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Sunday, 24 May 2015


तबाही अभी कितनी



सर्वमंगला मिश्रा
9717827056


सृष्टि की रचना और उसका विध्वंस दोनों सृष्टि निर्माता पर निर्भर है। जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु भी सुनिश्चित होती है। अर्थात् धरती पर हर वस्तु नश्वर है। सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग चार काल होते हैं। आज दुनिया जिस काल में श्वांस ले रही है वो कलयुग का प्रथम चरण है। तीन चरण अभी बाकी हैं विश्व को काल के गाल में समाने में। प्रकृति सदा से अपने शांत और खूबसूरत चरित्र के लिए जानी जाती है। समुद्र शांत रहता है तो उससे खूबसूरत कुछ और नहीं लग सकता पर जब समुद्र में उफान आता है तो तबाही का मंजर छोड़ जाता है। कभी आइला तो कभी कैटरीना तो कभी भूकंप तो कभी सूखा या बाढ़। प्रकृति मनुष्य के कुत्सित कुकृत्यों से जैसे उफन सी चुकी है। हाल ही में 25 अप्रैल से लगातार भूकंप के तीव्र झटके पूरे देश में अमूमन जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, दिल्ली से लेकर नेपाल तक महसूस किये जा रहे हैं। नेपाल में आये भूकंप ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। 1993 में आया महाराष्ट्र का लटूर भूकंप ने कितनी तबाही मचा दी थी। इतनी भारी मात्रा में तबाही ने नेपाल वासियों के जीवन को उखाड़ फेंका है। देश ही नहीं विश्व प्राकृतिक आपदाओं से समय समय पर जूझता रहता है। सुनामी ने अनगिनत लोगों की तबाही की कहानी लिखी थी।
सवाल उठता है कि प्राकृतिक आपदाओं को रोकना इंसान के इक्तियार के बाहर की बात है। पर डिज़ाजस्टर मैनेजमेंटस की भूमिका क्या होती है इन आपदाओं के समय। ऐसे समय में कई निजी और इंटरनैश्नल सेवा संस्थायें आगे बढ़कर काम करती हैं। देश, दूसरे राज्यों और विदेशों से भी भारी मात्रा में सहायता मिलती है। पर वो अनुदान सही स्थानों पर कितना पहुंच पाता है यह एक गंभीर चर्चा का विषय है। समय समय पर ऐसी चर्चायें होती रहती हैं लेकिन रिजल्ट निकल कर सामने नहीं आता। राजीव गांधी का एक वाक्य बहुत कारगर है कि सरकारी योजना से एक करोड़ रुपया निकलता है तो गरीब के पास एक रुपया ही पहुंच पाता है। 1999 में उड़ीसा के तबाही का मंज़र आज भी वहां के लोगों की याद में बसा है। उस वक्त रेड क्रास सोसाइटी जैसी तमाम संस्थाओं ने जो आगे बढ़कर सहायत की थी वह काबिले तारीफ है। पर उड़ीसा सरकार ने उन करोड़ों रुपयों का क्या किया। गरीब तक मात्र हजार या दो हजार से ज्यादा नहीं पहुंच पाया। आज भी समुद्री तट पर बसे तमाम गांव मिट्टी से ही बने घरों में ही लोग रहने को मजबूर हैं।2013 के मध्य में हुई उत्तराखण्ड की त्रासदी भला कोई कैसे भूल सकता है। जहां पलक झपकते सब तबाह हो गया। नैचुरल कलामिटी का कोई वक्त नहीं होता पर, वजह, कई पायी गयीं थीं। पहाड़ों पर बहुमंजिला होटल जहां सौंदर्य में चार चांद लगा रहे थे। वहीं पहाड़ उनका बोढ नहीं सह पा रहे थे। अवैध कंस्ट्रकश्न ने पहाड़ों को उनके अनुरुप नहीं रहने दिया। बेमेल रिश्तों का अंजाम कुछ ऐसा ही होता है। भूकंप, बाढ और सूखा भारत में प्राय: कभी सूखा तो कभी बाढ़ का सिलसिला लगा ही रहता है। 2008 में बिहार की बाढ़ का दृश्य भी दिल दहलाने वाला था। सहरसा, सुपौल, नालंदा, पश्चिमी चम्पारण, सीतामढ़ी, शेखपुरा जैसे तमाम जिले हर हरबार बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं। 2008 में आयी तबाही ने पूरे देश को हिला दिया था। सुपौल जो नेपाल के बार्डर से लगा हुआ है। जिससे पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण गर्मीयों में ग्लेशियर पिघलते हैं और पानी रोक पाने में हर सरकार फेल सी दिखती है और जनता उसी सरकार के आगे दम तोड़ देती है और राज्य सरकार को केंद्र के राहत कोष से अनुदान मिल जाता है। 1979 से 2013 तक बिहार ने इतनी त्रासदी देख ली कि अब आंखों को यही लगता होगा कि पता नहीं सबकुछ कब तबाह हो जायेगा। कोसी नही को बिहार का और दामोदर नदी को बंगाल का शोक के नाम से भी बुलाया जाता रहा है। कोसी नदी का बांध जिसके 52 द्वार हैं। नेपाल जब जब पानी छोड़ता है तब तब तबाही का मंजर आता है। कई सरकारें आयीं और सालों साल राज्य किया पर स्थायी समाधान नहीं निकाल पाये। इंसान का जीवन राजनीति की बिसात पर टिक सा गया है।

ऐसे ही समय में सीमावर्ती देशों के साथ संबंधों की असलियत उजागर होती है। सार्क सम्मेलन में यह सात संबंधी कितने अपने हैं। समय समय पर इसका खुलासा होता रहता है। नेपाल,चीन, श्रीलंका, बांग्लादेश और पाकिस्तान सभी देशों से जुगलबंदी होती है पर फिर धोखा और फलस्वरुप विध्वंस ही देखने को मिलता है। भारत ही नहीं वरन अन्य देशों को भी अच्छे पड़ोसी की तरह हाथ आगे बढाना चाहिए क्योंकि तकलीफ में पड़ोसी ही पहले काम आता है। संबंधों का मंजर ऐसा ही रहा तो कोसी हमेशा दुखदायी नदी के नाम से ही जानी जाती रहेगी। सूखे से हर गरीब किसान आत्महत्या करता रहेगा और भूकंप से तबाही मचती रहेगी।    
अपना बनाने की होड़





