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Saturday 5 December 2015

कांग्रेस का कांफिडेंस



सर्वमंगला मिश्रा
9717827056

बिहार में जीत हुई जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस की। पर सबसे ज्यादा आत्मविश्वास का खुमार कांग्रेस पार्टी में कुछ हद तक तो राहुल गांधी में अधिकतम मात्रा में नजर आ रहा है। राहुल गांधी को खुद से इतनी उम्मीदें बढ़ गयी हैं कि वो उत्तर प्रदेश में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव अकेले दम पर लड़ना चाहते हैं। उन्हें शायद इस बात का अंदाजा भी नहीं है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सबसे कमजोर कड़ी है। असम, अरुणांचल जैसे उत्तर-पूर्वी  भारत में शाख सालों से बनी है। साथ ही भारत के अन्य राज्यों में सांप –सीढी का खेल चलता रहता है। यह वही कांग्रेस पार्टी है जिसकी सत्ता एक समय पूरे देश में हुआ करती थी। धीरे धीरे जनता के अधिकार बढ़ते गये और कांग्रेस का आंचल सिमटता गया। पर एक वक्त आया जब देश में कांग्रेस का नेतृत्व जी खोलकर जनता के दिल में हिलोरें मारने लगा था। वो वक्त था राजीव गांधी का- यानी सन् 1987-89 का। पर 1991 में राजीव गांधी की मौत ने जहां पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। वहीं दूसरे नेतृत्वकर्ताओं ने बागडोर संभालने में देर नहीं की। फिर कांग्रेस के मूल पक्षधर कार्यकर्ताओं ने सोनिया लाओ देश बचाओ – का नारा लगाकर 1997 में सीताराम केसरी को पदच्यूत कर सोनिया के हाथों में कांग्रेस पार्टी की बागडोर सौंप दी। उसके बाद से लेकर अबतक नेतृत्व परिवर्तन तो नहीं हुआ पर, परिवर्तन ऐसा हुआ कि सत्ता क्या शाख ही हिल गयी है।
कांग्रेस पिछले कई सालों में विधानसभा चुनावों से लेकर पंचायत और बाकी इलेक्शन्स भी हारती चली आ रही है। ऐसे में जहां कांग्रेस राहुल गांधी के बल पर एक पर एक बिरासत खोती चली जा रही है। क्या एक बिहार विधानसभा चुनाव छलाग मारने के लिए सही पायदान साबित होगा। कांग्रेस पार्टी का फेस आज शून्य है। कोई फेस वैल्यू नहीं है। जिसके बल पर जता में उत्साह भर जाता हो, जिसे देखते ही युवा क्रांति की भावना पैदा हो जाये। पीछे मुड़कर देखा जाय तो इसी बाल तानाशाही के कारण कई दिग्गजों ने अपनी राह पकड़ ली। अगर राहुल गांधी और कांग्रेस को बिहार चुनाव स्वयं के बल पर फतेह किया हुआ राज्य लगता है तो स्थिति भ्रामक है।
कांग्रेस ने कई सालों बाद जीत का चेहरा देखा है। 2004 और उसके बाद के चुनाव सोनिया गांधी को देखकर लड़ा गया था और जनता का विश्वास कहीं न कहीं उन्होनें जीत लिया था प्रधानमंत्री की कुर्सी ठुकराकर। एक त्याग की मूर्ति वाली छवि ने वो कारनामा कर दिखाया था जो शायद बैठने पर न हो पाता। उन दिनों दो संभावी दिशायें भी थीं- राहुल और प्रियंका। प्रियंका ने राजनीति से किनारा कस लिया पर पार्टी की जरुरत की तरह बीच बीच में मां और भाई के लिए खेवनहार का काम भी की। धीरे धीरे जनता ने उनके इस अस्तित्व को नकार दिया। जिससे कांग्रेस का एक फेस वैल्यू धूमिल सा हो गया। आज भी एक धुंधली सी आस कहीं न कहीं जनता के दिमाग में है कि प्रियंका गांधी में वो छुपी प्रतिभा है जो नेतृत्व कर सकती है। दिशाहीन कांग्रेस को दिशा देने में सक्षम हो सकती है। पर, परिवारवाद से बिफरी भारतीय जनता ऐसी परिस्थिति आने पर क्या निर्णय लेगी, यह कहना उचित न होगा। हर बात, हर परिस्थिति की अपनी एक आभा होती है। जो निर्णय करती है, जो एक प्रभाव उत्पन्न करती है। अगर प्रियंका गांधी वाढरा का नाम सामने आता है तो काल तय करेगा उनका भविष्य। धरातल पर कागंरेस की छवि आज निशा समान है। जो एक आस पर जीवन जी रही है कि कभी तो सुबह आयेगी।
उत्तर प्रदेश जहां सपा और बसपा का सालों से अखाड़ा जमा हुआ है। जिसतरह राजस्थान में कांग्रेस और बीजेपी का, बहार में जेडीयू और राजेडी का। ऐसे में जिसतरह कमल खिलाने में भाजपा को कड़ी मेहनत के बाद जीत हासिल हुई थी उसी तरह कांग्रेस के लिए भी यूपी फतेह करना आसान न होगा। लालू- नीतीश गठबंधन के बाद मायावती और सपा भी कहीं एक मंच पर आ गये तो कांग्रेस क्या करेगी –अकेले अपना अखाड़ा खोलेगी या फिर बिहार की तरह स्टेज शेयर करने में अपनी भलाई समझेगी। मायावती जो अकेला चेहरा हैं अपनी पार्टी की पर अपने पार्टी के सिंबल की तरह काफी हैं। वहीं साइकिल पर चलने वाली सपा आजकल रफ्तार में है।पंचायत चुनाव जीत चुकी है।जिससे जीत का हौसला बुलंद है। अखिलेश यादव एक युवा चेहरा हैं जो पार्टी में जोश बरने का काम कभी कभी कर देते हैं। रणनीति सपा सुप्रीमो की चलती है या सीएम की । यह विषय दुविधाजनक है। पर, तारतम्य जरुर है पिता पुत्र में या पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में। मुलायम सिंह यादव बले कोई भी बयान दे दें पर पार्टी कार्यकर्ता इतने तटस्थ हैं कि उन्हें कैसे चुनाव में जीत हासिल करनी है। ऐसे में राहुल गांधी की रणनीति कहां और कितनी सपा और बसपा की लहरों के आगे रुक सकेगी या रेत की तरह फिसल जायेगी। कांग्रेस की रणनीति राहुल गांधी और सोनिया का अनमना पुत्र प्रेम जगजाहिर होने से जनता में ज्वार भाटा की तरह विचार आते जाते हैं। बालू से क्षणभंगुर घर की कल्पना मात्र की जा सकती है पर, स्थायी तौर पर नहीं।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                  

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