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Wednesday, 8 April 2020


लाकडाउन- समस्या या समाधान
सर्वमंगला मिश्रा

जिंदगी तनाव भरी है। नींद पूरी नहीं होती। काम का कितना प्रेशर है। बाँस की झकझक से परेशान हो गया है मन। सारा काम मुझे ही करना पड़ता है। फैमिली के लिए टाइम नहीं है। अब इन बातों को कहने के लिए किसी के पास कोई मौका नहीं मिलता या जरुरत ही नहीं रही। लाकडाउन ने सबकी शिकायतें दूर कर दीं है। अब लोग घरों में बंद पड़े हैं। आफिस ना जाने की कुढ़न, काम वाली के ना आने से खुद पर पड़ी घर की सारी जिम्मेदारियां थका रही हैं, रुला रही हैं। घर में बंद रहकर कितना कोई टीवी देखे, कितने गेम्स खेले क्योंकि ना पार्क में जाना है ना पड़ोसी से मिलना है सिर्फ परिवार के साथ रहना है। ऐसे में केशु कुमार की अलग ही व्यथा है। हम रोज कमाकर खाने वाले हैं। घंटा दो घंटा में पूरे दिन की कमाई कैसे हो पाएगी। ऐसे पता नहीं कब तक चलेगा। ऐसा ही हाल रहा है तो गांव जाना पड़ेगा। वहां खेती ही फिर करने को मजबूर होना पड़ेगा। आगे बताते हैं कि उनका भाई फालू मुम्बई में था पर बंदी के कारण परिवार के साथ वापस आ गया है। वो भी फंसते फंसते बचते बचते 17 दिन लग गए वहां से घर आने में। अब वो खेती करने लगा है। खेत भी ज्यादा नहीं है। ऐसे में वो क्या करेगा और हम कहां जायेंगे। हमारा परिवार पहले से ही गांव में है।
जिन्दगी एक झटके में बदल सी गई है- ऐसा कहना है जनरल स्टोर चलाने वाले रामदेव का। कई हफ्तों से दुकान नहीं खोली। कितना माल खराब हो गया। अब पिछले दो दिन से सुबह 8 से 2 बजे तक ही दुकान खोल रहा हूं। लोगों की भीड़ हो जाती है। कोरोना का डर मुझे भी सताता है। ऐसा ही कुछ उमा अग्रवाल जी भी सोचती हैं जो एक गृहिणी है। कोरोना संक्रमण वैश्विक रुप इतना आक्रमक हो जाएगा इसकी आशंका मात्र थी लेकिन, लोग इस तरह घरों में बंद हो जाएगें ये लोगों की कल्पना से भी परे था।
इस जद्दोजहद में कुछ लोग खुश भी हैं। अल्का बोस कहती हैं कि आज वो 15 साल से घर घर में काम करती है लेकिन पहली बार बिना काम किए ही उसे महीने की पगार मिलेगी इस बात को कहते हुए वो थकती नहीं। साथ ही जिसके कारण उसे खुशी नसीब हुई उस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी को कोटि कोटि धन्यवाद देती है। उसे नहीं पता कोरोना फैलने का मुख्य कारण। कहां से शुरु हुआ और कैसे फैलता है। बस टीवी देखती है और घर दो घंटे में साबुन से हाथ धोना नहीं भूलती। साथ ही औरों को भी हाथ धोने के लिए सीखाती रहती है। जीवन में पहली बार छुट्टी का आनंद ले रहे बापी दा भी बहुत खुश हैं पर उन्हें देश की भी चिंता है। उन्हें कोरोना