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Monday 24 September 2018


राफेल एक घोटाला या डील?


सर्वमंगला मिश्रा
किसी भी शासनकाल में देशहित से उपर कोई सरकार या नीति नहीं हो सकती है। देश की सुरक्षा सर्वोपरि होती है। यह आम बात है कि जब भी किसी देश में रक्षा मसौदों पर कोई डील होती है सरकार और विपक्ष में ठन जाती है अथवा मुद्दे को जानबूझकर तूल दे दिया जाता है। भारत में विशेषरुप से देखा गया है कि आजतक जितने भी रक्षा संबंधी समझौते हुए हैं विवादों के घेरे में रहे हैं और घोटाले के रुप में सामने आये हैं।
2019 का साल चुनावी साल है। जिसकी तैयारी प्रत्येक पार्टी करना प्रारंभ कर चुकी है। कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी इस मौके को पूरे तरीके से भुना लेना चाहते हैं। कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों के शीर्ष नेता राफेल के रण में अपने अपने तीर कमान लेकर उतर चुके हैं। राहुल गांधी जहां संसद से लेकर सड़क तक इस मामले को पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं वहीं भाजपा के वरिष्ठ प्रवक्ता संबित पात्रा कांग्रेस पार्टी का कच्चा चिट्ठा खोलने में कोई कसर नहीं रख रहें हैं। अरण जेटली समेत कई नेता युद्ध करने को मुस्तैद दिख रहे हैं तो कांग्रेस भी इस मुद्दे पर अड़ी खड़ी है।
भारत जहां चीन और पाकिस्तान से भौगोलिक रुप से घिरा है वहीं इन दोनों देशों से युद्ध की परिस्थितियां बीच- बीच में उभरती रहती हैं। इतिहास गवाह है कि भारत पाक और भारत चीन के साथ लड़ाइयां हो चुकी हैं। कौन भूल सकता है 1962, 1971 और 1999 का साल। आतकाल परिस्थितियों से जूझने के लिए और देश को आंतरिक रुप से सुदृढ़ करने के लिए वायु सेना को अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए कम से कम 42 लडा़कू स्क्वाड्रंस की जरूरत थी, लेकिन उसकी वास्तविक क्षमता घटकर महज 34 स्क्वाड्रंस रह गई। इसलिए वायुसेना की मांग आने के बाद 126 लड़ाकू विमान खरीदने का सबसे पहले प्रस्ताव अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार ने रखा था। लेकिन इस प्रस्ताव को आगे बढ़ाया कांग्रेस सरकार ने। रक्षा खरीद परिषद, जिसके मुखिया तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटोनी थे, ने 126 एयरक्राफ्ट की खरीद को अगस्‍त 2007 में मंजूरी दी थी। यहां से ही बोली लगने की प्रक्रिया शुरू हुई। इसके बाद आखिरकार 126 विमानों की खरीद का आरएफपी जारी किया गया। राफेल की सबसे बड़ी खासियत ये है कि ये 3 हजार 800 किलोमीटर तक उड़ान भर सकता है।