सर्वमंगला मिश्रा
9717827056


आजकल अपने पराये होते जा रहे हैं और पराये अपने से लगते हैं क्योंकि कहीं न कहीं आज हर व्यक्ति स्वार्थ सिद्धि में लगा हुआ है। नेतागण जो सिर्फ चुनाव के दौरान झुग्गी- झोपड़ियों में गरीब, कंगाल लोगों को गले लगाने से नहीं हिचकते। पर, वही गरीब जब अपनी समस्या लेकर मंत्री या नेता के पास जाता है तो उसे अनगिनत घंटों का इंतजार करना पड़ता है। इसके बावजूद भी शक की सूई उस गरीब के माथे पर चलती रहती है कि क्या मुलाकात हो पायेगी ? तब नेता जी की प्राइआरिटी बदल जाती है। इसी तरह आजकल की राजनैतिक पार्टियां लोगों के अंदर झांकने की बजाय उन्हें मात्र अपने फ्रेंड लिस्ट में ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल करने की, अपना बनाने की होड़ में जुट गयीं हैं। जिस तरह सोशल साइट्स पर जिस व्यक्ति के जितने फ्रेंड्स होते हैं उसका रुतबा उतना ज्यादा। ठीक उसी तरह आजकल राजनीतिक पार्टियां सदस्यता अभियान चलाकर ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपनी पार्टी से जोड़ लेना चाहती हैं। वैसे इसकी खुले आम शुरुआत आम आदमी पार्टी ने की थी। हाल ही में बीजेपी ने सबसे बड़े दल होने का गौरव हासिल कर लिया। तो वहीं जिस तरह मोदी ने पूरे देश को अचम्भे में डालकर प्रधानमंत्री की कुर्सी हासिल की। अब कांग्रेस भी खुद में नवसंचार की कामना लिए सदस्यता अभियान चलाकर अधिक से अधिक जनसंख्या अपनी ओर खींचना चाहते हैं।
सवाल यह उठता है कि क्या आज राजनैतिक पार्टियां सदस्यचा अभियान इसलिए चला रहीं हैं कि वोट बैंक अगले चुनाव में जुटाना न पड़े। काम किया हो या न किया हो घर के लोग तो समर्थन करेंगें ही। पूरा देश एक घर हो जाय तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है। पर पार्टियां यहां देश को घर बनाने में नहीं बल्कि अपना जोश, अपना वेग और अपने प्रभुत्व का ढिंढ़ोरा पिटवाना चाहती हैं। पर, इससे जनता को कितना लाभ होगा। क्या सरकार जनता की हो जायेगी। शासक, शासक के रुप में नहीं वरन् घर के रखवाले के रुप में पेश आने लगेंगे। घर का हर सदस्य पेट भरकर भोजन कर पायेगा, बच्चे स्कूल जा पायेंगें। भष्टाचार का अंत हो जायेगा। हर घर में खुशहाली आ जायेगी। राम राज्य सा देश का माहौल बन जायेगा। कानून सबके लिए बराबर होगा। पार्टियों की हुल्लड़बाजी खत्म हो जायेगी। महिलायें सर्वत्र सुरक्षित महसूस करेंगी।
यह तमाम सवाल हैं जो ज़हन में कौंधते हैं कि सदस्यता अभियान चलाकर ये राजनीतिक दल क्या साबित करना चाहते हैं कि पूरा देश अब उनका है। कोई विरोधी आवाज़ अब नहीं उठेगी क्योंकि अब आप उनके अपने हो। यदि विरोधी आवाज उठे तो देश उसका जवाब देगा। आज हर पार्टी ज्यादा से ज्यादा संख्या बढाना और बनाना चाहती है। देश को मोदी जैसे यह संदेश देना चाहते हैं कि देश उनकी आवाज सुन रहा है और उनके साथ ही चलना चाहता है।पर क्या देश सचमुच यही चाहता है? या दिल्ली चुनाव की तरह कुछ और चाहता है।
मोदी देश से 11 बजे किसी न किसी रविवार को अपने मन की बात रेडियो के जरिये कर तो लेते हैं पर सुन नहीं पाते जो लोग उनसे कुछ कहना चाहते हैं। मोदी ने जो वायदे किये थे जनता से देश उसकी बांट जोह रहा है। उसे पूरा होते देखना चाहता है। कागजी खुशबु से जनता का मन अब बहलने वाला नहीं। सिर्फ कागज पर सदस्यता संख्या बढाने से कुछ नहीं होगा। अथवा हर घर राजनीति से त्रस्त आपस में ही शतरंज की बिसात बिछाने लगेगा। जीवन की आस्था विश्वास कौंधकर कर मर जायेगा क्योंकि कौन से लोग जुड़ रहे हैं आपके साथ आप नहीं जानते प्रधानमंत्री जी। आपको जन सैलाब के अलावा कुछ सरोकार नहीं है इन सदस्यों से।

सदस्यता अभियान का असली मकसद सिर्फ संख्या बढ़ाना नहीं बल्कि पार्टी को एक ऐसा सशक्त आधारशिला देनी चाहिए जिसके सभी कायदे कानून से लेकर अभिमान विहीन नेतागण होने चाहिए। जिनसे सदस्य सामान्य रुप से पार्टी में अपनी बात रख सकें, मिल सकें, परिवारिक अनुभूति हो। ऐसी सोच मस्तिष्क में न कौंधे कि- हाय यह क्या ज्वाइन कर लिया। जनता से सरकार अगर वादाखिलाफी करती है तो सरकार से जनता भी करती है। यह बात पार्टी के वरिष्ठ और कनिष्ठ सदस्यों को ध्यान में रखना चाहिए। जनता ऐसी परिस्थति में कितनी समझदारी से काम लेती है। किसी पार्टी की बनकर रहने में अपनी शान समझना चाहती है या तटस्थ रहकर समाज और देश को एकाग्रता से चलाने में विरोधी और पक्षधर दोनों बनकर समय समय पर देश की सहायता करेंगें। प्रत्येक नागरिक को स्वार्थ से उपर उठकर यह बताना आवश्यक हो गया है कि स्वार्थ और राजनीति से परे देश और समाज के लिए एक नियम एक कानून ही हर नागरिक के जीवन में खुशहाली ला पायेगा। सिर्फ राजनीतिज्ञों को ही नहीं हर व्यक्ति को राजनीति की राजनीति से परे स्वार्थ से उपर उठना होगा। तभी सबके बच्चे चाहे गरीब हो या अमीर स्कूल जाकर विद्दाध्ययन कर पायेंगें। कोई भूखा नहीं सोयेगा और भयमुक्त जीवन एक इंसान इंसान की तरह जी पायेगा।      

