कांग्रेस का पलड़ा
सर्वमंगला मिश्रा
असल
राजनीति करने के लिए सब्र रखने की ताकत होनी चाहिए। कांग्रेस को एक बार
फिर मौका मिल ही गया। एक दशक तक राज करने वाली पार्टी अपनी नाकामियों को
चुपचाप बर्दाश्त करती रही। आम बजट पेश होने के बाद जब जनता के हाथ निराशा
लगी और साथ ही जनता के रोश को हवा देने में अब कांग्रेस पूरी तरह जुट सी
गयी है। इसमें अहम भूमिका निभाने वालों में दिग्गी राजा अपने अनुभव के तर्ज
पर शतरंज की चाल खेलने को बेताब से दिख रहे हैं। राहुल गांधी जो अपने
चारित्रिक विशेषताओं के लिए फेमस हैं। हर बार जब भी पार्लियामेंट सेशन
प्रारंभ होते ही वो गायब हो जाते हैं। इस बार आश्चर्यजनक तरीके से राहुल के
गुमशुदा होने से राजनीति में हलचल से ज्यादा माखौल बन गया। हर जगह खोज बीन
ऐसी शुरु हुई कि कुछ दलों ने तो बकायदा गुमशुदगी के पोस्टर लगा दिये और,
इनामी राशि भी ऐलान कर दी । मोदी के भाषण का असर अब खत्म सा हो रहा है।
सूर्योदय के उपरांत सूर्य मध्यान्ह में जाना चाहिए पर यहां तो अस्ताचलगामी
लग रहा है। भारत की जनता को बजट से जुड़ी सारी आशायें धराशाही हो गयी हैं।
डीज़ल - पेट्रोल के दाम घटते घटते अचानक इतने बढ़ा दिये गये कि अच्छे दिन
का सपना जिस तरह कांग्रेस की सरकार के वक्त या अन्य सरकारों के समय में
लगता था वैसे ही अब मोदी के पाले में जीने वाली जनता को भी लगने लगी है।
कहां गये वो लम्बे लम्बे भाषणों के पुल ? जो लोकसभा चुनाव के वक्त मोदी
अपने हर भाषण में हर राज्य में जाकर कहते थे। मंगल ग्रह पर 6 रुपये प्रति
किमी की दर से पहुंचाने वाले मोदी ने आज अपने शासनकाल के पहले बजट में ही
लोगों की आंखें नीची कर दी। ऐसा कोई भी उत्पाद जो य़ुवा वर्ग उपयोग करता हो
वो सस्ता हुआ हो। मोबाइल, लैपटाप से लेकर प्रत्येक उत्पाद अब आसमान की
ऊंचाई पर पहुंच चुका है। रेस्टोरेंट में जाने में मध्यवर्ग अब हिचकिचायेगा।
क्या यह एक चाल है युवाओं को पाश्चात्य सभ्यता से दूर करने की। पर यह कैसी
रणनीति ? क्योंकि मोबाइल बिल हर वर्ग इस्तेमाल करता है। रेस्टोरेंट में
खाना अब आम आदमी की चाहत पसीना बहाकर ही जा पायेगा। सींमेट भी महंगा, हर
ऐशो आराम की चीज महंगी। क्या यही दिन मोदी जी ने चुनाव के पहले लाने का
वायदा किया था। गुजरात में आटोवाला 10 रुपये में एक स्थान से दूसरे स्थान
पर पहुंचाता है। पर देश की दूरियां मोदी जी ने कितनी बढ़ा दीं उन्हें
अंदाजा भी नहीं होगा।
यही बजट अगर कांग्रेस की
सरकार लाती तो क्या यही भारत की जनता उसे माफ़ कर देती। कांग्रेस में उफान
है तो सघर्ष का दौर भी। एक तरफ जहां 130 साल से ज्यादा सावन देख लेने वाली
सरकार को अपना मुखौटा नहीं मिल रहा। वहीं कुछ पुराने हाथ उसे छोड़ नहीं पा
रहे। वहीं अंदरुनी कलह जहां बगावत का रुख कर चुका है। बगावत अपने पैर मजबूत
करने में लगी है। तो कुछ बेखौफ जबान अब रास्ते अख्तियार कर रहे हैं कि
राहुल भइया कुर्सी छोड़ो दूसरों को भी मौका दो। अब पार्टी की बरक्कत जिस
शक्स से नामुमकिन लगे वो उनका कर्णधार नहीं हो सकता। अपने भविष्य को उज्जवल
करने का राहुल गांधी के पास अब और कोई बागडोर न हाथ आ सकती है और ना ही
आने वाली है। पर, इन सब बातों का पार्टी क्यों ख़ामियाजा भुगते ? देश क्यों
भुगते? एक वरिष्ठ पार्टी जो अपना अस्तित्व दिन पर दिन खोती चली जा रही है
परंपरावाद के झांसे में। यह भारत की जनता को ही क्यों विश्व की किसी भी
जनता को बर्दाश्त नहीं होगा। अगर परंपरा ही चलानी है तो मजबूत हाथों में
