विचार-मंच
लौ अभी जल रही है, इसे जलने दो!
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Saima, Star Live 24 |
Thursday, March 27, 2014
पर प्रकाशित: | 12:37:53 PM |
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सर्वमंगला मिश्रा...
गहरी सोच, प्रभावशाली जीवन, आत्मविश्वास से भरे शब्द, उन्नतिके पथ पर अग्रसर होना यह सभी गुण किसी एक व्यक्ति में मिलनाआसान नहीं। कुछ लोगों में ही विद्दमान होते हैं ऐसे गुण। ऐसे हीप्रखर वक्ता, जिनमें उत्तम गुणवत्ता है जिन्होंने अपना सम्पूर्णजीवन समर्पित कर दिया। वो कोई सैनिक नहीं है पर, एक कुशलनेतृत्वकर्ता जरुर हैं। आज उनकी एक अमिट छाप है समाज में, देशमें जिन्होंने जरुरत पड़ने पर अपने सहयोगियों को बड़े छायादार वृक्षकी तरह धूप, आंधी और बारिष से बचाया। पर आज वो नन्हें फूलबड़े पेड़ में तब्दील हो चुके हैं। जिन्हें गुमान हो गया है अपने बड़े होनेका। आज तन कर उसी बड़े पेड़ को छोटा समझने लगे हैं और खुदको आकाश की तरह असीम। एक वक्त हुआ करता था जब प्रभातफेरी गांव- गांव में हुआ करती थी। 1951 में जनसंघ ने इस संसार में सांस लेनी शुरु की थी। जिसके जन्मदाता श्यामा प्रसादमुखर्जी थे। जिसमें युवा अधिक संख्या में हिस्सा लेते थे। लोग देशभक्ति की भावना से पूरी तरह ओत प्रोत हो चुके थे। सुबह–सुबह प्रार्थना से सभा गुंजायमान हो जाती थी।
प्रार्थना के बाद सुबह का सूरज लाल रंग में निकला जिन्हें हम सभी लाल कृष्ण आडवाणी के रुप में जानते हैं। जी हां इन्हेंकौन नहीं जानता। जो जनसंघ ज्वाइन करने के बाद दिल्ली से राज्यसभा सांसद रहे। इसके बाद मोड़ आया 1973 में जबकानपुर में एक अधिवेशन के दौरान इन्हें अध्यक्ष घोषित कर दिया गया। रास्ता जब लम्बा हो और पथिक को दूर तलकजाना होता है तो मोड़ के साथ साथ पथरीले और सुगम दोनों रास्तों से मुलाकात हो ही जाती है। तभी तो कहानी के साथइतिहास बनता है। 1977 का वो साल जब “फूट” ने अपना मुंह खोलना शुरु किया तो लालकृष्ण आडवाणी और उनके परममित्र और करोड़ों दिल पर राज कर चुके, विरोधियों के भी चहेते रह चुके अटल बिहारी वाजपेयीजी ने जनता पार्टी में अपनानाम दर्ज करा लिया। मामला जायज था चुनाव जो सामने थे। पर उन दिनों एक अद्भुत आवाज पूरे देश में गूंज रही थी, जे पीआन्दोलन इतिहास में विख्यात है। बिहार की माटी से उड़ी धूल पूरे भारत के आकाश में बिखर गयी। उस धूल का एक ही रंगथा 'भ्रष्टाचार हटाओ', 'कांग्रेस हटाओ'। जो पूरे देश में दावानल की तरह भभक उठी। गुजरात ही वो प्रदेश था जहां उस वक्तमुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल राज कर रहे थे और करप्शन की सीमा अमूमन लांघी जा चुकी थी। जे.पी आन्दोलन निष्पक्ष औरबुलंदी की चरम पर था। वो पहली ऐसी आवाज थी जिसने परंपरावाद के सामने खड़े होकर ललकारने का दम दिखाया, खुलेमैदान में। जिसकी आवाज़ में एक आगाज़ था। जिसके आवाज को कोई अनसुना न कर सका। गहमागहमी इतनी बढ़ गयीकि इंदिरा गांधी को एमरजेंसी तक लगानी पड़ी। जो इतिहास में लाल सलाम की तरह चिन्हित है। उस समय आडवाणी जीभी जेल में गये।उसके बाद उन्होंने 1976 से 6 सालों का कार्यकाल राज्यसभा सांसद के तौर पर निकला। खैर,1980 मेंआडवाणी जी के जीवन में नया दरवाजा खुल चुका था वो दरवाजा था भारतीय जनता पार्टी का। जहां आडवाणी के नेतृत्व मेंराम जन्म भूमि का मुद्दा एक विकसित आकार ले चुका था। वहीं 1984 के लोकसभा चुनावों में मात्र इस पार्टी ने 2 सीटों परअपनी विजय दर्ज करायी थी। काल परिवर्तन हुआ आज 2014 के चुनाव सामने हैं। 30 साल बाद आज की परिस्थति येनकेन प्रकारेण पूर्णत: बदल चुकी है। आज पार्टी अपने दम पर 272 के मिशन को कहीं न कहीं पार करने में खुद को सक्षममानती है। मोदी जी आज पार्टी की तरफ से औपचारिक रुप से प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार हैं। हर जगह आज मोदीगुंजायमान हैं। हर तरफ एक ही नारा है- मोदी लाओ देश बचाओ-पर, उस व्यथा को कोई देख नहीं पाया जहां बेतहाशा प्रेमका मानो कत्ल हो गया हो। उस आह की कल्पना से मुंह फेर लेना मानो बेटे ने जिन कंधों पर बैठकर बंदूक चलानी सीखीहो आज वही पिता ही उसके निशाने पर खड़ा है।। क्या इस दर्द की दांसता कोई लिख पायेगा और कौन सुन पायेगा।