21वीं सदी में अंधविश्वास


सर्वमंगला मिश्रा-स्नेहा

9717827056

देश की संप्रभुता अक्षुण्ण रखने के लिए अति आवश्यक है गांवों का विकास करना। गांवों में बसी प्रजातियों का शिक्षा से परिचय करवाना। शिक्षा के अभाव में आज भी अविकसित मानसिकता लिए गांवों में अकथित अकल्पनीय और जंजीर समान कठोर परंपरायें विद्दमान हैं। कुप्रथाओं को पोषित कर उनके विकास में योगदान आज भी पनप रहा है। जीवन की मूलत: समस्याओं से जुझते रहने के बावजूद रुढ़ि परंपराओं को वात्सल्य भाव से देखा जाता है। महिलाओं को आज भी कुप्रथाओं का सामना करना पड़ता है। पहले सती प्रथा, विधवा प्रथा और बाल विवाह जैसी अव्यवहारिक कुरीतियों से जुझती महिलायें आज भी सामाजिक शोषण का शिकार होती रहती हैं। उनमें से एक आज भी बहुत बलवती है। वो है डायन कहलाना। आज आधुनिक युग में बिहार जैसे राज्यों में ऐसी घटनायें प्राय: घटित होती हैं। अकल्पनीय दृश्यों की कल्पना करने मात्र से सिहरन होती है। कभी अपनी ही मां की गोद में पला बेटा उसे बड़े होने पर वही मां डायन की तरह प्रतीत होने लगती है। फलस्वरुप डंडों से पीटकर उसे मार डालता है। कभी समाज को वो डायन की तरह दिखती है जिसे समाज उसे बलपुर्वक बांधकर पीटता है। जिससे उस बूढी महिला की मरणासन्न स्थिति पर भी तरस नहीं आता जब तक कि वह अंतिम सांस न ले ले। वृद्धा अवस्था जीवन की उस सीढी का नाम है जहां जीवन की सत्यता से जूझता हर पल व्यक्ति स्वयं को असल तराजू पर तौलता है। पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि असहाय को बेड़ियों में जकड़ दिया जाय। जिस तरह फेक एन्काउटर आपसी रंजिश भी निकालने का एक जरिया है। उसी तरह महिलाओं को डायन कहकर उनपर जुल्म करने का समाज स्टैंप लगा देता है। मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश भी इससे अछूता नहीं है। शिक्षा के अभाव में ग्रामीण इलाकों में आज भी महिलाओं पर इस तरह के अत्याचार होते रहते हैं। डायन सिर्फ महिलायें ही क्यों होती हैं। पुरुष क्यों नहीं ?डायन की छवि क्या मात्र महिलाओं और खास तौर पर बूढ़ी महिलाओं का ही पीछा करती है।

आज देश 21वीं सदी में सांस ले रहा है। लेकिन कुरीतियां आज भी जीवित हैं। बीमार होने पर लोग डाक्टर के पास नहीं बल्कि तंत्र मंत्र वाले तांत्रिकों के पास जाते हैं। हाल ही में मध्य प्रदेश की एक इंजीनियरिंग की छात्रा ने तबियत खराब होने की शिकायत माता पिता से की। माता –पिता उसे डाक्टर की बजाय तांत्रिक के पास लेकर गये। उस तात्रिंक ने न केवल उस लड़की को लोहे की सलाखों से दागा वरन उसकी आंखों में नींबू निचोड़ा। जिससे गंभीर अवस्था में उसका इलाज चल रहा है। इसी तरह बिहार के गया जिले में एक बूढी औरत जो अकेले अपने घर में रहती थी उसे इलाके के लोगों ने रस्सी से बांधकर पीट –पीट कर मार डाला। इसी तरह बच्चों की बलि जो नृशंष हत्या है समाज में कुछ अज्ञानी लोग आपसी रंजिश के तहत इसका सहारा लेते हैं। नन्हें बच्चे जो ईश्वर का रुप होते हैं देश के भविष्य होते हैं उनकी जान के साथ ऐसा खिलवाड़ आखिर कब तक? इसी तरह हजारों कांड रोज हो रहे हैं। जिनपर से पर्दा अंदविश्वास का कब उठेगा। समाज कब जागृत होगा।

हम मंगल ग्रह तक पहुंच गये पर अशिक्षा ने हमारा पीछा न छोड़ा। आज भी गरीबी में पल रहा एक आधारविहीन समाज अपनी कुरीतियों के साथ जिंदा है। परंपराओं का पालन करना एक अलग मसला है पर अंधविश्वास में किसीकी जान से खेलना असभ्यता की निशानी है। पर डाक्टरों की मनमानी फीस और अस्पताल के खर्चों से डरे ये गरीब बेसहारा लोग अपने आधे अधूरे ज्ञान और अहं के चलते इन असमाजिक तांत्रिक पाखंडियों का सहारा ले लेते हैं। आज गांवों में डाक्टरों का न होना भी एक बड़ी वजह है। जिसके कारण व्यक्ति अपने इलाज के लिए कहां जाये। अस्पताल है तो डाक्टर नहीं, डाक्टर है तो संसाधन नहीं, संसाधन है तो डाक्टर झोला छाप है जिनकी डिग्री नाम मात्र की जुगाड़ु है। आमतौर पर देखा गया है कि परिस्थतियों से जूझ रहे लोग अपनी छोटी मोटी समस्या को दूर करने के लिए कम शुल्क पर असमाजिक तत्व इलाज करने का भरोसा कर लेते हैं और भोली मासूम जनता उनके बहकावे में आ जाती है। जिससे इतने घृणित अंजाम समाज के सामने आते हैं। हम शिक्षा को दोष देते हैं। पर कितने स्कूलों में सही ढ़ंग से पढाई होती है। शिक्षक ऐसे नियुक्त होते हैं जिन्हें प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति में फर्क ही समझ नहीं आता। मुख्यमंत्री और गर्वनर तो न जाने कहां उड़ती चिड़िया के नाम जैसे किसी ने पूछ लिये हों। जिन्हें अंग्रेजी में संडे- मंडे तक की स्पैलिंग नहीं आती। ऐसे लोग तो देश को शिक्षित कर रहे हैं। सरकारी स्कूल होने से मोटी रकम हर महीने मिल जाती है। बस फिर क्या नौकरी ऐश की है। ऐसी पढाई से कितनी शिक्षित होती है हमारी ग्रामीण इलाकों में रहने वाली आबादी।


यह कुरीति कब तक?? ऐसी कुप्रथाओं पर सरकार लगाम कब लगायेगी।    

Monday, 20 April 2015

ये कैसा अन्नदाता ??

