्रत्याशी उत्पन्न होते हैं। तत्पश्चात जनता भी परेशान होकर विकल्प में से एक विकल्प चुन लेती है और फिर कुछ अंतराल बाद हौर्स ट्रेडिंग जैसे मामलों पर हक्की बक्की सी रह जाती है। जनता अपने विकास में हर बार सेंध खुद ही लगाती है अपने गलत निर्णय के द्वारा। विकास अधूरा रह जाता है। समस्याएं जस की तस खड़ी रह जाती हैं।




अब जब उत्तराखंड की राजनीति ने सागर सी राजनीति में पेट्रोल का काम किया है। वहीं शतरंज की बाजी कांग्रेस और भाजपा में चरम पर पहुंच गयी है। देखना होगा कि राहुल गांधी इस खेल में खुद मुकाबला करेंगे या मैडम सोनिया गांधी इसे अपने वर्चस्व की लड़ाई मानकर पर्दे के पीछे से लड़ना पसंद करेंगी। मोदी ने जहां अपनी चाल चल दी है वहीं कांग्रेस गहन मुद्रा में चिंता करके ही अपनी अगली चाल चलेगी। 6 महीने तक के लिए राष्ट्रपति शासन तय है या नहीं या पार्टियां जनता से ही फैसले की मांग करना उचित समझेंगी। चुनाव 6 महीने बाद हो या 9 महीने बाद उत्तराखंड की जनता किस आधार पर वोट करेगी। क्या उन नौ बागी विधायकों के प्रति स्थानीय जनता की निष्ठा सवाल के रुप में परिणित नहीं हो जायेगी। जो अपने स्वार्थसिद्धि के लिए राज्य में संकट की घड़ी पैदा कर सकते हैं। उनका भरोसा शेषमात्र बचता है जनता के मस्तिष्क में। 

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