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Monday 20 April 2015


 कश्मीर का ब्रह्म

सर्वमंगला मिश्रा-स्नेहा
9717827056


1947 में आजादी मिली और साथ ही एक नये देश का आविर्भाव भी हुआ। जनमानस से कहा गया कि जो जिधर जाना चाहता है वो उधर जा सकता है। जिस तरह महाभारत के युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व युद्ध में खड़े दोनों पक्षों को खुली छूट दी गयी थी कि जो योद्धा दल बदलना चाहते हों वो युद्ध छिड़ने के अंतिम क्षणों में दल परिवर्तन कर सकते हैं।उस समय सिर्फ युयुत्सु ही मात्र आये थे कौरवों से पांडवों की सेना में। ठीक इसी तर्ज पर भारत और पाकिस्तान बंटवारा के वक्त मुस्लिम समुदाय को पूर्णरुपेण छूट दी गयी कि वो जिधर चाहें उधर जा सकते हैं। कुछ लोग जो बंटवारा होने से पहले पाकिस्तान नहीं गये और फैसला लेने में देर कर दी उन्हें आज भी पाकिस्तान में शरण नहीं मिली अलबत्ता उन्हें काफिर की संज्ञा मिल गयी। भारत पाकिस्तान के बीच सीमा उल्लंघन विवाद वर्षों से चला आ रहा है। जिसके कारण हमारे हजारों जवान आज तक शरहद पर अपनी कुर्बानी दे चुके हैं। पर सरकारें चेतती नहीं है। कश्मीर जिसे धरती का स्वर्ग कहा जाता है।आज विवाद से युक्त और रक्तरंजित हो चुका है। यह राजनीतिक चाल ही लगती है जहां भारत के नियम कानून लागू नहीं होते। ऐसा प्रतीत होता है जैसे एक छत के नीचे दो दुनिया बसा दी गयी हो। भारत में आने जाने पर कश्मीरी अवाम को रोक नहीं पर भारत के किसी भी हिस्से से जाकर खुद को उस राज्य में स्थापित करना कठिन प्रक्रिया है। क्या वहां प्रारम्भ से ही बंटवारे के बाद सांठ-गांठ हो गयी थी और देश की जनता को धोखे में रखा गया। मुद्दा विचारणीय है पर 1990 में जो हुआ वह देश के लिए शर्मनाक वाक्या था। कश्मीरी पंडितों को लाचार और बेबस कर उन्हें वहां से खदेड़ दिया गया था। पंडित जिन्हें वेद और शास्त्रों के अनुसार ब्राह्मण ब्रह्म के समान माना जाता रहा है। शरीर में उसका निवास मस्तिष्क से लेकर मुख तक का भाग बताया गया है। आदिकाल से ब्राह्मण वेदों और शास्त्रों के ज्ञाता होते थे। वो देश और समाज को ज्ञान दिया करते थे। कहा भी जाता है कि राजा की पूजा सिर्फ उसके राज्य अथवा देश में की जाती है पर ज्ञानी जन की पूजा पूरे धरती पर होती है। पर यह कैसा सम्मान जो अपमान के घूंट पीने पर उन ब्रह्मणों को मजबूर किया गया। जिसकी पूजा तो दूर शांति और सम्मान से उन्हें उनके घरों में रहने तक नहीं दिया, बेघर कर दिया गया। वो जख़्म अब दो दशक से भी ज्यादा वक्त बीत जाने के बाद हरे हो रहे हैं।
हाल ही में ओमर अबदुल्ला की सरकार को पटखनी देकर और बीजेपी से हाथ मिलाकर पीडीपी सत्ता पर काबिज़ हुई है। नई पार्टी के साथ नये मुद्दे भी राज्य में गरमा रहे हैं। हालांकि कई बार कश्मीरी पंडितों को वापस बुलाने का मसला उठता रहा है। पार्टी उन कश्मीरी पंडितों को वापस बुलाने का सपना सा दिखा रही है या बीजेपी को जमीनी हकीकत से आगाह करा रही है कि अगर इस मुद्दे का इम्प्लीमेंटेशन हुआ तो कश्मीर की हालत क्या हो सकती है। क्योंकि हाल ही में कश्मीरी पंडितों को एक अलग इलाके में स्थापित करने की योजना पर पहल हुई है। यह योजना कितनी कारगर साबित होगी यह तो भविष्य में की जाने वाली पहल से ही निर्णय निर्धारित हो सकेगा। यह जग जाहिर बात है कि यदि उन खदेड़े हुए लोगों से कश्मीरी सरकार को इतना लगाव होता तो यह कदम ही क्यों उठाते ?इतनी संख्या में कश्मीरी पंडित अपनी जान बचाकर क्यों भागते ? उन पर जो अमानवीय अत्याचार हुए ह्यूमन राइटस का खुलकर उल्लंघन हुआ। इसकी जवाबदेही किसकी हुई। नैशनल काफ्रेंस की जिसकी सरकार उस वक्त राज कर रही थी और सीएम फारुक अबदुल्ला साहब थे। देखा जाय तो कश्मीर पर सबसे ज्यादा 1982 से एकाधिकार सा रहा अबदुल्ला साहब का। हालांकि राष्ट्रपति शासन भी हर एक साल अथवा 2 साल के अंतराल पर लगता रहा। विचारणीय है कि नैशनल कांफ्रेस पार्टी कश्मीरी पंड़ितों के हक में नहीं सोचती। पुनर्वास की योजना में कई दिलचस्पी नहीं रही ओमर अबदुल्ला साहब की। इसका तातपर्य स्पष्ट है कि संदिग्धता बरकरार है।
