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Thursday, 26 February 2015

नीतीश की रणनीति



सर्वमंगला मिश्रा



कौन कहता है कि खोया राज्य वापस नहीं मिलता ? इतिहास भले गवाह रहा हो नये इतिहास की संरचना करने में । सच यह भी है कि सिकंदर ने पूरे विश्व पर विजय तो प्राप्त की थी पर संभाल कर न रख सका। फलस्वरुप, राजाओं के घुटने टेक देने के बाद राज्य उन्हें वापस लौटा दिया गया था। भारत विविधताओं से भरपूर है। यहां संस्कृति से लेकर विश्वास भी आत्मसाथ होने के साथ साथ अलग अलग हो जाता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही कुर्सी मांझी के झोली में डाल दी थी। क्योंकि नीतीश कुमार के सामने मोदी के प्रधानमंत्री के पद को संभालने के उपरांत अनकही परेशानियां मंडराने लगी थी। सम्मान, अपमान के वशीभूत होकर नीतीश ने किनारा कस लिया था। फलस्वरुप मुख्यमंत्री पद जिसतरह लालू यादव ने अपने चारा घोटाला में फंसने के बाद अपनी पत्नी को उत्तराधिकार दे दिया था। 1997 का वो साल और 2014 का साल बिहार में याद किया जाने वाला बन गया है। जीतन राम मांझी के दिन ही फिर गये और रातों रात वह मुख्यमंत्री जैसी कुर्सी के दावेदार ही नहीं बल्कि विराजमान हो गये। शंहशाह रातों रात। पर सपना तब टूटा जब नीतीश ने अपना धन जो जीतन को बतौर अमानत के रुप में दिया था और सालों बाद आकर वापस मांगने लगे। तब तक जीतनराम को ऐशोआराम की आदत लग गयी थी। अब मन में पाप जग गया था। जीतन राम मांझी को कुर्सी से प्रेम हो चला था। सत्ता का मोह उनके मन को जकड़ चुका था। पर, नीतीश शतरंज के माहिर खिलाड़ी हैं। उन्हें पता है कि कब शह और मात का खेल खेला जाना चाहिए। सही वक्त के इंतजार में नीतीश ने 20 मई 2014 से 20 फरवरी 2015 तक का इंतजार कर सही वक्त पर मात दे डाली। यह वक्त तब उन्हें सही लगा जब भाजपा का मनोबल कहीं न कहीं टूटता हुआ सा महसूस हुआ। जम्मू और कश्मीर में सरकार अब तक न बन सकी। साथ ही सबसे बड़ी हार का मुंह केजरीवाल ने दिखा दिया। प्रधानमंत्री मोदी जहां अपने हर प्रचार में यही कहते नज़र आये कि जो पूरा देश चाहता है वही दिल्ली भी चाहती है। पूर्ण बहुमात वाली सरकार को वोट दीजिए। दिल्ली की जनता दिल से नहीं दिमाग से सोचती है। यह बात मोदी जी भी अब समझ गये होंगें। मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही नीतीश को विशेष राज्य का दर्जा ठंडे बस्ते में मरता नज़र आने लगा था। दोस्ती जो कभी दोस्ती हुआ करती थी। मीजिया के सामने आयी तस्वीरों ने साफ कर दिया था कि दोस्त दोस्त ना रहा बल्कि अब राजनैतिक विरोधी पक्के वाले दोनों हो चुके हैं। इस बात की छवि पूरी दुनिया ने देखी। नीतीश गुजरात नहीं गये तो मोदी अपने लोकसभा चुनाव के प्रचार के लिए बिहार की धरती को नमन तो किया पर बन्दुकों के साये में। गुजराती पुलिस पर उन्हें ज्यादा भरोसा रहा और अपने दल बल के साथ मार्च करते आये और प्रचार कर वापस भी गये। लोस के चुनाव में खूब गरजने वाले मोदी अपने तहेदिल करीबी दोस्त से पल पल आखें चौकन्नी करते भी नजर आये। कई जगह मिले तो मिले पर ना मिले। सत्ता और बल से बड़ा राजनीति में कुछ नहीं होता।

आज भले नीतीश कुमार यह कह रहे हों कि भाजपा सत्ता की भूखी है और सत्ता पाने के लिए कुछ भी कर सकती है। तो आत्म-मंथन की आवश्यकता उन्हें भी है। सत्ता पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिए ही उन्होंने जीतन राम मांझी का सहारा लिया और समय के पलटते ही उन्हें उनकी औकात भी याद दिला दी। नीतीश शपथ लेकर फिर अपने अंदाज में राज करेंगें। भाजपा के सपनों को चकना चूर कर देने वाले नीतीश को टक्कर अब भी मोदी से ही लेनी होगी। बिहार को विशेष राज्य का दर्जा केंद्र की अनुमति के उपरांत ही मिल सकेगा। रास्ता सीधा नहीं है। 70 वर्षीय मांझी मात्र कठपुतली थे मनमोहन सिंह की तरह, राबड़ी की तरह। जिसे सत्ता पर काबिज़ तो कर दिया गया पर हाथ काट दिये गये जिससे वह कुछ लिख न सके। मुसहर जाति के मांझी के पिछड़े वर्ग से आने के कारण ही किसी ने नीतीश के गेम प्लान पर संदेह न कर सफल होने दिया। सियासत और सत्ता का प्रगाढ़ प्रेम पल पल अपना रुप रंग बदलता, निखारता और संवारता रहता है। नीतीश कुमार जो 70 सावन से अमूमन सात साल दूर हैं। राजनीति रणनीति के माहिर दोनों खिलाड़ी अब फिर से मैदान में आमने सामने हैं। जीवन में सत्ता की संलिप्तता कितनी किसमें समायी है। यह आने वाले समय में दिखेगा। अपने हनीमून कम सेट्रैटेजी परियड के दौरान नीतीश किस रणनीति के तहत वापस अपनी गद्दी पर काबिज़ हुए हैं।

भाजपा के साथ रहने वाले नीतीश ने मात्र इसलिए किनारा कसा क्योंकि मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया गया था। नीतीश स्वयं भी उन दिनों प्रधानमंत्री बनने का सपना बुन रहे थे। नीतीश एक मजबूत प्लान के साथ सामने आये हैं जिससे उनका वर्चस्व कायम हो सके। आने वाले समय में विधानसभा चुनाव पर अपनी मजबूत दावेदारी भी पेश कर मोदी और भाजपा दोनों को कड़ी टक्कर देने के लिए मोदी जैसा परिपक्व प्लान होना नीतीश के पास अनिवार्य है। मोदी के प्लान में कहीं न कहीं तार अब ढीले पड़ रहे हैं। लांग डिस्टेंस लव फलीभूत नहीं होता। इसलिए बंगाल, बिहार और उड़ीसा के इलाके भाजपा के हाथ पूरी तरह नहीं है। इन तीनों राज्यों में लोकल पार्ट्रीज का ही प्रभुत्व बना हुआ है। गांधी मैदान में भाषण देने से यह साबित नहीं हो जाता कि जनता आपके पक्ष में आ गयी है। जनता के आशीर्वाद के लिए ओबामा, क्लींटन और मोदी की तरह प्लान से चलना पड़ता है। नीतीश के फूले और चमकते गाल के पीछे कितनी गहरी रणनीति जन्म ले चुकी है यह तो शपथ के दिन से ही सामने आ जायेगा। हालांकि सुशील मोदी की आकांक्षा की परीक्षा दूर तलक तक जायेगी। हार की हवा जब उत्तर से उठी है और पूर्व से होते हुए दक्षिण और कहीं आने वाले समय में पश्चिम तक न पहुंच जाये। दिल्ली से उठी यह कंपकपाहट गर्मी के मौसम में कितनी सर्द का एहसास करायेगी भाजपा को या ब्लड प्रेशर बढाने का काम करेगी यह तो नीतीश की पकी हुई राजनीति ही तय कर सकेगी। फ्लोर टेस्ट में फेल मांझी अब अपनी नैया किस ओर ले जायेंगें या हवा का रुख उन्हें स्वयं बहायेगी। रणनीति रण में आने पर नहीं बनती बल्कि मानस पटल पर अंकित रहती है।

Sunday, 28 December 2014

                                                   नारी


सर्वमंगला मिश्रा- स्नेहा
9717827056

चिंतन-मनन के उपरांत उस पर क्रियान्वयन का होना अति आवश्यक होता है। प्राचीनकाल से लेकर अब तक हम न जाने कितने मुद्दों पर चर्चा करते चले आ रहे हैं। पर चर्चा सिर्फ चर्चित होती है। उस पर गतिशील तरीके से समाज कदम से कदम मिलाकर चल नहीं पा रहा। अर्थात् कहीं न कहीं वैचारिक मतभेद एवं अपरिपक्वता व्याप्त है। विश्व आज एक –एक करके सभी दहलीजें पार कर रहा है। हर ऊंची दीवाल को फांदने की कूबत रखने वाला इंसान आज इंसान से ही नफरत करता है। फिल्मी अदाकारा माधुरी दीक्षित से लेकर कई सरकारों ने महिलाओं के लिए असीम योगदान देने का बीड़ा उठाया। जिससे भ्रूण हत्या कम हो। लिंग परीक्षण को भी सरकार ने वैध करार दिया। उसके बावजूद आज भी शहरों में और गांवों में कन्यायें गर्भ में ही दम तोड़ देती हैं।