के बारे में इतना पता है कि ये एक छुआछुत की बीमारी है जिससे बचने के लिए घर से बाहर नहीं निकलना है। तभी जान बच सकती है। इसलिए अपने आसपास के लोगों को सचेत करते रहते हैं। बापी दा देश के साथ अपने ही मुहल्ले में रह रहे गुन्नू के लिए चिंता भी करते हैं क्योंकि गुन्नू एक सफाई कर्मी है वो रोज कई बिल्डिंगों में सफाई का काम करता है। ऐसे में उसने जैसे तैसे एक सस्ता वाला मास्क तो खरीद लिया पर कोरोना की दहशत उसकी समझ से परे है इसलिए देखा देखी कभी तो वो मास्क पहनकर कूड़ा उठाने जाता है तो कभी ऐसे ही रोज की तरह। ऐसे में बापी दा कई बार उसको समझाने की कोशिश करते हैं। लेकिन गुन्नू कहता है कि काम नहीं करेंगें तो भी हम ऐसे मोड़ पर आ जाएगें जहां से कुछ नजर नहीं आएगा और हम ऐसी जगहों पर रहते हैं जहां रोग आना बहुत साधारण सी बात है। ईलाज हम वैसे भी नहीं करा पाएंगें और ऐसे भी।
खुशी और गम यहीं खत्म नहीं होता।
डाक्टर साहब की पत्नी स्वीटजरलैंड गई थीं बेटे के पास एक महीने बाद वापस आना था पर लाकडाउन ने उनके पैर वहीं बाँध दिये। इंटरनैशनल फ्लाइट्स के बंद होने के पहले एक महेंद्रपताप जी ने अपने बेटे को लंदन से आफातुना में बुलवा लिया पर उनकी सासु मां का निधन होने के कारण उनकी पत्नी कानपुर में ही अटक गईं। ऐसे हजारो किस्से हर घर के पास मिल जाएंगें। लेकिन इस वक्त चीन के बुने जाल से बाहर निकलने का यही एक तरीका है कि आप जहां हैं वहीं रहिए। परेशानी निश्चित है लेकिन सुरक्षा का भार हर नागरिक पर है।
भारत महान था है और रहेगा भी। अमेरिका के राष्ट्रपति श्री ट्रम्प ने भारत के प्रधानमंत्री को महान और उदारक बताया। विश्वगुरु भारत ने कोरोना दर्द निवारक औषधि भी खोज ली जिसे अमेरिका भी लेने के लिए लाइन में लग गया है। श्रीलंका ने भी हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी को धन्यवाद दिया है। लेकिन कुछ लोग जो मरकज़ में शामिल हुए ये वो लोग हैं जो नजर में आ गए पर जो आज भी इस खतरनाक खेल को अंजाम देकर मौत को लोगों के पास लाने और इंसानियत को तबाह करने पर तुले हैं उन्हें क्वारंटाइन की नहीं देश निकाले की जरुरत है। कुछ लोगों को मेरे शब्द अच्छे ना लगें पर इंसानियत का दुश्मन देश का दुश्मन ही होता है। इटली, चीन और यूरोपीय देशों की हालत किसी से छुपी नहीं है दो गज़ जमीन को लोग मोहताज हो चुके हैं। शुक्र है भारत उस पहाड़ी छोर पर नहीं पहुंचा जहां से एक तरफ कुंआ तो दूसरी ओर खाई है।
देश को बचाने का यही तरीका है और खुद को भी कि हम सुरक्षित रहने के लिए एक दूसरे की मदद करें और बेवजह ना घूमें। वैसे देखा जाय तो अपराधों की संख्या लाकडाउन से कम हो गई है।




