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Monday 18 July 2016

कांग्रेस के दो तीर

सर्वमंगला मिश्रा

कांग्रेस पार्टी स्वतंत्रता से पहले से जंग लड़ रही है। कभी देश की आजादी के लिए तो कभी अपने वर्चस्व के लिए। पहले सिर्फ एक मकसद था अंग्रेजों से आजादी। देशहित परमोधर्मम्। पर आज आज देश बदल चुका है। धारणाओं से लेकर आशायें और उम्मीदों से लेकर मकसद, सब बदल चुका है। पार्टी जहां इकलौती शान हुआ करती थी। वहीं, आज अपना खोया वजूद तलाश कर रही है। जिसके लिए साम दाम दंड भेद सब अपनाने से पीछे नहीं हट रही। ऐसे में प्रशांत किशोर जीपार्टी के लिए द्रोणाचार्य की तरह साबित हो सकते हैं। जिन्हें यह पता है कि युधिष्ठिर कौन है, भीम कौन है और अर्जुन से कैसे निशाना लगवाना है। उनकी  बुद्धिजीविता कांग्रेस के कितने काम आयेगी, यह तो वक्त ही बता सकता है या उत्तर प्रदेश का चुनावी परिणाम। प्रशांत किशोर जी अव्वल दर्जे के बुद्धिजीवी के रुप में देखे जा रहे हैं। उनके पास मोदी प्रशांत किशोर जी ने अपने तरकश से पहला तीर निकाला और अफवाह हवा में तैरने लगी कि राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के सी एम कैंडिडेट होंगे। आकाश में बादल उमड़ने घुमड़ने लगे। जनता में कौतुहल पैदा कर नयी चाल चली और शीला दीक्षित को आगे कर सबके मुंह पर ताला लगाने का प्रयास किया। पर, जुबान तो जुबान है न जानता की और न किसी पार्टी की रुकती ही नहीं। शीला दीक्षित का अनुभव भी यू पी के सामने बौना सा माना जा रहा है। शीला दीक्षित का अनुभव तो कहीं न कहीं पार्टी को कुछ राहत दे सकेगा पर अभिनेता राजबब्बर कांग्रेस पार्टी में ऐसा कौन सा अध्याय जोड़ेगें यह सोचनीय है। राजबब्बर जी की रणनीति कांग्रेस को किस पायदान पर ले जायेगी यह तो प्रशांत किशोर जी भी शायद नहीं सोचे होंगे। आलाकमान की सहमति पर भी सवाल सा खड़ा नजर आता है।



शीला दीक्षित की राह पहले भी इतनी आसान नहीं रही। दिल्ली में तीन दशक राज करना कोई करिश्मा से कम नहीं था। शीला दीक्षित का चेहरा जहां कांग्रेस को सुदृढ़ता, परिपक्वता और आदर्शवादिता की झलक पेश करता है। जिससे बहुतायत तो नहीं पर हां कुछ प्रतिशत लोग अवश्य द्रवित हो सकेंगे। पर, राजबब्बर जी की झलक से कितने प्रतिबिंब यथार्थ रुप में परिवर्तित होंगे, इसमें आशंका की झलक उनके भाषणों में ही देखी जा सकती है। भले ही राजबब्बर जी अपना पूरा दम खम लगा दें पर, यूपी की जनता को याद है कि राजबब्बर जी भी कभी सपा में हुआ करते थे और सपा में उनका योगदान क्या रहा। कांग्रेस पार्टी में ऐसे बहुत से चेहरे अभी भी हैं जो जनता और पार्टी में जोश भर सकते थे। पर, वो अभी भी पीछे हैं। प्रियंका गांधी, पार्टी की मांग, देश की मांग, हर दिल में इंदिरा छवि लिए , पार्टी की रीढ़ की हड्डी को पता नहीं पीछे रखने की राजनीति क्या है। शायद, प्रशांत किशोर जी उन्हें तब उतारें जब चुनाव चरम पर होंगे। हालांकि प्रियंका का चुनाव प्रचार आजतक कभी खाली नहीं गया। उनके शब्द उनके भाव जनता के दिलोदिमाग में पहुंचते हैं। जनता के भावों को समझती हैं प्रियंका। उनकी भावना को एक आस की उड़ान तो कुछ पलों के लिए दे देती हैं पर पार्टी हर बार धोखा ही दे जाती है जिससे जनता में प्रियंका भी कहीं न कहीं दबती सी जा रही हैं।


सोनिया गांधी जो 2004 में साध्वी समान दिख रही थीं। अब वो छवि धुंधली सी हो चुकी है। अब पार्टी को यूपी में अपनी जगह बनाने के लिए नये चेहरे के साथ साथ नयी सोच की भी जरुरत है। नयी पहल ही नया करिश्मा कर सकती है। ऐसे में पुराने चेहरे कितने कारगर साबित होगें यह कहना मुश्किल है। चेहरों पर लगी छाप, जनता में नये जोश की जगह एक असंतोष की भावना ही पनपती है। सरकार की असक्षमता विरोधियों को मजबूत करती है तो आह्वाहन भी करती है अपनी भूमि पर पनपने देने का। ऐसे में जहां दो दिग्गज अपने पैर जमा चुके हों। वहां तीसरी और चौथी चुनौती सशक्त रुप से पनपती तो है पर बिहार में हुए विधानसभा चुनाव बड़ा उदाहरण है जहां गैर जमीनी लोगों को वहां की जनता ने उखाड़ फेंका था। भले वो नैश्नल पार्टियां ही क्यों न हों या केंद्र में चल रही सरकार ।


परिस्थितियां अनुकूल हों या प्रतिकूल जंग ए मैदान में उतरे हैं तो पीछे हट नहीं सकते। ऐसे में कांग्रेस ने तीर निशाने पर लगाने के लिए एक सेनापति और दूसरा फौजी को उतारकर भीड़ को बहलाने के साथ जनता की नब्ज टटोलने का काम किया है। यूं तो प्रशांत किशोर ने अपने तरकश के दो ही तीर निकालें हैं पर, अभी ब्रह्मास्त्र को संभाल कर रखा है। सही वक्त पर, अंतिम क्षणों में उसका उपयोग कर पार्टी को लगता है कि उसकी नैया पार लग ही जायेगी।




















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