महिलायें जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती चली आ रहीं हां चाहे वो रानी लक्ष्मीबाई, मातंगिनी हाजरा या इंदिरा नूई हों। समाज दुर्बर्लों का नहीं होता। जिसने अपनी लड़ाई लड़ी देश, समाज उसका हुआ। देश के सर्वोच्च पद पर इंदिरा गांधी ने इतिहास रच डाला। मायावती दलित समाज का गौरव और तीन बार मुख्यमंत्री बनना सचमुच एक सम्मान की बात है। जे. जयललिता अदाकारा से पुष्ट और कठोर राजनीति के लिए जानी जाती हैं। ममता बनर्जी जो जमीन से उठी बंगाल की बेटी ने देश के गरीबों के हित को समझने वाली पार्टी के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की और बताया कि बंगाल की असल हितैषी वो खुद हैं। सुषमा स्वराज, अल्प काल के लिए ही सही दिल्ली की मुख्यमंत्री बनी। सोनिया गांधी के विरुद्ध उन्हें दक्षिण भारत से उतारा गया। आज विदेश मंत्री के पद पर मोदी जी के शासन में आसीन हैं। उमा भारती, स्मृति इरानी, मेनका गांधी तमाम ऐसे नामों की फहरिस्त है जिन्होंने अपनी लड़ाई खुद लड़ी और विजयी भी रहीं। एक स्वंय सेवी संस्था ने महिला सशक्तिकरण के कार्यक्रम में सुषमा स्वराज और मिनाक्षी लेखी जैसी हस्तियों को आमंत्रित किया था। मिनाक्षी लेखी जो बीजेपी की प्रवक्ता हैं। उन्हें यह बताने में तनिक भी संकोच नहीं हुआ कि जब उनके घर में कोई मेहमान आता है तो उनके दोनों बेटे मेहमाननवाजी करते हैं। सुषमा जी ने अपने रिसर्च के बारे में बताया कि जब मुझे पता चला कि महिला कमजोर होती है तो यह पाया कि शेर जंगल का राजा होता है पर शिकार शेरनी करती है। उसी प्रकार झुंड में चलने वाले हाथियों का मार्गदर्शन बूढ़ी हथिनी करती है। जो सूंड उठाकर खतरे को भांप लेती है। तो ऐसे में महिला कमजोर कैसे हो सकती हैं। उसे शक्ति की आवश्यकता ही क्यों है ?  जब वह स्वयं शक्तिस्वरुपा है। बात चल रही थी कि महिलाओं को क्या वास्तविक रुप से शक्ति की आवश्यकता है या जगरुक होने की अपने हक के प्रति।

देश मंगल ग्रह तक पहुंच चुका है। पर, महिलाओं के मंगल की बात कम लोग ही अन्तर्रात्मा से स्वीकार कर पाते हैं। एक समय था जब एक ब्याही गयी कन्या का उसके माता- पिता से सदा सर्वदा के लिए रिश्ता समाप्त सा हो जाता था क्योंकि उस वक्त जागरुकता मिट्टी में दबी हुई थी। आज जागरुकता की इमारत खड़ी होने के बावजूद भी उसका पता कम लोगों को ही पता है। आज जीवंत उदाहरण है कि तीन ब्याही गयी लड़कियां शादी के तुरंत बाद ही वापस अपने मायके आ गयीं क्योंकि उनके यहां शौचालय का प्रतिबंध नहीं था। ये जागरुकता है जो देश में संचालित हो रही योजनाओं पर अब गांवों तक की भी नजर है। महिलाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी हो इसके लिए मध्य प्रदेश सरकार की लाडली योजना और तमाम ऐसी योजनायें शामिल हैं।पर सवाल उठता है कि क्या इस प्रयास के बावजूद समाज और परिवार महिलाओं का सम्मान करना सीख पाया है ? जवाब में असंतोष अवश्य छिपा है। आज देश में महिलाओं का सम्मान वास्तविक तौर पर होता तो 16 दिसम्बर और हाल ही में दिल्ली में एक और हादसे ने जहां विदेशी कंपनियों द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं पर भी सवाल खड़ा कर दिया है। बड़े- बड़े विज्ञापन, सुरक्षा के वायदे ऐसी घटनाओं के बाद सत्यता की परख हो जाती है कि अपना व्यापार उज्जवल दिशा में बढ़े इसके लिए खोखले वायदों के सब्ज बाग दिखा जिये जाते हैं जिसतरह नगर निकाय चुनाव से लेकर लोकसभा चुनावों में नेतागण खोखले वायदे करने से नहीं चूकते। पर पांच साल बाद जब वही नेता अपने इलाके में आता है तो झूठ की नयी परत और मुखौटे के साथ आता है। साल आते हैं मुखौटा बदलता चला जाता है। दूसरा सवाल यह उठता है कि क्या हर गुनाह की भरपायी मुआवज़ा होता है? सरकार हो या कंपनियां मुआवज़ा देकर मामला रफा दफ़ा करने में यकीन रखती हैं। दिल्ली हादसों का शहर बन गया है। सिर्फ दिल्ली क्यों उत्तर प्रदेश हो या बिहार, बंगाल या दक्षिणी प्रांत। समस्या एक है कि लोगों की मानसिकता उनका नज़रिया कैसे बदला जाय? क्योंकि जबतक इंसान की सोच शुद्ध नहीं होगी तब तक मानसिकता समृद्ध नहीं होगी। स्वस्थ मस्तिष्क ही समाज को स्वच्छता से रख सकता है। संकीर्णता कुरुपता को जन्म देती है। जिससे स्वस्थता बीमारी की ओर अग्रसर हो जाती है। फलस्वरुप प्रवृत्ति कोमा और आसीयू में चली जाती है। जहां स्वस्थता डाक्टरों के हाथ की कठपुतली बन जाती है और स्वस्थता के पुजारी सिर्फ प्रार्थना करते रह जाते हैं। देश और समाज की ऐसी दुर्बल स्थिति ना हो इससे पहले पहल करना अनिवार्य हो गया है। जिसकी शुरुआत घर के अंदर से होनी आवश्यक है। माताओं और घर के बड़े बजुर्गों को पहल करनी होगी। सीखाना होगा सम्मान दोगे तभी सम्मान पा सकोगे।

एक नेता का बयान आया था कुछ दिन पहले की हर महिला के पीछे हम पुलिस नहीं लगा सकते। बंगाल के नेता ने कहा- जब तक संसार है- दुष्कर्म की घटनायें घटती रहेंगी। हम कठोर प्रावधानों की मांग न करके उन लोगों को ऐसे बयानों से बल मिलता है। हर बार घटी घटनाओं को लेकर पूरा देश स्तब्ध रह जाता है। पर परिणाम शून्याकार ही रहता है। इन घटनाओं पर फिल्म इंडस्ट्री को पहल करनी चाहिए। देश और युवा उसके प्रशसंक और पद चिन्हों पर चलने में गर्व की अनुभूति करते हैं। उनके पास निर्णय करने की क्षमता नहीं होती। इसलिए हर बच्चे को तहज़ीब देनी होगी। तभी युवा होने पर उसके रक्त में वह अनुभूतियां विद्दमान रहेंगी। जिससे शिष्टाचार उसे गलत पथ पर जाने से रोकेगा। समाज ऐसे पथ पर चल चुका है जहां वयोवृद्ध महिलायें भी असुरक्षित एवं असहाय हैं। कभी किसी बलवान ने बदले की भावना से किया तो कभी कुदृष्टि के चलते। पर बदला लेने का यह कौन सा तरीका है जहां मानवता खुद शर्मसार हो जाये। आप अपने घर में अपने ही बड़े –बूढों और परिवार जन से नज़रें मिलाने के काबिल न रहो। द्रौपदी से लेकर आज दिल्ली तक महिला अपमान के बोझ तले दबती और सहमती चली जा रही है। जिनके सपोर्ट मेंपुरुष हैं वो महिलायें तो ज्ञानार्जन से लेकर अपने हक की लड़ाई लड़ लेती हैं पर जिन्हें ऐसा सौभाग्य नहीं मिला तो उन्हें बलहीन दुनिया घोषित करेगी ? मलाला –एक छोटी सी बच्ची जिसने विश्व में बच्चों के लिए मुहिम छेड़ी तो नोबल पीस प्राइज़ की हकदार भी। आज उसके पीछे तमाम बन्दूकें तनीं सी हैं पर उसके पिता उसके असल सहायक एवं मार्गदर्शक हैं। वहीं दूसरी लड़कियां जिनके परिवार में कोई मर्द नहीं हैं वो घर के बाहर पैर तक नहीं रख सकीं पढ़ना तो दूर है। गांव से लेकर शहर तक अब यह कदम हर लड़की और महिला को उठाना होगा अपने बेटों को शिक्षित करना होगा। शिष्टाचार की पढ़ाई का स्कूल खोलन होगा।  
इतिहास में सीता, कुन्ती और जीजा बाई  ऐसी उदाहरण हैं जिन्होंने अपने बेटों को ऐसी शिक्षा एवं संस्कार दिये जिससे संसार में आज भी लव -कुश का  नाम सम्मान से लिया जाता है। यह सीता माता की शिक्षा का ही परिणाम था कि अपने दोनों बेटों को पथ भ्रष्ट होने से बचाया  अनैतिकता से कोसों दूर रखा। वहीं कुन्ती ने भी अपने पांच पुत्रों को शिक्षा और संस्कार देकर मिसाल कायम की। शिवाजी की माता के संस्कार जगत विख्यात हैं।  वहीं गांधारी ने अपने पुत्रों दुर्योधन और दुशशासन जो सदा अपने मामा शकुनी के साथ समय व्यतीत करते थे। एक उनकी शिक्षा और एक माता कुन्ती की। दोनों उदाहरण हमारे सामने हैं।  इसी तरह आज हर नारी को सिर्फ माता नहीं वरन सीता के समान सोच, कुन्ती समान पालन और जीजा बाई जैसी शिक्षा प्रदान करने का संकल्प लेना होगा। तभी देश उन्नत हो सकेगा। वरना लड़के लड़के हैं यह सोच उन्हें सही मार्ग से भटका देगी। माता एवं पिता दोनों का कर्तव्य होता है कि लड़कों को भी लड़कियों जैसा उचित संस्कार एवं शिक्षा से अवगत करायें। 