Wednesday, 25 March 2020


लाँकडाउन का पहला दिन

सर्वमंगला मिश्रा



25 मार्च की शाम, मैं छत पर गई  मेरे पिताजी द्वारा लगाए पेड़ पौधों को सींचित करने हेतु क्योंकि, लाकडाउन में पेड़ पौधों का तो कोई दोष नहीं। उन्हें जीवित रखेंगें तो ही हम जीवित रह पाएंगें। मेरे पिताजी को बागवानी को बहुत शौक है। उन्होंने छत पर काफी हरियाली बना रखी है। वो कहीं भी जाने का प्लान करते हैं तो उसके पहले उन्हें उन पेड़ पौधों की चिंता सताने लगती है। कई रकम के फूल जो सुंदरता के साथ साथ औषधीय तौर पर भी उपयोग में लाए जाते हैं। मुझे सबके नाम नहीं पता इसलिए सबके विषय में बता पाना मेरे लिए मुश्किल है। फिर भी जैसे ऐलोविरा, जूही, मंदार, तुलसी तो कई प्रकार की है- श्यामा और भी बहुत सारी। खैर मैं उपर पानी डालने गई तो आज का दृश्य बड़ा मनमोहक लग रहा था। मेरा घर मेन रोड़ पर होने के कारण हमेशा गाड़ियों का शोरगुल सुनाई देता रहता है। आज अद्भुत शांति थी। कोई चहल पहल नहीं, चारों ओर सन्नाटा केवल सन्नाटा। पेड़ पौधे भी आज जैसे प्रदूषण मुक्त सांस ले रहे थे।  आज किसी को कहीं जाने की कोई जल्दी या हड़बड़ाहट नहीं थी। ना इंसान की आवाज ना ही गाड़ियों के हार्न आवाज- सब बंद। केवल सूर्य भगवान अपनी रौशनी से चारों ओर वातावरण को प्रफुल्लित कर रहे थे। केवल चिड़ियों का चहचहाना आज सुनाई दे रहा था। हर छत सुनसान विरान थी, सड़क पर भूले कोई दिख रहा था। निश्चित तौर पर लोग घरों में बैठकर भी आफिस का काम कर रहे थे। क्योंकि आज से पहले बहुत हद तक वर्क फ्राँम होम को निठल्ला ही समझा जाता था। पर डिजिटल वर्ल्ड आज सबकुछ बदल दे रहा है। आईटी क्षेत्र में काम करने वाले कई मित्र हैं मेरे जिनकी वजह से मुझे पता है कि उन्हें वैसे भी सप्ताह में एक या दो दिन वर्क फ्राँम होम की सुविधा कंपनी देती है। पर अब चार्टेड अकाउंटेट से लेकर वकील, जज भी वर्क फ्राँम होम कर रहे हैं।

इस आपातकालीन परिस्थिति में भी डाक्टर, नर्स, पुलिस, मीडिया और आवश्यक सामग्री वितरण करने वाले लोग जैसे दूध, अखबार सफाई कर्मचारी ये सभी लोग जान हथेली पर लेकर घूम रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में जो लाकडाउन का पालन कर रहे हैं वो सुरक्षित हो गए पर हमारी आपकी सहायता में तत्पर लोगों का क्या ? हम सुरक्षित हो गए देश से कोरोना निकल गया और जब हम बेफिक्र होकर बाहर निकलेंगें और इनमें से कोई संक्रमित व्यक्ति रह गया उसे पता भी नहीं चला और संक्रमण फिर फैलने लगा तो क्या होगा? मानती हूं आवश्यक वस्तुओं के बिना जीवन चलना मुश्किल है पर सैनेटाइजर के अलावा ऐसी कोई दवा या एंटीबायटिक जिसका सेवन हर कोई करे जिससे इससे पूर्णतया देश मुक्त हो। मास्क लोग देखादेखी पहन तो रहे हैं। पर ऐतियात क्या बरतना है शायद इससे वो पूर्णतया अनभिज्ञ हैं।