सर्वमंगला मिश्रा
9717827056

जीवन की प्रक्रिया एक चक्र में बंधी है। चक्रक्रम में उलट –फेर होने से नियमितता अनियमितता में परिवर्तित हो जाती है। ऐसा ही कुछ इस साल हमारे देश के अन्नदाताओं के साथ हो गया। किसानों का देश कहा जाने वाला भारत यूं तो कई दशकों के बाद अब दूसरी चीजों में पारंगत हो जाने से कई क्षेत्रों में अपने विशेषाधिकार के लिए जाना जाता है। पर, इस साल, मौसम की मार ने हमारे देश के अन्नदाताओं को तोड़ दिया। किसान फसल उगाही के लिए बीज खरीदने से लेकर ट्रैक्टर से खेत जोतने तक के काम के लिए किसान कर्ज लेता है। कर्ज बैंक अथवा किसी व्यक्ति से लेता है। जिसकी सीमा और आस दोनों फसल के उगने तक होती है। किस्मत बन जाती है अथवा सब बिखर जाता है। इस साल मध्य प्रदेश के भिंड जिले में पिछले 10 दिनों में 6 किसानों ने आत्महत्या कर ली। महाराष्ट्र के कई इलाकों में ऐसा वाकया प्राय: हर साल देखने में आता है। विदर्भ के इलाकों में किसानों की यह दशा आम हो गयी है। पिछले वर्ष के आंकड़ों पर गौर करें तो 510 किसानों ने खुदखुशी कर ली थी। जबकि 2015 का यह चौथा महीना ही है और आंकड़ा 105 तक पहुंच चुका है। किसानों की मृत्यु का एक ही कारण सामने आता है- फसल की बर्बादी। जिससे निराश हताश किसान जो अपनी उम्र के मध्य में संघर्ष को झेल सकने में स्वंय को असमर्थ पाते हैं और जीवन का अंत कर बैठते हैं। ओलावृष्टि के हथगोलों ने इस बार किसानों की जैसे कमर ही तोड़ दी। अकेले मराठवाड़ा में किसानों के आत्महत्या का सिलसिला 200 के पार पहुंच चुका है। सवाल यह उठता है कि जिस किसान के भरोसे देश की आबादी अपना भरण पोषण करती है आज वही किसान अपनी दर्दनाक कहानी बिना किसी को सुनाये अपनी जमीन में दम तोड़ने को मजबूर हो रहा है। केंद्र और राज्य सरकारें योजनायें तो कई लाती हैं जिससे किसान फलीभूत हों पर वास्विकता सच से परे ही होती है। सच्चाई आज देश के सामने है जवान देश के लिए देश की सरहद पर दम तोड़ रहा है और अन्नदाता घर के अंदर। दोनों अपने सपनों का गला घोंट रहे हैं। तमाम आफिसर्स जिनकी सरकार नहीं बदलती उन्हें मात्र अपनी रिटार्यमेंट के अलावा कभी नौकरी या रोजी रोटी की चिंता नहीं होती। शायद यही वजह है कि उन्हें किसानों का या किसी भी बेसहारों का दर्द कचोटता नहीं। तभी गफलत करने में माहिर, जब सरकारें योजना बनकर बांध के पानी की तरह छोड़ती है तो जरुरतमंदों तक प्लास्टिक पाउच में पानी पहुंच पाता है। जिससे योजनाओं की किरकिरी हो जाती है।

किसान दो तरीके से खेती से जुड़ा होता है। उसकी ज़मीन, उसकी खेती पूर्णरुपेण खेती पर निर्भर। परिवार के कुछ सदस्य जो दूसरे शहरों में जाकर नौकरी करते हैं तो परिवार को आर्थिक तंगी का सामना करने में कुछ राहत मिल जाती है। परन्तु जिनका परिवार ही कृषि कार्य पर निर्भर है समस्या उनकी है। दूसरा किसान कम, मजदूर होता है और दिहाड़ी पर पलता है। यानी उसकी जमीन और कर्ज से कोई वास्ता नहीं होता। आत्महत्या का रास्ता वही किसान अपनाते हैं जिनका सारा दारोमदार उनकी खेती पर होता है। जिनकी आमदनी का और कोई जुगाड़ नहीं होता। अपनी छोटी सी जमीन पर खेती कर साल भर जीवन यापन का स्वप्न पालते हैं। बच्चों की पढाई, शादी, घर के तमाम खर्च कर्ज चुका पाने के बाद एक मुस्कान की आस में पूस की रात में खेतों में आकाश के नीचे सोते हैं तो कहीं अपनी मिट्टी की कुटिया में या झोपड़ी में। नैशनल क्राइम रिकार्डस ब्यूरो के अनुसार 2012 में 135,445 मौतें हुई। जिसमें तमिलनाडु, महाराष्ट्र, पं. बंगाल, आंध्र प्रदेश राज्यों में पाया गया कि 25.6 पारिवारिक समस्या, 20.8 बीमारी, 2.0 अकस्मात आर्थिक अवस्था में परिवर्तन, 1.9 गरीबी के कारण मौतें हुई। गुजरात का प्रतिशत बहुत कम रहा। गंभीर समस्या यह भी है कि सालों से देश कृषि कार्य पर निर्भर है। मौसम की मार अमूमन कुछ एक साल को छोड़कर प्राय: यही दृश्य देखने को मिलता है। सरकार को छोटे किसानों की अवस्था को ध्यान में रखते हुए बीमा पालिसी जैसी कुछ योजनाओं को प्रश्रय देना चाहिए। जिससे फसल नुकसान भी हो जाये तो आत्महत्या की नौबत उनके दहलीज पर कदम ना रखे।सरकार हर साल प्रकृति के कुपित होने पर ही नहीं बल्कि, उनके परिवार के भरण पोषण की समस्या उनके सामने दानव की तरह मुंह फैलाकर ना खड़ी हो। एक सर्वे में यह भी पाया गया की 1953 से लेकर अब तक किसानों की संख्या में भारी कमी आई है। इसकी बड़ी वजह खेती को शहरी एवं पढे लिखे ज्ञानी जन का हेय दृष्टि से देखना, उनके कार्यक्षमता को कम आंकना। जिससे कृषक वर्ग पहले से ही शहरी नौकरी से प्रभावित होने लगा। अब देश की आस्था और कृषक विलुप्त ना हों इसके लिए केँद्र एवं राज्य सरकारों को मुहिम चलानी आवश्यक है। प्रधानमंत्री मोदी जी ने किसानों से अपने मन की बात तो कह दी पर शायद उनकी सुनी नहीं। कम ब्याज दर पर उपलब्ध ऋण से किसान अपना व्यवसाय शुरु तो तब कर सकेंगें जब ग्राम प्रधान से लेकर तमाम बाबूओं को घूस देने से कुछ बच पायेगा। आखिर किसान कितनी परीक्षा देगा अपनी सहनशक्ति की। देश अपने अन्नदाताओं के लिए कब सोचेगा।