जिस तरह महाराष्ट्र से उत्तर प्रदेश और बिहार के राज्यों से जाकर बसे लोगों को खदेड़ा गया था। यह मुद्दा उठाया गया कि मराठी लोगों का ही बोलबाला महाराष्ट्र में होना चाहिए। वहां के प्रमुख नेता ने अपनी बुलंद आवाज में अमिताभ बच्चन जैसे लोगों पर भी निशाना साधा कि आज तक उन्होंने महाराष्ट्र के लिए क्या योगदान दिया है। वैसे देखा जाय तो हर क्षेत्र में कुछ संदिग्ध मानसिकता व्याप्त है। जिससे देश के बने संविधान पर कहीं न कहीं प्रश्नवाचक चिन्ह सा लग जाता है। कि क्या भारतवासी एक राज्य से दूसरे राज्य में भ्रमण और निवास करने के लिए स्वतंत्र हैं या नहीं। संविधान की अवमानना नहीं तो और क्या है। पुनर्वास योजना उन कश्मीरी पंड़ितों के जख्म पर मरहम नहीं बल्कि उसे कुरेदा जा रहा है। यह कैसी प्लानिंग है कि जितने लोगों को पुनर्वास के तहत वापस आने का निमंत्रण दिया जा रहा है वह सब उस एक तरफा कालोनी में सुरक्षित रहेंगें। उन पर फिर कोई आक्रमण न होगा। अगर उन्हें उस प्रतिबंधित कालोनी में ही रहना है तो क्या उचित व्यवस्थाएं हैं जैसे अस्पताल, कालेज, यूनिवर्सिटी और मुख्य तौर पर व्यक्ति का व्यापार अथवा नौकरी। इन सब चीजों की आवश्यकता क्या उन लोगों को नहीं होगी जिन्हें पुनर्वास के तहत बसाये जाने की तैयारी का खाका खींचा जा रहा है। सवाल और भी बेहद गंभीर हैं जिन्हें समझने की आवश्यकता है यहां। सवाल क्या वहां के लोंगों के घूमने फिरने की जगह जहां वो लोग पहले जाने के आदि थे अब नहीं जा सकेंगे या उस जैसा स्थान उस प्रतिष्ठित कालोनी में बनाया जायेगा या ऐसी कोई योजना सरकारी पेपर पर आंकी गयी है। इसके अलावा जिन लोगों के घर उस वक्त औने पौने दाम में बेंच दिये गये थे क्या आज कश्मीरी हूकूमत अपने इस नये अव्यवस्थित आवाम को मुहैया कराने में सक्षम हो पायेगी। क्या सरकार उन लोगों को बरबस बेबस करेगी कि उनके कानून के तहत ही चलना होगा अन्यथा खामियाज़ा भुगतने को फिर तैयार रहना होगा। अमूमन 25 साल का वक्त दूसरे राज्यों में बीताने के बाद, हजारों संकट झेलने के बाद क्या यह जनता वापस जाना चाहती है। जहां उनके अपनों का कत्ल उनकी आंखों के सामने हुआ था। उस पीड़ा को भुलाने में जहां उन परिवारों को सालों लग गये और अब जब तस्वीर हल्की सी धुंधली होने लगी थी तो सरकार ने उस बंद घाव के उपर से पट्टी हटाकर उसका दर्द और बढ़ा दिया है। जिन लोगों ने 22-24 साल खून पसीना एक कर नये तरीके से अपने जिदगी की शुरुआत की और आगे बढे क्या वो लोग फिर से पीछे मुड़कर देखना चाहेंगे।
जिंदगी की शाम इंसान के जीवन में पल भर का ही सही एक ठहराव लाती है जहां व्यक्ति कुछ सोचना चाहता है आज वही शाम उन कश्मीरी पंड़ितों के जीवन में आ गयी है कि क्या करें और क्या ना करें। कानून और सरकार पर भरोसा करना यानी अपना और आने वाले कल को दांव पर लगाने जैसा है। पर जो आज तक इसी सपने के सहारे जी रहे थे उनके लिए अमृत की एक बूंद है जिनकी आंखों में आज भी अपने घर का लान की याद हरी घास की तरह ताजा है। सोचने वाली बात यह है कि क्या उन्हें उनकी पुरानी प्रापर्टी अब नसीब हो पायेगी? क्योंकि अब प्रापर्टी के दाम बढ चुके हैं। भले आज आतंकी साये में कश्मीर जी रहा हो पर मेहमान से व्यापारी वसूल ही लेगा और चाहत की कीमत इंसान को चुकानी ही पड़ती है।



केंद्र और राज्य सरकारें अगर वाकई इस मुद्दे को लेकर गंभीर हैं तो माहौल बदलना होगा आवाम का का आवाम के लिए। वरना जिस तरह दंगे आये दिन दिख रहे हैं ऐसे हालात में कोई कश्मीरी पंड़ित स्वयं को कैसे महफूस मान सकेंगे। वहां की सरकार को भरोसा दिलाना होगा कि अब उन पुनर्वासियों पर कोई हथकंड़ा नहीं अपनाया जायेगा या फिर से उन्हें बेघर नहीं किया जायेगा चाहे सरकार बदले या न बदले। त्रिशंकु वाली हालत फिर ना हों इसके लिए सरकार को मुनासिब कदम उठाने होंगे। जिससे पुरानी योदें कचोटे नहीं बल्कि मरहम का काम करें।

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