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Saturday, 19 December 2015

महाचिंतन 



सर्वमंगला मिश्रा
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भाजपा ने चुनावी युद्धभूमि में जो ललकार लगायी थी, जिससे विरोधियों के रोंगटे खड़े हो गये थे। हर कोई एक कोना ढूंढ़ता था अपने छिपने के लिए। ललकार, जिससे विरोधियों के हौसले पस्त हो गये थे। समय कभी एक सा नहीं रहता। मोदी के भाषण के कद्रदान आज भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी हो चुके हैं। मंत्रमुग्ध कर देने वाला भाषण अटलबिहारी के बाद, मोदी ही दूसरे स्थान पर आते हैं। गुरु गुड़ पर चेला चीनी की कहावत यहां सही बैठती है। अटल आडवाणी को पीछे छोड़ते हुए मोदी आज लोकप्रियता की दृष्टि से आगे बढ़ते चले जा रहे हैं। जिस जोश के साथ मोदी का भाषण शुरु होता है उससे भी ज्यादा लोग भावविभोर होकर अमेरिका से लेकर सिंगापुर-जापान तक सब सुनते हैं। पर सवाल उठता है कि इन मनभावन, लोकलुभावन भाषणों का अस्तित्व कितना ठोस या खोखला है। लोकसभा चुनाव से लेकर अब तक राजस्थान, मध्य प्रदेश, पंजाब, जम्मू कश्मीर और बिहार हर स्थान पर मोदी स्वयं को ही ब्रांड अम्बेस्डर बनाये और चुनाव का खूब जमकर प्रचार प्रसार किया। खूब भीड़ जुटी पश्चिम से पूर्व तक। पर रिजल्ट क्या रहा। मध्य प्रदेश से लेकर बिहार तक अमित शाह जी खूब गरजे। लेकिन बादल गरज कर बरस नहीं पाये। काले बादलों ने डराया खूब, पर, बारिश की बौछार में कमी रह गयी। आज मोदी जी की पंक्तियों पर टिप्पणी करने का साहस किसी में नहीं। मोदी विदेशों में रह रहे भारतीयों को भारत में निवेश करने के सुगम मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। जिससे देश की आर्थिक उन्नति में भागीदारी हर कोने से बढ़े। कितना निवेश होगा यह तो भविष्य निर्धारित करेगा।
भाजपा लोकसभा चुनाव के दौरान सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी तो मोदी सबसे बड़े जननायक। चिंता का विषय यहां यह नहीं, बल्कि जननायक पार्टी से ज्यादा ऊंचा हो रहा है। किसी भी दल या देश से ऊंचा कोई व्यक्ति विशेष नहीं हो सकता। दल की नीतियां ही उस व्यक्ति की पहले पहचान होती है। फिर, उस व्यक्ति की नीतियां दल के रुप में समझी जाती हैं। आज मोदी का दृष्टिकोण भाजपा का दृष्टिकोण समझा जा रहा है। हर हार के बाद मोदी महानायक की तरह नये जोश के साथ उठ खड़े होते हैं और पुरानी विरदावली सुनाकर जनता को रिझाने में एड़ी-चोटी का जोर लगा देते हैं। जनता ने बिहार चुनाव में मोदी के रुप में भाजपा को दरकिनार कर दिया। केंद्र की सत्ता को नकार दिया। केंद्र की सरकार की छाया उसे मंजूर नहीं हुई। उसे बाहरी और बिहारी में फर्क लगा। वादों और बातों में जमीन आसमान नप गया। नतीजा हंस के देखना पड़े या खामोशी की चिंता में –उसमें परिवर्तन नहीं होता है। वक्त- अब ठहराव का आ चुका है भाजपा के कैरियर में, मोदी के लीडरशीप में। जहां चिंतन की आवश्यकता जोर पकड़ने लगी है।
भाजपा की नीतियां सही हैं या गलत। अब इसका फैसला करने की घड़ी आ चुकी है। मोदी ने जो लोकसभा चुनावों के दौरान सब्जबाग दिखाये थे वो मृगमरीचिका ही रहेंगे या कभी आकाशगंगा धरती पर अवतरित भी होगी। कांग्रेस का परिवारवाद पार्टी को आज हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया। तो भाजपा की तानाशाह व्यवस्था ने लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया है। कांग्रेस अपनी विफलता के उपरांत चिंतन शिविर जरुर लगाती है। भले चिंतक चिंतन करें या ना करें। एक समारोह अवश्य होता है जहां राहुल बाबा के लिए आगे की रणनीति पर चिंतन होता है कि अब राहुल बाबा को कौन सी जिम्मेदारी दी जाय कि नैया पार लग जाय।
चिंतक और चिंतन एक सिक्के के दो पहलू हैं। देश का भविष्य परिवारवाद और व्यक्ति विशेष से उपर उठकर होना चाहिए। आज सोनिया गांधी इसलिए हर जद्दोजहद से जूझ रही हैं क्योंकि उन्हें अपने पुत्र को राजगद्दी पर बैठाने का सपना पूरा करना है। मोदी, जो एक अति सामान्य परिवार से संबंध रखते हैं, योग्यता के बल पर आज देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर अपनी दावेदारी ठोंकी। जनता ने एक उद्घोष के साथ उस योग्यता को स्थान दिया। पर, जनता का एक पक्ष अपनी विचारधारा को बदल देना चाहता है। उसे अब एहसास होने लगा है कि भावावेश में उसने फैसला लिया पर विकल्प भी उसके समक्ष दूसरा उपलब्ध न था। ऐसे में अब महागठबंधन जनता के सामने नए विकल्प के रुप में उभर रहे हैं। दो बड़े राज्यों के चुनाव सामने हैं- बंगाल और उत्तर प्रदेश। बंगाल जहां भाजपा की स्थिति प्रारंभ से लेकर अबतक दयनीय रही है और उत्तरप्रदेश जहां सपा और बसपा का सी-सा का खेल चलता रहता है। वर्तमान परिस्थिति तो भाजपा को संकट के बादल इंगित कर रही है। खोखले भाषणों पर पांच साल का कार्यकाल तो चल जायेगा क्योंकि सरकार पूर्ण बहुमत में है गिरने के खतरे से कोषों दूर। पर, इसी रवैये के साथ क्या 2019 का चुनाव भी भाजपा पूर्णबहुमत लाने में सफल हो पायेगी।    
अखिलेश की सरकार


सर्वमंगला मिश्रा


सत्ता विरासत में मिल तो सकती है पर, बुद्धिजीविता नहीं। सपा प्रमुख मुखिया मुलायम सिंह यादव ने विरासत के तौर पर जब अखिलेश को सत्ता देनी चाही तो गाड़ी से अनमने रुप में उतर कर ठीक से वोट न मांग पाने वाले अखिलेश हार गये थे। वहीं दूसरी बार अखिलेश का टोन मीडिया और मतदाताओं के प्रति बदल चुका था। अब अखिलेश यादव पांच साल अपनी सरकार के पूरे करने वाले हैं। साथ ही विधानसभा चुनाव आ रहे हैं। जिसकी तैयारी में अखिलेश यादव की पूरी टीम जुट चुकी है। अब उत्तर प्रदेश सरकार के द्वारा हायर की गयी कंपनियां रेडियो, टी वी, सोशल साइट्स के जरिये अखिलेश सरकार के कामों का विवरण दे रही हैं। रेडियो पर सरकार के बनने वाले प्रोजेक्ट्स से लेकर आधुनिक तंत्रों से लैस पुलिस अब सफल रुप से उत्तर प्रदेश की जनता की रक्षा करने में समर्थ है। ऐसा जनता जनार्दन को बताया जा रहा है। सत्ता का सुख और लत दोनों की आदत जिसे एक बार लग जाय तो मोहभंग होना दुश्वार है।
अखिलेश युवा वर्ग के राजनेता है। उनके सोचने और काम करने का ढंग आज की युवा पीढ़ी की तरह है। पर, सच्चाई कितनी है। अखिलेश ने सरकार चलायी या उनके पिताजी मुलायम सिंह यादव ने या आज़म खान ने। सुव्यवस्थित और सुनियोजित ढ़ंग से काम करने के लिए सलाहकारों का होना अनिवार्य है। पर अखिलेश सरकार पर पूर्ण नियंत्रण तो सपा सुप्रीमो का ही रहा। अखिलेश मात्र मुखौटा समान, परिवर्तन का नाम है। बदांयू मामले से लेकर शायद ही कोई जिला बचा हो जहां क्राइम की वारदात न हुई हो। सवाल यह नहीं है कि सरकार के रहते क्यों हो रहा है। बल्कि सवाल यह है कि कोई ठोस कदम सरकार की ओर से क्यों नहीं उठाया गया। कड़े नियमों का प्रावधान क्यों नहीं लाया गया। जिससे राज्य में रह रहे लोग अखिलेश की सरकार के तहत स्वयं को सुरक्षित महसूस करें।

आजकल रेड़ियो पर नीलेस मिश्रा अपनी छोटी छोटी कहानियों के जरिये सरकार के काम और उस स्थान की प्रसिद्धि के कारण को दिखाते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को प्रमोट कर रहे हैं। उसका टाइटल ही है यूपी की कहानियां। इसी तरह हर रेडियो स्टेशन पर अलग अलग तरह के विज्ञापन आजकल सुने जा सकते हैं। तात्पर्य यह है कहने का कि काम करके नहीं विज्ञापन के जरिये दिखाया जा रहा है जनता को। जिससे जनता आपके रिपोर्ट कार्ड का आंकलन करने में समर्थ हो पायेगी। अखिलेश युवा नेता हैं तो क्या जनता इतनी बूढ़ी है कि उसे अपने काम दिखाने के लिए करोड़ो रुपये सरकार विज्ञापन पर फूंक रही है। यह बात अलग है कि एक इंडस्ट्री को लाभ पहुंचता है। देश उन्नति करता है। पर नजरिया और नियत में बदलाव आवश्यक है। इसी बजट का आधा हिस्सा प्रजेक्ट्स को सही रुप से प्रोजेक्ट करने में अखिलेश सरकार विचार करती तो उत्तर प्रदेश का चेहरा ही बदल जाता। यूपी, महाराष्ट्र, बिहार, गुजरात या राजस्थान, नेतागण मात्र विवादित बयान देकर ही स्वयं को प्रमोट करने के उद्देश्य से मीडिया पर अपनी छवि बनाने में लगे रहते हैं। जिससे देश और गणमान्य नागरिकों से लेकर जन साधारण तक का दिमाग व्यर्थ की उलझनों में उलझ कर रह जाये। सर्व साधारण से जुड़े अहम मसलों पर कितनी सरकारें ध्यान केंद्रित कर पाती हैं। मात्र सपा सुप्रीमो मलायम सिंह यादव के स्टेज पर यूपी के सीएम और अपने पुत्र से यह पूछना कि बताओ सरकार ने अब तक यह काम क्यों नहीं किया और दूसरे काम को करने के लिए सरकार क्या कर रही है। जनता को क्या ज्ञात नहीं कि लोग नेहरु परिवार पर जो तंच कस रहे हैं पर वहीं मुलायम का परिवार उत्तर प्रदेश में तो बिहार में लालू का परिवार अपनी जड़ों को राजनीति की जमीन पर मजबूत कर रहा है। इलेक्शन के समय प्रमोशन करके अपनी सरकार को बेहतर बनाना पर कार्यशैली वही परंपरागत रखना कितना न्यायोचित है। एक ओर कांग्रेस को ढाल बनाकर देश में डंका पीटना कि यह परिवार सालों से राज कर रहा है देश पर। वहीं दूसरे परिवारों को शह देना कितना तर्कसंगत है। जनता का पैसा एक ही परिवार में भिन्न भिन्न तरीकों से शाही कोष के स्थान पर अपने घर की तिजोरी भरे। इससे बड़ा लोकतंत्र का उपहास और क्या हो सकता है।
मसला यह भी है कि सरकार हार गयी तो क्या करेगी। जाहिर सी बात है विपक्ष में बैठेगी। पर, काम चल निकला है तो चलते रहना चाहिए। हर व्यापार का उसूल होता है। अखिलेश-डिम्पल, डिम्पल की देवरानी और मुलायम के एक और बेटे हैं जिनके लिए सपा सुप्रीमो ने सीट छोड़ दी। इसके अलावा कुछ और लोगों को यथोचित स्थान पर सेट करना होगा। तो दम खम लगाकर जीतना है। यह अखिलेश सरकार का खुद से वादा है।