शासक और शासन

सर्वमंगला मिश्रा
9717827056


कुछ चीजों का जिक्र होते ही मस्तिष्क कौंधने लगता है। एक छवि जो चैतन्यअवस्था अथवा अर्धसुसुप्तावस्था में भी एक समान अपनी प्रक्रिया देता है। जिसतरह भारत पाक का क्रिकेट मैच, कश्मीर मसला या आरक्षण का मुद्दा। देश जब एक छत्र शासन के तहत था, जब अंग्रेजों के अधीन था और जब स्वतंत्र हो गया पर, प्रत्येक शासनकाल के तहत वैमनस्यता शासन प्रणाली, शासक और जनता के बीच एक अविश्वसनीय विवाद के रुप में जन्म लेता आया है और लेता रहेगा। यह प्रकृति का नियम है।शासक आदिकाल से अपने प्रभुत्व को स्थापित करने वाला होता है। समय का कालचक्र जब अपनी परिधि बदलता है तो आकाश से लेकर पाताल तक परिस्थतियां पूर्णरुपेण बदल जाती हैं। इसी तरह समय ने करवट ली और हिन्दु शासकों के स्थान पर मुस्लिम शासनकाल आया। समय चक्र फिर घूमा और दासत्व का जीवन भोगने को मजबूर हो गये भारतवासी। काल परिधि फिर बदली और देश स्वतंत्र हो गया। इसी तरह सरदार पटेल के रहते हुए भी जवाहरलाल देश के पहले प्रधानमंत्री बने। उसके बाद धीरे धीरे परंपरावाद में शासनकाल परिवर्तित होने लगा और इंदिरा गांधी के मरणोपरांत राजीव गांधी को देश के सबसे प्रमुख पद पर आसीन कर दिया। समय की सीमा समाप्त हो गयी और सोनिया गांधी ने सीताराम केसरी को रिप्लेस किया। हवा यूं तो रुकती नहीं पर लगता है ठहर सी गयी है। चुनौती हर किसी के सामने खड़ी होती है। चुनौती आज राहुल गांधी है-देश के लिए, देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए। आज देश का हर शक्स यह जानने को कहीं न कहीं उत्सुक है कि राहुल बाबा कहां गायब है। क्या यह समझा जाय कि राहुल अब बोझिल राजनीति से बोर हो चुके हैं और अपने जीवन को किसी दूसरी राह की तरफ मोड़ने को उत्सुक हैं। देश आज यही विचार कर रहा है कि अगर राहुल बाबा को दायित्व दिया होता तो क्या होता ? चुनौतियों से क्या मुंह मोड़ लेते राहुल गांधी। जिस परिवार ने तानाशाही से लेकर हर चुनौती को परास्त किया। उसी घर का चिराग आज कमजोर साबित हो रहा है।
चुनौती मोदी ने दी-राहुल को।
मोदी ने अनगिनत बीहड़ पहाड़ को काटकर अपना रास्ता स्वंय बनाया। पथिक जंगल-पहाड़ जैसे दुर्गम रास्तों से होता हुआ मंजिल तक जब पहुंचता है तो विश्वविजेता कहलाता है। मोदी आज विश्वविजेता के रुप में देखे जा रहे हैं। इस विश्वविजेता के सामने देश की तमाम चुनौतियां हैं। गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी, धांधली, घोटाला, भ्रष्टाचार और आतंकवाद। प्रधानमंत्री ने देश की 100 करोड़ जनता से यह वायदा किया है कि देश को बदलकर रख दूंगा आप मुझे एक मौका तो दो। जनता जनार्दन कही जाती है। जनता ने अपने आर्तनाद को सुना और बाहर से मोदी के शंखनाद को। अब साल पूरा होने जा रहा है मोदी सरकार को। मोदी जी ने सबसे छोटे देश भूटान से लेकर सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश तक की यात्रा कर ली और आमंत्रित कर मेहमाननवाज़ी भी कर डाली। अब तक एक दर्जन से भी ज्यादा विदेश यात्रा कर चुके मोदी जी ने देश के कितने महत्वपूर्ण मसले सुलझाये ? स्वयं प्रधानमंत्री बनने से पहले कर्नाटक में अपना दम खम दिखाने से शुरु कर अपने प्रधानमंत्री बनने के बाद भी दिल्ली की कुर्सी के लिए सतत प्रयत्नशील रहे मोदी। यानी चुनाव-चुनाव और सिर्फ चुनावों में व्यस्त रहे मोदी जी। अभी कनाड़, जर्मनी जैसे देशों की यात्रा पर 09 अप्रैल को रवाना हो गये। अगले महीने फिर चीन के बिजिंग की यात्रा पर रवाना होंगे।


कश्मीर के साथ- साथ चीन से भी भारत को एक अनजान सी बेरुखी का एहसास बीच बीच में होता रहता है। कश्मीर मुद्दा भारत की आजादी के साथ साथ चल रहा है। अरुणांचल प्रदेश पर चल रही सहमी राजनीति कहीं खुलकर विरोध की चिनगारी से ज्वालामुखी न बन जाये। मसले मात्र दो नहीं अनेक हैं पर मोदी जी की रमनीति क्या है। क्या सिर्फ विदेश यात्रा करने से देश सफलता की ऊंचाइयों को छूने में सक्षम हो सकेगा। आज मौसम की मार से किसान पूरे देश का सिसक रहा है। मजबूरी की इंतेहां जबाव दे दे रही है और किसान मौत को गले लगा रहा है। देश का किसान जब मौत की नींद सो जायेगा तो भविष्य खुशहाल कैसा जिंदा रह पायेगा। विडियो कांफ्रेसिंग और रेडियो के जरिये बात करना एक सुखद एवं सरल माध्यम है अपनी बात उन लोगों तक पहुंचाने के लिए जिनसे संपर्क साधना कठिन है। पर, मोदी अपनी प्लानिंग के लिए जाने जाते हैं। गरीब किसानों, बेसहारा बच्चों और महलाओं के लिए कया स्ट्रैटेजी है सरकार की। योजना लागू करना तो प्रत्येक शासनकाल से होता चला आ रहा है। नयापन और वायदा किस उम्मीद केसागर में गोते लगा रहा है।