यह समझौता उस मीडियम मल्‍टी-रोल कॉम्‍बेट एयरक्राफ्ट (एमएमआरसीए) कार्यक्रम का हिस्सा है, जिसे रक्षा मंत्रालय की ओर से इंडियन एयरफोर्स लाइट कॉम्‍बेट एयरक्राफ्ट और सुखोई के बीच मौजूद अंतर को खत्‍म करने के मकसद से शुरू किया था। एमएमआरसीए के कॉम्पिटीशन में अमेरिका के बोइंग एफ/ए-18ई/एफ सुपर हॉरनेट, फ्रांस का डसॉल्‍ट राफेल, ब्रिटेन का यूरोफाइटर, अमेरिका का लॉकहीड मार्टिन एफ-16 फाल्‍कन, रूस का मिखोयान मिग-35 और स्वीडन के साब जैस 39 ग्रिपेन जैसे एयरक्राफ्ट शामिल थे। छह फाइटर जेट्स के बीच राफेल को इसलिए चुना गया क्योंकि राफेल की कीमत बाकी जेट्स की तुलना में काफी कम थी। इसके अलावा इसका रख-रखाव भी काफी सस्‍ता था।
भारतीय वायुसेना ने कई विमानों के तकनीकी परीक्षण और मूल्यांकन किए और 2011 में यह घोषणा की कि राफेल और यूरोफाइटर टाइफून उसके मानदंड पर खरे उतरे हैं। 2012 में राफेल को एल-1 बिडर घोषित किया गया और इसकी निर्माता कंपनी दसाल्ट ए‍विएशन के साथ कॉन्ट्रैक्ट पर बातचीत शुरू हुई लेकिन आरएफपी अनुपालन और लागत संबंधी कई मसलों की वजह से साल 2014 तक यह बातचीत अधूरी ही रह गयी। यूपीए सरकार के दौरान इस पर समझौता नहीं हो पाया था क्योंकि खासकर टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के मामले में दोनों पक्षों में गतिरोध उत्पन्न हो गया था। दसाल्ट एविएशन भारत में बनने वाले 108 विमानों की गुणवत्ता की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं थी। दसाल्ट का कहना था कि भारत में विमानों के उत्पादन के लिए 3 करोड़ मानव घंटों की जरूरत होगी, लेकिन एचएएल ने इसके तीन गुना ज्यादा मानव घंटों की जरूरत बताई, जिसके कारण लागत कई गुना बढ़ने की संभावना जतायी गयी थी।
वर्ष 2014 में जब नरेंद्र मोदी सरकार बनी तो उसने इस दिशा में फिर से प्रयास शुरू किया। पीएम की फ्रांस यात्रा के दौरान साल 2015 में भारत और फ्रांस के बीच इस विमान की खरीद को लेकर समझौता किया। इस समझौते में भारत ने जल्द से जल्द 36 राफेल विमान फ्लाइ-अवे यानी उड़ान के लिए तैयार विमान हासिल करने की बात कही। समझौते के अनुसार दोनों देश विमानों की आपूर्ति की शर्तों के लिए एक अंतर-सरकारी समझौता करने को सहमत हुए। समझौते के अनुसार विमानों की आपूर्ति भारतीय वायु सेना की जरूरतों के मुताबिक उसके द्वारा तय समय सीमा के भीतर होनी थी और विमान के साथ जुड़े तमाम सिस्टम और हथियारों की आपूर्ति भी वायुसेना द्वारा तय मानकों के अनुरूप होनी है। इसमें बताया गया कि लंबे समय तक विमानों के रखरखाव की जिम्मेदारी फ्रांस की होगी। सुरक्षा मामलों की कैबिनेट से मंजूरी मिलने के बाद दोनों देशों के बीच 2016 में आईजीए हुआ। समझौते पर दस्तखत होने के करीब 18 महीने के भीतर विमानों की आपूर्ति शुरू करने की बात कही गयी है यानी 18 महीने के बाद फ्रांस की ओर से पहला राफेल लड़ाकू विमान भारत के सुपुर्द किया जाएगा।
एनडीए सरकार ने दावा किया कि यह सौदा उसने यूपीए से ज्यादा बेहतर कीमत में किया है और करीब 12,600 करोड़ रुपये बचाए हैं। लेकिन 36 विमानों के लिए हुए सौदे की लागत का पूरा विवरण सार्वजनिक नहीं किया गया। सरकार का दावा है कि पहले भी टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की कोई बात नहीं थी, सिर्फ मैन्युफैक्चरिंग टेक्नोलॉजी की लाइसेंस देने की बात थी। परन्तु मौजूदा समझौते में 'मेक इन इंडिया' पहल किया गया है। फ्रांसीसी कंपनी भारत में मेक इन इंडिया को बढ़ावा देगी। यह मिसाइल 100 किमी दूर स्थित दुश्मन के विमान को भी मार गिरा सकती है। अभी चीन या पाकिस्तान किसी के पास भी इतना उन्नत विमान सिस्टम नहीं है।  
विपक्ष सवाल उठा रहा है कि अगर सरकार ने हजारों करोड़ रुपए बचा लिए हैं तो उसे आंकड़े सार्वजनिक करने में क्या दिक्कत है। कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि यूपीए 126 विमानों के लिए 54,000 करोड़ रुपये दे रही थी, जबकि मोदी सरकार सिर्फ 36 विमानों के लिए 58000 करोड़ दे रही है। कांग्रेस का आरोप है कि एक प्लेन की कीमत 1555 करोड़ रुपये हैं, जबकि कांग्रेस 428 करोड़ में रुपये में खरीद रही थी और इस सौदे में 'मेक इन इंडिया' का कोई प्रावधान नहीं है।

यूपीए के सौदे में विमानों के भारत में एसेंबलिंग में हिंदुस्तान एयरक्राफ्ट लिमिटेड को शामिल करने की बात थी। भारत में यही एक इकलौती ऐसी कंपनी है जो सैन्य विमान बनाती है। लेकिन एनडीए के सौदे में एचएएल को बाहर कर इस काम को एक निजी कंपनी को सौंपने की बात कही गई है। किसी भरोसेमंद सरकारी कंपनी की जगह अनाड़ी नई निजी कंपनी को शामिल करना कैसे उचित हो सकता है। यानी विरोधि‍यों के मुताबिक एनडीए सरकार एक निजी कंपनी को फायदा पहुंचा रही है। कांग्रेस का आरोप है कि सौदे से एचएएल को 25000 करोड़ रुपये का घाटा होगा।

चुनावी माहौल में जनता के सामने सरकार की पारदर्शिता ही उसे यक्ष के प्रश्नों से बचा सकती है।


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