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Monday, 14 April 2014


                                          रबर स्टैंप या मजबूर ???






-सर्वमंगला स्नेहा
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संजय बारु ने आज न्यूज़ रुम में ही नहीं बल्कि पूरे राजनीति में हलचल पैदा कर दी। संजय बारु जिन्होंने 301 पन्नों की एक किताब  " THE ACCIDENTAL PRIME MINISTER"  जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री को एक मजबूर और सबसे कमजोर प्रधानमंत्री का एक और तमगा पहना दिया। यूं तो 2004 साल के कुछ महीनों बाद ही यह एहसास होने लगा था कि प्रधानमंत्री का पद डा. मनमोहन सिंह के लिए मात्र छलावा हैं। क्योंकि देश की बागडोर उन्हें कागज़ी तौर पर उन्हें दी जरुर गयी है पर, असली बागडोर मैडम अध्यक्षा सोनिया गांधी के हाथों में ही मजबूती से थम ली गयी है। खैर, यह तो प्रधनमंत्री की चुप्पी ने साफ कर ही दिया था। संजय बारु ने अपनी पुस्तक में भीतरी बातों को जगजाहिर किय है पर सोचने वाली बात यह है कि कब किया???  तब जब लोकसभा चुनाव के तीन चरण पूरे हो चुके हैं। पूरे देश में विरोधी भी चुपके दुबके शर्माते उनकी आंखें कहीं न कहीं देश में मोदी के लहर को नकार नहीं पा रही है। ऐसे समय में मनमोहन सिंह की खामियों की परतों का पोस्टमार्टम कर देश के सामने बिना क्लोरोफार्म दिये खुले आकाश के नीचे आपरेशन करने जैसा मामला नजर आ रहा है। हांलाकि बचाव और आरोप प्रत्यारोप का दौर चूहै बिल्ली के खेल की तरह शुरु हो चुका है। मामला दस सालों से चल रहा था। सवाल कई उठते हैं जहन में- यह पुस्तक लिखने का विचार उनके मन में कब और कैसे आया? इसे चुनाव के ज्वलंत माहौल में लाने का क्या मकसद है ? अगर संजय बारु जी इतना सबकुछ जानते थे और उनके मन में घुटन या परेशानी महसूस कर रहे थे तो उन्होंने अब क्यों पिटारा खोला? क्या उनके और डा. मनमोहन सिंह जी के रिश्तों में कुछ खटास आ गयी थी जिसका बदला वो इस किताब के जरिये लेना चाहते हैं? या एक अहम सवाल कि मनमोहन जी के कारण चुप रहे और और अब कांग्रेस पर अपनी भढांस निकाल रहे हैं? जिससे इस गिरते हुए चुनावी बाजार में कांग्रेस के पाले से एक गोल और छीनकर बीजेपी को नवाज़ा गया है या, अपनी घुसपैठ से पैठ बनाने का जरिया है। ऐसा कहने का तात्पर्य यह है कि जब इतने दिन तक चुप थे तो थोड़े दिन और चुप रहते और इलेक्श्न हो जाने देते और उसके बाद अपनी पुस्तक का विमोचन करते। पर, संजय बारु जो मनमोहन जी के पूर्व मीडिया सलाहकार रह चुके हैं एक अजब सी रणनीति अपनाने का प्रयास किया है। इस किताब से तो यही साबित होता है कि सोनिया जी की सोची समझी चाल थी। तो यह एक्सीडेंटल दुनिया की नजर में हुआ पर आंतरिक तौर पर यह भारतवासियों के साथ धोखा या षणयंत्र के तौर पर देखा जा सकता है।

सोनिया गांधी के हाथ में हर मंत्री और अमूमन हर विभाग कठपुतली ही रहा पूरे एक दशक तक.....देश सहा, देखा पर 5 सालों बाद भारत की जनता ने एक बार फिर उन्हें उस गद्दी पर उन्हें सुरक्षित कर दिया था। पर, अब शायद सपना टूट चुका है। किला ढह चुका है। एहसास, आभास और विश्वास टूट चुका है। देश जगा है या सोया यह नहीं समझ आता पर हां जब बर्दाश्त का बांध टूट जाता है तो एक बदलाव जरुर उपजता है और आज शायद उसी बदलाव का नाम मोदी है। जो देश के जन- जन में बच्चे- बच्चे में क्रांति का सूत्रपात कर चुका है। यह क्रांति, यह बदलाव कितने दिन के लिए देश में शांति और सूकून कायम कर पायेगा ??  या दिल्ली में हाल ही में आयी क्रांति की तरह देश की आस को एक बार फिर डूबो देने वाली नव टाइटैनिक है??? ध्यान से सोचा जाय तो पुस्तक में उन्होंने ऐसा क्या लिख दिया जो तकरीबन पूरे देश को पता था उसे पुस्तक बद्ध सिर्फ कर दिया गया है। पुस्तक में लिख गय है कि मनमोहन सिंह की एक नहीं चलती थी। सोनिया गांधी के हर फैसले के सामने मनमोहन सिंह मात्र स्टैंप के अलावा कुछ नहीं थे। वो कोई भी फैसला नहीं ले सकते थे। राहुल गांधी को प्रौजेक्ट करने के लिए मनमोहन सिंह को मात्र टाइम पास थे। जिनकी आड़ में भविष्य के प्रधानमंत्री को संवारा जा सके। क्योंकि अगर सरकार न होती तो राजकुमार को राजनीतिक पहलुओं से अवगत करने में सोनिया गांधी को काफी मशक्कत करनी पड़ती। जो पगड़ी की आड़ में राजकुमार को खेलते खेलते सीखा दिया। पर, धोखा हो गया ...हां धोखा हो गया। कैसे ? जनता को सरकर ने दिया, मनमोहन की आड़ में सोनिया गांधी का राज़ चला। जो लोगों को धीरे धीरे समझ आया। जहर जैसे धीरे धीरे गले में उतरता है तो मौत भी रिस रिस कर आती है। व्यक्ति एक बार में नहीं मरता...तिल तिल कर मरता है। वहीं कांग्रेस ने भी देश के साथ किया है। बारु जी ने उन बातों से एक तरीके से मात्र पर्दा हटाया है , जिसका अंदेशा लोगों को अब तक हो चुका है। एक से बढकर एक घोटाले सामने आए पर, सरकार अपनी चाल ही चली.....देश की चाल को सुधारने की सुध तक लेने की आवश्यकता नहीं समझी। मंहगाई बढ़ गयी। देश की हालत चरमरा गयी। असुरक्षा की भावना में देश बह रहा था। पर, संजय बारु की इस पुस्तक ने राजनीति के गलियारे में गहमागहमी बढा दी. ऐसा उन्होंनें क्यों किया यह तो बाद में पता चलेगा। पर दो पावर सेंटर सोनिया गांधी और डा. मनमोहन सिह को लिखकर इतिहास सा रचने की कोशिश की है। सोनिया गांधी का पी एम पद स्वीकार न करना एक चाल बताया तो जनता में एक संत की छवि जो ताज की तरह मिली थी कहीं न कहीं ज उस ताज की गरिमा नष्ट सी हो चुकी है। उस पर धूल चमक रही है। लेकिन सपने पर सोनिया गांधी ने अब तक धूल को जमने नहीं दिया है और उसे शबरी की तरह राम के आने की आस में रोज रास्ते को आज भी सवार रही है। देखना है कि राम आ पायेंगें ...शबरी को दर्शन होगा राम का....   

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