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Tuesday, 22 April 2014

राजनीति का भविष्य 

हमारे विचार,देखी गयी [ 10 ], रेटिंग :

Monday, April 21, 2014
पर प्रकाशित:10:23:19 AM
टिप्पणी
राजनीति का भविष्य
...सर्वमंगला मिश्रा
लोकतंत्र की गरिमा में अब धीरे-धीरे सेंध लगनी शुरु हो गयी है। 2014 का चुनाव जिसमें कुछ नेताओं ने अपनी शाख पर ऐसी पकड़ बनायी है कि पार्टी की अहमियता अब अपनी प्रतिष्ठा बचाने को कहीं न कहीं किसी के ऊपर निर्भर नजर आ रही है। आत्मनिर्भरता की गरिमा में कुछ लुढकाव सा आ गया है। जहां देश में नमो-नमो का नारा चारो ओर जपा जा रहा है, देश को अपने कंधों पर बैठाकर जिस तरह बच्चे को मेला घुमाया जाता है उसी तरह के दावे कुछ नरेंद्र मोदी भी करते नजर आ रहे हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस के दीपक राहुल गांधी पार्टी की शाख के दम पर हवाई किले बना रहे हैं तो कहीं न कहीं दो महिलाओं के बल पर अपना राजतिलक जनता के हाथों करवाना चाहते हैं। मसला यह भी है और साथ ही की आज की राजनीति किस ओर जाने को उत्सुक है ? बात पुराने जमाने की तो कहीं न कहीं लीडर या वरिष्ठ नेताओं के जुबान और चरित्र की अहमियता अपने आप में झलकती थी। जनता उन्हें आदर्श मानती थी उनके पद चिन्हों पर चलती थी। पर, आज की आधुनिक युग में चरित्र को ताख पर रखकर राजनीति की परंपरा को निभाने की अलख सी जग गयी है। 
राजनीति हमेशा से एक ऐसा पहलू दिखाती है जिसकी कल्पना जनता जनार्दन नहीं कर पाती है। चाहे वो महाभारत का युग हो या कलयुग। अकल्पनीय दृश्यों से परे राजनीति का जीवन न जाने उसे किस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है। जहां अब लोग नफरत करने लगे हैं। मानसिक स्वस्थ विचार धाराओं का अभाव सा दिखने लगा है। जहां राजनीति अब महारानी से परिचारिका सी बन चुकी है। जिसकी अब अपनी कोई मर्यादा ही नहीं रही। खोया हुआ राज्य पाने के लिए जिस तरह एक राजा अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ता है। राजनीति के दिन भी अब ऐसे ही दिखाई दे रहे हैं। 
आज राजनीति में औपचारिकता का हनन सा हो गया है। राजनीति होती है जनता की सुख सुविधा के लिए, देश की उन्नति, प्रजा में सुख शांति बनी रहे, नियम कानून का दबदबा ऐसा हो जिससे अराजकता ना फैले। पर, आज मुद्दों से पिछड़ी राजनीति, स्वांत: सुखाय पर केन्द्रित दिखती है। हर कोई अपना सपना पूरा करना चाहता है। किसी को भी जनता के दुख दर्द से कोई सरोकार ही नहीं रहा। अब सिर्फ  "मैं ", "मेरा " तक जीवन की राजनीति और राजनीति की राजनीति सिमट कर रह गयी है। कटाछ के वाण ऐसे होते हैं जिससे परिवार वाले भी शर्मिंदगी महसूस करते हैं। आर-पार की इस लड़ाई में मर्यादा की सीमायें दिन पर दिन खाई की तरह बढ़ती जा रही हैं और सम्मान का आंचल दिन पर दिन संकुचित होता जा रहा है। इसकी वजह क्या है?
आधुननिकता में सिमटी परंपराओं और आदर्शों को जैसे देश निकाला मिल गया है। वनवास का जीवन झेलती परंपरायें अब बेबस, लाचार और अपना हक तलाशती परंपरायें राजनीतिज्ञों और उनके अहम की लड़ाई में घुटन का जीवन जीने को मजबूर हो गयी है। बड़बोलापन, अभद्रता, तुच्छ भाषाओं का प्रयोग इस तरीके से होने लगा है जैसे चाइनीज प्रोडक्ट इंडिया में लांच हो गया हो। जिसकी जीवन अवधि बहुत नहीं होती पर एक बार मार्केट में कंपनियों के लिए दहशत का माहौल तो खरीददारों के लिए नए आयाम और वराइटिज़ उपलब्ध हो जाती हैं। आजकल के नेतागण चाइनिज मोबाइल या फास्ट फूड की तरह काम कर रहे हैं। जिन्हें जल्द ही डाक्टरों द्वारा अपने मरीजों से एहतियात बरतने का निर्देश मिल जाता है। जिस तरह जीवन शैली आज भटक गयी है उसी तरह देश के युवा नहीं राजनेता भटक गये हैं अपने मुद्दों से, अपने कार्यप्रणाली से, जनसामान्य की भावना से। इसका उदाहरण है मनरेगा में धांधली, हर सरकारी योजना का बीच में ही दम तोड़ देना। क्योंकि सरकार योजना तो बनाती है पर शायद अपने लिए एक रास्ता दिखाती है कि आओ मिलकर घोटाला करें। पर, मायूस जनता हरबार धोखा खाती है। उत्तराखण्ड में इतनी बड़ी त्रासदी आयी पर इतने लोगों ने एन.जी.