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Sunday 24 May 2015

21वीं सदी में अंधविश्वास


सर्वमंगला मिश्रा-स्नेहा

9717827056

देश की संप्रभुता अक्षुण्ण रखने के लिए अति आवश्यक है गांवों का विकास करना। गांवों में बसी प्रजातियों का शिक्षा से परिचय करवाना। शिक्षा के अभाव में आज भी अविकसित मानसिकता लिए गांवों में अकथित अकल्पनीय और जंजीर समान कठोर परंपरायें विद्दमान हैं। कुप्रथाओं को पोषित कर उनके विकास में योगदान आज भी पनप रहा है। जीवन की मूलत: समस्याओं से जुझते रहने के बावजूद रुढ़ि परंपराओं को वात्सल्य भाव से देखा जाता है। महिलाओं को आज भी कुप्रथाओं का सामना करना पड़ता है। पहले सती प्रथा, विधवा प्रथा और बाल विवाह जैसी अव्यवहारिक कुरीतियों से जुझती महिलायें आज भी सामाजिक शोषण का शिकार होती रहती हैं। उनमें से एक आज भी बहुत बलवती है। वो है डायन कहलाना। आज आधुनिक युग में बिहार जैसे राज्यों में ऐसी घटनायें प्राय: घटित होती हैं। अकल्पनीय दृश्यों की कल्पना करने मात्र से सिहरन होती है। कभी अपनी ही मां की गोद में पला बेटा उसे बड़े होने पर वही मां डायन की तरह प्रतीत होने लगती है। फलस्वरुप डंडों से पीटकर उसे मार डालता है। कभी समाज को वो डायन की तरह दिखती है जिसे समाज उसे बलपुर्वक बांधकर पीटता है। जिससे उस बूढी महिला की मरणासन्न स्थिति पर भी तरस नहीं आता जब तक कि वह अंतिम सांस न ले ले। वृद्धा अवस्था जीवन की उस सीढी का नाम है जहां जीवन की सत्यता से जूझता हर पल व्यक्ति स्वयं को असल तराजू पर तौलता है। पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि असहाय को बेड़ियों में जकड़ दिया जाय। जिस तरह फेक एन्काउटर आपसी रंजिश भी निकालने का एक जरिया है। उसी तरह महिलाओं को डायन कहकर उनपर जुल्म करने का समाज स्टैंप लगा देता है। मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश भी इससे अछूता नहीं है। शिक्षा के अभाव में ग्रामीण इलाकों में आज भी महिलाओं पर इस तरह के अत्याचार होते रहते हैं। डायन सिर्फ महिलायें ही क्यों होती हैं। पुरुष क्यों नहीं ?डायन की छवि क्या मात्र महिलाओं और खास तौर पर बूढ़ी महिलाओं का ही पीछा करती है।

आज देश 21वीं सदी में सांस ले रहा है। लेकिन कुरीतियां आज भी जीवित हैं। बीमार होने पर लोग डाक्टर के पास नहीं बल्कि तंत्र मंत्र वाले तांत्रिकों के पास जाते हैं। हाल ही में मध्य प्रदेश की एक इंजीनियरिंग की छात्रा ने तबियत खराब होने की शिकायत माता पिता से की। माता –पिता उसे डाक्टर की बजाय तांत्रिक के पास लेकर गये। उस तात्रिंक ने न केवल उस लड़की को लोहे की सलाखों से दागा वरन उसकी आंखों में नींबू निचोड़ा। जिससे गंभीर अवस्था में उसका इलाज चल रहा है। इसी तरह बिहार के गया जिले में एक बूढी औरत जो अकेले अपने घर में रहती थी उसे इलाके के लोगों ने रस्सी से बांधकर पीट –पीट कर मार डाला। इसी तरह बच्चों की बलि जो नृशंष हत्या है समाज में कुछ अज्ञानी लोग आपसी रंजिश के तहत इसका सहारा लेते हैं। नन्हें बच्चे जो ईश्वर का रुप होते हैं देश के भविष्य होते हैं उनकी जान के साथ ऐसा खिलवाड़ आखिर कब तक? इसी तरह हजारों कांड रोज हो रहे हैं। जिनपर से पर्दा अंदविश्वास का कब उठेगा। समाज कब जागृत होगा।

हम मंगल ग्रह तक पहुंच गये पर अशिक्षा ने हमारा पीछा न छोड़ा। आज भी गरीबी में पल रहा एक आधारविहीन समाज अपनी कुरीतियों के साथ जिंदा है। परंपराओं का पालन करना एक अलग मसला है पर अंधविश्वास में किसीकी जान से खेलना असभ्यता की निशानी है। पर डाक्टरों की मनमानी फीस और अस्पताल के खर्चों से डरे ये गरीब बेसहारा लोग अपने आधे अधूरे ज्ञान और अहं के चलते इन असमाजिक तांत्रिक पाखंडियों का सहारा ले लेते हैं। आज गांवों में डाक्टरों का न होना भी एक बड़ी वजह है। जिसके कारण व्यक्ति अपने इलाज के लिए कहां जाये। अस्पताल है तो डाक्टर नहीं, डाक्टर है तो संसाधन नहीं, संसाधन है तो डाक्टर झोला छाप है जिनकी डिग्री नाम मात्र की जुगाड़ु है। आमतौर पर देखा गया है कि परिस्थतियों से जूझ रहे लोग अपनी छोटी मोटी समस्या को दूर करने के लिए कम शुल्क पर असमाजिक तत्व इलाज करने का भरोसा कर लेते हैं और भोली मासूम जनता उनके बहकावे में आ जाती है। जिससे इतने घृणित अंजाम समाज के सामने आते हैं। हम शिक्षा को दोष देते हैं। पर कितने स्कूलों में सही ढ़ंग से पढाई होती है। शिक्षक ऐसे नियुक्त होते हैं जिन्हें प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति में फर्क ही समझ नहीं आता। मुख्यमंत्री और गर्वनर तो न जाने कहां उड़ती चिड़िया के नाम जैसे किसी ने पूछ लिये हों। जिन्हें अंग्रेजी में संडे- मंडे तक की स्पैलिंग नहीं आती। ऐसे लोग तो देश को शिक्षित कर रहे हैं। सरकारी स्कूल होने से मोटी रकम हर महीने मिल जाती है। बस फिर क्या नौकरी ऐश की है। ऐसी पढाई से कितनी शिक्षित होती है हमारी ग्रामीण इलाकों में रहने वाली आबादी।


यह कुरीति कब तक?? ऐसी कुप्रथाओं पर सरकार लगाम कब लगायेगी।    

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