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Sunday 24 May 2015


तबाही अभी कितनी



सर्वमंगला मिश्रा
9717827056


सृष्टि की रचना और उसका विध्वंस दोनों सृष्टि निर्माता पर निर्भर है। जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु भी सुनिश्चित होती है। अर्थात् धरती पर हर वस्तु नश्वर है। सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग चार काल होते हैं। आज दुनिया जिस काल में श्वांस ले रही है वो कलयुग का प्रथम चरण है। तीन चरण अभी बाकी हैं विश्व को काल के गाल में समाने में। प्रकृति सदा से अपने शांत और खूबसूरत चरित्र के लिए जानी जाती है। समुद्र शांत रहता है तो उससे खूबसूरत कुछ और नहीं लग सकता पर जब समुद्र में उफान आता है तो तबाही का मंजर छोड़ जाता है। कभी आइला तो कभी कैटरीना तो कभी भूकंप तो कभी सूखा या बाढ़। प्रकृति मनुष्य के कुत्सित कुकृत्यों से जैसे उफन सी चुकी है। हाल ही में 25 अप्रैल से लगातार भूकंप के तीव्र झटके पूरे देश में अमूमन जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, दिल्ली से लेकर नेपाल तक महसूस किये जा रहे हैं। नेपाल में आये भूकंप ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। 1993 में आया महाराष्ट्र का लटूर भूकंप ने कितनी तबाही मचा दी थी। इतनी भारी मात्रा में तबाही ने नेपाल वासियों के जीवन को उखाड़ फेंका है। देश ही नहीं विश्व प्राकृतिक आपदाओं से समय समय पर जूझता रहता है। सुनामी ने अनगिनत लोगों की तबाही की कहानी लिखी थी।
सवाल उठता है कि प्राकृतिक आपदाओं को रोकना इंसान के इक्तियार के बाहर की बात है। पर डिज़ाजस्टर मैनेजमेंटस की भूमिका क्या होती है इन आपदाओं के समय। ऐसे समय में कई निजी और इंटरनैश्नल सेवा संस्थायें आगे बढ़कर काम करती हैं। देश, दूसरे राज्यों और विदेशों से भी भारी मात्रा में सहायता मिलती है। पर वो अनुदान सही स्थानों पर कितना पहुंच पाता है यह एक गंभीर चर्चा का विषय है। समय समय पर ऐसी चर्चायें होती रहती हैं लेकिन रिजल्ट निकल कर सामने नहीं आता। राजीव गांधी का एक वाक्य बहुत कारगर है कि सरकारी योजना से एक करोड़ रुपया निकलता है तो गरीब के पास एक रुपया ही पहुंच पाता है। 1999 में उड़ीसा के तबाही का मंज़र आज भी वहां के लोगों की याद में बसा है। उस वक्त रेड क्रास सोसाइटी जैसी तमाम संस्थाओं ने जो आगे बढ़कर सहायत की थी वह काबिले तारीफ है। पर उड़ीसा सरकार ने उन करोड़ों रुपयों का क्या किया। गरीब तक मात्र हजार या दो हजार से ज्यादा नहीं पहुंच पाया। आज भी समुद्री तट पर बसे तमाम गांव मिट्टी से ही बने घरों में ही लोग रहने को मजबूर हैं।2013 के मध्य में हुई उत्तराखण्ड की त्रासदी भला कोई कैसे भूल सकता है। जहां पलक झपकते सब तबाह हो गया। नैचुरल कलामिटी का कोई वक्त नहीं होता पर, वजह, कई पायी गयीं थीं। पहाड़ों पर बहुमंजिला होटल जहां सौंदर्य में चार चांद लगा रहे थे। वहीं पहाड़ उनका बोढ नहीं सह पा रहे थे। अवैध कंस्ट्रकश्न ने पहाड़ों को उनके अनुरुप नहीं रहने दिया। बेमेल रिश्तों का अंजाम कुछ ऐसा ही होता है। भूकंप, बाढ और सूखा भारत में प्राय: कभी सूखा तो कभी बाढ़ का सिलसिला लगा ही रहता है। 2008 में बिहार की बाढ़ का दृश्य भी दिल दहलाने वाला था। सहरसा, सुपौल, नालंदा, पश्चिमी चम्पारण, सीतामढ़ी, शेखपुरा जैसे तमाम जिले हर हरबार बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं। 2008 में आयी तबाही ने पूरे देश को हिला दिया था। सुपौल जो नेपाल के बार्डर से लगा हुआ है। जिससे पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण गर्मीयों में ग्लेशियर पिघलते हैं और पानी रोक पाने में हर सरकार फेल सी दिखती है और जनता उसी सरकार के आगे दम तोड़ देती है और राज्य सरकार को केंद्र के राहत कोष से अनुदान मिल जाता है। 1979 से 2013 तक बिहार ने इतनी त्रासदी देख ली कि अब आंखों को यही लगता होगा कि पता नहीं सबकुछ कब तबाह हो जायेगा। कोसी नही को बिहार का और दामोदर नदी को बंगाल का शोक के नाम से भी बुलाया जाता रहा है। कोसी नदी का बांध जिसके 52 द्वार हैं। नेपाल जब जब पानी छोड़ता है तब तब तबाही का मंजर आता है। कई सरकारें आयीं और सालों साल राज्य किया पर स्थायी समाधान नहीं निकाल पाये। इंसान का जीवन राजनीति की बिसात पर टिक सा गया है।

ऐसे ही समय में सीमावर्ती देशों के साथ संबंधों की असलियत उजागर होती है। सार्क सम्मेलन में यह सात संबंधी कितने अपने हैं। समय समय पर इसका खुलासा होता रहता है। नेपाल,चीन, श्रीलंका, बांग्लादेश और पाकिस्तान सभी देशों से जुगलबंदी होती है पर फिर धोखा और फलस्वरुप विध्वंस ही देखने को मिलता है। भारत ही नहीं वरन अन्य देशों को भी अच्छे पड़ोसी की तरह हाथ आगे बढाना चाहिए क्योंकि तकलीफ में पड़ोसी ही पहले काम आता है। संबंधों का मंजर ऐसा ही रहा तो कोसी हमेशा दुखदायी नदी के नाम से ही जानी जाती रहेगी। सूखे से हर गरीब किसान आत्महत्या करता रहेगा और भूकंप से तबाही मचती रहेगी।    

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