                                भाजपा का कमल




सर्वमंगला मिश्रा- स्नेहा
9717827056


देश में आज एक ही लहर चहुं ओर है। यह लहर समय की है या व्यक्ति विशेष की। जीत कहीं भी मिल रही है तो उसका एक मात्र श्रेय जा रहा है प्रधानमंत्री को। जिसने लोगों पर न जाने कैसा मोहिनी जादू कर दिया है या मार्केटिंग का असर। समझना थोड़ा जन सामान्य के लिए मुश्किल हो रहा है। डीजल -पेट्रोल के दाम भी कम होते नजर आ रहे हैं। क्या यह अजूबा मात्र सभी चुनावों को जीतने का मात्र सहारा है अथवा सचमुच यह अजूबा कायम रहेगा। जिस गुजराती माडल को लेकर दुनिया भर में चर्चा का विषय रहे मोदी ने अपने आप को स्थापित कर लिया है। अंगद के पैर की तरह राजनीति की धरती पर कड़े विरोधियों के सामने जमा चुके हैं। आज जम्मू कश्मीर का विधानसभा चुनाव हो या मध्यप्रदेश का नगर निकाय हर तरफ भाजपा का कमल ही खिल रहा है। मध्य प्रदेश के सी एम शिवराज सिंह चौहान ने तो मध्य प्रदेश को गुजराती माडल जैसा बनाने के लिए एक पी आर ऐजेंसी भी हायर करने का फैसला ले लिया है। अब उम्मीद यही की जा सकती है कि आने वाले समय में सभी बीजेपी शसित राज्य अपने अपने राज्यों को गुजराती माडल बनाने की होड़ में शामिल हो जायेंगें।
राज्यों ने हर चुनाव जीत लिया है। कुछ चुनाव और कुछ दूसरे राज्यों में विधानसभा चुनाव भी अगले साल होने वाले हैं। उसके लिए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने पश्चिम से परचम लहराते हुए अब पूरब का रुख कर लिया है। बंगाल में अस्तित्वहीन भाजपा को अस्तित्व में लाने की कवायत शुरु हो चुकी है। बंगाल की शेरनी के सामने भी क्या कोई दहाड़ सकता है ? तो मोदी सरकार की रीढ़ की हड्ड़ी अमित शाह जो साधरणतया कम बोलते दिखते हैं बंगाल में अपनी गर्जना के साथ भाजपा के मजबूत कदम की थर्राहट तो नहीं पर आसार के कयास जरुर लगाये जायेंगें। बंगाल में  गरीबों की हमदर्द पार्टी सी पी आई एम के अलावा एक लम्बे अरसे के बाद दीदी को अपनाया क्योंकि वो 34 साल से प्रयासरत थीं कि वो बंगाल और बंगाल वासियों की हमदर्द हैं। पर वहां की जनता इतनी आसानी से किसी को अपना नहीं मानती है। कड़ी अग्नी-परीक्षा के बाद ही उसे अपनाती है। जब बंगाल की बेटी और बाघिनी को यह समझाने में 34 साल लग गये कि वो उनकी हैं और बंगाल उनका है। तो बंगाल के लोगों का पूर्ण विश्वास मत हासिल करने में तो अमित शाह को अभी कितना दहाड़ना पड़ेगा। कितनी परीक्षायें देनी होंगी । क्या अमित शाह के अन्दर इतना दम है कि बंगाल की मानसिकता और विश्वास की भावना को सहेजकर ममता दीदी को बंगाल में चुनौती दें और 2015 में  होने वाले विधानसभा चुनावों में परिणाम आशा के विपरीत और भाजपा के इतिहासी किताब में एक ऐसा अध्याय जोड़ दे जो किसी ने अब तक सोचा न हो यानी - पूर्ण बहुमत भाजपा को । इस साल हुए लोकसभा चुनावों में भी भाजपा की स्थिति सबके सामने ही रही।
माहौल, शब्द की बात करना चाहूंगी। एक अविश्वसनीय पक्षपात चाहे अनचाहे हर कोई न जाने क्यों मोदी की ओर आकर्षित है। एक ऐसा हूजूम जिसमें हर कोई आसमान की तरफ टकटकी लगाये एक ही अक्स, एक ही नाम देखना और सुनना चाहता हो। पर एक शक्स ऐसा है जो मोदी से शिकायत करना चाहता है। पर उसकी शिकायत कहीं अनसुनी न कर दी जाय। जशोदा बेन - मोदी जी की पत्नी । जिसे अभी भी मोदी जी ने सही स्थान नहीं दिया है। वह आर टी आई के तहत अपने प्रश्नों का उत्तर से ज्यादा अपने हक की लड़ाई लड़ने को मजबूर है। जिसे दुनिया ने सालों बाद सुना कि मोदी की पत्नी भी हैं क्योंकि लोकसभा का फार्म भरने के क्रम में खुलासा हुआ। उसी तरह सालों से चला आ रहा बंगाल और भाजपा का खेल। जो पूरे देश में, केन्द्र में राज कर चुकी पर बंगाल में अबी तक अस्तित्वहीन है और लड़ाई लड़ने को मजबूर भी। हालांकि बंगाल ने भी अपना मुख यानी ब्रांड अम्बेसडर शाहरुख खान को बनाकर तेज -रफ्तार पकड़ने को दर्शाता है। पर भाजपा सिंकदर की तरह विश्व विजय पर निकली है। जिसले पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण विजय रथ पर सवार होकर इतिहास रचना है। जो हर नामुमकिन को मुमकिन बनाने पर तुली है। जिसे दिल्ली में भी मील का पत्थर साबित होना है। देश के हर राज्य में बस कमल का निशान देखने का सपना लेकर चलने वाली भाजपा क्या गुल खिलायेगी यह तो भविष्य ही बताएगा कि भाजपा का यह वक्त उगता सूरज आसमान में चढेगा या मध्य तक आते- आते भाजपा के सूर्य को ग्रहण लग जायेगा और ग्रहण लगा सूर्य यूंही सदा के लिए अस्त हो जायेगा। 