Saturday, 5 December 2015

मन की बात


सर्वमंगला मिश्रा
9717827056


मन – वो घोड़ा है जो किसी भी इंसान तो क्या देवता के वश में भी नहीं रह पाता। मन की छलांग हर सीमा से परे होती है। मन अद्वितीय सिंहासन का मालिक होता है। जो स्वंय अपना राजा और स्वयं की प्रजा होता है। मन अकस्मात जन्म लेता है और अचानक अदृश्य हो जाता है। हर संघर्ष से परे, हर बंधन से मुक्त, उन्मुक्त आकाश और सागर के समान अनगिनत लहरों वाला होता है मन। मन को समझना यानी अज्ञात किरणों को पढना। मन की तमाम गतिविधियों पर नजर रखने वालों ने यहां तक कह दिया कि जिसने अपने मन पर कंट्रोल कर लिया दुनिया उसके कदमों में।
आजकल हर किसी की जुबान पर मन की बात सुनायी देती है। यूं तो मन की बात हर किसी से नहीं की जाती। पर, मन की बात अगर कोई सुनने वाला हो तो, दिल हल्का जरुर हो जाता है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी विगत कई महीनों से मन की बात रेडियो के जरिये करते हैं। आकाशवाणी के जरिये प्रधानमंत्री जी अपने मन की बात कभी स्कूल के बच्चों से, कभी किसानों से, कभी युवाओं से तो कभी लोगों की राय भी जानना चाहते हैं। हाल ही में देश के कई हिस्सों में हमारे देश के अन्नदाताओं ने सूखा पड़ने और फसल नष्ट होने के कारण कर्ज के दबाव में आत्महत्या का रास्ता अपनाया। तब प्रधानमंत्री ने किसान बिरादरी से अपील की कि वो ऐसे कदम ना उठायें। जिससे कहीं न कहीं एक ढांढस सा जरुर बढ़ा, एक राहत, एक आस जरुर बनी कि देश का संचालक आपके साथ कहीं न कहीं खड़ा है। आत्महत्याओं का सिलसिला भले न थमा हो पर विचार जरुर पनपा कि किसानों की समस्या उन तक सीमित नहीं है बल्कि पूरा देश जान रहा है और देश को चलाने वाले की नजर भी उन समस्याओं पर है। विदर्भ के कई इलाकों से लेकर मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश के कई जिलों में किसानों की स्थिति आज भी दयनीय है। प्रधानमंत्री ने शिक्षक दिवस जैसे महत्वपूर्ण दिन को बच्चों से बात कर अपने जीवन के महान शिक्षकों के योगदान को याद किया। देश के प्रति समर्पित लोगों की कहानियां बच्चों के साथ शेयर की ताकि बच्चे उन महान विभूतियों को भूलें नहीं बल्कि याद रखें और उनके दिखाये ये मार्ग को अपने जीवन में उतारें। यही नहीं मार्च- अप्रैल में हुई बोर्ड परीक्षाओं के मद्देनजर बच्चों के सामने अपनी बात रखी। उनका हौसला बढ़ाया। इसके अलावा स्वच्छता अभियान को लेकर भी नरेंद्र मोदी ने देश की जनता के सामने अपने मन की बात की। लोगों से सफाई से रहने और सफाई करने की गुजारिश की। जिसका नतीजा हाल ही में मुम्बई के एक स्टेशन को साफ करने के लिए कालेज के बच्चों ने एकजुट होकर पूरे मटुंगा स्टेशन को चकाचक बना डाला।
रेडियो एक अचूक माध्यम है अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने का। इसमें दिल की बात जुबान से निकलकर दिमाग में तुरंत घर कर जाती है। समाचार पत्रों के बाद रेडियो ही संपर्क साधन बना। उसके बाद टी वी का जन्म हुआ। पहले विविध भारती के प्रोग्राम लोग रेडियो पर सुनते थे। मनोरंजन का एक मात्र साधन यही था। ज्ञानवर्धक प्रोग्राम से लेकर संगीत अथवा हास्य सभी को जनता तक पहुंचाने का रेडियो ही माध्यम हुआ करता था। अमीन सायानी जैसे संचालक श्रोताओं का मन मोह लेते थे और आवाज का जादू आज तक बरकारार है। उस समय भी गांव- गांव में रेडियो पर समाचार सुनकर लोग खबरों से अवगत हुआ करते थे। धीरे धीरे चलन बदला और कान की जगह आंख ने ले ली। लोगों को सुनने की जगह जब चीजें आंखों के सामने आ गयीं। फेसबुक कमाल है पर वाट्सअप ज्यादा करीबी बन चुका है। इसी तरह रेडियो की जगह टीवी ने ले ली। पर सुधारकों और व्यापारियों ने रेडियो में फिर जान फूंकने की जुगत लगायी और 21वीं सदी में कई शहरों में ताबड़तोड़ लोकल और नैश्नल लेवल पर रेडियो को नये फार्मेट में पेश किया जाने लगा। रेडियो मिर्ची, 92.7, 93.5 104.8 आदि आज की तारीख में बेतहाशा बिजनस कर रहे हैं। अब यह भी एक सेक्टर बन गया है। खबरों के अलावा या कोई महत्तवपूर्ण सूचना छोड़ यह इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि देश का प्रधानमंत्री रेडियो का उपयोग जनता से जुड़ने के लिए कर रहा है। इससे सौहार्द्र का सूर्य निकलेगा या नहीं, यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। उम्मीद की किरण, चाय की चुस्की और रेडियो पर दिमाग की निगाह ने टकटकी लगानी शुरु तो कर दी है। पर यह कहना अभी मुश्किल है कि मोदी जी की बात तबाही से बर्बाद किसानों के दिलों में कितनी घर कर पायी। देश की दशा और दिशा कितनी सुदृढ़ हो रही है यह मन की बात में पूर्णतया स्पष्ट तो नहीं हो पा रहा है। पर, केंद्र के कार्यकलापों की जानकारी स्वंय प्रधानमंत्री देने के लिए सामने जरुर खड़े होने का दम दिखा रहे हैं।
मन की बात करना जरुरी है। इससे शासक की  महत्तवाकांक्षा, देश के प्रति उसकी भावना प्रतिबिंबित होती है। आज गरीब की थाली से दाल गायब हो गयी है। प्याज के पकौड़े तो दूर, सूखी रोटी के साथ प्याज भी गरीब के नसीब से कोसों दूर हो चुका है। क्योंकि प्याज और दाल अब अमीरों की थाली में ही दिखता है। गरीब को नीतियां समझ नहीं आती। जब उसका बच्चा भूख से तड़पता है तो उसे रोटी समझ आती है। मन की बात का असर हवा हो जाता है। वहीं मध्यम वर्ग देश के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहता है। कुछ दिन सब्र कर लेता है, क्योंकि उसकी रोजी रोटी चलती रहती है। उसके घर में भूख का अकाल नहीं पड़ता। आज राजनीति इस कदर राजनीतिज्ञों पर हावी हो चुकी है कि हकीकत और जमीनी हकीकत में एक खाई  खिंच गयी है। आज विरोधी दल हो या शासक पक्ष सभी एक होड़ में व्यस्त हैं। जनता से शासक है पर शासक इस हकीकत से छुपने की लाजवाब चेष्टा करता है।
आज, मोदी सरकार को एक साल से ज्यादा समय बीत चुका है। जनता की अपेक्षा बहुत है इस सरकार से। 24 कैरेट का सोना यह सरकार है या नहीं, यह बात मोदी जी पर ही पूर्णतया निर्भर है। रेडियो पर इतनी अपील और विज्ञापन संदेशों के बावजूद आज भी देश की जनता का बड़ा हिस्सा अपने रोजमर्रा के जीवन में सफाई के तौर तरीके सही मायने में नहीं अपना पाया है। बुद्धिजीवी वर्ग इस अभियान को एक नयी शुरुआत के तौर पर देख रहा है। उनका मानना है कि लोगों में ऐसी चेतना को जागृत करना भी एक अनूठी पहल है। देश के शासक जहां बड़ी –बड़ी नीतियों और सुधारों की बात करते नहीं थकते थे वहीं मोदी ने छोटी –छोटी बातों पर पहल कर पूरे देश की जनता का ध्यान आकृष्ट किया है। जिससे युवा पीढ़ी इन बातों को तवज्जो देगी और अपने जीवन में ढालने का विचार अवश्य पनपेगा। जिससे आने वाले समय में एक नयी विचारधारा का विकास बड़े पैमाने पर होगा।
रविवार, सुबह ठीक 11 बजे हर गांव, हर मुहल्ला, हर गली, अमूमन हर घर और शहरों में मोदी को चाहने वाला वर्ग और विपक्षी वर्ग रेडियो ट्यून कर बैठ जाते हैं। मोदी जी अपने मन की बात तो कह देते हैं। सरकार की गंभीरता, सतर्कता और भविष्य में होनेवाली गतिविधियों से भी अवगत कराने की कोशिश करते हैं। पर, सवाल उठता है कि प्रधानमंत्री और विभिन्न विभाग कितने सतर्क हैं या योजनाएं कितनी पुख्ता हैं ऐसी गंभीर परिस्थितियों से निबटने के लिए। हर साल बाढ़ या सूखा किसी न किसी राज्य में बांहें पसारे खड़ा हो जाता है। राज्य सरकार विवश, लाचार पंगु की तरह खड़ी हो जाती है और केंद्र सरकार से राहत राशि मांगने लगती है। मन की बात करना अच्छी पहल है। पर बातों से नेतागण कबतक जनता को उलझा सकेंगे। रणनीति राजनीति से कब अलग होगी जिससे किसान अपने उपजाये दाने से अपने परिवार के पेट की आग बुझाने में कामयाब हो पायेगा। मन की बात केवल चाय पर चर्चा बनकर ना रह जाय। इसके लिए केंद्र सरकार को अपनी नीतियों के द्वारा कथनी और करनी में समानता लानी होगी। जब बदहाल वर्ग मजबूत होगा। महिलाओं को नाम का सशक्तिकरण नहीं बल्कि, उचित सम्मान और न्याय मिलना शुरु होगा। तभी रेडियो पर मन की बात का असली असर होगा।
कांग्रेस का कांफिडेंस



सर्वमंगला मिश्रा
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बिहार में जीत हुई जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस की। पर सबसे ज्यादा आत्मविश्वास का खुमार कांग्रेस पार्टी में कुछ हद तक तो राहुल गांधी में अधिकतम मात्रा में नजर आ रहा है। राहुल गांधी को खुद से इतनी उम्मीदें बढ़ गयी हैं कि वो उत्तर प्रदेश में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव अकेले दम पर लड़ना चाहते हैं। उन्हें शायद इस बात का अंदाजा भी नहीं है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सबसे कमजोर कड़ी है। असम, अरुणांचल जैसे उत्तर-पूर्वी  भारत में शाख सालों से बनी है। साथ ही भारत के अन्य राज्यों में सांप –सीढी का खेल चलता रहता है। यह वही कांग्रेस पार्टी है जिसकी सत्ता एक समय पूरे देश में हुआ करती थी। धीरे धीरे जनता के अधिकार बढ़ते गये और कांग्रेस का आंचल सिमटता गया। पर एक वक्त आया जब देश में कांग्रेस का नेतृत्व जी खोलकर जनता के दिल में हिलोरें मारने लगा था। वो वक्त था राजीव गांधी का- यानी सन् 1987-89 का। पर 1991 में राजीव गांधी की मौत ने जहां पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। वहीं दूसरे नेतृत्वकर्ताओं ने बागडोर संभालने में देर नहीं की। फिर कांग्रेस के मूल पक्षधर कार्यकर्ताओं ने सोनिया लाओ देश बचाओ – का नारा लगाकर 1997 में सीताराम केसरी को पदच्यूत कर सोनिया के हाथों में कांग्रेस पार्टी की बागडोर सौंप दी। उसके बाद से लेकर अबतक नेतृत्व परिवर्तन तो नहीं हुआ पर, परिवर्तन ऐसा हुआ कि सत्ता क्या शाख ही हिल गयी है।
कांग्रेस पिछले कई सालों में विधानसभा चुनावों से लेकर पंचायत और बाकी इलेक्शन्स भी हारती चली आ रही है। ऐसे में जहां कांग्रेस राहुल गांधी के बल पर एक पर एक बिरासत खोती चली जा रही है। क्या एक बिहार विधानसभा चुनाव छलाग मारने के लिए सही पायदान साबित होगा। कांग्रेस पार्टी का फेस आज शून्य है। कोई फेस वैल्यू नहीं है। जिसके बल पर जता में उत्साह भर जाता हो, जिसे देखते ही युवा क्रांति की भावना पैदा हो जाये। पीछे मुड़कर देखा जाय तो इसी बाल तानाशाही के कारण कई दिग्गजों ने अपनी राह पकड़ ली। अगर राहुल गांधी और कांग्रेस को बिहार चुनाव स्वयं के बल पर फतेह किया हुआ राज्य लगता है तो स्थिति भ्रामक है।
कांग्रेस ने कई सालों बाद जीत का चेहरा देखा है। 2004 और उसके बाद के चुनाव सोनिया गांधी को देखकर लड़ा गया था और जनता का विश्वास कहीं न कहीं उन्होनें जीत लिया था प्रधानमंत्री की कुर्सी ठुकराकर। एक त्याग की मूर्ति वाली छवि ने वो कारनामा कर दिखाया था जो शायद बैठने पर न हो पाता। उन दिनों दो संभावी दिशायें भी थीं- राहुल और प्रियंका। प्रियंका ने राजनीति से किनारा कस लिया पर पार्टी की जरुरत की तरह बीच बीच में मां और भाई के लिए खेवनहार का काम भी की। धीरे धीरे जनता ने उनके इस अस्तित्व को नकार दिया। जिससे कांग्रेस का एक फेस वैल्यू धूमिल सा हो गया। आज भी एक धुंधली सी आस कहीं न कहीं जनता के दिमाग में है कि प्रियंका गांधी में वो छुपी प्रतिभा है जो नेतृत्व कर सकती है। दिशाहीन कांग्रेस को दिशा देने में सक्षम हो सकती है। पर, परिवारवाद से बिफरी भारतीय जनता ऐसी परिस्थिति आने पर क्या निर्णय लेगी, यह कहना उचित न होगा। हर बात, हर परिस्थिति की अपनी एक आभा होती है। जो निर्णय करती है, जो एक प्रभाव उत्पन्न करती है। अगर प्रियंका गांधी वाढरा का नाम सामने आता है तो काल तय करेगा उनका भविष्य। धरातल पर कागंरेस की छवि आज निशा समान है। जो एक आस पर जीवन जी रही है कि कभी तो सुबह आयेगी।
उत्तर प्रदेश जहां सपा और बसपा का सालों से अखाड़ा जमा हुआ है। जिसतरह राजस्थान में कांग्रेस और बीजेपी का, बहार में जेडीयू और राजेडी का। ऐसे में जिसतरह कमल खिलाने में भाजपा को कड़ी मेहनत के बाद जीत हासिल हुई थी उसी तरह कांग्रेस के लिए भी यूपी फतेह करना आसान न होगा। लालू- नीतीश गठबंधन के बाद मायावती और सपा भी कहीं एक मंच पर आ गये तो कांग्रेस क्या करेगी –अकेले अपना अखाड़ा खोलेगी या फिर बिहार की तरह स्टेज शेयर करने में अपनी भलाई समझेगी। मायावती जो अकेला चेहरा हैं अपनी पार्टी की पर अपने पार्टी के सिंबल की तरह काफी हैं। वहीं साइकिल पर चलने वाली सपा आजकल रफ्तार में है।पंचायत चुनाव जीत चुकी है।जिससे जीत का हौसला बुलंद है। अखिलेश यादव एक युवा चेहरा हैं जो पार्टी में जोश बरने का काम कभी कभी कर देते हैं। रणनीति सपा सुप्रीमो की चलती है या सीएम की । यह विषय दुविधाजनक है। पर, तारतम्य जरुर है पिता पुत्र में या पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में। मुलायम सिंह यादव बले कोई भी बयान दे दें पर पार्टी कार्यकर्ता इतने तटस्थ हैं कि उन्हें कैसे चुनाव में जीत हासिल करनी है। ऐसे में राहुल गांधी की रणनीति कहां और कितनी सपा और बसपा की लहरों के आगे रुक सकेगी या रेत की तरह फिसल जायेगी। कांग्रेस की रणनीति राहुल गांधी और सोनिया का अनमना पुत्र प्रेम जगजाहिर होने से जनता में ज्वार भाटा की तरह विचार आते जाते हैं। बालू से क्षणभंगुर घर की कल्पना मात्र की जा सकती है पर, स्थायी तौर पर नहीं।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                  

