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Thursday 26 February 2015

नीतीश की रणनीति



सर्वमंगला मिश्रा



कौन कहता है कि खोया राज्य वापस नहीं मिलता ? इतिहास भले गवाह रहा हो नये इतिहास की संरचना करने में । सच यह भी है कि सिकंदर ने पूरे विश्व पर विजय तो प्राप्त की थी पर संभाल कर न रख सका। फलस्वरुप, राजाओं के घुटने टेक देने के बाद राज्य उन्हें वापस लौटा दिया गया था। भारत विविधताओं से भरपूर है। यहां संस्कृति से लेकर विश्वास भी आत्मसाथ होने के साथ साथ अलग अलग हो जाता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही कुर्सी मांझी के झोली में डाल दी थी। क्योंकि नीतीश कुमार के सामने मोदी के प्रधानमंत्री के पद को संभालने के उपरांत अनकही परेशानियां मंडराने लगी थी। सम्मान, अपमान के वशीभूत होकर नीतीश ने किनारा कस लिया था। फलस्वरुप मुख्यमंत्री पद जिसतरह लालू यादव ने अपने चारा घोटाला में फंसने के बाद अपनी पत्नी को उत्तराधिकार दे दिया था। 1997 का वो साल और 2014 का साल बिहार में याद किया जाने वाला बन गया है। जीतन राम मांझी के दिन ही फिर गये और रातों रात वह मुख्यमंत्री जैसी कुर्सी के दावेदार ही नहीं बल्कि विराजमान हो गये। शंहशाह रातों रात। पर सपना तब टूटा जब नीतीश ने अपना धन जो जीतन को बतौर अमानत के रुप में दिया था और सालों बाद आकर वापस मांगने लगे। तब तक जीतनराम को ऐशोआराम की आदत लग गयी थी। अब मन में पाप जग गया था। जीतन राम मांझी को कुर्सी से प्रेम हो चला था। सत्ता का मोह उनके मन को जकड़ चुका था। पर, नीतीश शतरंज के माहिर खिलाड़ी हैं। उन्हें पता है कि कब शह और मात का खेल खेला जाना चाहिए। सही वक्त के इंतजार में नीतीश ने 20 मई 2014 से 20 फरवरी 2015 तक का इंतजार कर सही वक्त पर मात दे डाली। यह वक्त तब उन्हें सही लगा जब भाजपा का मनोबल कहीं न कहीं टूटता हुआ सा महसूस हुआ। जम्मू और कश्मीर में सरकार अब तक न बन सकी। साथ ही सबसे बड़ी हार का मुंह केजरीवाल ने दिखा दिया। प्रधानमंत्री मोदी जहां अपने हर प्रचार में यही कहते नज़र आये कि जो पूरा देश चाहता है वही दिल्ली भी चाहती है। पूर्ण बहुमात वाली सरकार को वोट दीजिए। दिल्ली की जनता दिल से नहीं दिमाग से सोचती है। यह बात मोदी जी भी अब समझ गये होंगें। मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही नीतीश को विशेष राज्य का दर्जा ठंडे बस्ते में मरता नज़र आने लगा था। दोस्ती जो कभी दोस्ती हुआ करती थी। मीजिया के सामने आयी तस्वीरों ने साफ कर दिया था कि दोस्त दोस्त ना रहा बल्कि अब राजनैतिक विरोधी पक्के वाले दोनों हो चुके हैं। इस बात की छवि पूरी दुनिया ने देखी। नीतीश गुजरात नहीं गये तो मोदी अपने लोकसभा चुनाव के प्रचार के लिए बिहार की धरती को नमन तो किया पर बन्दुकों के साये में। गुजराती पुलिस पर उन्हें ज्यादा भरोसा रहा और अपने दल बल के साथ मार्च करते आये और प्रचार कर वापस भी गये। लोस के चुनाव में खूब गरजने वाले मोदी अपने तहेदिल करीबी दोस्त से पल पल आखें चौकन्नी करते भी नजर आये। कई जगह मिले तो मिले पर ना मिले। सत्ता और बल से बड़ा राजनीति में कुछ नहीं होता।