                                                         नारी 

सर्वमंगला मिश्रा- स्नेहा9717827056




चिंतन-मनन के उपरांत उस पर क्रियान्वयन का होना अति आवश्यक होता है। प्राचीनकाल से लेकर अब तक हम न जाने कितने मुद्दों पर चर्चा करते चले आ रहे हैं। पर चर्चा सिर्फ चर्चित होती है। उस पर गतिशील तरीके से समाज कदम से कदम मिलाकर चल नहीं पा रहा। अर्थात् कहीं न कहीं वैचारिक मतभेद एवं अपरिपक्वता व्याप्त है। विश्व आज एक –एक करके सभी दहलीजें पार कर रहा है। हर ऊंची दीवाल को फांदने की कूबत रखने वाला इंसान आज इंसान से ही नफरत करता है। फिल्मी अदाकारा माधुरी दीक्षित से लेकर कई सरकारों ने महिलाओं के लिए असीम योगदान देने का बीड़ा उठाया। जिससे भ्रूण हत्या कम हो। लिंग परीक्षण को भी सरकार ने वैध करार दिया। उसके बावजूद आज भी शहरों में और गांवों में कन्यायें गर्भ में ही दम तोड़ देती हैं। 
महिलायें जो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती चली आ रहीं हां चाहे वो रानी लक्ष्मीबाई, मातंगिनी हाजरा या इंदिरा नूई हों। समाज दुर्बर्लों का नहीं होता। जिसने अपनी लड़ाई लड़ी देश, समाज उसका हुआ। देश के सर्वोच्च पद पर इंदिरा गांधी ने इतिहास रच डाला। मायावती दलित समाज का गौरव और तीन बार मुख्यमंत्री बनना सचमुच एक सम्मान की बात है। जे. जयललिता अदाकारा से पुष्ट और कठोर राजनीति के लिए जानी जाती हैं। ममता बनर्जी जो जमीन से उठी बंगाल की बेटी ने देश के गरीबों के हित को समझने वाली पार्टी के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की और बताया कि बंगाल की असल हितैषी वो खुद हैं। सुषमा स्वराज, अल्प काल के लिए ही सही दिल्ली की मुख्यमंत्री बनी। सोनिया गांधी के विरुद्ध उन्हें दक्षिण भारत से उतारा गया। आज विदेश मंत्री के पद पर मोदी जी के शासन में आसीन हैं। उमा भारती, स्मृति इरानी, मेनका गांधी तमाम ऐसे नामों की फहरिस्त है जिन्होंने अपनी लड़ाई खुद लड़ी और विजयी भी रहीं। एक स्वंय सेवी संस्था ने महिला सशक्तिकरण के कार्यक्रम में सुषमा स्वराज और मिनाक्षी लेखी जैसी हस्तियों को आमंत्रित किया था। मिनाक्षी लेखी जो बीजेपी की प्रवक्ता हैं। उन्हें यह बताने में तनिक भी संकोच नहीं हुआ कि जब उनके घर में कोई मेहमान आता है तो उनके दोनों बेटे मेहमाननवाजी करते हैं। सुषमा जी ने अपने रिसर्च के बारे में बताया कि जब मुझे पता चला कि महिला कमजोर होती है तो यह पाया कि शेर जंगल का राजा होता है पर शिकार शेरनी करती है। उसी प्रकार झुंड में चलने वाले हाथियों का मार्गदर्शन बूढ़ी हथिनी करती है। जो सूंड उठाकर खतरे को भांप लेती है। तो ऐसे में महिला कमजोर कैसे हो सकती हैं। उसे शक्ति की आवश्यकता ही क्यों है ?  जब वह स्वयं शक्तिस्वरुपा है। बात चल रही थी कि महिलाओं को क्या वास्तविक रुप से शक्ति की आवश्यकता है या जगरुक होने की अपने हक के प्रति। 
देश मंगल ग्रह तक पहुंच चुका है। पर, महिलाओं के मंगल की बात कम लोग ही अन्तर्रात्मा से स्वीकार कर पाते हैं। एक समय था जब एक ब्याही गयी कन्या का उसके माता- पिता से सदा सर्वदा के लिए रिश्ता समाप्त सा हो जाता था क्योंकि उस वक्त जागरुकता मिट्टी में दबी हुई थी। आज जागरुकता की इमारत खड़ी होने के बावजूद भी उसका पता कम लोगों को ही पता है। आज जीवंत उदाहरण है कि तीन ब्याही गयी लड़कियां शादी के तुरंत बाद ही वापस अपने मायके आ गयीं क्योंकि उनके यहां शौचालय का प्रतिबंध नहीं था। ये जागरुकता है जो देश में संचालित हो रही योजनाओं पर अब गांवों तक की भी नजर है। महिलाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी हो इसके लिए मध्य प्रदेश सरकार की लाडली योजना और तमाम ऐसी योजनायें शामिल हैं।पर सवाल उठता है कि क्या इस प्रयास के बावजूद समाज और परिवार महिलाओं का सम्मान करना सीख पाया है ? जवाब में असंतोष अवश्य छिपा है। आज देश में महिलाओं का सम्मान वास्तविक तौर पर होता तो 16 दिसम्बर और हाल ही में दिल्ली में एक और हादसे ने जहां विदेशी कंपनियों द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं पर भी सवाल खड़ा कर दिया है। बड़े- बड़े विज्ञापन, सुरक्षा के वायदे ऐसी घटनाओं के बाद सत्यता की परख हो जाती है कि अपना व्यापार उज्जवल दिशा में बढ़े इसके लिए खोखले वायदों के सब्ज बाग दिखा जिये जाते हैं जिसतरह नगर निकाय चुनाव से लेकर लोकसभा चुनावों में नेतागण खोखले वायदे करने से नहीं चूकते। पर पांच साल बाद जब वही नेता अपने इलाके में आता है तो झूठ की नयी परत और मुखौटे के साथ आता है। साल आते हैं मुखौटा बदलता चला जाता है। दूसरा सवाल यह उठता है कि क्या हर गुनाह की भत्ररपायी मुआवज़ा होता है? सरकार हो या कंपनियां मुआवज़ा देकर मामला रफा दफ़ा करने में यकीन रखती हैं। दिल्ली हादसों का शहर बन गया है। सिर्फ दिल्ली क्यों उत्तर प्रदेश हो या बिहार, बंगाल या दक्षिणी प्रांत। समस्या एक है कि लोगों की मानसिकता उनका नज़रिया कैसे बदला जाय? क्योंकि जबतक इंसान की सोच शुद्ध नहीं होगी तब तक मानसिकता समृद्ध नहीं होगी। स्वस्थ मस्तिष्क ही समाज को स्वच्छता से रख सकता है। संकीर्णता कुरुपता को जन्म देती है। जिससे स्वस्थता बीमारी की ओर अग्रसर हो जाती है। फलस्वरुप प्रवृत्ति कोमा और आसीयू में चली जाती है। जहां स्वस्थता डाक्टरों के हाथ की कठपुतली बन जाती है और स्वस्थता के पुजारी सिर्फ प्रार्थना करते रह जाते हैं। देश और समाज की ऐसी दुर्बल स्थिति ना हो इससे पहले पहल करना अनिवार्य हो गया है। जिसकी शुरुआत घर के अंदर से होनी आवश्यक है। माताओं और घर के बड़े बजुर्गों को पहल करनी होगी। सीखाना होगा सम्मान दोगे तभी सम्मान पा सकोगे।
एक नेता का बयान आया था कुछ दिन पहले की हर महिला के पीछे हम पुलिस नहीं लगा सकते। बंगाल के नेता ने कहा- जब तक संसार है- दुष्कर्म की घटनायें घटती रहेंगी। हम कठोर प्रावधानों की मांग न करके उन लोगों को ऐसे बयानों से बल मिलता है। हर बार घटी घटनाओं को लेकर पूरा देश स्तब्ध रह जाता है। पर परिणाम शून्याकार ही रहता है। इन घटनाओं पर फिल्म इंडस्ट्री को पहल करनी चाहिए। देश और युवा उसके प्रशसंक और पद चिन्हों पर चलने में गर्व की अनुभूति करते हैं। उनके पास निर्णय करने की क्षमता नहीं होती। इसलिए हर बच्चे को तहज़ीब देनी होगी। तभी युवा होने पर उसके रक्त में वह अनुभूतियां विद्दमान रहेंगी। जिससे शिष्टाचार उसे गलत पथ पर जाने से रोकेगा। समाज ऐसे पथ पर चल चुका है जहां वयोवृद्ध महिलायें भी असुरक्षित एवं असहाय हैं। कभी किसी बलवान ने बदले की भावना से किया तो कभी कुदृष्टि के चलते। पर बदला लेने का यह कौन सा तरीका है जहां मानवता खुद शर्मसार हो जाये। आप अपने घर में अपने ही बड़े –बूढों और परिवार जन से नज़रें मिलाने के काबिल न रहो। द्रौपदी से लेकर आज दिल्ली तक महिला अपमान के बोझ तले दबती और सहमती चली जा रही है। जिनके सपोर्ट मेंपुरुष हैं वो महिलायें तो ज्ञानार्जन से लेकर अपने हक की लड़ाई लड़ लेती हैं पर जिन्हें ऐसा सौभाग्य नहीं मिला तो उन्हें बलहीन दुनिया घोषित करेगी ? मलाला –एक छोटी सी बच्ची जिसने विश्व में बच्चों के लिए मुहिम छेड़ी तो नोबल पीस प्राइज़ की हकदार भी। आज उसके पीछे तमाम बन्दूकें तनीं सी हैं पर उसके पिता उसके असल सहायक एवं मार्गदर्शक हैं। वहीं दूसरी लड़कियां जिनके परिवार में कोई मर्द नहीं हैं वो घर के बाहर पैर तक नहीं रख सकीं पढ़ना तो दूर है। गांव से लेकर शहर तक अब यह कदम हर लड़की और महिला को उठाना होगा अपने बेटों को शिक्षित करना होगा। शिष्टाचार की पढ़ाई का स्कूल खोलन होगा।    
    