विज्ञापन राजनीति का


सर्वमंगला मिश्रा
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भारत विश्व का दूसरा बड़ा लोकतांत्रिक देश है। जहां निष्पक्ष चुनाव को तवज्जो दी जाती है। जहां जनता का निर्णय सर्वमान्य होता है। हर पांच साल में चुनावी प्रक्रिया पूर्ण की जाती है। लोकसभा, विधानसभा, नगरपालिका, पंचायत ऐसे तमाम चुनाव होते हैं जो हर एक-दो साल के अंतराल पर आते रहते हैं। यह प्रक्रिया जन जागरण हेतु उचित है। यदि एक सरकार चाहे विधानसभा की हो या पंचायत या नगरनिगम के रुप में जनता के पास सुनहरा अवसर होता है कि वो परिवर्तन कर सकती है। जिससे सरकार भी सजग रहती है कि अगले चुनाव में जनता को फेस करना होगा तो काम करते रहना होगा। कहते हैं कि हर नियम का काट भी होता है और सुनहरा अवसर फांसी के फंदे की तरह भी। हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। एक ओर जहां चुनावों का आना जाना लगा रहता है वहीं जनता के पैसों का उपयोग या दुरुपयोग इन्हीं चुनावों को जीतने में पार्टी करती है। अतिरिक्त भार जनता पर ही पड़ता है। इसके अलावा पार्टी का फोकस काम करने में कम और चुनाव जीतने में ज्यादा रहता है। जिससे अधिक से अधिक रैलियां, बैनर, पोस्टर्स, टीवी, न्यूज पेपर विज्ञापन, रेडियो विज्ञापन। इसके अलावा तमाम सोशल मीडिया पर विज्ञापन के लिए पार्टी बेतहासा रुपये खर्च करती है।
सवाल यहीं हैं कि सरकार को क्या अपने काम से ज्यादा टीवी,रेडियो विज्ञापन पर ज्यादा भरोसा होता है। या जनता की नस लोगों ने पकड़ ली है। देश में जितना बड़ा चुनाव उतनी भारी मात्रा में एडवर्टिजमेंटस देखने को मिलते हैं। चाहे वो पी वी नरसिम्हा राव का वक्त हो, अटल बिहारी बाजपायी, मनमोहन सिंह, मोदी, केरीवाल या हुड्डा सरकार, अखिलेश सरकार या टीएमसी की सरकार। हर पार्टी करोड़ों रुपये खर्च कर देती है विज्ञापनों पर। आजकल हर रेडियो पर टीवी पर अखिलेश सरकार के क्रिया कलाप को विज्ञापन के जरिये जनता तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं। फ्लाईओवर बनाने से लेकर आधुनिक सुख सुविधा से पुलिस को लैश करने तक की बात मात्र एडवर्टिजमेंटस में ही दिखता है। अभी से सरकार ने चुनाव की तैयारी करनी शुरु कर दी है। ताकि परीक्षा में फेल न हो। पर क्या ये परीक्षार्थी सच्चे विद्दार्थी हैं। कया ये जनता की सेवा के सही मायने में कर रहे हैं। पांच साल पूरा होते होते सरकार को बस इतना जरुर या आ जाता है कि –अरे! इलेक्शन आ गया। यानी फिर से जुगत लगानी है जीतने के लिए। फिर वही खोखले वायदों की लिस्ट बनानी है जनता को लुभाने के लिए। फिर वही बैनर्स, पोस्टर्स, रैलियां, हवाई यात्राये, रोड शो, घर-घर घूमना, बालीउड सेलेब्रिटीज को लाकर कैम्पेन करवाना। मीडिया में अपने तमाम अच्छे काम गिनाना। गुणवत्ता की दुहाई देना।
ठीक है रेडियो, टीवी या अन्य सोशल मीडिया जनता तक पहुंचने का माध्यम हो सकते हैं। पर अल्टीमेट टार्गेट नहीं। जितने रुपये सरकारें इन विज्ञापनों पर खर्च करती हैं उसका एक चौथाई भी सही तरीके से काम करती तो जनता अंधी नहीं है। बिना तामझाम को जनता बगुलों में हंस ढूंढ़ लेती। उसे पता होता है कि उसके इलाके में दस साल से टूटा पुल किस मंत्री या पार्टी ने बनवाया है। हां मायावती जी ने अपनी ही प्रतिमाओं का इतना अनावरण जरुर किया कि जनता समझ न सकी कि बहनजी ने हमारे लिए क्या किया तो उन्हें बताना जरुरी था कि वो बतायें कि अम्बेडकर पार्क बनाने के अलावा उन्होंनें और क्या किया अपने कार्यकाल में।
हरियाणा इलेक्शन में मोदी के चार कदम तो हुड्डा जी की विरदावली रेडियो के हर स्टेशन पर छायी रही। अब चुनावों के बाद कहां है विज्ञापन इसका मतलब चुनाव खत्म के बाद क्या पार्टी को अपना काम बताने की जरुरत नहीं होती जनता को। विज्ञापनो ऐसे दिखाये जाते हैं जैसे जनता त्रस्त नहीं सम्पन्न हो गयी उस सरकार से। इसी सरकार ने उसके जीवन की राह बदल डाली। बच्चे स्कूल जाने लगे, गरीब को रोजगार मिल गया, घर में खुशहाली ही खुशहाली छा गयी। अगर विज्ञापन इतने ही सच हैं तो जनता क्यों मर रही है?  फिर मीडिया इतनी खबरें कहां से दिखाता है। सूखे से परेशान किसान, तो बाढ़ से बेहाल जिन्दगियां। पुलिस तंत्र इतना ही सजग और मुस्तैद है तो क्रइम रेट कम क्यूं नहीं हो रहा। क्या कारण है पार्टी को फंड का एक बड़ा हिस्सा विज्ञापन पर खर्च करने की। क्या इसके बिना पार्टी चुनाव जीतने में असमर्थ हैं। पार्टी के पास लोगों के घर जाकर बताने के लिए कुछ नहीं होता। इसलिए स्वयं को बड़ा बनाने के लिए इन विज्ञापनों का सहारा लेना पड़ता है। जिससे जनता इनके मोहिनी जादू के वशीभूत हो जाये। जब नेतागण वोट मांगने पहुंचे तो गणमान्य की छवि जनता के मस्तिष्क में उभरे और स्वयं को छोटा और नेताजी के चरणकमल उसके घर की दहलीज़ पर पड़ गये, इससे खुद को गदगद महसूस करे।
विज्ञापन करना एक कला है जो कम समय में सहज तरीके से अपनी बात जनता तक पहुंचायी जा सकती है। जिसतरह केजरीवाल सरकार अपने नये नये ऐप्स को विज्ञापन के जरिये घर घर पहुंचा रही है। महिला सुरक्षा ऐप हो, किसी योजना को शुरु करने की पहल हो अथवा अवैध निर्माण की जानकारी पर कार्रवाही की बात हो। पर अपनी सरकार पर गाने बनवाना और अपनी विरदावली स्वयं गाना और गवाना कितना न्यायोचित है। जब जब चुनाव आता है अपने संग करोड़ों का व्यर्थ व्यय करवाता है। जनता प्रलोभन और झूठे वायदों के जाल में चाहे अनचाहे फंस ही जाती है। विकल्प की तलाश बनी रह जाती है। 

Saturday, 10 October 2015

आरक्षण- सम्मान या अपमान ?