बागडोर सौंप देनी चाहिए। पार्टी आज की तारीख में राहुल बाबा को नहीं
प्रियंका गांधी को चाहती है। जिसतरह राजीव गांधी की मौत के बाद देश में एक
लहर गूंजी थी - सोनिया लाओ देश बचाओ- वो दशक 1991 के बाद का था पर सोनिया
गांधी ने चुप्पी साधी और चुप्पी तोड़ी प्रियंका गांधी की शादी के बाद। 1997
में सीताराम केसरी को पदच्यूत कर आसीन हुई थीं। हालांकि वो एक दौर था जब
कांग्रेस तलवार के साथ पर धार विहीन थी। सोनिया गांधी के आने से
कांग्रेसियों का मनोबल बढ़ा था क्योकि राजीव गांधी से एक मानवीय जुड़ाव हो
चुका था। एक अपेक्षा थी कि देश के नाम एक कम अनुभवी राजनेता, जिसने देश को
बखूबी पांच साल चलाया। उसके परिवार की एक और सदस्या भी देश के प्रति ऐसी ही
श्रद्धा और आत्मसमर्पण करेगी। पर दिन गुजरता गया, साल गुजरता चला गया मंशा
बदलती गयी और लोगों को कानों कान खबर तक नहीं हुई। साल 2004, 22 मई जब
सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री के पद को अस्वीकार कर दिया था तो देश उनकी
वंदना करने लगा। ऐसी शक्सियत भारत में ही नेहरु और गांधी परिवार में ही पनप
सकता है। एक इटली से आयी लड़की भारतीय बहू के बाद एक मां बन गयी। जिसे
ममता ने मजबूर कर दिया और राजनीति की परंपरागत रिश्तों में अपने रिश्ते को
भी पूर्ण करने में लग गयी। राहुल घर का चिराग, को मां अब विद्दुत परियोजना
में तबदील करने पर तूल गयी। जिसके बिना विश्व नहीं तो कम से कम भारतीय
राजनीति अधूरी जरुर रहे। पर सोच उल्टी हो गयी। कांग्रेस आज अधूरी होती चली
जा रही है। इस अधूरेपन को कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ समझ चुके हैं और युवा
परेशान हैं। पर इस परेशानी से निज़ाद कैसे पाया जायेगा यह चिंतनीय विषय बन
चुका है।
इस वर्ष के अंत में और अगले वर्ष 2016 में कई राज्यों
में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं।
ऐसे में एक मुखौटे की आवश्यकता नहीं
बल्कि पार्टी को एक ऐसे खेवनहार चाहिए जो इस डूबती कश्ती को पार लगा सके।
पार्टी का वर्चस्व कैसे अपने आत्मसम्मान को बचायेगा। पार्टी एक तरह रसे तहस
नहस हो चुकी है। प्रियंका गांधी के पति राबर्ट्र वार्डरा का नाम घोटालों
में फंस चुके हैं। बोफोर्स घोटाला में भी गांधी परिवार का नाम खींचा जा
चुका है। ऐसे में सफेद चादर कहीं न कहीं कलंकित हो चुकी है। जिसे अब सतरंगी
बन जाने में ही भलाई है। पार्टी अंदरुनी गुटबाजी और आकार में वृहद होने से
अब इस सत्ता को संभाल कर रखना चुनौती बन चुकी है गांधी परिवार के लिए। उधर
गांधी परिवार अपनी जागीर को पुराने सामंतवादी तरीके से हथिया कर रखना
चाहता है। अपने चिराग को एक पुश्तयनीय साम्राज्य का तिलक कर देना चाहती
हैं। राजकुमार तो जयपुर के अधिवेशन में घोषित हो चुके थे अब प्रेसिडेंट की
जिम्मेदारी देने को आमादा हैं सोनिया गांधी। इसका प्रतिबिंब स्पष्ट झलक रहा
है। युवाओं को आकर्षित करने में असक्षम राहुल गांधी पुराने और अनुभवी
नेताओं को कैसे संभालेंगें। 2014 के लोकसभा चुनाव में राहुल की अहम
जिम्मेदारी खिसक कर अध्यक्षा सोनिया गांधी और बहन प्रियंका के ऊपर ही आ
पड़ती है। शायद राहुल गांधी को अपनी जिम्मेदारी का एहसास ही नहीं है। ऐसे
में प्रियंका गांधी जिसमें पूरी दुनिया को कहीं न कहीं इंदिरा गांधी नजर
आती है आगे आना ही चाहिए। अन्यथा राहुल और कांग्रेस सूखे पत्ते की तरह
पतझड़ के पहले ही पेड़ से गिरकर किसी के पैरों की धूल बनकर रह जायेंगें।
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