देश की वित्तिय हालत देखी जाय तो अनुमानत: प्रत्येक सेक्टर को हानि पहुंचने वाली है। होटल, टूरिज्म, एवीएशन, इवेंट मैनेजमेंट। इसके विपरीत अस्पताल, फार्मा, लैबोर्टरीज़, मीडिया इन सेक्टर्स को फायदा पहुंचने की उम्मीद है। पर, उस तबके का क्या -जो लोग कहीं भी कर्मचारी नहीं है जैसे तैसे अपना गुजारा करते हैं। रिक्शाचालक, डेलीबेसिस पर काम करने वाले मजदूर, जिनकी आमदनी इतनी नहीं होती कि घर बैठकर वो 21 दिनों तक दो वक्त की रोटी खा सकें। ऐसे लोगों के बारे में भी सरकार को ध्यान देना चाहिए। देश का हर नागरिक की भूख यदि सुरक्षित हो जाए तो साल में दो बार लाँकडाउन का स्वागत शायद हर नागरिक कर लेगा।


लाँकडाउन में 2020 भारत

सर्वमंगला मिश्रा

देश में कुछ परिस्थतियां जब भयावह रुप ले लेती हैं तो सरकार लाकडाउन जैसे कदम उठाती है। कोरोना का आतंक वैश्विक रुप से समूचे जनमानस पटल पर काले अंधेरे बादल की तरह छा गया है। देश को जैसे ग्रहण ही लग गया हो। इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि ग्रहण कभी भी सदा सर्वदा के लिए नहीं लगता। एक निश्चित समय सीमा के उपरांत उसका अंत होता ही है अर्थात् कोरोना के कहर का भी अंत निश्चित है।आज हिन्दू नववर्ष का आगमन हुआ है। इसे व्यथा कहें या आनंद पता नहीं क्योंकि कोरोना के कारण लोग अपने दोस्तों, रिश्तेदारों से भी दूरी बनाने में परहेज नहीं कर रहे। विडियो काल और वाट्सअप पर बधाई संदेश देकर ही काम चला रहे हैं। रास्ते पर यदि आप भूले भटके निकल भी जाएं तो लगेगा कि किस अंजान रास्ते, सड़क, गली या शहर में आप पहुंच गए हैं। 24 मार्च की रात 12 बजे से लाकडाउन पूर्णतया लागू हुआ पर मैं अपने परिवार के सदस्यों के साथ जब मार्केट जाने के लिए बाहर निकली तो हमारे बिल्डिंग का दरवाजा बंद था थोड़ा अजीब लगा फिर जब मैं बाहर निकली तो सड़क सुनसान, हर घर बंद, एक दुकान तक खुली नहीं थी। फल और फूल की दुकान कुछ दूरी पर था। हम पैदल चलने को मजबूर थे क्योंकि कोई रिक्शा वाला भी नहीं था। हम आगे बढ़े तो सड़क पर एक दो लोग बैठे दिखे और कोलकाता पुलिस की वैन गुजरी, उसके पीछे एम्बूलेंस की गाड़ी और फिर सन्नाटा। सड़क पर पोस्ट लैम्प दुधिया रौशनी से भरे अकेले सड़क को निहार रहे थे। तभी एक गली से एक लड़की चलते हुए आई बिना मास्क के, बिना अपना मुंह ढके, मैं कुछ सोचती उसके पहले वो रास्ता क्रास करके आगे बढ़ गई। हम भी चुप ही थे नजारा देख रहे थे। वैसे भी मास्क पहनने के बाद कम बोलने की इच्छा होती है। तभी एक और एम्बूलेंस की गाड़ी पास की। दो पुलिस वाले घूमते भी नजर आए। सोचा कहीं मार्केट तक जाने के लिए भी मना न कर दें। खैर, ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक टैक्सी खड़ी थी ड्राइवर नदारद पास खड़े एक आदमी से इशारे में पूछा कि क्या ये उसकी टैक्सी है...उसने तुरंत सिर हिलाया और घूम गया। हम पैदल चल ही रहे थे कि मार्केट का गेट आ गया था। वहीं एक एम्बूलेंस खड़ी थी। मार्केट के अंदर हम दाखिल हुए तो आसपास का नजारा ऐसा लगा जैसे सालों से ये बस्ती उजड़ी हुई है। दो कुत्ते दौड़ते हुए सड़क की ओर भागे पर बिना शोर। तभी सफेद ड्रेस वाले पुलिस डंडा लिए घूमते नजर आए। फलवाले की दुकान अकेली थी जो ग्राहकों का अभिनंदन कर रही थी। पर ग्राहक के नाम पर उस वक्त हमें मिलाकर दो लोग थे। जहां इस समय उसे सांस लेने की फुरसत नहीं होती थी आज वक्त कट नहीं रहा था। वो अपने मोबाइल पर गाने सुन रहा था। उसने हमें बताया कि आसपास की दुकानों को कैसे पुलिस ने जबरन बंद करवाया। मिठाई की दुकानें तो 3-4 दिन से बंद पड़ी है। दीदी आप और ले लो क्योंकि आपलोग तो 9 दिन तक उपवास में रहते हैं क्या पता फिर ये भी ना मिले। पुलिस हमें भी दुकान बंद करने को कह दे। तब हमने उसे समझाने का प्रयास किया कि फल, सब्जी और मेडिकल की दुकान हर हालत में खुली रहती है। तो फलवाला बोला- दीदी माल नहीं आएगा तो हम दुकान कैसे खोलेगा।
मोदी सरकार ने उचित व्यवस्था करने के बाद लाकडाउन लगाया है ऐसा माना जा रहा है। पर जनता तो असमंजस में ही सांस लेती है। पूर्ण भरोसा तो ऐसी आपातकाल की स्थिति गुजर जाने के बाद ही आती है। कुछ बाइक और कार सवार लोग फर्राटे से गाड़ी भगा रहे थे। इस डर से कि कहीं पुलिस पकड़ कर पूछताछ ना करे। फल तो ले लिया पर फूल की दुकान बंद थी। एक आमपत्ता, तुलसीपत्र, श्रृंगारफूल भी नहीं मिल पाया। फलवाले अपने दो लोगों को दो तरफ रिक्शा ढूंढने के लिए भेंजा पर कुछ नहीं था। अंत में फलवाले ने खुद हमारा बैग हमारे घर पहुंचाया। चलते चलते हमने कुछ लोगों को कहते सुना- ऐ रोम कोलकातार दृश्यो कोनोदिन देकी नी तो- मतलब कि कोलकाता शहर का ऐसा दृश्य तो कभी आजतक देखा नहीं। सौरभ गांगुली बीसीसीआई अध्यक्ष ने भी ट्वीटर पर कुछ तस्वीरें पोस्ट कर कुछ ऐसा ही लिखा।