सर्वमंगला मिश्रा

स्वतंत्रता से पहले जब देश पराधीन था तब दासत्व के जीवन का बोध आसानी से हो जाता था। अंग्रेज डिवाइड एंड रुल की नीति अपनाकर भारतवासियों पर 300 वर्ष तक शासन किये। उन्होंने जाति ,धर्म जैसी चीजों को बारीकी से समझा और हमें बांट दिया। देश स्वतंत्र हुआ पर, अपनों ने आपस में ऊंच –नीच की सीमारेखा खींच दी। ऊंची जाति- नीची जाति की रुपरेखा में जीवन उलझ गया। अहं की भावना ने उच्चवर्ग और निम्नवर्ग को जन्म दिया ..जिससे दासत्व खत्म नहीं हो पाया। 1882 में महात्मा ज्योतिराव फूले ने शिक्षा सभी तबकों के लिए अनिवार्य करने की मांग उठाई। तब हंटर कमीशन ने इसे अपनी मंजूरी दी। जिससे शिक्षा और सरकारी नौकरी लिए पाने का हक सभी वर्ग को समान तौर पर मिल सके। गांधीजी ने 1932 में ही इसकी पुष्ट नींव रख दी थी। समाज के अंदर पनपे भेदभाव, असुरक्षा और निम्न स्तर के जीवन से छुटकारा पाने की दृष्टि से आरक्षण का जन्म हुआ। ब्रिटिशर्स के जाने के बाद भी हमारे बुद्धिजीवी नेताओं के अंदर इस पनपे कांटे को नष्ट करने का ख्याल नहीं आया। बल्कि अंग्रेजों की दी गयी विरासत के पदचिन्हों पर नेतागण देश को बढ़ाते चले गये। स्वतंत्र भारत का संविधान बनाते समय बाबा भीमराव अंबेडकर ने इस बात का बकायदा ख्याल रखा और हरिजन और उससे जुड़े दूसरे वर्गों को आरक्षण का दर्जा लिखित तौर पर मिल गया। आरक्षण ने जहां समाज में फैली असमानताओं को दूर कर निम्न वर्ग को जीने का एक अधिकार सामाजिक स्तर पर दिलवाया। आरक्षण के कारण ही तेजस्वी बच्चों को प्रतिष्ठित स्कूलों में पढ़ने का सुअवसर मिल पाया। मेडिकल, इंजिनियरिंग के कालेजों में जहां हर स्तर के लोगों का पढ़ना संभव नहीं हो पाता वहीं आरक्षण के बलबूते समाज के इस तबके ने अपनी हाजिरी लगवायी और फिर एक स्थान बनाया। आरक्षण ने जहां समाज के लोंगों में समानता लाने का अचूक प्रयास है वहीं बाद में इसका दुरुपयोग भी होने लगा। सरकारी कोटा, मंत्री कोटा स्वयं का आक्षरण कोटा के तहत उन लोगों को एंट्री मिलने लगी जो उस योग्य न थे। जो योग्य न थे उन्हें एंट्री दिलाने के नाम पर भ्रष्टाचार का जन्म हुआ। इस तरह धीरे धीरे समाज का दूसरा तबका जिसे जनरल कैटेगरि कहा जाता है समस्याओं से घिर गया। पहले आरक्षण ओबीसी, एस सी एस टी वर्ग को प्राप्त था। जिसमें धोबी, कुम्हार, नाई, मुस्लिम वर्ग और भी कई जातियां शामिल थीं। इनके अलावा आरक्षण उस तबके को देना आवश्यक था जो विकलांग थे अथवा किसी कारण वश विकलांगता के शिकार हो जाते हैं। इसके बाद परिस्थतियां बदलीं और जाट वर्ग ने अपने अधिकार की मांग आरक्षण के तौर मांगी। सन 2008 के मध्य में जाट वर्ग ने भारी आन्दोलन किया। तबसे अब तक आन्दोलन जारी है। इसके बाद जैन समाज को भी आरक्षण के दायरे में लाया गया। महिलाओं का आरक्षण बिल 33 प्रतिशत के लिए अटल बिहारी जी की सरकार के समय सदन में पेश हुआ था पर आज तक उस पर अमल नहीं हुआ। हाल ही में अहमदाबाद के 22 वर्षीय हार्दिक पटेल ने पटेल जाति को आरक्षित करवाने का बीड़ा अपने कंधों पर उठा लिया है। इसी तरह 1902 में छत्रपति शाहुजी जो कोल्हापुर के महाराज थे उन्होंने पिछड़ी जातियों के लिए आवाज उठायी और 1902 में ही 50 प्रतिशत नौकरियां कोल्हापुर के प्रशासन में आरक्षित करवायीं। प्रश्न कौंधता है कि भारत जो 300 साल बाद जब आजादी की सांस ले पाया। 68 साल में ही देश की दशा इस कगार पर आ पहुंची है कि देश इतनी जर्जर हालत में पहुंच गया कि हर समुदाय को आज आरक्षण की आवश्यकता महसूस होने लगी है। पहले उच्च जाति के लोगों को हर प्रकार की सुविधा समाज ने दी थी। पर प्रताड़ित वर्ग जिन्हें किसी न किसी तरह उच्च जाति के लोगों ने जीना दुर्भर कर रखा था, आरक्षण के बाद कुछ राहत की सांस ली इस वर्ग ने। किसी भी चीज की अति विनाश का कारण बनती है। मुस्लिम शासक इसी बात का फायदा उठा सके। क्योंकि हिन्दु राजा आपस में अपने तुच्छ हितों की प्राप्ति के लिए लड़ते रहते थे। जिससे एकता का अभाव सर्वव्यापी हो चुका था। अब जब देश 21वीं सदी में तकनीकी क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़े चला जा रहा है। वहीं देश में पनपती असुरक्षा की भावना आज हर जाति, समाज और वर्ग को आरक्षण पाने की दौड़ में शामिल होने को मजबूर कर रहा है। जाट, गुर्जर, महिला और अब पटेल सबको शिक्षा, सरकारी नौकरी में स्थान सुरक्षित करवाना है। महिलाओं को शुरु से घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ा। कहीं न कहीं अमानवीय प्रताड़नाओं को सहने के कारण अपनी उपस्थिति को रेखांकित कराने के उद्देश्य से महिला आरक्षण की मांग पनपी। अब समय इस ओर इंगित कर रहा है जहां अब उच्च वर्ग भी आरक्षण की मांग को लेकर धरने पर न बैठ जायें। क्योंकि एस सी, एस टी, मुस्लिम वर्ग, क्रिश्चियन, इन सबके बाद शिक्षा हो या नौकरी सीटें ही कहां बचेंगी कि जनरल वर्ग कुछ प्राप्त हो सकेगा। सरकार को ऐसी नीतियों पर पुनर्विचार करना चाहिए। आरक्षण में संसोधन का प्रस्ताव ही आरक्षण रुपी काल से देशवासयों को और बड़े पैमाने पर उठी इस क्रांति की आग को बुझा सकता है। आरक्षण नहीं सबको समान रुप से शिक्षा नौकरी की प्राप्ति, उसकी योग्यता के अनुसार होनी चाहिए। देश विकास की सीढियां चढ़ रहा है। ऐसे में देश में विकास और एकजुटता की लहर होनी चाहिए ना कि बंटवारे की आग। एकजुटता देश को आगे ले जायेगा तो बंटवारा चाहे राज्य का हो अथवा आरक्षण के तौर पर इंसान का, खतरनाक ही होगा।

Friday, 18 September 2015


किसकी राह देख रहा बिहार ? 




सर्वमंगला मिश्रा





बिहार प्रारम्भ से ही क्रांति प्रदेश रहा है। संघर्ष के दौर का हर शुभारम्भ बिहार की भूमि से होता आया है। परिवर्तन की चिनगारी यहीं से सुलगी है। इस माटी का रंग चाहे जो हो पर यहां से क्रांति की बुलंदी परवान ही चढ़ी है। गांधी मैदान से निकली हर ज्वाला दिल्ली की सत्ता को हिलाने में अमूमन कामयाब रही है। देश की आजादी से लेकर आजादी के बाद एक छत्र राज को तोड़ने का जज्बा बिहार की माटी ने ही दिखाया। इंदिरा गांधी को लुकी-छिपी चुनौती ही नहीं दी बल्कि ललकारा- जे पी आन्दोलन ने। देश के कोने कोने से बहती हवा ने एक नारा आकाश में गुंजायमान कर दिया। हर युवा से लेकर बजुर्ग तक ने जे पी आन्दोलन में शिरकत की। देश में जे पी नाम की आंधी ने कहीं न कहीं इंदिरा गांधी के मन में भय अवश्य पैदा कर दिया था। जिससे वो सचेत हो गयीं और फिर देश ने भारतीय अंग्रेजी हूकूमत का एक दृश्य देखा। वो मंजर आज 40 साल पुराना हो चुका है। पर, यादें उस वक्त के लोगों के जहन में आज भी आंखों देखी समान बसी है। जीवंत वो गाथा, भारत के इतिहास में, आजादी के बाद, अमर हो चुकी है। एमरजेंसी- यही वो 1975 का वक्त था जब इस शब्द को परिभाषित होते लोगों ने देखा। शायद कहीं न कहीं इंदिरा गांधी को इस घटना के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा। एमरजेंसी इंदिरा गांधी की पहचान बन गयी। सत्ता दिल्ली की हो या बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश अथवा कर्नाटक की हिलती है फिर परिवर्तित होती है। सत्ताधारी जब निश्चिंत हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि अब उनकी खिलाफत करने वाला कोई नहीं तो मंगल पांडे का जन्म कहीं न कहीं हो ही जाता है।
बिहार की मिट्टी में एक क्रांति करने की पहल समायी हुई है। इसीलिए अन्ना हजारे हों या प्रधानमंत्री मोदी सभी ने अलख यहीं से जगायी। अब जब बिहार में चुनाव सिर पर मंडरा रहे हैं तो, हर बड़ी पार्टी इस मिट्टी पर अपना भाग्य आजमाना चाहती है। इस बार क्रांति की लहर ऐतिहासिक होने जा रही है। ओवैसी जो हैदराबाद से एमपी हैं और एआई एम आई एम के कर्ताधर्ता, बिहार में भाग्य आजमाना चाह रहे हैं। उधर, अपने राज्य से बिहारवासियों पर अंग्रेजों के समान जुल्म करने वाले महाराष्ट्र के शेर शिवसेना अपनी ऊंचाई मापना चाहती है। मुलायम अपने समधियाने में अकेले ही सबकुछ समेटने पर आमादा हैं। यह सभी पार्टियां चुनावी दंगल में वि-धरती पर अपना परचम लहराने को बेताब दिख रहीं हैं।
समझने की आवश्यकता आज यह है कि क्या बिहार की राजनीतिक धरती इतनी कमजोर पड़ गयी है कि बाहरी ताकतें उसे उसकी ही धरती पर ललकारने में संकोच महसूस नहीं कर ही हैं। क्या बिहार की धरती इतनी गिली हो गयी है कि अब दलदल का रुप लेने लगी है या इतनी दरारें आ चुकीं हैं कि धरती के अंदर की गहराई आसानी से नापी जा सकती है। आखिर बिहार को इस कगार पर लाकर किसने खड़ा किया ? जहां जे पी की भूमि आज शर्मिंदगी महसूस कर रही है। आपसी कलह, फिर एकजुटता – राजनीतिक मर्यादाओं की हर सीमा का उल्लंघन तो कभी वर्चस्व की लड़ाई। इन सभी बातों ने बिहार की पुष्ट राजनीति को खोखला कर दिया है। शायद यही वजह है कि आज बिहार में हर पार्टी अपना दम अकेले ही दिखाना चाहती है।
बिहार की जनता जो काफी चीजों में आगे है तो कहीं उन्नति की दिशा में अग्रसर पर कहीं सबसे अंतिम पायदान पर भी खड़ी है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जो बिहार को स्पेशल स्टेटस से नवाजना चाहते हैं। जिससे बिहार भारत के नक्शे में भिन्न दिखे। बिहार ने अस्तित्व की लड़ाई लड़ी है तो कहीं आज भी नक्सल प्रभावित इलाकों तौर के पर लड़ाई जारी है। ओवैसी जिनका बिहार से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है वो बिहार से अपनी पार्टी को नैश्नल लेवल के रुप में उभारकर केंद्र की सत्ता में अपनी जगह बनाने का मंसूबा लेकर बिहार के रास्ते अपनी राह आसान कर लेना चाहते हैं।
आज नेतागण संभावनाएं तलाशने में जुटे रहते हैं। लोहिया ही लालू प्रसाद और नीतीश कुमार, दोनों के गुरु रहे। पर शिष्य मौकापरस्त निकले। या कहा जाय कि वर्चस्व की लड़ाई ने दोनों को अलग अलग रास्ते अख्तियार करने पर मजबूर कर दिया। दोनों ने राजनीति का स्वाद भरपूर चखा। कट्टर विरोधी रहे तकरीबन दो दशकों तक। पर समय को भांपते हुए, सत्ता के मोह ने दोनों को एकमंच पर ला खड़ा कर दिया। इसे समय बलवान ही कहा जायेगा जब लालू प्रसाद यादव को अपनों के खिलाफ फैसला लेना पड़ा। मीसा भारती, अब पप्पू यादव की कहानी बिहार में गुंजायमान है। क्या ये आपसी रिश्ते सियासत के लिए बिखर रहे हैं अथवा यह भी रंगमच का एक दृश्य मात्र है।
बिहार में जातिगत वोटों की परंपरा आज भी विद्दमान है। कुर्मी, यादव और भूमिहार बाकी जातियों के अलावा इनकी पैठ मानी जाति है। केंद्र की सत्ता ने एक बार फिर परिस्थिति अपने हाथ में होने का आभास कराया है। दिल्ली यूनिवर्सिटी में 4 में से 4 सीटें एबीवीपी ने जीतीं हैं जिससे हौसला बुलंद है। पर, बिहार क्या लोकसभा की कहानी दोहराने की हिम्मत दिखा पायेगा। परिस्थिति में परिवर्तन की आस आज से कई साल पहले नीतीश कुमार ने भी दिखायी थी। परिवर्तन हुआ भी, क्राइम रेट घटा भी। लेकिन, ज़मीनी हकीकत से राजनेता शायद कोसों दूर हैं। आज भी भूखमरी, बेरोजगारी जैसी तमाम समस्याएं जीवन को उलाझाए हुए हैं। यह समस्या सिर्फ बिहार की नहीं पूरे देश की है। मीडिया हर मोड़ पर ध्यान आकर्षित करती है पर नेताओं का ध्यान चुनाव के दौरान जाता है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जनता दरबार तो लगाते थे पर कितनी समस्याओं का निराकरण हुआ इसका उत्तर शायद उनके पास या तथाकथित विभाग के पास भी न होगा। आज भी बाढ़, खस्ताहाल रोड और 29 नक्सल प्रभावित इलाकों से जूझ रही हैं तमाम जिंदगियां जीवन जीने को मजबूर हैं।
बिहार आसमान और जमीन हर तरफ से एक जे पी की राह तक रहा है। क्योंकि खून सूख गया है। दिमाग की नसों में वो रवानी नहीं रही। जो बिहार को गरीब देश नहीं बताये, दुनिया के सामने, बल्कि उन्नतशील राज्य बताने की कूबत रख सके। स्पेशल स्टेटस से क्या बिहार की अंदरुनी दशा जमीनी हकीकत के तौर पर परिवर्तित हो जायेगी। शिक्षा के आंकड़ों में उछाल आ जायेगा। नक्सली आतंक खत्म हो जायेगा। ऐसा होना संभव नहीं है आज की तारीख में। आज प्रत्येक नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री फेसबुक, ट्विटर पर उपलब्ध हैं अपनी गाथा बखान करने के लिए। गरीब जनता चलाना तो सीख जायेगी जब उसके घर कम से कम 18 घंटे बिजली मिले, उसे दो जून की रोटी की चिंता न सताये। लेकिन, सरकारें अपनी उहापोह में ऐसी फंसी रहती हैं कि जनता दरबार नाम मात्र का बन जाता है।
सवाल यह भी उठता है कि बाहरी ताकतों को क्या बिहार की जनता खुद पर हुकूमत करने की इज़ाजत देगी ? शिवसेना जिसने उनके भाइयों को अपने राज्य से बेदखल कर दिया था। उस मंजर को याद कर कितने बिहारवासी शिवसेना को वोट देने जायेंगे या बागी होकर उसके विरोधी को वोट देना ज्यादा बेहतर समझेंगे। शिवसेना ने आजतक बिहार के लिए क्या किया है ? किस आधार पर शिवसेना चुनाव लड़ना चाहती है। महाराष्ट्र की राजनीति में दबदबा रखने वाली शिवसेना मात्र कल्पना शिविर लगा रही है। गठबंधन नहीं बना। यह लालू और मुलायम की चाल है या राजनीतिक रणनीति। मामला विदेशी चहलकदमियों से त्रिकोणी और सबको मिला दें तो षणकोणिय हो जायेगा। शिवसेना, एआई एम आई एम और सपा इन तीन पार्टियों ने लालू, नीतीश, सोनिया और एकतरफा उद्घोष करती बीजेपी को एक ही नाव पर सवार करा दिया है। कौन पहले गिरेगा और अंत तक कौन तैर कर उबर पायेगा दिलचस्प होगा देखना। क्योंकि ऐसी हलचल विधानसभा चुनावों में कम मिलती है जहां मेहमान पार्टियां अपने पैर को अंगद का पैर बताना चाहती हैं।    





























