ओ. ने राहत सामग्री पहुंचायी, सरकार ने करोड़ों रुपये उत्तराखण्ड की झोली में डाल दिये पर, आज तक वहां के ऐसे कई इलाके हैं जहां लोगों का जीवन दुख के चरम पर है। इसी तरह उड़ीसा में आयी त्रासदी, बंगाल का आइला सबने तबाही खूब मचायी केन्द्र से अनुदान भी मिला पर, सबकुछ आकाश में धुंएं की तरह उड़ गया। उसके बाद आसमान साफ। हर सीएम के हाथ खाली और फिर राजद्वार पर आ जाते हैं दुखियारे की तरह। एक महानगर जो अपने शानो-शौकत के लिए चर्चित है जहां वालीवुड सांस लेता है वहां हर साल वारिष के मौसम में म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन की कलई खुल जाती है। 2007 से अमूमन हर साल यही दृश्य देखने को मिलता है। इसका मतलब साफ है कि जनता के प्रति किये गये वादों से दूर नेता सिर्फ अपनी दुनिया सजाने और अपनी आने वाली पीढ़ी की चिन्ता में राजनीति की जाब कर रहे हैं। उन्हें अनुभव कितना है यह राजनीति में यह बात मायने नहीं रखती पर आपका दबदबा कितना है। आप कैसे अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए दूसरे की ताख पर रख सकते हैं और किस हद तक आप गिर सकते हैं , इन बातों के मायने ज्यादा हो गये हैं। जिसे जब जहां जैसे मौका मिले एक बयान का तीर फेंको मिडिया खड़ी है उनके कारनामे दिखाने के लिए और बदले में घर-घर में व्यक्ति चर्चित हो जाता है। लोग उसे पहचानने लगते हैं। पप्पू सिंह का नाम आपको याद ही होगा। 
आज हम किन बातों पर वोट देने की सोचते हैं। जमीनी स्तर पर जो नेता हमारे लिए काम करे। हमारी समस्याओं को समझे, समाधान निकाले। पर आज मोदी जी भारत की हर समस्या या राहुल जी को जनता की इतनी फिक्र क्यों सताती है क्या मदर टेरेसा की आत्मा इन्हें व्याकुल करती है, या वो जनता का दुख देख नहीं पा रहे। अगर ऐसा ही था तो इतने घोटले कैसे हुए? इतने लोग बेरोजगार क्यों? लोगों को एक मौका फिर से किसी और को देने की बात क्यों सोचनी पड़ती। कभी सोनिया जी अपने भाषणों में कहती थीं, अटल जी झूठ बोलते हैं, तो कभी लालू मोदी को कहते हैं- ऐसे ही वो बोलता है, तो इमरान मसूद के वाक्य लिखे नहीं जा सकते और सपा प्रमुख के शब्द हर सज्जन व्यक्ति को शर्मसार कर दे। पर, माथे पर कहीं शिकन नहीं, कोई अफसोस नहीं, ये राजनीति है या मात्र एक व्यापार. जिसे हर हाल में चलाना है "बाइ हूक और बाई क्रूक"  जब मैं अकेले में बैठती हूं तो सोच आती है कि राजनीति में आने वाले युवा क्या सीख रहे हैं या क्या सीखेंगें। क्योंकि भ्रष्टता और दिन पर दिन भ्रष्ट होती जा रही है। भ्रष्टता भी उन्नति करना चाहती है। जैसे सम्मान, आत्म-सम्मान , आकांक्षा, महत्वाकांक्षा, सादा जीवन उच्च विचार पर अब इनका युग नहीं रहा अब ये सब बूढे हो गये हैं। अब जमाना है भ्रष्टाचार, घोटाला, अभद्रता, बेचैनी, अपमान और असहज विचारों का जो हर नेता में साफ तौर पर झलकती है। नेता गणमान्य तो होते हैं पर उन्हें इस बात का इहसास नहीं होता कभी संसद का अपमान तो कभी विधानसभा का चीप पब्लिसिटी के लिए कुछ भी करने को तैयार। जिन्हें मुद्दों की फिक्र नहीं सिर्फ अपने राजनीतिक जीवन की चिन्ता सताती रहती है। विचारों की गरिमा घट गयी है। आणवाडी जी इतने वरिष्ठ पर बात बात पर नाराज होते हैं फिर पार्टी वाले मनाते हैं तो बच्चे की तरह मान जाते हैं फिर मोदी की प्रशंसा भी कर देते हैं। इतना ओछापना क्यों ? आज राजनीतिज्ञ सोशल मीडिया और टेलीविजन में अपना काम दिखाने की होड़ में मात्र लगे हैं। भले शिलांयास तक कार्य का न किया हो पहले राजा गण वेश बदलकर राज्य का हाल जानने जाते थे। पर अब सिक्यूरिटी के साथ जाते हैं ताकि लोग पहचान सकें, रुतबा कायम हो कितना परिवर्तन आ गया है मानसिकता में , अपने पन की भावना में। क्या ऐसे समाज का सपना बापू ने या भगत ने देखा था?
लोकतंत्र शबद किताबी रह गया है। जिसे पढना और समझना आज के नेताओं के वश की बात नहीं। हो सकता है आये कोई सुभाषचंद्र, कोई चन्द्रशेखर, कोई भगत सिंह, कोई मंगल पांडे पर कब जो समझा सके देशभक्ति उसकी गरिमा और एहसास जब आजादी मिलती है देश को गरीबी से, बेरोजगारी से और अराजकता से जहां राजनीति लक्ष्य ना हो सेवा लक्ष्य हो, जहां कोई काम करने में शर्मिंदगी महसूस न हो फक्र से इमानदारी से पहले के लोगों की तरह ये भावना हो।
"कबीरा मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय"

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