Saturday, 30 November 2019


आकाश कैसे बंध गया?

सर्वमंगला मिश्रा 


उद्धव का उद्भव आखिरकार हो ही गया।  जिस ठाकरे परिवार के आगे आज भी जनता झुकती है उद्धव ठाकरे ने शपथ समारोह में शपथ लेने के बाद मंच पर सिर झुकाकर जनता को नमन किया। इस विश्वास के साथ कि आज भी महाराष्ट्र की जनता उद्धव और शिवसेना को उसी तरह देखती है, जिसतरह वो बालासाहेब को देखती थी। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार तिकड़ी में बन तो गई है और साथ ही एक इतिहास भी रच चुकी है। देवेन्द्र फड़नवीस का इस्तीफा देना अपने आप में पर्दे के पीछे की रहस्यमयी कहानी है। अमित शाह का वचन अब झूठा साबित हो गया। महाराष्ट्र चुनाव के पहले से शाह ने मुख्यमंत्री के तौर पर देवेन्द्र को ही देखा था। कारण यह था कि महाराष्ट्र की सरकारों में आजतक कितना उलटफेर हो चुका है इतिहास इसका गवाह है। भाजपा की छत्रछाया में देवेंद्र फड़नवीस ने पांच साल का कार्यकाल बखूबी पूरा किया। एक स्थिर सरकार राज्य को दी। राज्य में विकास का आंकाड़ा कहां तक पहुंचा इसकी विवेचना एक लम्बी बहस का मुद्दा है। राजनैतिक विवेचनाकार इस बात की अलग अलग तरीके से आलोचना या प्रशंसा करेंगे। पर बात यहां ठाकरे परिवार की है जो बिना ताज बादशाह अब ताज पहन के सीमाओं में घिर गया है। जाहिर है जहां सीमा और गठबंधन होगा वहां समस्याएं भी आंतरिक रुप से होंगी।