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































 


हिन्दी की अमर गाथा
 सर्वमंगला मिश्रा




बुलंदी का कारवां यूं बनता नहीं,
शिखर का मुकद्दर यूं मिलता नहीं,
सरज़मीं पर कदम जब बेबाक होंगे,
ए लब्ज़ हम तुझ पे कुर्बान होंगे।

विश्व में तकरीबन 6500 भाषाएं बोली जाती हैं। जिनमें से 1652  भाषाएं भारत में बोली जाती हैं। जिनमें 22 आफिशियल तौर पर बोली जाती हैं। भारत में आदिकाल से आज आधुनिक काल तक एक ही भाषा का प्रभुत्तव कायम है जिसे हम और आप हिन्दी भाषा के नाम से जानते हैं।

हिन्दी काल को तीन भागों में बांटा गया – आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल.यूं तो 7वीं 8वीं शताब्दी से ही पद्द की रचना प्रारंभ हो गयी थी। हिन्दी भाषा के जन्म की बात करें तो दसवीं शताब्दी का जिक्र आता है। प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव माना जाता है। साहित्य की दृष्टि से पदबद्ध रचनायें जो मिलती हैं वो दोहा के रुप में मिलती हैं। उस काल के रचनाकारों का प्रमुख विषय धर्म , नीति और उपदेश हुआ करते थे.उसकाल के राजाश्रित कवि और चारण नीति , श्रृंगार शौर्य, पराक्रम आदि के वर्णन से अपनी साहित्य रुचि का परिचय दिया करते थे.ये रचना परंपरा आगे चलकर शौरसेनी अपभ्रंश या प्राकृताभास हिन्दी में कई वर्षों तक चलती रही और, पुरानी अपभ्रंश भाषा और बोलचाल की देशी भाषा का निरंतर प्रयोग बढ़ता चला गया। इसी भाषा को विद्दापति ने देसी भाषा के नाम से नवाज़ा।

लेकिन, हिन्दी शब्द का प्रयोग सबसे पहले कब और कहां हुआ ये कहना कठिन है। जानकारों की मानें तो मुस्लिम समुदाय ने शायद इस शब्द हिन्दी का प्रयोग शुरु किया था। जिसतरह गोमुख से गंगा निकलती है और उसके बाद नदियों का कारवां सा बन जाता है । ठीक उसी तरह संस्कृत भाषा से ही सभी भाषाओं की उत्पत्ति भी हुई है। हिन्दी साहित्य में हिन्दी भाषा के जन्म और कालों के विभाजन को लेकर भ्रांतियां इतिहास में दर्ज हैं।
       
आदिकाल 7 वीं शताब्दी के मध्य से लेकर 14 वीं शताब्दी के मध्य माना जाता है। भक्तिकाल 14 वीं शताब्दी से लेकर 17 वीं शताब्दी तक रीतिकाल17 वीं शताब्दी वसे लेकर 19 वीं शताब्दी तक और आधुनिक काल 19 वीं शताब्दी से अब तक वहीं, 1918 से लेकर 1938 तक का समय छायावाद का काल कहा जाता है। छायावाद के बाद का समय प्रगतिकाल का समय 1938 से 1953 तक का माना जाता है और उसके बाद नवलेखन काल का समय आया जो 1953 से अब तक चला आ रहा है।

हिन्दी साहित्य की अपनी एक गरिमा है। हिन्दी भाषा राष्ट्र की धरोहर है। हिन्दी ने कभी आसमान में उड़ान भरी तो कभी हवा के रुख ने उसकी दिशा ही बदल डाली। पर हिन्दी को कभी कोई खोखला नहीं कर पाया। इस भाषा ने अपनी सत्ता को बरकरार रखते हुए अपने अस्तित्व की लड़ाई सदैव लड़ी है। दसवीं शताब्दी से अपने पैरों पर खड़ी होकर चलने वाली हिन्दी भाषा ने अपने जीवन में कई उतार और चढ़ाव देखे हैं। आदिकाल, जिसे वीरगाथाकाल भी कहा जाता है.इस काल में राजाओं की वीरता का बखान मिलता है। जिसे सुनकर वीरों में जोश भर जाये...ऐसी रचनाओं को तवज्जो दी जाती थी। इस काल के कवि राजाओं को खुश करने के उद्देश्य से भी रचना करते थे।

हर काल का एक महानायक होता है। उस शक्शियत के बिना एक काल उन्नति की दिशा खोज पाने में असमर्थता महसूस करता है। उस महानायक के साथ एक धारा प्रवाहित होती है जिससे उस काल के रचयिता भी कहीं न कहीं प्रभावित अवश्य होते हैं। ऐसे ही वीरगाथाकाल के महानायक आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आदिकाल के हजारी प्रसाद , चारणकाल के ग्रिथर्सन- प्रारंभिक काल के मिश्रा बंधु- बीजवपनकाल के महावीर प्रसाद द्वेदी। संधिकाल एवं चारणकाल के रामकुमार वर्मा, वीरकाल के विश्वनाथ प्रसाद और सिद्धसामंतकाल के राहुल सांस्कृतयान को याद किये बिना हिन्दी रचना जगत में सूनापन महसूस होता है।

7वीं शताब्दी के मध्य से 14 वीं शताब्दी का काल अद्भूत था। पृथ्वीराज रासो जैसी रचनायें लिखी गयीं । चंद वरदायी पृथ्वीराज चौहान के दरबार की शान हुआ करते थे। जयचंद के समय संस्कृत भाषा का उत्थान हुआ। पर, पृथ्वीराज के तराइन 2 युद्ध में हारने के बाद मुहम्मद गोर के सैनिकों ने इस काल में रची गयी रचनाओं को ध्वस्त कर डाला था। इस समय से मुगल शासकों का देश पर आधिपत्य होने लगा और हिन्दी के विलुप्त होने का डर लोगों को सताने लगा। इस काल में ही रामानंद और गोरखनाथ ने अपनी अमिट छाप छोड़ी थी। आदिकाल में जहां अपभ्रंश, पाली जैसी भाषाओं का प्रयोग होता था। ऐसे में अमीर खुसरो खड़ी बोली में लिखने का अकेले दम रखते थे।


भक्ति काल में ऐसे ऐसे कवि पैदा हुए, ऐसी रचनायें लिखी गयीं कि ये काल स्वर्णिम काल के नाम से जाना जाने लगा। भक्ति से सराबोर कर देने वाली कविताओं की रचना इसी काल की देन है- तुलसी, मीरा, कबीर, रहीम, सूरदास और जायसी जैसे अनगिनत रचयिता। इस युग के रत्न थे।

भक्तिकाल में जितनी रचनायें रची गयीं उनका कोई सानी नहीं है। आदिगुरु शंकराचार्य ने भी इसी काल में चार मठों की स्थापना कर अपने 4 शिष्यों को चार दिशाओं में धर्म प्रचार के लिए भेजा था। तुलसीदास का- रामचरितमानस, विनय पत्रिका, सूरदास का -सूर सागर, कबीर- रहीम के दोहे, चौपाइयां, सोरठे सब इसी युग में इन कवियों के मस्तिष्क की देन है।सूरदास की अनंत रचनायें भक्ति की सच्ची राह बनकर उभरी। तो मीरा का कृष्ण प्रेम जग विख्यात हो गया। इस दौर में नये नये प्रयोग भी हुए। रसों का वर्णन भी इस काल के कवियों ने क्या खूब किया। श्रृंगार रस, वीर रस, करुण रस, विभत्स रस जैसे 9 रसों से सराबोर कर देने वाली रचनायें इसी युग की देन है। भक्ति के दो स्वरुप भी इस काल में विद्वानों ने देखे और दिखाये। एक पक्ष जो निर्गुण भक्ति में आस्था रखता था तो दूसरा सगुण में- सूर, तुलसी और मीरा सगुण के उपासक थे तो कबीरदास जी डंके की चोट पर हिन्दु और मुस्लिम दोनों के धर्म पालन पर कुठाराघात करते नहीं थकते थे।

    कांकर-पाथर जोरि के मस्जिद लयी चुनाय....
    ता चढि मुल्ला बांग दे बहिरा हुआ खुदाय....
    पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार...
    ताते वो चक्की भली , चाको पीसा खाय संसार
    गुरुनानक साहब भी इसी काल की देन हैं....

भक्तिकाल के बाद रीतिकाल आया। इस काल में भक्ति विलुप्त सी होने लगी और ये काल भावना प्रधान हो गया। कृष्ण बचपन की अटखेलियों से लेकर रास लीला और महिलाओं के नख से लेकर शिख तक का वर्णन रचनाकार करते थे। इस काल में राजागण काफी आमोद प्रमोद में जीवन बीताते थे। उन्हें युद्ध के समय भी संगीत की आवश्यकता महसूस होने लगी थी। रीतिकाल के बाद आधुनिक काल ने लेखन शैली को एक नयी दिशा ही दे डाली। भारतेंदु, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, निराला, दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त जैसे तमाम रचनाकार आधुनिक युग के खेवनहार बने।

यह काल प्रयोग की दृष्टि से काफी सफल रहा। क्योंकि आधुनिक काल के कवि छंद, अलंकार इन सबसे हटकर भी मनमाने तरीके से रचनाओं को पेश  करने लगे। इसी काल के तहत भारतेंदु युग और उसके पश्चात छायावादी धारा- जिसमें जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा की रचनायें घोषित हैं। इसी काल में महानायक महावीर प्रसाद द्वेदी ने अपनी अमूल्य लेखनशैली का योगदान दिया। मुंशी प्रेमचंद जैसे उपन्यासकार भी हुए जिन्होंने समाज के उस समय की व्यथा को बखूबी अपनी कलम से कागज के पन्नों पर उकेरा था। निराला, दिनकर, अज्ञेय और यशपाल की अद्भुत कलाकारी इसी युग की है। इस युग में लेखन शैली ने प्रगति की दिशा पकड़ी। 1918 से 1938 का समय छायावाद को समर्पित है। नयी विधाओं ने जन्म लिया। इस समय सोच नयी पनपी। क्योंकि राजा महाराजाओं का काल खत्म हो चुका था। नाटकों द्वारा चरित्र चित्रण बहुत मात्रा में किया गया। जहां उपन्यास की भाषा आम लोगों तक पहुंचने में प्रभावित दिखी। राजनीति नयी दिशा में प्रवेश कर चुकी थी। अंग्रेजों के शासनकाल से मुक्त होने के लिए लेखक नयी रणनीतियां अपनाते थे। जो उनके सोच में परिवर्तन को दर्शाता है। लोगों को जगाने का एक मात्र तरीका था लेखन जिसके सहारे क्रांतिकारी अपनी बात देश भर में चोरी चुपके ही सही फैला पाते थे।

समय बीतता चला गया और आजादी भारत की झोली में आ चुकी थी। भारत माता आजाद हो चुकीं थीं। ये काल था नवलेखन काल। जिसने जनता के रक्त में नवसंचार की धारा बहा दी थी। ये वक्त था- खुले आसमान में सांस लेकर, बंधनमुक्त होकर अपने विचार प्रकट करने का।