 कश्मीर का ब्रह्म

सर्वमंगला मिश्रा-स्नेहा
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1947 में आजादी मिली और साथ ही एक नये देश का आविर्भाव भी हुआ। जनमानस से कहा गया कि जो जिधर जाना चाहता है वो उधर जा सकता है। जिस तरह महाभारत के युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व युद्ध में खड़े दोनों पक्षों को खुली छूट दी गयी थी कि जो योद्धा दल बदलना चाहते हों वो युद्ध छिड़ने के अंतिम क्षणों में दल परिवर्तन कर सकते हैं।उस समय सिर्फ युयुत्सु ही मात्र आये थे कौरवों से पांडवों की सेना में। ठीक इसी तर्ज पर भारत और पाकिस्तान बंटवारा के वक्त मुस्लिम समुदाय को पूर्णरुपेण छूट दी गयी कि वो जिधर चाहें उधर जा सकते हैं। कुछ लोग जो बंटवारा होने से पहले पाकिस्तान नहीं गये और फैसला लेने में देर कर दी उन्हें आज भी पाकिस्तान में शरण नहीं मिली अलबत्ता उन्हें काफिर की संज्ञा मिल गयी। भारत पाकिस्तान के बीच सीमा उल्लंघन विवाद वर्षों से चला आ रहा है। जिसके कारण हमारे हजारों जवान आज तक शरहद पर अपनी कुर्बानी दे चुके हैं। पर सरकारें चेतती नहीं है। कश्मीर जिसे धरती का स्वर्ग कहा जाता है।आज विवाद से युक्त और रक्तरंजित हो चुका है। यह राजनीतिक चाल ही लगती है जहां भारत के नियम कानून लागू नहीं होते। ऐसा प्रतीत होता है जैसे एक छत के नीचे दो दुनिया बसा दी गयी हो। भारत में आने जाने पर कश्मीरी अवाम को रोक नहीं पर भारत के किसी भी हिस्से से जाकर खुद को उस राज्य में स्थापित करना कठिन प्रक्रिया है। क्या वहां प्रारम्भ से ही बंटवारे के बाद सांठ-गांठ हो गयी थी और देश की जनता को धोखे में रखा गया। मुद्दा विचारणीय है पर 1990 में जो हुआ वह देश के लिए शर्मनाक वाक्या था। कश्मीरी पंडितों को लाचार और बेबस कर उन्हें वहां से खदेड़ दिया गया था। पंडित जिन्हें वेद और शास्त्रों के अनुसार ब्राह्मण ब्रह्म के समान माना जाता रहा है। शरीर में उसका निवास मस्तिष्क से लेकर मुख तक का भाग बताया गया है। आदिकाल से ब्राह्मण वेदों और शास्त्रों के ज्ञाता होते थे। वो देश और समाज को ज्ञान दिया करते थे। कहा भी जाता है कि राजा की पूजा सिर्फ उसके राज्य अथवा देश में की जाती है पर ज्ञानी जन की पूजा पूरे धरती पर होती है। पर यह कैसा सम्मान जो अपमान के घूंट पीने पर उन ब्रह्मणों को मजबूर किया गया। जिसकी पूजा तो दूर शांति और सम्मान से उन्हें उनके घरों में रहने तक नहीं दिया, बेघर कर दिया गया। वो जख़्म अब दो दशक से भी ज्यादा वक्त बीत जाने के बाद हरे हो रहे हैं।
हाल ही में ओमर अबदुल्ला की सरकार को पटखनी देकर और बीजेपी से हाथ मिलाकर पीडीपी सत्ता पर काबिज़ हुई है। नई पार्टी के साथ नये मुद्दे भी राज्य में गरमा रहे हैं। हालांकि कई बार कश्मीरी पंडितों को वापस बुलाने का मसला उठता रहा है। पार्टी उन कश्मीरी पंडितों को वापस बुलाने का सपना सा दिखा रही है या बीजेपी को जमीनी हकीकत से आगाह करा रही है कि अगर इस मुद्दे का इम्प्लीमेंटेशन हुआ तो कश्मीर की हालत क्या हो सकती है। क्योंकि हाल ही में कश्मीरी पंडितों को एक अलग इलाके में स्थापित करने की योजना पर पहल हुई है। यह योजना कितनी कारगर साबित होगी यह तो भविष्य में की जाने वाली पहल से ही निर्णय निर्धारित हो सकेगा। यह जग जाहिर बात है कि यदि उन खदेड़े हुए लोगों से कश्मीरी सरकार को इतना लगाव होता तो यह कदम ही क्यों उठाते ?इतनी संख्या में कश्मीरी पंडित अपनी जान बचाकर क्यों भागते ? उन पर जो अमानवीय अत्याचार हुए ह्यूमन राइटस का खुलकर उल्लंघन हुआ। इसकी जवाबदेही किसकी हुई। नैशनल काफ्रेंस की जिसकी सरकार उस वक्त राज कर रही थी और सीएम फारुक अबदुल्ला साहब थे। देखा जाय तो कश्मीर पर सबसे ज्यादा 1982 से एकाधिकार सा रहा अबदुल्ला साहब का। हालांकि राष्ट्रपति शासन भी हर एक साल अथवा 2 साल के अंतराल पर लगता रहा। विचारणीय है कि नैशनल कांफ्रेस पार्टी कश्मीरी पंड़ितों के हक में नहीं सोचती। पुनर्वास की योजना में कई दिलचस्पी नहीं रही ओमर अबदुल्ला साहब की। इसका तातपर्य स्पष्ट है कि संदिग्धता बरकरार है।
जिस तरह महाराष्ट्र से उत्तर प्रदेश और बिहार के राज्यों से जाकर बसे लोगों को खदेड़ा गया था। यह मुद्दा उठाया गया कि मराठी लोगों का ही बोलबाला महाराष्ट्र में होना चाहिए। वहां के प्रमुख नेता ने अपनी बुलंद आवाज में अमिताभ बच्चन जैसे लोगों पर भी निशाना साधा कि आज तक उन्होंने महाराष्ट्र के लिए क्या योगदान दिया है। वैसे देखा जाय तो हर क्षेत्र में कुछ संदिग्ध मानसिकता व्याप्त है। जिससे देश के बने संविधान पर कहीं न कहीं प्रश्नवाचक चिन्ह सा लग जाता है। कि क्या भारतवासी एक राज्य से दूसरे राज्य में भ्रमण और निवास करने के लिए स्वतंत्र हैं या नहीं। संविधान की अवमानना नहीं तो और क्या है। पुनर्वास योजना उन कश्मीरी पंड़ितों के जख्म पर मरहम नहीं बल्कि उसे कुरेदा जा रहा है। यह कैसी प्लानिंग है कि जितने लोगों को पुनर्वास के तहत वापस आने का निमंत्रण दिया जा रहा है वह सब उस एक तरफा कालोनी में सुरक्षित रहेंगें। उन पर फिर कोई आक्रमण न होगा। अगर उन्हें उस प्रतिबंधित कालोनी में ही रहना है तो क्या उचित व्यवस्थाएं हैं जैसे अस्पताल, कालेज, यूनिवर्सिटी और मुख्य तौर पर व्यक्ति का व्यापार अथवा नौकरी। इन सब चीजों की आवश्यकता क्या उन लोगों को नहीं होगी जिन्हें पुनर्वास के तहत बसाये जाने की तैयारी का खाका खींचा जा रहा है। सवाल और भी बेहद गंभीर हैं जिन्हें समझने की आवश्यकता है यहां। सवाल क्या वहां के लोंगों के घूमने फिरने की जगह जहां वो लोग पहले जाने के आदि थे अब नहीं जा सकेंगे या उस जैसा स्थान उस प्रतिष्ठित कालोनी में बनाया जायेगा या ऐसी कोई योजना सरकारी पेपर पर आंकी गयी है। इसके अलावा जिन लोगों के घर उस वक्त औने पौने दाम में बेंच दिये गये थे क्या आज कश्मीरी हूकूमत अपने इस नये अव्यवस्थित आवाम को मुहैया कराने में सक्षम हो पायेगी। क्या सरकार उन लोगों को बरबस बेबस करेगी कि उनके कानून के तहत ही चलना होगा अन्यथा खामियाज़ा भुगतने को फिर तैयार रहना होगा। अमूमन 25 साल का वक्त दूसरे राज्यों में बीताने के बाद, हजारों संकट झेलने के बाद क्या यह जनता वापस जाना चाहती है। जहां उनके अपनों का कत्ल उनकी आंखों के सामने हुआ था। उस पीड़ा को भुलाने में जहां उन परिवारों को सालों लग गये और अब जब तस्वीर हल्की सी धुंधली होने लगी थी तो सरकार ने उस बंद घाव के उपर से पट्टी हटाकर उसका दर्द और बढ़ा दिया है। जिन लोगों ने 22-24 साल खून पसीना एक कर नये तरीके से अपने जिदगी की शुरुआत की और आगे बढे क्या वो लोग फिर से पीछे मुड़कर देखना चाहेंगे।
जिंदगी की शाम इंसान के जीवन में पल भर का ही सही एक ठहराव लाती है जहां व्यक्ति कुछ सोचना चाहता है आज वही शाम उन कश्मीरी पंड़ितों के जीवन में आ गयी है कि क्या करें और क्या ना करें। कानून और सरकार पर भरोसा करना यानी अपना और आने वाले कल को दांव पर लगाने जैसा है। पर जो आज तक इसी सपने के सहारे जी रहे थे उनके लिए अमृत की एक बूंद है जिनकी आंखों में आज भी अपने घर का लान की याद हरी घास की तरह ताजा है। सोचने वाली बात यह है कि क्या उन्हें उनकी पुरानी प्रापर्टी अब नसीब हो पायेगी? क्योंकि अब प्रापर्टी के दाम बढ चुके हैं। भले आज आतंकी साये में कश्मीर जी रहा हो पर मेहमान से व्यापारी वसूल ही लेगा और चाहत की कीमत इंसान को चुकानी ही पड़ती है।