बालासाहेब ठाकरे जिसने एकछत्र अखंड राज किया जो सभी सीमाओं से ऊपर उठकर हिन्दुओं की रक्षा हेतु सामने आए और विकल्परिहत समाज के सामने एक विकल्प के रुप में उभरे। 1966 में शिवसेना की स्थापना की। राजनैतिक पद की लालसा तब भी शायद कहीं मन में उठी थी तभी कांग्रेस के साथ सामने आए थे बालासाहेब ठाकरे। पर, कांग्रेस की फितरत कहें या राजनैतिक दावपेंच बालासाहेब भी धोखा खाए और अपनी पार्टी का अस्तित्व स्वयं खड़ा किया। सम्पूर्ण महाराष्ट्र में बालासाहेब ने निरंकुश शासन किया बिना किसी पद की गरिमा को स्वंय या अपनी पार्टी पर लपेटे हुए। देखा जाए तो उद्धव ठाकरे भी अपने पिता के प्रभाव से वंचित नहीं रह पाए और राजनीति में शांति से प्रवेश कर पिता का अनुसरण करने लगे। पार्टी को दिशा देने का काम उन्होंने बालासाहेब ठाकरे से ही सीखा। उद्धव के चचरे भाई राज ठाकरे कुछ आक्रामक नीतियों का अनुसरण करने में यकीन रखते थे। मीडिया राज ठाकरे को ज्यादा तवज्जो देती थी। जनता को भी राज ठाकरे बालासाहेब के उत्तराधिकारी के रुप में दिखते थे। उद्धव ठाकरे ने इन बातों का कभी खंडन नहीं किया। जो भी समस्याएं रही वो आंतरिक रुप से ही रहीं। यह सत्य है कि बालासाहेब ठाकरे ने अपने पोते आदित्य ठाकरे को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था क्योंकि बालासाहेब को अपनी झलक अपने बड़े पोते में झलकती रही होगी।

साल 2019, जब महाराष्ट्र के बेताज बादशाह के परिवार ने मैदान में आम नेता की भांति घर घर जाकर वोट मांगने का निर्णय किया। अर्थात् चुनावी मैदान में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की आवश्यकता ठाकरे परिवार को महसूस हो ही गई। आदित्य भी नए दांव पेंच सीखने में जुट गए हैं। आखिर उद्धव ठाकरे की अगली पीढ़ी हैं जो शिवसेना को दिशा देने के लिए तैयार हो रहे हैं। युवा नेता को अपने पिता से ना सिर्फ राजनैतिक लूड़ो खेलने की शिक्षा प्राप्त होगी वरन कहां पहुंचकर सीढ़ी मिलेगी ये भी भलीभांति सीख जाएंगे। उनके पिता ने उन्हें विधानसभा के चुनाव में मुख्यमंत्री के पद के दावेदार के रुप में उतारा था बल्कि एनसीपी और कांग्रेस के साथ समझौते के दौरान एक बार उन्होंने अपनी नामंजुरी जाहिर की। जिससे यह तो स्पष्ट झलक रहा था कि वो स्वंय बालासाहेब की कुर्सी पर रहकर बेटे के हाथ सत्ता देकर दोहरी राजनीति कर सकते थे। लेकिन आदित्य राजनीति में एक हरे पौधे के समान हैं जिन्हें विरासत में राजनैतिक माहौल तो मिला है पर स्वंय को परखना और उन पायदानों पर चलने की कूबत स्वयं हासिल करनी होगी। जाहिर है कि दिग्गजों के सामने आदित्य बच्चे हैं और एनसीपी जिसमें शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले और कांग्रेस के अशोक चौहाण जैसे लोग इस बात को मानने से साफ इंकार की हरी झंड़ी दिखाई जिससे सत्ता और विरासत को अमिट कलंक से बचाने के लिए उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री का पद स्वीकार किया।