    सिसक सिसक कर ठहरी हिन्दी, अनमने रंग में कभी बह चली हिन्दी।



    
मानव जीवन में जिस तरह हर एक काल में परिवर्तन देखने को मिलता है। सभ्यता ने भी अपने नये नये रुप रंग दिखाये। सभ्यता और संस्कृति को उस काल की भाषा से ही आंका जा सकता है। आदिकाल से लेकर आधुनिक काल यानी अब तक हिन्दी भाषा ने भिन्न भिन्न रुपों में स्वयं को समाज के सामने प्रस्तुत किया है। अपभ्रंश, पाली, प्राकृत जैसी भाषाओं के साथ चली हिन्दी ने आज विश्व के समक्ष विजेता होने का गौरव हासिल कर लिया है। रवीन्द्रनाथ टैगोर, निराला, यशपाल, अमृता प्रीतम, महादेवी वर्मा और तमाम ऐसे लेखक पनपे जिन्होंनें लिखने की विधा ही बदल डाली। हिन्दी जहां खड़ी, अवधि ब्रज के रुप में लोगों के दिलों पर राज की वहीं 90 के दशक के उपरांत परिवर्तन की लहर तेजी पर है। अब बोलचाल की भाषा का प्रयोग लेखन शैली में आसानी से किया जाका है। जिसमें उर्दू, संस्कृत, अंग्रेजी, फेंच, भोजपुरी जैसी भाषाओं को शामिल कर गद्द को बोभिल होने से लेखक बचाना चाहते हैं। ऐसा ही हाल पद्द रचनाओं में भी देखा जा सकता है। अलंकार, छंद से उपर उठकर मधुशाला जैसी रचनायें रची गयीं तो ठेले पर हिमालय, गोदान, कफन औऱ स्वर लहरी जैसी रचनायें भी सामने आयीं। शब्दों की गरिमा अब भावनात्मक हो चुकी है। लेखक उसी भाषा का प्रयोग करना चाहते हैं जिस भाषा में श्रोता या पाठक आसानी से समझ ले।



आधुनिक दौर में लोगों का जीवन इतना व्यस्त हो चला है कि पाठक पूरी कहानी या कविता चंद मिनटों या घंटों में पूरी कर लेना चाहता है। रहस्यमय शब्दों से वो बचना चाहता है। वालीवुड यानी हिन्दी भाषा का दूसरा स्तम्भ। हिन्दी भाषा ने फिल्मों के माध्यम से पूरे विश्व का भ्रमण कर लिया है तो अब देश के प्रधानमंत्री से लेकर आम जनता तक हिन्दी के लिए प्रेम हिंलोरे मार रहा है। हिन्दी भाषा अगर लोगों के जीवन में प्रवेश की तो उसका श्रेय हिन्दी फिल्मों को भी कहीं न कहीं जाता है। वालीवुड में भी भाषा के चाल चलन में अद्भुत प्रयोग हुए। पहले समाज की गरिमा को देखते हुए कहानियां लिखी जाती थीं। पर एक वक्त आया जब दूसरी भाषाओं के साथ हिन्दी को मिश्रित कर लोगों के सामने प्रस्तुत किया गया। जिससे हिन्दी भाषा संस्कारी से मार्डन हो गयी। अब ऐसी फिल्में भी दिखती हैं जिनमें घरेलु भाषा का जमकर उपयोग होता है। भावना प्रधान फिल्मी जगत और साहित्य जगत अब जनता की मर्जी से अपनी कलम को नये नये आयाम देने में जुटे हुए हैं। आजकल के लेखक जहनी भाषा को मस्तिष्क पटल पर छाप देना चाहते हैं। उम्मीद यही करते हैं कि भारत की भाषा विश्व की भाषा के रुप में उभरे।

Saturday, 18 July 2015

इदं मम प्रिय क्षेत्रम...


सर्वमंगला मिश्रा-


मैं अपना नाम नहीं बताउंगा। सिर्फ अपने बारे में बताउंगा और आप मुझे पहचान लेंगे। आजकल वैसे तो मेरा नाम हर जुबां पर है जिससे दिल बाग- बाग रहता है। मेरे कई नाम हैं कई पहचान है, कई खासियत है। विश्वप्रसिद्ध हूं अपनी खूबियों लिए। मेरी उम्र का तो पता नहीं पर भोलेनाथ की तरह अजन्मा सा हूं। यहां सभी ऋषि मुनि से लेकर विदेशी तक मेरा गुणगान करते हैं। मैं अनगिनत लेखकों की कलम से गंगा की अविरल धारा की तरह बहा तो शिव की जटा से निकली गंगा की तरह मेरा नाम विश्व के हर कोने तक फैला हुआ है। मैं तपस्थली हूं पर मेरा स्वरुप आज इस आधुनिक युग में भी परिवर्तित नहीं हुआ है। मेरा अस्तित्व बरकरार है। आज जहां विश्व की तमाम धरोहर अपनी सभ्यता-संस्कृति और अस्तित्व खो चुकीं हैं वहीं मेरा रुतबा आज भी बरकरार नहीं वरन दिन पर दिन इसमें चार चांद ही लग रहा है। सूर्य की रश्मियां जब यहां बहतीं हैं और अमृत जलधारा पर पड़ती है तो मानो विश्व का पहला सृजन अभी यहीं से प्रारम्भ होने वाला है। यूं तो लहरों पर नाव मुझे बच्चों के कागज़ की क़श्ती के समान महसूस होती है।ज्वार भाटा मेरे गुस्से और पश्चाताप की झलक है। तो तपोबली वर्षों से मेरा मान बढ़ाते आ रहे हैं। मेरी ऊर्जा का संचार सम्पूर्ण विश्व में करते हैं। प्रात:कालीन घंटा निनाद और नमाज़ की अजान से यहां उगने वाले सूर्य का दिन शुरु होता है  और गंगा की विहंगम आरती से दिन ढलान पर नहीं बल्कि और ऊर्जावान हो जाता है। यहां गंगा आरती देखने विश्व के कोने कोने से सैलानी आती हैं।
साइकिल की झिन झिन से लेकर लोगों के चूने के समान सफेद मीठी भाषा यहां लुका छिपी का खेल खेलती है। विदेशों से आने वाले सैलानी बड़ी तादात में आते हैं। तो मुंह में बिना पान ठेले, जबान लाल किये बात नहीं निकलती। लड़के बड़े होते ही गुरु तो लड़कियां सुहाग के सपने में, यहां की साड़ियों में खो जाती हैं। दूर दूर से लोग यहां अपनी बेटियों और बहुओं के लिए कामदार साड़ियां खरीदने आते हैं। विश्व मार्केट में अच्छी पैठ है अपनी। लोग जब सड़कों पर चलते हैं तो खाने की याद उन्हें सताने लगती है, गलियों में कचौड़ी की खुशबू आये बिना ही मन कचौड़ी खाने को करता है तो ठठेरी गली में मन शांत होता है। देश में जहां गो हत्या पर इतनी सुर्खियां बन चुकीं हैं वहीं यहां के बासिंदे गो माता का सत्कार करना नहीं भूलते। चलते- चलते सिर अपने आप झुक जाता है क्योंकि घंटी बजे न बजे नजर स्वंय झुक जाती है, हाथ खुद ब खुद उठ जाता है क्योंकि श्रद्धा स्वंय पग पग पर खड़ी मिल जाती है।
विचित्र स्वरुप है मेरा। सूर्य का प्रकाश मानो नयी शक्ति और ऊर्जा के साथ एक नया संदेश दे रहा हो। वहीं गंगा किनारे जब मधुर वाद्द संगीत कानों में पड़ जाये तो दिन का सफर सुहाना हो जाता है। आदिकाल से लेकर अब तक  मैं यूंही खड़ा हूं अपना सर उठाये। यहां के मंदिर जो दूर से ही नजरों में बस जाते हैं और अंदर आकर नजर एक बार ऊपर तो एक बार नीचे जरुर जाती है।लोगों ने किताबों में पढ़ा जो है कि चांदी के सिक्के जमीन में पत्थरों पर बसाये गये हैं और कलश खरा सोना है। विश्वप्रसिद्ध कालेज बसते हैं यहां। जहां से निकला हर छात्र स्वंय को गौरवान्वित महसूस करता है। इस विश्वप्रसिद्ध कालेज को बनाने के लिए एक संत की तरह तप किया महामना मदन मोहन मालवीय ने। तब जाकर बी एच यू की स्थापना 1916 में हुई। संस्कृत भाषा का अध्ययन करने के लिए एकमात्र विश्वस्तरीय केंद्र रहा हूं मैं।संस्कार और विचारों का संगम है मेरा नाम। भक्तों की मक्ति तो पापों से मुक्ति सब यहीं मिलती है। हर श्रद्धा का अंतिम छोर हूं मैं। जीवन शुरु भले मुझसे न हो पर जीवन धूल इस गंगा तट के किनारे से धीरे से गंगा में मिल जाना ही प्रत्येक आस्था के विश्वास में समाया हुआ हूं मैं। यहां के आकाश में धूल भले छा जाये पर, मजाल है धरती पर उसका असर कहीं दिख जाय। परंपरा मेरे अंदर पनपी, रची और बसी हुई है। जहां आज भी लज्जा घूंघट में चलती है तो अटखेलियां पंख पसारे चलती हैं। कोई रोक नहीं कोई टोक नहीं। पूरा देश मुझमें सिमटा हुआ है इसलिए मुझे मिनी इंडिया भी कहा जाता है।
अब आपको अपने विषय में थोड़ा वृहद् पूर्वक बताता हूं। यूं तो मैं यारों का यार दिलदारों का दिलदार हूं लेकिन, खुद को जब आज देखता हूं तो राजघाट से लेकर अस्सी घाट के बीच त्रिलोचन, गाय, सिंधिया, अहिल्या, मणिकर्णिका ब्रह्म, दशाश्वमेध, हरिश्चंद, केदार, हनुमान, तुलसी घाट जस के तस बने हुए हैं। हर घाट की अपनी एक कथा और व्यथा है। सौभाग्य हर उस समर्पित पत्थर और समर्पित भावना का जिसने गंगा के आंचल में गोटे जड़ दिये और मजबूत किनारा घाटों के नाम पर बेटों की फौज तैयार हो गयी। जो आज भी शान से सैनिक की तरह खड़े रहते हैं मां गंगा की सेवा में। 1500 मंदिरों के बीच आस्था का प्रतीक स्वरुप बन चुका हूं मैं। लोग यहां पर्यटन से भी ज्यादा तीर्थाटन के उद्देश्य से अधिकतम मात्रा में आते हैं। पंचकोष तक मेरे हाथ फैले हैं पर अब मेरे हाथ पंचकोषी के दायरे से ज्यादा लम्बे हो चुके हैं। कहते हैं जिसने जीवन की अंतिम सांस मेरी पनाह में ली उसे परमगति की प्राप्ति होती है।

संवत 1680 में अस्सी गंग के तीर,
श्रावण शुक्ला सप्तमी , तुलसी तज्यो शरीर...

वरुणा और अस्सी के संगम के कारण ही मेरा नाम पड़ गया। मेरा महत्तव तब बढ़ गया जब प्रलय के दौरान मेरी रक्षा करने स्वंय भोलेनाथ आ गये और अपने त्रिशुल पर मुझे धारण कर लिया। तब से लेकर अब तक उसी रुप में मेरा अस्तित्व आज भी कायम है। भोले को यह नगरी उतनी ही प्रिय है जितनी पार्वती जी को शिवजी। मैं गवाह हूं उस पल का, जब सत्यवादी राजा हरिश्चंद ने अपने वचन की खातिर अपनी पत्नी और बेटे तक को नीलाम कर दिया था। यहां वही संत कबीर की इच्छा इच्छा ही रह गयी मेरे स्थान पर अंतिम सांस लेने की। आजकल अखबारों से लेकर टीवी माध्यम वालों के लिए अनिवार्य विषय बन चुका हूं। यूं तो मैने कई विद्वान, कलाकार और हस्तियों को जन्म दिया पर मुझे अपनाकर गर्व की अनुभूति करने वालों में एक विशेष नाम जुड़ चुका है- हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी का। विस्तारीकरण से पनपी कुछ व्याधियों को दूर कर मेरा स्वरुप और आधुनिक बनाने का फैसला लेकर मेरा मान बढ़ाया है।

अति प्राचीनकाल से अति आधुनिक काल का काल देखा है मैंने। संघर्ष से लेकर शून्य के विराम की परिभाषा का एहसास किया है मैंने। परंपरा और सभ्यता को धारण कर बदलते समय के साथ चल लेता हूं। पल-पल का एहसास करता हूं मैं। खुद को कभी बदला हुआ तो कभी चिरकाल के आगोश में खोया हुआ समर्पित पाता हूं। यहां सभी मजहब मेरे रस में घुल से जाते हैं क्योंकि मैं रसों में रस बनारस हूं।

Wednesday, 15 July 2015

क्या हुआ तेरा वादा.....