   
                                     अपने धुन में मगन मोदी




सर्वमंगला मिश्रा -स्नेहा

सफलता एक सौगात होती है। जिसकी कुंजी शायद मोदी जी के हाथ लग गयी है। पूरा देश एक तरफ जहां देश की आजादी का पर्व मनाने में ही गर्व की अनुभूति करता रहता है वहीं प्रधानमंत्री बिना रुके बिना थके अविरल गति से एक के बाद एक योजनाओं को लागू करने के साथ साथ सभी प्रोजेक्ट्स को एक एक गुट को सौंपते चले जा रहे हैं। परीक्षा हाल में पेपर लाइन से सबको देकर फिर निश्चित अवधि समाप्त होने पर उत्तर पुस्तिका वापस ले ली जाती है। प्रधानमंत्री की कार्यशैली भी कुछ ऐसा ही आभास करा रही है। नौरत्नों को स्वच्छता अभियान में लगाकर उन्होंने पूरे देश को स्वच्छ बनाने का बीड़ा हर भारतवासी के कंधों पर डाल दिया है। स्वंय सफाई कर यह भी दिखा दिया कि कोई भी काम छोटा नहीं होता और जितने स्टार प्रचारक प्रचार करेंगें युवा वर्ग उनसे प्रभावित होकर उस कार्य का बीड़ा स्वयं उठायेगा।इसी तरह गंगा को निर्मल बनाने की मुहिम पूरे देश ही नहीं विदेशों में भी चर्चा का विषय बन गयी है। देश में भाजपा के छोटे बड़े नेताओं के बीच गंगा बचाओ अभियान में हर नेता ने कसम खायी है गंगा को बचाने की। गो हत्या पर भी सरकार सख्ती बरतने का प्रयास कर रही है। जुर्माना और कारावास की सजा के तौर पर। हाइ स्पीड मेट्रो का ट्रेलर पूरे देश ने देखा। जम्मू से वैष्णो देवी जाने का मार्ग सुलभ हो गया। टीचर्स डे के दिन पूरे देश के बच्चों से वाडियो कान्फ्रेसिंग अपने आपमें एक नया जीवंत प्रयास था जिसे चुपके चुपके ही सही हर आम व खास ने सराहा। तीन शहरों को स्मार्ट सिटी के तौर पर बनाने की परिकल्पना जहां हाई टेक गतिविधियां होंगी। सी सी टी वी के अलावा प्रति पल प्रति क्षण आप पर तकनीकी मशीनें नजर रखेंगी। एक तरह से आप आम से खास बन जायेंगें। वहीं दूसरी तरफ एक पल एकांत को भी तरसेंगें। पर स्मार्ट सिटी बनाने में अमेरिका मदद की मदद मिलेगी। वहीं अपने चुनावी भाषणों में इतिहास का जिक्र करने वाले मोदी इतिहास को पढाने ही नहीं पढने में भी यकीन रखते हैं।तभी तो गांधी जी की तरह स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने की मुहिम भी साथ में छेड़ दी है।खादी पर जोर देने के साथ जीवन शैली को सरल तौर पर जीने के नियम को भी अपने मंत्रीमंडल से लेकर सम्पूर्ण भाजपा को शिविर लगावाकर समझाया। अपने संसदीय क्षेत्र में डेयरी उद्दोग से बेरोजगारी दूर करने का भी प्रोग्राम है।  तो गांधी जी के आदर्शों पर चलने वाले मोदी गांवों को नहीं भूले हैं। हर एक सांसद एक आदर्श ग्राम की योजना पर कार्यरत होगा। जिससे 282 आदर्श गांव कम से कम 5 सालों में तो तैयार हो ही जायेगा। प्रधानमंत्री ने खुद भी अपने संसदीय क्षेत्र से एक गांव को गोद ले लिया है। अब उसे पाल पोषकर बड़ा करेंगें, लायक बनाकर एक उदाहरण खड़ा करेंगें। तभी देश उन्नति के पथ पर अग्रसर होगा।
रिंग में एक मास्टर अपनी छड़ी और आंखों के सहारे यानी बुद्धिमता और कार्यक्षमता के बल पर सभी शेरों का करतब जनता के सामने पेश करता है। जनता की ताली नो डाउट की उस रिंग मास्टर के लिए ही होती है क्योंकि उसके इशारे के बिना करतब का क –शब्द की उम्मीद भी करना बेवकूफी है।अगर खेल दिखाना एक कला है तो खेल को सीमाबद्ध तरीके से सीखाना भी एक सौगात है। प्रधानमंत्री जी भी नेताओं से लेकर सरकारी बाबूओं तक सबको उचित शिक्षा और अनुशासन सीखाने में लगे हैं। अधिकारी वर्ग जहां पहले दोपहर के बाद अपने कार्यालय में प्रवेश करता था वहीं अब परंपरा बदल रही है। बाबूओं के लिए प्रतीक्षारत नहीं होना पड़ता।
इतिहास के पन्ने पलटे जायें तो हर दशक में एक चेहरा ऐसा उभर कर आता है जो उस दशक का एक मात्र परिवर्तनशील कल्पना से परे होता है। मोदी जी ने पाक के प्रति अपने शपथ समारोह में जिस तरह पाक के नवाज शरीफ को आमंत्रित कर दरियादिली दिखायी तो वक्त की नज़ाकत देखते हुए कड़ा रुख भी अब अपना लिया है प्रधानमंत्री ने।इसका असर क्या होगा यह कहना तो मुश्किल होगा क्योंकि जो दुश्मनी आजादी से चली आ रही हो उसका अर्थ इतनी जल्दी तो नहीं निकल सकता। दोनों ओर काफी समानताऐं और असमानतायें हैं। आजाद हुए जितने साल भारत को हुए पाकिस्तान को भी। बंटवारे के वक्त कुछ हिन्दु भारत से पाक और कुछ मुसलमान पाक से भारत की ओर कूच कर गये थे। हालांकि इसमें काफी असमंजस की स्थितियां भी बाद में पैदा हुई थीं जो अब भी बरकरार हैं। हर बार सीमा उल्लंघन होता है।हर बार दोनों तरफ से न जाने कितनी जानें जा रहीं हैं। पर हल नहीं निकल पा रहा।  शायद इसमें कुछ राजनीतिक चाल है। मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला की सोच किसी भिन्न दिशा में चल रही है।
देश एक अजीब दौर से गुज रहा है। जहां खाप पंचायतें फरमान पर फरमान सुनाये चली जा रही हैं। तो मोदी गांधी की प्रतिज्ञा को पूरा करने में जी जान से जुटे हैं- हर गांव को स्वर्ग बनाना उनकी प्राथमिकता बन गयी है। स्वच्छ भारत, सुंदर भारत। हर युवा को मार्गदर्शन देने की बात से लेकर महिलाओं की सुरक्षा, बेरोजगारी को मिटाने की बात करने वाले प्रधानमंत्री मोदी लोगों को आश्वस्त करते हुए देश के पश्चिमी हिस्से में बसा और व्यापारिक केन्द्र माने जाने वाला चहुमुखी विकास की ओर अग्रसर मुम्बई में जहां आने वाले सप्ताह में गठबंधन में चटख आना किसके लिए हानिकारक और किसके लिए फायदेमंद होगा जल्द ही तस्वीर स्पष्ट हो जायेगी। हर बंधन से स्वयं को मुक्त करते नजर आते मोदी आत्मविश्वास की मजबूत रस्सी से पूरे देश को एक सूत्र में पिरोना चाहते हैं। हिन्दू, मुस्लिम की दृष्टि से इंसान को इंसान की दृष्टि से एक दूसरे को देखने का नजरिया देना चाहते हैं। पर, देश की जनता क्या इतनी परिपक्व है कि देश के प्रधानमंत्री की बात एक बार में समझ आ जाये। समझ आ भी जाये तो राजनीति, कूटनीति सत्ता मोह से उपर सोच नहीं पाती, सोचती भी है तो समझौते के तहत ही गठबंधन बनता है। फिर जहां मामला अटकता है बस 25 साल के रिश्ते भी टूट जाते हैं। आर एस एस और शिवसेना भाजपा की रीढ़ की हड्डी के समान मानी जाती थी। पर, साधो सब दिन होत न एक समाना। मोदी ने ऐलान कर पुरानी पार्टियों को चुनौती दे डाली है तो स्वंय को अग्निपरीक्षा की आग में झोंक डाला है। अब सोना कितना खरा है कसौटी पर घिसने के बाद ही पता चलेगा। चलो चलें मोदी के साथ या हुड्डा जी का काम काम अथवा कांग्रेस को सफल बनायें जैसे विज्ञापन ने 10 साल के राज काज को समझा या मोदी चक्रवात की तरह हर मस्तिष्क में विकास का दूसरा नाम बनकर छाये हैं। 19 अक्टूबर को मराठा और बीजेपी की जंग भी एक किनारा पकड़ लेगी। मोदी एक नये भारत का आविर्भाव करने में लगे हैं। जनता इस खिलाड़ी के परफार्मेंस का आंकलन नहीं करना चाहती। इस खेल का परिणाम जीत चाहती है। यह टेस्ट मैच है जिसमें वन डे मैच के तर्ज पर परिणाम घोषित नहीं हो सकता। टेस्ट मैच की जनता को धीरज रखना पड़ता है। मोदी में साहस है तो धैर्य की परीक्षा देने से पीछे नहीं हटे तो अब लेने में भी पीछे नहीं हटते। तमाम प्रोजेक्ट्स का शिलान्यास करने वाले पी एम मोदी जी आउटलाइन तैयार कर रहे हैं। फिर वक्त आयेगा यह देखने का कि रंग वास्तविकता से परे हैं या सब कल्पना मात्र ही था और अगला चुनाव देश के सामने मुंह बाये खड़ा है। जहां देश की जनता एक बार फिर बोलने को मजबूर हो जायेगी- कि सब राजनीति है। देश का भला करवे वाले जन्म ही नहीं लेते केवल सपनों को लूटने और उसके सौदागर ही पैदा होते हैं। इतिहास भी इंतजार कर रहा है क ऐसी कहानी देश के नाम लिखने को जहां लोग उस पन्ने को बार बार पलट कर पढना चाहें और कहें ऐसा भी हो सकता है। तब मोदी को अपने नाम की चालीसा छपवानी नहीं पड़ेगी अपितु हर कोर्स में धामिक पन्ने की भांति गांधी के बाद याद किया जाने वाला नाम बन जायेगा। 

