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Saturday 17 June 2017





गोरखा की जमीन


सर्वमंगला मिश्रा
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कहते हैं मरने के बाद सिर्फ दो गज़ ज़मीन की जरुरत पड़ती है। पर, मानसिकता को कितनी जरुरत पड़ेगी यह कोई न तो सोच सकता है और न ही आंक सकता है। अभी हाल ही में नाग का सफल परिक्षण राजस्थान के बलूई ईलाके में किया गया है। देश, भारत या इंडिया के तौर पर विश्व में अपनी एक अलग नई पहचान बना रहा है। पर, देश जिनसे बना है दिन पर दिन वही हाथ छुड़ाकर चलते जा रहे हैं। उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, हाल ही में स्थापित हुआ तेलंगाना इन सभी राज्यों ने अपने हक की काफी लम्बी लड़ाई लड़ी। अनगिनत आन्दोलन, कितनी कुर्बानियां -इसी फहरिस्त में शायद एक और नाम जुड़ जाये वो हो सकता है गोरखा लैंड।
गोरखा,एक विशेष जनजाति है । लड़ाकू, कुशल योद्धा के तौर पर पहचाने जाते हैं। सेना में  गोरखा  रेज़ीमेंट का नाम आते ही भारतवासियों का सिर गर्व से ऊपर उठ जाता है। गोरखा रेजीमेंट सेना में अपनी एक अलग पहचान रखता है। इनके आगे शत्रु की क्या मजाल कि टिक जाये और इनसे जीत जाये। सबसे ताकतवर, जाबांज और फुर्तीले गोरखा जाति के लोग सेना में रहकर भारत को सदा से गर्व कराते आये हैं। लेकिन, स्वंय को कहीं न कहीं अनदेखा महसूस होने से आज अपने अस्तित्व की लड़ाई को एक किनारा देने में संघर्षरत हैं।


क्यों जरुरत महसूस होती है अपने नाम और जाति को पहचान दिलाने की-
हम उदाहरण के तौर पर चीन और तिब्बत की लड़ाई से समझ सकते हैं। 1959 में तिब्बतियों के महागुरु दलाई लामा को, चीन की सत्ता ने, ऐसी विकट परिस्थितियों में लाकर खड़ा कर दिया कि रातोंरात गुरु दलाई लामा अपने 150,000 अनुयायियों के साथ भारत की शरण में आ गये। तबसे से लेकर अबतक तिब्बतवासी भारत में शरणार्थी के रुप में जी रहे हैं। हालांकि भारत सरकार ने हिमाचल , कर्नाटक जैसी जगहों पर उन्हें बसने के लिए पर्याप्त जगह दी है। तिब्बत वासियों का मानना है कि उनकी जाति, धर्म, संस्कृति और भाषा सबकुछ चीन के लोगों से बिल्कुल भिन्न है। चीन जबकि इसके विपरीत सोचता है। फलस्वरुप संघर्ष जारी है।
इसी प्रकार भारत में उत्तराखण्ड, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना जैसे राज्य स्थापित हुए। पर देश अखंडता से खंडता की ओर विकसित हो रहा है। मसला यहां अस्तित्व की लड़ाई का है। अपनी जाति की सत्ता को विलुप्त होने से बचाने का है। ब्रिटिश हूकूमत के साथ नेपाल के राजा की लड़ाई जग जाहिर है। जिसमें जीत तो अंग्रेजों की हुई पर संधि के साथ विराम मिला। अंग्रेजी हूकूमत के लिए यह युद्ध काफी मंहगा साबित हुआ था। संधि के उपरांत ही गोरखा अपने अस्तित्व की जंग लड़ रहे हैं।
संधि के उपरांत इस जाति को यह असलियत ज्ञात ही नहीं हुई। इन्हें लगा कि यह अपने जमीन पर वापस अपने राजा की हूकूमत में आजाद पंक्षी की भांति। परन्तु सत्यता कहीं दूर कराह रही थी। फिर सत्यता का भान होते ही जमीन और अस्तित्व की जंग छिड़ गयी।


पहचान के साथ विकास की संभावना बढ़ जाती है-
जहां जातियां अपने अस्तित्व की लड़ाई में जीवन निकल देती हैं वहीं इसका दूसरा मकसद होता है विकास । जब राज्य अलग बनता है तो संभावनायें 100 प्रतिशत बढ़ जाती है। लोगों को रोजगार के नये आयाम मिलते हैं। मुख्यमंत्री आफिस से लेकर स्कूल, कालेज, अस्पताल, नगर निगम, हाई कोर्ट तमाम ऐसी प्रशासनिक व्यवस्था से लेकर आम व्यवस्था में उन्नति के नये अवसर सामने आते हैं।