आज भले नीतीश कुमार यह कह रहे हों कि भाजपा सत्ता की भूखी है और सत्ता पाने के लिए कुछ भी कर सकती है। तो आत्म-मंथन की आवश्यकता उन्हें भी है। सत्ता पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिए ही उन्होंने जीतन राम मांझी का सहारा लिया और समय के पलटते ही उन्हें उनकी औकात भी याद दिला दी। नीतीश शपथ लेकर फिर अपने अंदाज में राज करेंगें। भाजपा के सपनों को चकना चूर कर देने वाले नीतीश को टक्कर अब भी मोदी से ही लेनी होगी। बिहार को विशेष राज्य का दर्जा केंद्र की अनुमति के उपरांत ही मिल सकेगा। रास्ता सीधा नहीं है। 70 वर्षीय मांझी मात्र कठपुतली थे मनमोहन सिंह की तरह, राबड़ी की तरह। जिसे सत्ता पर काबिज़ तो कर दिया गया पर हाथ काट दिये गये जिससे वह कुछ लिख न सके। मुसहर जाति के मांझी के पिछड़े वर्ग से आने के कारण ही किसी ने नीतीश के गेम प्लान पर संदेह न कर सफल होने दिया। सियासत और सत्ता का प्रगाढ़ प्रेम पल पल अपना रुप रंग बदलता, निखारता और संवारता रहता है। नीतीश कुमार जो 70 सावन से अमूमन सात साल दूर हैं। राजनीति रणनीति के माहिर दोनों खिलाड़ी अब फिर से मैदान में आमने सामने हैं। जीवन में सत्ता की संलिप्तता कितनी किसमें समायी है। यह आने वाले समय में दिखेगा। अपने हनीमून कम सेट्रैटेजी परियड के दौरान नीतीश किस रणनीति के तहत वापस अपनी गद्दी पर काबिज़ हुए हैं।

भाजपा के साथ रहने वाले नीतीश ने मात्र इसलिए किनारा कसा क्योंकि मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया गया था। नीतीश स्वयं भी उन दिनों प्रधानमंत्री बनने का सपना बुन रहे थे। नीतीश एक मजबूत प्लान के साथ सामने आये हैं जिससे उनका वर्चस्व कायम हो सके। आने वाले समय में विधानसभा चुनाव पर अपनी मजबूत दावेदारी भी पेश कर मोदी और भाजपा दोनों को कड़ी टक्कर देने के लिए मोदी जैसा परिपक्व प्लान होना नीतीश के पास अनिवार्य है। मोदी के प्लान में कहीं न कहीं तार अब ढीले पड़ रहे हैं। लांग डिस्टेंस लव फलीभूत नहीं होता। इसलिए बंगाल, बिहार और उड़ीसा के इलाके भाजपा के हाथ पूरी तरह नहीं है। इन तीनों राज्यों में लोकल पार्ट्रीज का ही प्रभुत्व बना हुआ है। गांधी मैदान में भाषण देने से यह साबित नहीं हो जाता कि जनता आपके पक्ष में आ गयी है। जनता के आशीर्वाद के लिए ओबामा, क्लींटन और मोदी की तरह प्लान से चलना पड़ता है। नीतीश के फूले और चमकते गाल के पीछे कितनी गहरी रणनीति जन्म ले चुकी है यह तो शपथ के दिन से ही सामने आ जायेगा। हालांकि सुशील मोदी की आकांक्षा की परीक्षा दूर तलक तक जायेगी। हार की हवा जब उत्तर से उठी है और पूर्व से होते हुए दक्षिण और कहीं आने वाले समय में पश्चिम तक न पहुंच जाये। दिल्ली से उठी यह कंपकपाहट गर्मी के मौसम में कितनी सर्द का एहसास करायेगी भाजपा को या ब्लड प्रेशर बढाने का काम करेगी यह तो नीतीश की पकी हुई राजनीति ही तय कर सकेगी। फ्लोर टेस्ट में फेल मांझी अब अपनी नैया किस ओर ले जायेंगें या हवा का रुख उन्हें स्वयं बहायेगी। रणनीति रण में आने पर नहीं बनती बल्कि मानस पटल पर अंकित रहती है।

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