Tuesday, 16 September 2014


मकान नम्बर डी 5, सेक्टर 31 





सर्वमंगला मिश्रा


सांसे टूटती रहीं, लोग बिलखते रहे, हम हंसते रहे, लोग मरते रहे।
वक्त पल्टा-एहसास बदला-
आज मेरी सांसे टूटती हैं हर पल,
लोग हंसते हैं, हम तिल तिल मरते हैं।
एहसास का आलम अब मुझमे समाया है,
जश्न ए मौत का एहसास अब समझ आया है।

पूरा शरीर जल चुका है मोदी के हाथ तो सिर्फ बचा हुआ अधजला पैर हाथ लगा है। पर न्याय की आस अभी बाकी है तो मैक्स के पिता निश्चिंत दिखे कि फांसी आज नहीं तो कल होनी ही है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने सजा सुना दी है। राष्ट्रपति ने दया याचिका खारिज़ कर दी है तो कितने दिन न्याय टलेगा ?? इसलिए हमें न्याय की उम्मीद अभी भी है।


11 साल, साढ़े 5 साल, 3 साल और न जाने कितनी गिनतियां गिनूं सारी गिनतियां परिजनों के मात्र मस्तिष्क में याद की तरह पल रही है। इनमें से  ज्योति की तस्वीर अंदर रखी थी किसी बैग के अंदर तो मैक्स की तस्वीर दीवार पर टंगी मिली। पर हर्ष जो मात्र 3 साल का था परिवार जनों को सदा के लिए शोक में डूबो कर न जाने कहां चला गया।
इस देश में बलात्कार और मासूमों के अपहरण करने वालों के लिए तालिबानी फरमान होना चाहिए। शिवपाल यादव मिलने आये थे उन दिनों। हमें सरकार ने मुआवजा भी दिया। सरकारी नौकरी देने की बात भी कही थी पर आज तक तो मिली नहीं, अशोक ने बताया। तो अपना सबकुछ दांव पर लगा चुके झब्बूलाल जी आखिरी दम तक लड़ने को कटिबद्ध दिखे। सरकारी मुआवजे से अपनी रोजी रोटी की छांव तो बचा ली और जो बाकी पैसे थे उसे केस लड़ने में लगा दिया। दो प्लाट बिक चुके हैं तो बचे हुए प्लाट भी लगाने से पीछे न हटने की कसम खाये ज्योति के पिता अपने धीरज और मां के धैर्य का बांध आज भी मजबूती से खड़ा है। हर तूफान से भिड़ने के लिए।
“धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी
आपत काल परखियहिं चारी “ यह पंक्तियां यूं तो रामचरितमानस की हैं पर जिस सिलसिले में आज यहां जिक्र करने जा रही हूं वह आप सबके जह़न में कहीं न कहीं आपके मानसिक संतुलन को एक सेंकेन्ड के लिए या एक पल के लिए ही सही विचलित जरुर कर देगी। साल 2014 में हम सांस ले रहे हैं। उन रास्तों और गलियों में आज भी ज़िंदगी पल रही है। बच्चे पल-बढ रहे हैं। लोग काम कर अपना जीवन यापन कर रहे हैं। पर दिसम्बर 2006 का वो साल जिसने दिल्ली से सटे नोएडा के डी -5 सेक्टर 31 का वो घर जहां आज ना कोई पुलिस पहरा है ना कोई आतंक का साया। पर आज भी वहां के दहशत के दिन याद करते वो मां बाप जिनके कलेजे के टुकड़े को छीनकर मोनिन्दर सिंह और सुरेन्द्र कोहली ने सदा के लिए बेचैन कर दिया है। इस घर से जब कंकालों, लाशों के साथ आंखें, हाथ और पैर जब नाले और उस घर के अंदर बने कुंए से निकले थे तो ऐसा भी कुछ दुनिया में होता है यह सोचने को हर आंख मजबूर हो गयी थी। पायल, जिसकी गुमशुदगी और मौत से इस रुह कंपाने वाले सच का खुलासा हुआ था। जिससे दिल्ली, नोएडा नहीं बल्कि पूरा देश थर्रा गया था। जिसने 3 साल के बच्चे से लेकर 50-55 तक की महिलाओं को भी नहीं बख्शा। बच्चों  और महिलाओं के कपड़े तो मिले थे कुछ खून से लथपथ तो कुछ ऐसे ही पर गुर्दे, कीडनी का ये सेलर मोनिन्दर सिंह पंढेर को आज तक सजा नहीं मिली है। जिससे ज्योति के पिता और झब्बुलाल जी यह कहते नहीं थकते कि वही असली गुनाहगार है। सी बी आई पर भी उन्हें भरोसा नहीं रहा पर हां वो कहते हैं उन्हें मोदी सरकार से जरुर आशा है कि उन्हें और उनके जैसे बाकी माता पिता को न्याय जरुर मिलेगा। ज्योति कक्षा 5 की मेधावी छात्रा थी। अपने भाई बहनों में 5 वें नम्बर की थी। उसके पिता की आंखें भर आयीं ये कहते कि ज्योति अपने बड़े भाई अर्जुन को बताती थी कि कैसे पढाई करनी है। ज्योति की मां सुनीता देवी कहती हैं कि उनकी बेटी डाक्टर बनना चाहती थी। उन्नाव के गंजमुरादाबाद का रहने वाला यह परिवार 20 साल से यहीं अपना गुजर बसर कर रहा है। उन्होंने बताया कि उनके पास दो तीन महीने में पठानी पायजामा कुर्ता और शर्ट्स धोने और आयरन करने के लिए आती थीं। पर उन्हें यह पता नहीं था कि वो कपड़े किस दुराचारी के हैं। महिलायें जब गुम होती थीं तब लोग यह सोचकर बैठ जाते थे कि किसी के साथ अफैयर चल रहा होगा जिसके फलस्वरुप लड़की भाग गयी होगी। पर जब खुद पर विपदा आयी तब समझ आया कि असली दर्द क्या होता है। आज झब्बुलाल के तीनों बेटे काम कर रहे हैं एक बेटी ब्यूटी पार्लर में काम भी कर रही है। पर आह हर उस शक्स के अंदर जैसे पल-पल पल रही है। सालों बीत गये तकरीबन आठ साल पर हरियाणा की जन्मी करनाल में पली- बढ़ी -पीला दुपट्टा सिर पर ओढे उस बूढी महिला जो आज भी उस इलाके में सफाई का काम करती हैं। कहती है बेटी मेरा नाम जानकर क्या करोगी, मेरी फोटो खींचकर क्या करोगी हम तो बस यहां काम करते हैं। इतना लिखना कि उस मोनिन्दर को फांसी मिलनी ही चाहिए। हम सब यही चाहते हैं। सुरेंद्र को मिली तो क्या मिली जड़ को खत्म करो पेड़ के तनों को काटने से क्या होगा। उस रोड को क्रास करके जैसे ही मैं अन्दर पहुंची। बारिष के मौसम के कारण थोड़ा कीचड़ और पानी का बिखराव अधिक था पर जब मैं मैक्स के घर पहुंची तो उसके माता पिता बाहर ही मिल गये। उनका भरा पूरा परिवार भी मिला। बस एक की कमी ने उस मां को जरुर रुला दिया। जब उपर के घर के एक कमरे में मैक्स की तस्वीर मुझे दिखा रही थीं तब बताते बताते आंसू झलके तो रुके नहीं। मैक्स की मां कहती हैं कि उसका सारा सामान मैंनें बंद करके रख दिया है। खोलने की हिम्मत नहीं होती क्योंकि ये तस्वीर ही सुबह शाम इतना रुला देती है। मैक्स के पिता अशोक कहते हैं कि वो तो जूस पीने गया था शाम  को, पर लौटा नहीं।
सुनहले बाल, लम्बी स्कर्ट और छोटा टाप पहने पंढ़ेर की पत्नी कुछ दिन ही दिखी फिर कभी नहीं। सुबह शाम एक छोर से अपने घर के पास तक रोज अपने डागी को घुमाता भी था। उसे देखने वाले तो रोज या कभी कार देखते थे पर यह एहसास क्या आभास भी नहीं हुआ कि इस इंसान के अंदर एक दैत्य छुपा हुआ है।
मैक्स के पिता अशोक समझाते हुए कहते हैं कि मानलिजिए मैंने अपनी दुकान में एक आदमी रखा उसने 1000 रुपये का सामान बेचा दिनभर में। जब हिसाब में 500 रुपये अगर गायब होते हैं तो क्या मैं नहीं पूछूंगा कि हिसाब में गड़बड़ी क्यों है कहां गये पैसे। वैसे ही मोनिन्दर को कैसे पता नहीं था कि उसके घर में क्या हो रहा है। ऐसे लोगों को चौराहे पर खड़ा कर फांसी देनी चाहिए। तभी उत्तर प्रदेश में जुर्म रुक सकेगा वरना मुश्किल है।
यूं तो बिहार के बक्सर में मौत की रस्सी बनायी जाती है फिर फांसी का फंदा तैयार होता है। पर अब शायद किस्मत कुछ दिनों के लिए और मेहरबान हो गयी है। इंसान ही इंसान का दोस्त है तो इंसान ही इंसान का परम शत्रु भी। जिस इंसान ने इतने मासूमों, बच्चों और महिलाओं को न जाने कैसे मौत के घाट उतार डाला उसे अब पवन जल्लाद मेरठ की जेल में फांसी पर 12 सितम्बर को लटकाने वाले थे। 9 सालों से किसी को फांसी नहीं दी गयी थी। जिससे वहां 72 किलो के पुतले को फांसी पर लटकाने का कृत्य किया गया। फोन पर पवन ने हमें बचाया कि जिसने इतने लोगों को मारा उसे मारने में उन्हें कोई तकलीफ नहीं। पर सुरेंद्र कोहली अभी कुछ दिन और सांस लेगा इस धरती पर न जाने क्यों?
बच्चों पर हर पल नजर रखनी पड़ती है। अब स्कूल छोड़ने से लेकर लाने तक किसी पर भी भरोसा नहीं होता। निठारी हत्याकांड खुलासे ने हमें झकझोर कर रख दिया था। हमने घर पर स्ट्रीक्ट रुल्स बना दिये थे। किसी को भी कहीं अकेले आने जाने की आज तक कोई छूट हमने नहीं दी है- प्लाईवुड के विक्रेता अभिषेक गुप्ता कहते हैं। इस नोएडा निवासी ने बड़ी कश्मकश के साथ इस बात का जिक्र का किया कि 2006 का साल और आज सितम्बर 2014 है हमने एक भी नया कस्टमर नहीं बनाया। निठारी के नाम से ही लोग यहां नहीं आना चाहते हैं। सालों से बसे अब और कहीं नये सिरे से काम करने की ताकत नहीं रही जिससे मजबूरी में यहीं से रोजी रोटी चलानी है। उन दिनों हमारा व्यापार बहुत प्रभावित हुआ था। लोग यहीं रोज धरना दिया करते थे। मीडिया का हूजूम लगा हुआ था। हमने भी आवाज उठायी पर फिर व्यापारियों ने मिलकर अपनी अपनी दुकान खोलने का फैसला किया। जीवन भी तो चलाना था ना।