 
सर्वमंगला मिश्रा

शौर्य के बल पर सिकन्दर ने पुरु को झुकाया। पानीपत का पहला युद्ध मुगलों ने जीता। 300 साल अंग्रेजों ने शासन किया।एक किंवदंती है कि जब राजा बलि अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे। तभी एक नन्हा सा ब्राह्मण बालक द्वार पर आया। जब राजा बलि उसके सम्मुख हुए तो उस बाल ब्राह्मण ने साढ़े तीन गज जमीन की मांग की अपने पग से। इस पर राजा बलि ने उसका उपहास उड़ाते हुए संकल्प किया कि साढ़े तीन पग भूमि वो उसे दान में समर्पित करेंगे। पर जब उस बाल ब्राह्मण ने तीन पग में सम्पूर्ण धरती, आकाश और पाताल नाप लिया तो आधी गज़ जमीन कम पड़ गयी और राजा बलि को स्वंय झुककर कहना पड़ा कि अब तो मुझे ही माप कर संतुष्ट हों। क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि नप चुकी थी भगवान विष्णु के चरणों से। राजा प्राचीन काल में उत्तर भारत विजय और दक्षिण भारत विजय करते थे। उत्तर भारत विजय तो सभी बलशाली राजा कर लेते थे। पर दक्षिण विजय कुछ परम बलशाली ही कर पाते थे। समुद्रगुप्त का नाम आज भी अंकित है इतिहास में। समुद्रगुप्त ने सम्पूर्ण भारत पर विजय तो हासिल कर ली। परन्तु उस पर शासन करना कठिन था। साम्राज्य चलाना उस काल में कठिन होता था। इसलिए अधीनस्थ राजाओं को उनका राज्य वापस लौटा कर उनसे कर वसूलते थे अथवा अपने अधीनस्थ रखकर साम्रज्य चलाते थे। इतिहास गवाह है कि अशोक, अकबर, बाजीराव पेशवा, विक्रमादित्य या शेरशाह सूरी कोई भी शासक एकाधिकार से शासन नहीं कर पाया जितना की विस्तृत भू भाग हम आज भारत का देख रहे हैं।आज का युग हाई टेक हो चुका है। अब 24 घंटों में आप यूरोप जाकर वापस भी आ सकते हैं। अमेरिका, चीन, जापान कहीं भी पहुंच सकते हैं। मोदीजी ने 2014 के चुनावकाल में अपनी पूरी ताकत झोंक दी। सम्पूर्ण भारतवर्ष के न जाने कितनी बार चक्कर लगाये होंगे। पूरा विश्व नाप लिया विमान से। राजा बलि ने तो अपना संकल्प पूर्ण कर दिया पर मोदी की राह संकल्प पूरा करने के पथ पर अग्रसर है या भटकाव है अथवा ये पथ ही भटकावपूर्ण है।

राजनीति में नीतिपूर्ण भटकाव जनता को सदा सर्वदा से भ्रम की स्थिति में डालता है। भटकावपूर्ण रवैया राजनीति में सूझ-बूझ के साथ न लिया जाय तो एक तरफ कुंआ और दूसरी ओर खाई अपने आप खुद जाती है। आज की राजनीति में अलगाव का बिगुल ऐसे बजता है जैसे एक कक्षा पार कर बच्चा दूसरी कक्षा में जा रहा हो। प्रधानमंत्री मोदी ने सम्पूर्ण भारत को गुजरात के तार से जोड़कर अविरल भावनाओं का संचार कर डाला। क्या देश वाइब्रेंट गुजरात, वाइब्रेंट इंडिया और डिजिटल इंडिया के कार्यक्रमों से बन जायेगा। शौर्य रणनीति में मात्र दिखना ही नहीं चाहिए बल्कि धरातल पर फलीभूत हो सके ऐसी रणनीति होनी चाहिए।

देश घोटालों के चक्रव्यूह में घिर चुका है। सरकार और विपक्ष आरोप –प्रत्यारोप का खेल खेलकर जनता को गुमराह करती आयीं हैं। विपक्ष सरकार के पक्ष-विपक्ष हर मुद्दे को लेकर गहन राजनीति करने से बाज नहीं आता। पक्ष सरकार न गिरे इसके लिए एड़ी चोटी का जोर लगाता रहता है। हर जुगत जिससे सरकार अपनी सत्ता पर काबिज़ रहे। लोकतंत्र न हो तो नेताओं- मंत्रियों को मुद्दे न दिखायी देते और न उठते। लोकतंत्र की मर्यादा को बनाये रखने के मात्र उद्देश्य से ही सही मंत्रीगण चुनाव काल के दौरान मुद्दे गिनाते हैं, ऐजेंडा तैयार होता है और घोषणा पत्र भी जारी होता है। उस घोषणा पत्र की सुध भी नहीं रहती पार्टियों को। ऐसा प्रतीत होता है कि घोषणा पत्र मात्र जनता की ओर से प्रश्नपत्र का उत्तर पुस्तिका के रुप में घोषणा पत्र आता है। उन वायदों का क्या जो मोदीजी ने चुनाव प्रचार के दौरान किये थे।

मोदी का शौर्य प्रदर्शन कब तक जनता को मृग मरीचिका की अवस्था में रख पायेगा। आज भारत का केंद्र राज्य मध्य प्रदेश जहां भाजपा की सरकार ने अपने पैर अंगद की तरह जमा लिये हैं। जड़े इतनी मजबूत हो चुकीं हैं सरकार के शासनकाल में ही घोटाला हुआ। सरकार ने ही उसका पर्दाफाश किया और सरकार के राज में ही उसकी जांच भी हो रही है। व्यापम घोटाला देश का ऐसा घोटाला बन चुका है जिसमें अनगिनत मौतें हो चुकी हैं। हाल ही में टी वी पत्रकार अक्षय सिंह की मौत ने भाजपा के शासन की जड़ें जहां हिलाकर रख दीं। वहीं कड़वा सच भी सामने आ रहा है कि सरकार कितनी तानाशाह बन चुकी है। अक्षय सिंह की मौत के बाद लगातार हुई चार और मौतों ने सरकार के सामने दलदल की स्थिति पैदा कर दी है। गवर्नर के पुत्र से लेकर पूरा मध्य प्रदेश ही जैसे व्यापम के आगोश में आ चुका है। एक के बाद एक मौतें उज्जैन की नम्रता से लेकर मृतकों की संख्या अर्ध सेंचुरी पूरी कर सकती है। इसके बाद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह का चावल घोटाला भी अब जनता के सामने आ चुका है। क्या प्रधानमंत्री जिन्होंने काला धन वापस लाने की बात कहकर देश की जनता का दिल जीता था। आज उनके ही शासनकाल में भाजपा शासित राज्यों से इतने बड़े- बड़े घोटाले सामने कैसे निकलकर आ रहे हैं। इसका तात्पर्य स्पष्ट है कि कांग्रेस सरकार ने अपने कार्यकाल में घोटाले किये तो भाजपा ने अपने अधीनस्थ राज्यों में।  

देश में मात्र प्रोजेक्टस लांच करने से या उसकी घोषणा या शिलान्यास करने से देश में फैली कुरीतियां नष्ट नहीं हो जायेंगी। जर्जर नीतियों से, अस्वस्थ मानसिकता से मंत्री एंव नेतागण को उबरना होगा। देश बहलावे से नहीं आर्थिक सतर्कता और लाभकारी नीतियों को पूर्णरुप से लागू करने पर ही सुचारु हो सकता है। मोदी जी स्वंय को चौकीदार मानते हैं। परन्तु आज देश की भावभंगिमा किस स्वरुप को अख्तियार कर रही है उन्हें ज्ञात भी है।कक्षा में जब शिक्षक नहीं होता तो बच्चे शैतानी करने से परहेज़ नहीं करते। बास के न होने पर कर्मचारी मनमर्जियां करते हैं उसी तरह प्रधानमंत्री के देश में न रहने से मंत्रीगण पने उत्तरदायित्व के प्रति कितने सजग रहते हैं यह चिंता का विषय है। यूरोप को इस दशा में लाने के पीछे 600 सालों का योगदान देना पड़ा।

एक वक्त था जब भारत को विश्व से अनुदान मिलता था। मेक्सिकन गेहूं जिसे शायद विदेशों के जानवर भी नहीं ग्रहण नहीं करते थे। तब लालबहादुर शास्त्री की अन्तर्रात्मा कराह दी। फलस्वरुप एक वक्त का भोजन छोड़ने के लिए देशवासियों से आग्रह किया तो देश की जनता ने धर्म की तरह पालन किया। परिस्थितियां आज पलट चुकीं हैं। देश में न टैलेंट की कमी है और न ही धन की बल्कि, नियत की कमी है। विश्वभ्रमण पर निकले प्रधानमंत्री दूसरे देशों को धन स्वरुप प्रेम बांट रहे हैं। पर, हमारा देश आज भी विकट परिस्थितियों से जूझ रहा है। देश आज गेहूं से लेकर अन्य वस्तुओं का उत्पादन से लेकर निर्यात भी कर रहा है। उसके बावजूद भी देश का विस्तृत हिस्सा भूखों सोता है। आखिर कब सपनों का भारत बनेगा। मोदी जी का सपना जो अब करोड़ों देशवासियों की आंखों में पल रहा है शीशे की तरह है या तो टूट जायेगा या तो फ्रेम हो जायेगा। 

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Saturday, 11 July 2015

सी बी आई

सर्वमंगला मिश्रा
9717827056

सी बी आई  यानी सेंट्रल ब्यूरो आफ इंन्वेस्टिगेशन। सी बी आई एक विकसित जानी मानी अपनी एक पहचान पूरे विश्व में बनाये हुए है। सी बी आई की जांच प्रक्रिया पूरी होते ही माहौल शांत और तमाम तरह की जवाबदेही का अंत हो जाता है। यानी सी बी आई एक ऐसी गवर्निंग बाडी है जिसपर पूरे देश को भरोसा रहा है।


क्या है यह सी बी आई??
स्पेशल पुलिस स्टैब्लिशमेंट (एस पी ई) का गठन 1941 में भारत सरकार द्वारा किया गया था। जिसका मकसद घूस एवं करप्शन से लड़ना था।तभी द्वीतीय विश्व युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध के दौरान भारत द्वारा युद्ध सामग्री की सप्लाई विभाग में हुए ट्रांजैक्शन की जांच करने के उद्देश्य से एस पी ई को निर्देशित किया गया। अति संवेदनशील प्रोजेक्ट को हैंडल करने के बाद देश एवं सरकार को बड़े पैमाने पर इस टीम की आवश्यकता महसूस हुई। फलत: दिल्ली पुलिस स्टैब्लिशमेंट एक्ट के तहत 1946 में इस संगठन को मान्यता मिली। साथ ही इसका विस्तारीकरण भी किया गया। जिसके तहत गृह मंत्रालय इनका प्रमुख बना ताकि सभी सरकारी विभागों के तहत धांधली एवं भ्रष्टाचार को रोका जा सके। 01 अप्रैल 1963 को इसका नाम बदलकर स्पेशल पुलिस स्टैब्लिशमेंट (एस पी ई) से सेंट्रल ब्यूरो आफ इंन्वेस्टिगेशन (सी बी आई)कर दिया गया। संस्थापक एवं डाइरेक्टर डी पी कोहली को इस जांच ऐजेंसी को राष्ट्रीय स्तर तक लाने में योगदान देने के लिए -पद्म भूषण- से नवाज़ा भी गया। जो एस पी ई टीम के सदस्य भी रह चुके थे। अब तक कुल 24 डायरेक्टर्स इस संस्था को अपना योगदान दे चुके हैं। जिसमें से एक नाम बहुचर्चित रहा जोगिन्दर सिंह जी का। बिहार का बहुचर्चित चारा घोटाला के दौरान जोगिन्दर सिंह जी चर्चा का विषय बने रहे। 25 वें रंजीत सिंन्हा और 26वें अनिल सक्सेना हैं जो वर्तमान में इस पद को सुशोभित कर रहे हैं। 
सवाल उठता है कि आज देश में कोई भी कांड हो जाये जनता जनार्दन की आवाज सी बी आई की जांच के लिए उठने लगती है। सी बी आई ने ऐसे कई मसले सुलझाये हैं जिनका कोई सानी नहीं है। जिसतरह देश के कानून के आंखों पर पट्टी लगी है उसी तरह सी बी आई की जांच को देश तवज्जो देता है। यानी बेबाक, बेखौफ और निष्पक्ष। जनता को भरोसा रहा या नहीं सरकार पर यह बेहद गंभीर और चर्चा से परे विषय है। सरकार ने जनता जनार्दन के लिए नियम से लेकर योजनाएं बनायीं। चाहे वह शेरशाह सूरी हों, बादशाह अकबर हों या मुहम्मद बिन तुगलक हों।  आधुनिक युग की बात कर लें- तो जवाहर लाल नेहरु हो, इंदिरा गांधी हों या नरेंद्र दामोदर दास मोदी। योजनायें किस हद तक जनता तक पहुंचीं हर काल में- यह चिंतन का विषय है। कानून की हमेशा से एक परंपरा चली आ रही है। दंड विधान से लेकर खुफिया तंत्र प्रजा के लिए काम करते थे। वो सेवक राजा के ही होते थे पर कार्य देश और जनता के हितों के मद्देनज़र ही किया जाता था। कार्य में किसी भी प्रकार की धांधली या उलटफेर की इज़ाजत नहीं थी। एक सर्वोच्च अधिकारी राजा ही सर्वमान्य था जिसके मुख से निकला हर वाक्य आदेश होता था। उस काल में टेलीविजन या रेडियो भी नहीं हुआ करते थे। पर फिर भी अपने वचन पर कायम रहने का उस ज़माने में उन राजाओं का कोई सानी नहीं था। आज हर नेता टी वी पर अपने ही दिये बयान से पलट जाता है। जन जन तक प्रचारित और पहचान में आने वाला शख्स अपनी वाणी को हर पल झुठलाता नज़र आता है। वहीं जांच प्रक्रिया भी शक के घेरे में आ चुकी है। निष्पक्ष शब्द कहीं दुर्लभ प्रजाति की भांति अकेला संघर्ष कर रहा है। आज सी बी आई के बड़े ओहधों पर ऐसे लोग विराजमान हैं जो सरकारों की हां में हामी मिलाकर चलते हैं। आज सी बी आई के कुछ ऐसे प्रकरण सामने आ चुके हैं जिससे उसे पैरट की संज्ञा दे डाली गयी। अपने अस्तित्व को कहीं न कहीं सी बी आई ने खोया है। खोयी हुई सत्ता हासिल करना यूं आसान तो नहीं होता। वहीं, देश की मानसिकता, लोगों की श्रद्धा आज भी सी बी आई नाम की संस्था पर कायम है। आज सी बी आई सरकार के पक्ष को ही अपना पक्ष मानकर चलती है या अलग हटकर सच्चाई की दांसता सामने लाने और मजबूती से पेश करने की ताकत रखती है ? आज निर्भया कांड से लेकर मोहनलालगंज मामले तक या बोफोर्स घोटाला, कोयला घोटाला भोपाल गैस त्रासदी,सोहराबुद्दीन केस, प्रियदर्शीनी मट्टू से लेकर 2ज़ी घोटाला, आई पी एल घोटाला हर घोटाले की जांच सी बी आई ही कर रहा है। उधर ताबूत घोटाले से लेकर चीनी घोटाला हो,1993 का बम बालस्ट, 26/11  कांड या सुनन्दा पुष्कर मौत की जांच, सब सी बी आई को सौंप दी गयी। फहरिस्त लम्बी होने के कारण मुकाम अनकहे से हो रहे हैं। जाहिर सी बात है जब एक ही संस्था के ऊपर लाखों केसस का भार डाल दिया जायेगा तो टीम जितनी मजबूत हो शायद कहीं न कहीं कहे अनकहे दबाव और अनसुनापन उभरने लगता है। वरिष्ठ जांच ऐजेंसी की अपनी भी कुछ सीमायें होती हैं. यूं तो सी बी आई की कुल – पूरे देश में 52 शाखायें है। इसमें लगभग 5666 कर्मचारी कार्यरत हैं। 1122 केसस 31 मई 2014 तक अभी भी पेंडिंग लिस्ट में है। सी बी आई ने अपने कार्यकाल के 52 वर्ष पूरे भी कर लिए। पर यह उच्च वरियता प्राप्त जांच ऐजेंसी की अहमियत ऊंची दुकान फीका पकवान की तरह स्तर गिरने लगा है जनता की निगाह में। सी बी आई को अब सरकारी मुलाजिम के तौर पर देखा जाने लगा है। क्योंकि कुछ केसस का समाधान सरकार के इशारों के अनुरुप हुआ जैसे- पी वी नरसिम्हाराव को बरी कर दिया गया उसके कुछ दिन बाद ही उनका देहान्त हो गया था। बोफोर्स मामले में क्वात्रोची के देहान्त के साथ ही बोफोर्स घोटाले की फाइल बंद करनी पड़ी। इसी तरह तमाम ऐसे मामले जो सी बी आई के साथ लुका-छिपी का खेल खेल रहे हैं।