भारत अखण्डता का द्दोतक माना जाता रहा है। परन्तु धीरे धीरे अब यही अखण्डता धवस्त होती जा रही है। हर बार एक नये राज्य का गठन नयी उन्नति का द्दोतक बनता है तो नयी पार्टी को जन्म, अशांति की जड़ को मजबूत करती है। सीमा विवाद नदियों के पानी का बंटवारा जैसे मसले कई विकट परिस्थितियों को जन्म देते हैं।
गोरखालैंड की मांग ने 80 के दशक से जोर पकड़ा। घिसिंग जी लेकर अबतक के तेज तर्रार नेता विमल गुरुंग, रौशन गिरी ने इस मांग को कसकर पकड़ रखा है। 1907 से लेकर अब तक आजादी की मांग तो कर रहे हैं। नेपाल के साथ संधि हुई तो कभी सिक्किम के साथ जिससे गोरखा, भारत में तो रह गये पर पूर्णतया स्वयं को भारतीय नहीं मान पाये। भारत में ही इन्हें विदेशी कहकर बुलाया जाता रहा है। मणिपुर के रहवासियों को भी इस तरह की दिक्कतों का आये दिन हमारे देश में सामना करना पड़ता है। क्या यह राज्य नेपाल में मिल जायेगा? आज भारत पर चीन की निगाह टिकी हुई है। कहीं अरुणांचल खतरे में है तो कहीं पूरा देश।
गोरखा एक विशेष जनजाति है जिसमें लेपचा जो आमतौर पर इधर -उधर भटकते रहते थे। उनका कोई स्थायी आवास नहीं था। आजादी के पहले से चल रही लड़ाई बीच बीच में अग्नि के समान उठी पर एकजुटता के अभाव में शायद दब जाती रही चिंगारी।

गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने कहीं न कहीं बंगाल की पहली मुख्यमंत्री जिन्होंने दूसरी बार भी सत्ता पर अपना दबदबा बना रखा है, उनके लिए शारदा घोटाला के बाद दूसरी बड़ी मुश्किल खड़ी कर दी है। जिससे कहीं न कहीं भाजपा को ममता दीदी के विरुद्ध लड़ाई लड़ने में सुविधा मिलेगी। कह सकते हैं कि ममता दीदी  के हाथ हवन करते जल गये। बंगला भाषा को स्कूलों में अनिवार्य करने के मुद्दे ने सोये गोरखावासियों को जगा दिया तो दार्जिलिंग में उथल- पुथल ही मच गयी। सामान्य जन जीवन से लेकर पर्यटक तक इस घटना में फंस गये। मुख्यमंत्री अपने ही राज्य में बेदखल सी होती दिखती हैं। आनेवाले समय में लकसभा चुनाव के दौरान भाजपा इस मुद्दे को भुनाने से नहीं चुकेगी।

दार्जिलिंग का सबसे प्रमुख उद्दोग चाय बगान से जुड़ा है। पर अंग्रेजों के समय से लेकर अब तक संख्या में दिन प्रतिदिन कमी ही आयी है। उल्फा का आतंक वहां हमेशा कायम रहा। जिससे चायबगान के मालिकों को अपनी कंपनियों पर ताले लगाने पड़े और वहां के स्थायी निवासी बेरोजगार होते चले गये। आज दार्जिलिंग की चाय का स्वाद पूरी दुनिया की जुबान पर है। लेकिन वहां के लोगों का जीवन उतना ही कड़वा सच। गोरखालैंड में दार्जिलिंग, सिलिगुड़ी और तराई वाले क्षेत्र हिस्से में आयेंगें।

उत्तराखण्ड, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ क्या इन इलाकों की समस्या सुलझ गयी ? उत्तराखण्ड राज्य के नाम पर कितने घर जले , कितने पर्यटकों के साथ अन्याय व दुर्घटनायें घटीं। अलग होकर राज्य ने पेपर से हटकर सामाजिक समस्यायें सुलझाने में कौन सा फतह का झंड़ा लहरा लिया। चुनाव के पूर्व उत्तराखण्ड की नाजुक स्थिति ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। किसा एक पार्टी का हर राज्य में फतह कर लेना इस बात की गारंटी नहीं होता कि सर्वत्र शांति व न्याय कायम हो जायेगा।




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