मीडिया की अहमियता निठारी निवासी आज भी मानते हैं। मीडिया ने हमारी बहुत मदद की। पर पुलिस विभाग से आज भी नाराजगी है। पहले रिपोर्ट दर्ज नहीं हुआ करती थी। मकान अब सीज़ है बगल का मकान डी 4. सेक्टर 31 में वकील साहब रहते हैं पर उस समय भी उन्हें यही कहते सुना गया था कि उन्हें कुछ नहीं पता। पर पूरी दुनिया को उसके काले कारनामों का आर्गन स्मगलिंग और ना जाने क्या- क्या होता था उस घर में। 
जब कोई आपको छोड़ कर चला जाता है या परिस्थिति वश दूर हो जाता है तो मिलने की आस बची रहती है । इंसान स्वयं को सांत्वना देकर जी लेता है। पर, अगर कोई कभी वापस न आने वाला हो, आपको हमेशा के लिए छोड़कर चला गया हो तो जीना दुश्वार हो जाता है। पर जीता हुआ दूर रहता है तो पल पल इंसान रिस रिस कर मरता है और जो नहीं रहा उसकी याद तड़पा तड़पा कर जीवन भर रुलाती है। अब वो बच्चे लौटकर वापस नहीं आने वाले। पायल के पिता या परिवार के विषय में स्थानीय लोगों को कोई सूचना भी नहीं कि उसका परिवार कहां है और क्या कर रहा है। पर आज यह सभी माता पिता अपने लिए नहीं समाज के लिए लड़ रहे हैं। ताकि दूसरा कोई मोनिन्दर पैदा न हो। इन सभी परिवारों ने ने अब तक धीरज, धर्म के साथ कौरवों के खिलाफ लड़ाई छेड़ी है। धर्म की लड़ाई में देर जरुर होती है पर आखिरकार जीत सच्चाई की ही होती है।