आज देश भ्रष्टाचार और घोटाले की जमीन पर बैठा है। सी बी आई को अपनी जांच पूरी करने में मुश्किलों के साथ-साथ सरकारी दबाव का भी सामना करना पड़ता है। क्या जांच ऐजेंसियां खुलकर काम कर पाती हैं?? इन्हीं पेंचिदा बातों के कारण अन्ना लोकपाल के तहत सी बी आई को भी लाने की मांग कर रहे थे। पर लोकपाल अब किसी पाले में नहीं है। देश में करप्शन और जालसाज़ी की मात्रा इतनी बढ़ गयी है कि जांच का आदेश देने वालों पर ही जांच कमिटी बनाने की आवश्यकता एक बार नहीं बल्कि हर बार ही पड़ जाती है। मसला यह है कि शासन तंत्र ही अगर इतना अनियंत्रित, उच्चाकांक्षा से परिपूर्ण, द्वेषभाव पनपाने वाला, संकुचित जीवन यापन शैली को महत्तव देने वाला परोपकार तो दूर विचारणीय पहलुओं पर भी अनदेखी करेगा तो जनता बेहाल होकर दम तोड़ती रहेगी। विचारणीय विषय यह है कि क्या ऐसी जांच ऐजेसियों को सरकारी दायरे में रहकर काम करना चाहिए?? क्योंकि काल चाहे कोई भी रहा हो या आनेवाले कल में भी ऐजेंसी हों या सरकारी अदालतें परोक्ष अथवा अपरोक्ष रुप से प्रभावित होती आईं हैं और शायद होती भी रहेंगी। तभी 32,92,758 मामले कोर्ट में फंसे पड़े हैं। शासनकर्ता की साम दाम दंड भेद की नीति जगजाहिर रही है। ऐसी परिस्थिति में जनता सदैव से नीले आकाश के साथ शासनकर्ता के आगे हाथ ही जोड़ती आई है। जबकि विचित्र पहलु सर्वदा से अचम्भित करते रहे हैं। जहां वरिष्ठता प्राप्त व्यक्ति शासनतंत्र पर भी शासनकर्ता द्वारा शासन कर लेता है। सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय कभी होगा??  
पेट्रोलियम विभाग में हुए खुलासे के बाद, जिस तरह फाइलों का आगमन और बहिर्गमन होने की प्रक्रिया देश के हित में गढ्ढा खोदने का काम काम कर रही थी, उससे देश के मस्तिष्क पर चिंता की रेखाएं खिंचती नजर आ रही हैं। जासूसी कांड का ऐसा खुलासा पहली बार नहीं हुआ है। इससे पहले भी जासूसी कांड के खुलासे होते रहे हैं। समस्या यह है कि हर बार मामले की तह तक सरकार नहीं पहुंच पाती या बचने में ही अपनी भलाई समझती है।  भारतीय दूतावास में भी ऐसा किस्सा छनकर आया था। पर कोई सख्त़ कदम नहीं उठाया गया। वैसे जब ऐसे खुलासे होते हैं तो जाहिर सी बात है आखें बड़ी हो जाती हैं और माथे पर जिंता की लकीरें उकरने लगती हैं। सरकारें बदलती हैं पर मुलाजिम नहीं। सालों से कार्यरत कर्मचारी नेताओं से भी भलीभांति जानते हैं सरकार चलाना। उन्हें किसी बाहरी या भीतरी समर्थन की आवश्यकता नहीं होती। रिटायर्मेंट के वक्त ही उनका काम पूरा होता है। सरकारी मुलाजिम को संसद या विधानसभा में बहुमत साबित नहीं करना होता। इसलिए यह शिनाख़्त कर पाना काफी जद्दोजहद का काम है। इतना बड़ा देश, इतनी बड़ी सरकार, अनगिनत मुलाजिम, मुश्किल है इस बात की तफ़्तीश करना –कौन अपना और कौन बेगाना। रेगिस्तान और दलदल से भरी राजनीति की जमीन को नये रुप से उपजाऊ बनाना किसी एक किसान के बस की बात नहीं। अब धीरे धीरे हर मंत्रालय के दरवाजे से कई सूत्र निकलेंगें।
अन्तोगत्वा, फिर इस मामले की जांच भी बाकी अन्य बड़े मामलों की तरह सीबीआई को सौंप दी जायेगी। सीबीआई जो एक रुप से सरकारी इशारों पर चलने की आदि सी हो गयी है। हर मामले के साथ कितनी निष्पक्षता दिखा पायेगी।
Peace lies …?


Sarvamangala Mishra
9717827056


Everyone in the world speaks about peace and few talks about tranquility. Indian Prime Minister Narendra Modi showed recently to the world how to achieve peace by working out Yoga. On International level he received unlimited praiseworthy notes. From the very beginning India was forefront in cultural activities, spiritualism and Vasudhaiv -Kutumbakam. These three pillars are still standing in a different form on this earth to secure the humanity and peace. In many chapters of history it has been seen some vast and miracle changes which appeared as a drastic change for the world. As the great worrier Ashoka who fought kalinga war and that war changed his entire life. His mind was completely changed after seeing bloodshed in the battle field in a huge quantity. No doubt, he must have fought number of battles during his life but this war became as a milestone for his personal life and he showed the world a path and door of Buddhism. He headed towards Buddhism to promote in Eastern and southern part of the world. Later his daughter Sanghamitra walked on same path to expand Budhhism in the world.
Peace has different meaning to different people. A person loves traveling and feels peace during his journey. In same manner those who love food, will get peace by exploring various varieties of food; it could be spicy, salty or sweet dish. A person loves painting and when the person paints something on his canvas it appears more beautifully than his imagination; it will give him a feeling of peace there. A businessman gets a relief when he earns more profit at the end of the year. A fighter fights and when he wins the battle on ground happiness comes in a form of peace.  There are several other examples comes everyday which gives us little relief or peace for a short time or rather for a little longer. It has been found and seen that there are people in the world who hates silent. They want happening life all the time. Silence gives them a kind of horror feeling to them. But philosophers, scientists and great leaders/ achievers welcomes silence in their life for sometime to gain strength physically and mentally.
Worlds every nation talks about peace for their country for humanity. But, before independence and after independence has India achieved or any nation could talk about it? The answer would be –No. Why? What is the reason behind? Let’s try to figure it out.
India carries a peace loving nature within himself. India is surrounded by number of countries as China, Bangladesh, Sri Lanka, Nepal, Bhutan and Pakistan. After independence, it has been seen and still Kashmir issue has not been resolved by our governments. On the other hand China boarder issue creates panic situation most of the time. History has evidence that how 1962 war has been fought and later a slogan was very popular- “Hindi- Chini - Bhai- Bhai”. On same track Indo- Pak relation is still under observation. Historic war stories are evidence in front of the world that how a part of a land created jealous feeling and egoism along with it gave a birth to terrorism which is unwanted child of any parent. Terrorism has gown up so fast across the world that no body could have even thought that this unwanted child will create a new black book against his name. Owing to China and Tibet major land issue created an emergency situation for Dalai Lama and his disciples to run away from their land and they took finally a shelter at India. Since then Tibet exile parliament has been situated in Dharamsala. In a world map there are more troublesome issues like Middle-East peace matter. Where killing and blast comes in daily routine like. These days the terror came with a new mask called ISIS .These people are playing and inventing new terror game everyday to break down humanity, peace, and patience of every soul. Killing a mass on world basis seems like humanity is dead; only shadow is remaining on this earth. There are groups across the world and nation working on a various platforms to get their desired destinations whether they are Maoists or terrorists. Chhattisgarh and Jharkhand these two states receive encounters abruptly. In eastern part of India Maoists network is stronger than any other group. People of West Bengal, Assam, Manipur can be seen under haunted situation most of the time.
Jesus, Mahavir swami, Guatam Budhha, Socrate, Aristotle ,Swami Vivekanand, Gurunank and Mahatma Gandhi every guru and philosopher spread the knowledge of peace.  But peace needs lots of sacrifices, co ordination, mutual understandings, unity and compassion for others. On international platform it’s a tough job but nationwide it may decrease some distance towards peace. UN took initiatives to maintain peace and harmony worldwide. People like Mother Teresa, Malala and Kailash Satyarthi came few steps ahead to educate and nurture our next generation. Therefore world may get another Swami Vivekanand or one more Mother Teresa in future from one corner of the world.
Peace comes through patience. Patience is another national trait. India has traditionally given importance to the United Nations’ peacekeeping operations.  Indian troops have participated in some of the most difficult UN peacekeeping operations. The country has been at the forefront of these activities, contributing to the maintenance of international peace and security in different parts of the world. India’s involvement and pro-active participation to maintain law and order and bringing back peace to that nation was highly appreciated and India’s professional competence and humanitarian attitude has won global admiration. Nations have, since a long time used demonstration of military capabilities and threats of use of force as instruments to boost negotiating leverage with other states or nations. Operation cactus, operation Pawan, operation Vijay and operation Khurki are the milestones in the world history, where India took initiative individually and as UN peacekeeping force to respect for human rights, ameliorating the group of the sick, poor and oppressed.  These are the activities of our nation towards neighboring countries which own the hearts and minds of the local people and received peace loving nation fame.
Deployment of peace is a sensible issue and most importantly on humanitarian background it’s a speechless smile for every peace loving heart. Peace means a faith on country’s law and order which protects a person inner tranquility and strength of willpower. Now, it’s a time to consider respectable issues on every level. Every statesman should think on these issues rather their own profit or gain. World is a global village now. Every section and sector is working on global platform. Consideration of discrimination, partiality and maintaining peace across the world should be the target to achieve worldwide.

  मिस्टिरियस मुम्बई  में-  सुशांत का अशांत रहस्य सर्वमंगला मिश्रा मुम्बई महानगरी मायानगरी, जहां चीजें हवा की परत की तरह बदलती हैं। सुशां...