केंद्र और राज्य सरकारें अगर वाकई इस मुद्दे को लेकर गंभीर हैं तो माहौल बदलना होगा आवाम का का आवाम के लिए। वरना जिस तरह दंगे आये दिन दिख रहे हैं ऐसे हालात में कोई कश्मीरी पंड़ित स्वयं को कैसे महफूस मान सकेंगे। वहां की सरकार को भरोसा दिलाना होगा कि अब उन पुनर्वासियों पर कोई हथकंड़ा नहीं अपनाया जायेगा या फिर से उन्हें बेघर नहीं किया जायेगा चाहे सरकार बदले या न बदले। त्रिशंकु वाली हालत फिर ना हों इसके लिए सरकार को मुनासिब कदम उठाने होंगे। जिससे पुरानी योदें कचोटे नहीं बल्कि मरहम का काम करें।

Sunday, 1 March 2015

                                                        कांग्रेस का पलड़ा
 
 

सर्वमंगला मिश्रा

असल राजनीति करने के लिए सब्र रखने की ताकत होनी चाहिए। कांग्रेस को एक बार फिर मौका मिल ही गया। एक दशक तक राज करने वाली पार्टी अपनी नाकामियों को चुपचाप बर्दाश्त करती रही। आम बजट पेश होने के बाद जब जनता के हाथ निराशा लगी और साथ ही जनता के रोश को हवा देने में अब कांग्रेस पूरी तरह जुट सी गयी है। इसमें अहम भूमिका निभाने वालों में दिग्गी राजा अपने अनुभव के तर्ज पर शतरंज की चाल खेलने को बेताब से दिख रहे हैं। राहुल गांधी जो अपने चारित्रिक विशेषताओं के लिए फेमस हैं। हर बार जब भी पार्लियामेंट सेशन प्रारंभ होते ही वो गायब हो जाते हैं। इस बार आश्चर्यजनक तरीके से राहुल के गुमशुदा होने से राजनीति में हलचल से ज्यादा माखौल बन गया। हर जगह खोज बीन ऐसी शुरु हुई कि कुछ दलों ने तो बकायदा गुमशुदगी के पोस्टर लगा दिये और, इनामी राशि भी ऐलान कर दी । मोदी के भाषण का असर अब खत्म सा हो रहा है। सूर्योदय के उपरांत सूर्य मध्यान्ह में जाना चाहिए पर यहां तो अस्ताचलगामी लग रहा है। भारत की जनता को बजट से जुड़ी सारी आशायें धराशाही हो गयी हैं। डीज़ल - पेट्रोल के दाम घटते घटते अचानक इतने बढ़ा दिये गये कि अच्छे दिन का सपना जिस तरह कांग्रेस की सरकार के वक्त या अन्य सरकारों के समय में लगता था वैसे ही अब मोदी के पाले में जीने वाली जनता को भी लगने लगी है। कहां गये वो लम्बे लम्बे भाषणों के पुल ? जो लोकसभा चुनाव के वक्त मोदी अपने हर भाषण में हर राज्य में जाकर कहते थे। मंगल ग्रह पर 6 रुपये प्रति किमी की दर से पहुंचाने वाले मोदी ने आज अपने शासनकाल के पहले बजट में ही लोगों की आंखें नीची कर दी। ऐसा कोई भी उत्पाद जो य़ुवा वर्ग उपयोग करता हो वो सस्ता हुआ हो। मोबाइल, लैपटाप से लेकर प्रत्येक उत्पाद अब आसमान की ऊंचाई पर पहुंच चुका है। रेस्टोरेंट में जाने में मध्यवर्ग अब हिचकिचायेगा। क्या यह एक चाल है युवाओं को पाश्चात्य सभ्यता से दूर करने की। पर यह कैसी रणनीति ?  क्योंकि मोबाइल बिल हर वर्ग इस्तेमाल करता है। रेस्टोरेंट में खाना अब आम आदमी की चाहत पसीना बहाकर ही जा पायेगा। सींमेट भी महंगा, हर ऐशो आराम की चीज महंगी। क्या यही दिन मोदी जी ने चुनाव के पहले लाने का वायदा किया था। गुजरात में आटोवाला  10 रुपये में एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाता है। पर देश की दूरियां मोदी जी ने कितनी बढ़ा दीं उन्हें अंदाजा  भी नहीं होगा।