Sunday, 14 September 2014

क्या होगा बंगाल का??
-सर्वमंगला मिश्रा-स्नेहा


पं. बंगाल अपने गौरवपूर्ण इतिहास के लिए प्रसिद्ध है। बंगाल देशभक्ति, कला –संस्कृति और साहित्य के लिए जाना जाता है। बंगाल अंग्रेजों के शासनकाल में देश की राजधानी थी। बंगाल जिसने ज्योति बसु के नेतृत्व में खुद को सुरक्षित महसूस किया और अब 34 वर्षों के शासनकाल की नींव को झकझोर देने वाली ममता दीदी के राज में बंगाल कहीं क्या दिशाहीन हो गया है ??
जबसे केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी का आगमन हुआ है क्षेत्रीय पार्टियों की बौखलाहट अब चिंतन में नहीं एक्शन में परिवर्तित हो रही है। जीता जागता उदाहरण बिहार है। जहां राजद और जेडीयू ने दस में से छह सीटें जीतकर अन्य पार्टियों को भी ऐसा करने की प्रेरणा दे डाली है। पासवान के सुपुत्र चिराग पासवान ने जहां लोकसभा चुनावों के पहले समझदारी दिखायी वहीं इन दो बुजुर्गों ने उप-चुनाव से पहले पहल कर डाली। अब आक्सीजन तो हर पार्टी को चाहिए जीने के लिए। सुगबुगाहट तो सपा और बसपा के गठबंधन की भी है। सवाल सत्ता का जो है। बंगाल की सत्ता जिसके लिए अपने कालेज की युवा नेत्री ने ज्योति बसु की गाड़ी पर भीड़ को चीरते हुए झंडा गाड़ने का दम दिखाया था। तब से लेकर 2011 जब वो सत्ता पर आसीन हुई तब तक।पर सवाल उठता है कि बंगाल में आज कौन रहता है ? बंगाल में आज बड़ाबाजार, अलीपुर, गोड़िया जैसे इलाकों को छोड़ दिया जाय तो नये कोलकाता यानी राजारहाट,साल्ट लेक जैसे इलाकों में कौन रहता है? रिटायर्ज आफिसर्स, बूढे बुजुर्ग दम्पत्ति, जो आराम से बुढ़ापा काटना चाहते हैं। कहां हैं नवयुवक जो बंगाल को उन्नति के पथ पर लेकर अग्रसर होंगे। कहां है जगदीश चन्द्र बोस, कहां है सुभास चन्द्र बोस?? आज बंगाल देश के किस पायदान पर खड़ा है। इसका आंकलन शायद आपको चौंका दे। आज युवा वर्ग शिक्षा और रोजगार की तलाश में दिल्ली, बैंगलोर और मुम्बई जैसे इलाकों में अपना भविष्य तलाशते हैं। राज्य के युवा बेहतर शिक्षा संस्थानों के अभाव में दिल्ली,बैंगलोर, चेन्नई के चक्कर काटते हैं तो भविष्य बंगाल में अंधकारमय नजर आता है इसलिए बेहतर जीवन शैली और रोजगार के बेहतर,सुलभ साधन ढूंढते युवा अपना घर छोड़कर बाहर निकलते चले जा रहे हैं। इन्हीं बातों के मद्देनजर तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्या ने एक बार लोगों को आश्वश्त किया था कि ऐसे शिक्षण संस्थानों को बढ़ावा दिया जायेगा जिससे नवयुवकों को राज्य छोड़कर बाहर न जाना पड़े। पर ऐसा कुछ हुआ नहीं। इंजीनियर्स बैंगलोर और चेन्नई का रुख कर लेते हैं तो दूसरे क्षेत्रों वाले दिल्ली और मुम्बई जैसे शहरों में बसने लगे हैं। ऐसे में बंगाल का कर्णधार कौन होगा? पिछले कुछ सालों में केपजेमिनाई, विप्रो, टेक महिन्द्रा जैसी कंपनियों ने अपनी उपस्थति दर्ज जरुर करायी है जिससे साल्टलेक स्थित सेक्टर 5 के इलाकों में दूसरे शहरों से और राज्यों से आये लोग नौकरी कर रहे हैं जिससे मकान मालिकों को किरायेदार मिल गये हैं नोएडा , दिल्ली और मुम्बई की तरह। पर, जिसतरह टाटा के पांव उखाड़े गये उस तर्ज पर क्या बंगाल का औद्दोगिक विकास हुआ है? हाल ही में ममता बनर्जी सिंगापुर की यात्रा करके आयीं हैं। पांच सालों में सी एम साहिबा ने कितने उद्दोगों को सही तरीके से आमंत्रित किया। कितनी फैक्ट्रीज़ लगने वाली हैं जिससे बंगाल के लोगों को रोजगार की प्राप्ति हो सकेगी। गांवों में रहने वाले लोगों के पास आज कितनी नौकरियां हैं जिससे वो अपना और अपने परिवार का भरण पोषण ठीक से कर पाने में समर्थ हैं। ग्रामीण इलाकों में आज भी खेती ही एकमात्र सहारा है या छोटे मोटे रोजगार। पर वह पर्याप्त नहीं है जीवन यापन की दृष्टि से। मंहगाई जिस आसमान को दिन पर दिन छूती चली जा रही है और गैजेट्स का शौक परवान चढ़ता चला जा रहा है। ऐसी परिस्थति में विदेशी आतंकी मौके का फायदा उठाकर भोले भाले मासूम गांववालों का प्रयोग करते हैं। जिससे अज्ञानतावश, लालचवश या मजबूरी से विवश होकर उनके गुलाम बन जाते हैं। इसी तरह देश में स्लीपर सेल्स का नेटवर्क तगड़ा होता जाता है और हम जिस डाल पर बैठे हैं उसी डाल को काटते चले जा रहे हैं।
बंगाल जहां महिलाओं के सम्मान के लिए भी जाना जाता था। अब दशा विपरीत नजर आ रही है। दिल्ली, मुम्बई की हवा लग गयी है बंगाल को। पंचायतों के अजब- गज़ब फरमान। हाल ही में जलपाईगुड़ी की एक घटना सामने आयी जिसमें एक पिता अपने रेंट पर लिए गये ट्रैक्टर का कर्ज न चुका पाने के कारण गांव में सभा बैठी थी। जहां किसान अपना कर्ज चुकाने की मोहल्लत मांग रहे थे। जिसमें टी एम सी के वार्ड नम्बर 9 के की काउसिलर और उनके पति भी मौजूद थे। पर बात बढ़ी और पिट रहे पिता के लिए बेटी घर से निकलकर बाहर आयी और आग्रह किया कि- मत मारो मेरे पिता को। तभी उसके कुछ जानने वाले उसे वहां से हटाकर दूर ले गये। जिसके बाद उसकी नंगी लाश धूपगुड़ी के रेलवे ट्रैक पर पायी गयी। इससे भी घिनौना चेहरा बंगाल का कुछ महीनों पहले आया जहां गैर जाति के युवक से प्रेम और विवाह करने की सज़ा मस्तिष्क को झकझोर और रुह को कंपा देने वाली थी। पंचायत ने उसे गैर जाति में विवाह करने पर दंड के तौर पर आर्थिक दंड देने को कहा। जब उसने कहा कि उसके पास इतने रुपये नहीं है तो दिल दहलाने वाली सज़ा फरमान के तौर पर उस पंचायत ने सुनायी। रिश्ते में लगने वाले चाचा और भाईयों ने उसके साथ कुकर्म किया। यही था उस पंचायत का फरमान। क्या अब महिलायें बंगाल में सुरक्षित रह गयी हैं ? एक प्रमुख टेलीविजन चैनल ने रियेलिटि चेक बंगाल के सेक्टर 5 में किया। जहां जानी मानी विदेशी कंपनियां स्थापित हैं। एक कार को खड़ा कर उसमें से चीखें निकलती हुई महिला की किसी ने मदद नहीं की। हांलाकि वह एक टेस्ट था कि अगर सच में कोई महिला फंस जाये तो क्या बंगाल के लोगों में अब भी इतनी इंसानियत बची है कि आगे आयें और मदद की गुहार सुनें। सेक्टर पांच और उसके आस पास का इलाका काफी सुनसान सा रहता है। कमर्शियल इलाका है। जहां चहल पहल दिन में ही अच्छी खासी रहती है रात में सन्नाटा पसर जाता है। मुझे याद है आज से तकरीबन साढे 3 साल पहले हमारी एक सहयोगी रात को तकरीबन साढ़े आठ बजे निकली घर जाने को। साउथ की तरफ जाने वाले लोग अधिकतर शटल का यूज करते हैं। उपलब्धता की दृष्टि से भी और कम समय में अधिकतम दूरी भी तय हो जाती है। पर वह जिस शटल में बैठी उस गाड़ी के दरवाजे ड्राइवर ने तकनीकी तौर पर बंद कर दिये। जिसके बाद उसने आफिस फोन किया तो धर पकड़ के बाद उसकी निकटस्थ थाने में कंप्लेन दर्ज करायी गयी। पर क्या सभी का भाग्य हरबार साथ देता है। यह हाल है नए बसते हुए कोलकाता शहर का। तो बाकी इलाकों में दहशत क्या अपने पैर नहीं पसारेगी। गांवों का हाल उपर बंया कर ही चुकी हूं।
सूत्रों के हवाले से खबर छन छन कर आ रही है कि अब बंगाल के रिंग में रिंगमास्टर बनने के बाद उन्हें पुराने रिंगमास्टरों से हाथ मिलाकर चलने में परहेज नहीं। इस बात का तात्पर्य क्या है- कि इतने सालों तक सी पी एम के खिलाफ जो लड़ाई जनता के मन मस्तिष्क में उकेरी गयी वो मात्र आपकी कुर्सी की लड़ाई पाने का जरिया था। पार्टी की लड़ाई की तह में स्व आक्रोश छिपा था। हर बार रक्त-रंजित चुनावों के बाद ही बंगाल ने कुर्सी पर किसी को पदासीन किया है। 1997 का वो साल जब ममता के नाम की आंधी पूरे बंगाल में चक्रवात की तरह पनपी थी। पर सत्ताधारी सी पी एम ने ममता दीदी को पटखनी दी थी। हारा हुआ योद्धा और बूढा शेर जब गिरकर उठते हैं तो उसमें एक नयी आक्रामक शक्ति आ जाती है। वही ममता दीदी ने भी किया। धुंआधार ठीक मोदी की तरह अनगिनत जनसभायें उसमें जोरदार भाषण और देशभक्ति भरे गीतों से समापन करती थीं। पर कहां गयी अब वो देशभक्ति। कितने आई ए एस, आई पी एस निकले हैं ? कितने शोधकर्ता, वैज्ञानिक, डाक्टर और आई आई टी प्रोफेशनलस निकले हैं?
आज बंगाल में प्रापर्टी के दाम बढ़ रहे हैं।पर उसका आधार क्या है? वहां शिक्षा सामान्य, बिजनेस, नौकरी सामान्य जो पीढियों से करते और रहते चले आ रहे हैं। दाम कितने दिन बढेगें। सिर्फ दबंगई के बल पर शासन कितने दिन का। नये बसेरे बस तो रहे हैं पर पक्षी उड़ते चले जा रहे हैं। तो नये घरौंदे में रहता है कौन है और कौन रहेगा दीदी- ज़रा सोचिये।

  मिस्टिरियस मुम्बई  में-  सुशांत का अशांत रहस्य सर्वमंगला मिश्रा मुम्बई महानगरी मायानगरी, जहां चीजें हवा की परत की तरह बदलती हैं। सुशां...