भविष्य के बादल में क्या छिपा है इसको भांपते हुए उद्धव ने सेक्यूलर और हिन्दुत्व सबको ताख पर रखना ही उचित समझा। यह बात अलग है कि उद्धव और राज के मन में मुख्यमंत्री के पद को पाने की लालसा और होड़ दोनों मच चुकी थी। पर व्यक्ति अपने पुत्र में अपना आज देखता है वही उद्धव भी करना चाहते थे। महाराष्ट्र का मराठी मानुष ठाकरे परिवार के आगे सालों से सिर झुकाता आया है। इस पल का साक्षी पूरा महाराष्ट्र हो जाता कि सत्ता हाथ से निकल गई। जिससे वर्षों की बालासाहेब की तपस्या मिट्टी में मिल जाती और इसी तपस्या को बचाने के लिए उद्धव ठाकरे बंधन में आ गए। इन बंधनों की पकड़ सिर्फ बाहर से ही मजबूत रहेगी या आंतरिक तौर पर भी हो पाएगी। इसके लिए शतरंज की अगली चाल का इंतजार करना ही होगा।





Tuesday, 26 November 2019

Monday, 25 November 2019


दिल्ली का अगला मुख्यमंत्री – मनोज तिवारी
सर्वमंगला मिश्रा

कहते हैं भारत का दिल दिल्ली है पर दिल्ली के दिल में क्या छिपा रहता है ये शायद ही कोई भांप पाता है। दिल्ली सदियों से शासकों का सपना रही है। महाभारत का काल हो या मुगल सल्तनत का या आज का शासन खुद नजरें घुमाकर देख लीजिए दिल्ली ही शासकों को ताज पहनाती आई है। इसी तख्तो ताज के लिए सिंहासन लाल हुए तो इक्कसवीं सदी में पोस्टर वार से राजनीति की आंखें अब डिजिटल वार पर टिक गई हैं। अब भी शासकों का दिल दिल्ली की आबो हवा में बसता है। इसी तरह 2014 का लोकसभा चुनाव में एक सशक्त सरकार देने वाले और उसकी पुनरावृत्ति भी करने वाले प्रधानमंत्री मोदी के हाथ से जब दिल्ली की सल्तनत फिसली कर केजरीवाल के हाथों गई थी तो मन में कुछ कसक रह गई थी। मोदी जी ने अपना कर्तव्य तो पूरा किया था केजरीवाल जी को बधाई देकर पर दिल्ली के शासन का न होना एक कसक जरुर बनी रही। शायद अब मोदी जी पूरे देश में भाजपा का परचम फहराने के बाद दिल्ली के फिसलने का रिस्क नहीं लेना चाहते। वैसे भी इंसान से गलती एक बार होती है। यदि दुहरा दी जाय तो यही समझा जाता है कि पहली गलती से सीख नहीं ली गई।
वैसे देखा जाये तो दिल्ली में महानुभावों की कमी नहीं है। दिग्गजों की भरमार है। पर मेरे दिमाग में एक नाम कई महीनों से कौंध रहा है। वो नाम है मनोज तिवारी। आज की तारीख में नाम ही काफी है। गायकी और अभिनय के बल पर भोजपुरी सिनेमा के जरिए लोगों के दिलों पर लम्बे समय तक राज करने के बाद मनोज जी का अमूमन हृदय परिवर्तन हुआ और 2009 में आदित्यनाथ योगी के विपरीत खड़े होने का साहस दिखाने वाला ये शक्स और कोई नहीं आज के दिल्ली के भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी ही हैं। पर उस समय मुलायम सिंह की लाल टोपी वाली पार्टी से उम्मीदवार बने थे। गायकी