यही बजट अगर कांग्रेस की सरकार लाती तो क्या यही भारत की जनता उसे माफ़ कर देती। कांग्रेस में उफान है तो सघर्ष का दौर भी। एक तरफ जहां 130 साल से ज्यादा सावन देख लेने वाली सरकार को अपना मुखौटा नहीं मिल रहा। वहीं कुछ पुराने हाथ उसे छोड़ नहीं पा रहे। वहीं अंदरुनी कलह जहां बगावत का रुख कर चुका है। बगावत अपने पैर मजबूत करने में लगी है। तो कुछ बेखौफ जबान अब रास्ते अख्तियार कर रहे हैं कि राहुल भइया कुर्सी छोड़ो दूसरों को भी मौका दो। अब पार्टी की बरक्कत जिस शक्स से नामुमकिन लगे वो उनका कर्णधार नहीं हो सकता। अपने भविष्य को उज्जवल करने का राहुल गांधी के पास अब और कोई बागडोर न हाथ आ सकती है और ना ही आने वाली है। पर, इन सब बातों का पार्टी क्यों ख़ामियाजा भुगते ? देश क्यों भुगते? एक वरिष्ठ पार्टी जो अपना अस्तित्व दिन पर दिन खोती चली जा रही है परंपरावाद के झांसे में। यह भारत की जनता को ही क्यों विश्व की किसी भी जनता को बर्दाश्त नहीं होगा। अगर परंपरा ही चलानी है तो मजबूत हाथों में बागडोर सौंप देनी चाहिए। पार्टी आज की तारीख में राहुल बाबा को नहीं प्रियंका गांधी को चाहती है। जिसतरह राजीव गांधी की मौत के बाद देश में एक लहर गूंजी थी - सोनिया लाओ देश बचाओ- वो दशक 1991 के बाद का था पर सोनिया गांधी ने चुप्पी साधी और चुप्पी तोड़ी प्रियंका गांधी की शादी के बाद। 1997 में सीताराम केसरी को पदच्यूत कर आसीन हुई थीं। हालांकि वो एक दौर था जब कांग्रेस तलवार के साथ पर धार विहीन थी। सोनिया गांधी के आने से कांग्रेसियों का मनोबल बढ़ा था क्योकि राजीव गांधी से एक मानवीय जुड़ाव हो चुका था। एक अपेक्षा थी कि देश के नाम एक कम अनुभवी राजनेता, जिसने देश को बखूबी पांच साल चलाया। उसके परिवार की एक और सदस्या भी देश के प्रति ऐसी ही श्रद्धा और आत्मसमर्पण करेगी। पर दिन गुजरता गया, साल गुजरता चला गया मंशा बदलती गयी और लोगों को कानों कान खबर तक नहीं हुई। साल 2004, 22 मई जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री के पद को अस्वीकार कर दिया था तो देश उनकी वंदना करने लगा। ऐसी शक्सियत भारत में ही नेहरु और गांधी परिवार में ही पनप सकता है। एक इटली से आयी लड़की भारतीय बहू के बाद एक मां बन गयी। जिसे ममता ने मजबूर कर दिया और राजनीति की परंपरागत रिश्तों में अपने रिश्ते को भी पूर्ण करने में लग गयी। राहुल घर का चिराग, को मां अब विद्दुत परियोजना में तबदील करने पर तूल गयी। जिसके बिना विश्व नहीं तो कम से कम भारतीय राजनीति अधूरी जरुर रहे। पर सोच उल्टी हो गयी। कांग्रेस आज अधूरी होती चली जा रही है। इस अधूरेपन को कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ समझ चुके हैं और युवा परेशान हैं। पर इस परेशानी से निज़ाद कैसे पाया जायेगा यह चिंतनीय विषय बन चुका है। 
इस वर्ष के अंत में और अगले वर्ष 2016 में कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं।
 
 
 
 ऐसे में एक मुखौटे की आवश्यकता नहीं बल्कि पार्टी को एक ऐसे खेवनहार चाहिए जो इस डूबती कश्ती को पार लगा सके। पार्टी का वर्चस्व कैसे अपने आत्मसम्मान को बचायेगा। पार्टी एक तरह रसे तहस नहस हो चुकी है। प्रियंका गांधी के पति राबर्ट्र वार्डरा का नाम घोटालों में फंस चुके हैं। बोफोर्स घोटाला में भी गांधी परिवार का नाम खींचा जा चुका है। ऐसे में सफेद चादर कहीं न कहीं कलंकित हो चुकी है। जिसे अब सतरंगी बन जाने में ही भलाई है। पार्टी अंदरुनी गुटबाजी और आकार में वृहद होने से अब इस सत्ता को संभाल कर रखना चुनौती बन चुकी है गांधी परिवार के लिए। उधर गांधी परिवार अपनी जागीर को पुराने सामंतवादी तरीके से हथिया कर रखना चाहता है। अपने चिराग को एक पुश्तयनीय साम्राज्य का तिलक कर देना चाहती हैं। राजकुमार तो जयपुर के अधिवेशन में घोषित हो चुके थे अब प्रेसिडेंट की जिम्मेदारी देने को आमादा हैं सोनिया गांधी। इसका प्रतिबिंब स्पष्ट झलक रहा है। युवाओं को आकर्षित करने में असक्षम राहुल गांधी पुराने और अनुभवी नेताओं को कैसे संभालेंगें। 2014 के लोकसभा चुनाव में राहुल की अहम जिम्मेदारी खिसक कर अध्यक्षा सोनिया गांधी और बहन प्रियंका के ऊपर ही आ पड़ती है। शायद राहुल गांधी को अपनी जिम्मेदारी का एहसास ही नहीं है। ऐसे में प्रियंका गांधी जिसमें पूरी दुनिया को कहीं न कहीं इंदिरा गांधी नजर आती है आगे आना ही चाहिए। अन्यथा राहुल और कांग्रेस सूखे पत्ते की तरह पतझड़ के पहले ही पेड़ से गिरकर किसी के पैरों की धूल बनकर रह जायेंगें।

  मिस्टिरियस मुम्बई  में-  सुशांत का अशांत रहस्य सर्वमंगला मिश्रा मुम्बई महानगरी मायानगरी, जहां चीजें हवा की परत की तरह बदलती हैं। सुशां...