30 साल कम नहीं होते। पर इन तीस सालों में उस बंजर जमीन पर खेती कर उसे उपजाऊ बनाने में जो खून पसीना औरअपनापन लगा उसकी कीमत आज बेदखलीपना है। मस्तिष्क के उस कोने में जहां यह एहसास सांस ले रहा था आज उसेशायद लकवा मार दिया है। वो बोलता था पहले पर आज चुप हो गया है। ना जाने कौन सा वो दर्द का आलम उसे चुप रहनेपर मजबूर कर दिया है या उसकी बजुर्गियत ने उसे चुप रहने की सलाह दी है कि होने दो जो हो रहा है मत बोलो। बोलोगे तोकहीं औंधे मुंह गिर ना जाओ। इसलिए खुद को संभालो और वक्त का रचा तमाशा देखो। वैसे तमाशा लोगों ने भी काफीतमाशा देखा। 1991 का वो साल जब सुपरस्टार राजेश खन्ना ने आडवाणी जी को कड़ी टक्कर दे डाली थी और बहुत हीसामान्य वोटों से पराजय स्वीकार करना उनके लिए विष का घूंट पीने के समान था। आडवाणी जी की शाख उसके बाद दिनपर दिन बढ़ती ही गयी। वो वरिष्ठ नेताओं की फहरिस्त में शामिल होते चले गये। उनके शब्दों को हर कोई सुनता और प्रशंसाउनके वाकपटुता की अवश्य करता। पर, यह वही देश और जनता है जिसे आडवाणी जी का जिन्ना की कब्र पर चले जानानागंवार गुजरा। बवाल मच गया- भारत में, कि राम जन्म भूमि और हिन्दुत्व की बात करने वाले को वहां जाने कीआवश्यकता क्यों पड़ गयी? जिससे काफी तनाव और आक्रोश भी झेलना पड़ा था लालकृष्ण जी को। फिर उनकी रथ यात्राहमेशा से पार्टियों के विरोध को झेलती रही। चाहे वह राममंदिर का मुद्दा को लेकर रहा हो या चुनावी रथ। कभी लालू प्रसादयादव ने उन्हें हिंसा फैलाने वाला करार दिया तो कभी सपा ने उनके कारसेवकों को रोका। राममंदिर को लेकर हमेशा से सेंटरआफ अट्रैक्शन रहे आडवाणी ने हमेशा अपनी वाणी से पार्टी को जो बल और जन जन तक पहुंचाने का काम किया उसमें कोईसंदेह नहीं। जब 1996 में 13 पार्टियों के गंठबंधन से बनी 13 दिन की सरकार गिर गयी थी और एक छोटे अंतराल के बाद1998 और पुन: 1999 में पार्टी ने अपना दमखम दिखाया और पहली बार भारतीय जनता पार्टी ने 5 साल का कार्यकाल पूराकिया जिसमें आडवाणी जी उप प्रधानमंत्री के पद पर भी सुशोभित हुए। भारतीय जनता पार्टी को हमेशा एक जलते हुए दीपककी तरह हथेली पर लेकर चले। लेकिन आज उस दीपक की लौ की जगह सीएफएल टूयूब लाइट्स ने ले ली है। जहां इकोफ्रेन्डली एटमोस्फेयर और आधुनिकता की चर्चा चल रही है पर बलिदान की वेदी पर।
पिछले साल जब दोपहर तकरीबन 12.30 से एक बजे के आसपास खबर आयी की आडवाणी जी ने सभी पदों और पार्टी सेइस्तीफा दे दिया। अरे! यह क्या हो गया? पूरे देश की जबान पर यही सवाल था। पत्रकारों को लगा साल की सबसे बड़ी खबरहो गयी। क्योंकि तब तक क्रिकेट के भगवान ने संयास नहीं लिया था। उत्तराखण्ड की त्रासदी की किसी ने कल्पना तक नहींकी थी। काफी अंदरुनी प्रार्थनाओं के बाद हमेशा हाथ जोड़ने वाले सरल स्वभाव आडवाणी जी ने सबकी बात मान ली और घरसे बाहर उन्हें जाने से रोक लिया गया। पर, कितनी बार उन्हें मनाने का सिलसिला चलेगा। कब तक कोई इस बुजुर्ग की वाणीऔर भावनाओं पर अंकुश लगाने के लिए बॉडीगार्ड तैनातगी संभव हो सकेगी? व्यक्ति जब अपनी एक उम्र पार कर लेता हैऔर उसे उसकी मंजिल नसीब नहीं होती तो वो असमंजस की स्थिति में आ जाता है। उसे सही गलत का भेदभाव आंकने मेंकहीं न कहीं परेशानी सी महसूस होने लगती है। हड़बड़ाहट में बहुत कुछ सही और गलत हो जाता है। कभी पड़ोसी के बेटे कीतारीफ निकल जाती है जिससे घर वाले नाराज़ से हो जाते हैं। पर अब क्या किया जाय वक्त का तकाजा है। दोष भी नहीं हैसपने पूरे करने की भला कोई उम्र भी तो नहीं होती। इतिहास गवाह रहा है कि राजनीति में खून के रिश्ते भी खून से लिखेजाते हैं। इंसानियत की शख्सियत एक मुखौटा मात्र रह जाती है।
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