का अपना भोला अंदाज रखने वाले और अभिनय में लगातार नम्बर वन के पायदान पर खड़े रहने वाले मनोज तिवारी ने ससुरा बड़ा पैसावाला और दरोगाबाबू आई लभ यू जैसी फिल्में की। इन फिल्मों ने मानो एक नई दिशा का आगाज़ करवा दिया। वहीं दिल्ली में पूरे देश से आए लोग बसते हैं उत्तर, पूर्व, दक्षिण और पश्चिम के अलावा देश विदेश के छात्र छात्राएं, काम करने वाले लोग, वहीं बस जाने वाले लोग। उत्तर प्रदेश और बिहार दिल्ली से बहुत प्रभावित रहता है। गतिविधियां प्राय:  समान सी चलती हैं। हवा का रुख दिल्ली से बहना शुरु होता है और उत्तर प्रदेश और बिहार को घेर लेता है। 
कहने का अभिप्राय यह है कि मनोज तिवारी भोजपुरी सिनेमा के दमदार नायक होने के कारण उत्तर प्रदेश और बिहार के राज्यों पर पूरी पकड़ होने के कारण भाजपा ने उन्हें पहले शामिल किया पार्टी में और फिर मोदी रुख हवा और अपनी माटी से अनंत प्रेम करने वाला भोजपुरी समाज ने जी भर के वोट दिया और दिल्ली में मनोज तिवारी जी की जय जयकार हो गई 2014 में वो भी आप प्रत्याशी के विरुद्ध 1,44,084 वोटों से। वहीं 2019 के चुनाव में कांग्रेस की भूतपूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को 3.66 लाख मतों से पराजित करने के बाद मनोज तिवारी का कद और भी ऊंचा हो गया। तो मोदी सरकार भी क्यों ना उन पर विश्वास करे जो दो बार दिल्ली की जनता के दिल में आसानी से बैठ गया। इन बातों को ध्यान में रखकर ये विश्वास किया जा सकता है और मोदी शाह की रणनीति यही होगी कि जीत गए तो दिल्ली का सिंहासन पर भाजपा के बीच मनोज तिवारी ही सुशोभित होंगे।

अब बात करते हैं दिल्ली के उत्तर पूर्व इलाके के वोटधारकों के बारे में। उन्हें मनोज तिवारी तो जीतने के बाद भी शायद कुछ न दे पाए हों क्योंकि केजरीवाल की सरकार बन गई तो ठिकरा फोड़ने के लिए एक सिर और कंधा तो अभी है। वहीं मनोज तिवारी के पास उत्तर प्रदेश और बिहार का दिल है जो दिल्ली में रहकर एक बार वो भुना चुके हैं जिससे पार्टी को भी फायदा पहुंचा और अब 2019 का साल जाने को है एक माह शेष है जिसमें मनोज तिवारी ने हौले हौले अपनी चाल और तेज कर ली है। अब अपने भोजपुरिया समाज के दिल को जीतना उनके लिए शायद ज्यादा कठिन नहीं होगा। अब भाजपा सरकार के दमदार काम लोगों के सामने हैं जैसे – तीन तलाक से मुस्लिम महिलाओं को आजादी, कश्मीर को धारा 370 से आजादी, उरी अटैक, पाकिस्तान को विश्व के समक्ष नतमस्तक कर देना और करवा देना जैसी और भी कई उपलब्धियां हैं जिन्हें दिल्लीवासी जरुरी समझते हैं। उन्हें लगता है कि गुजरात का प्रधानमंत्री होकर जब हर राज्य और हर वर्ग के लिए कुछ नहीं बहुत कुछ सोच रहा है तो ये तो अपनी माटी से जुड़े हैं अपने हैं अपना भी भला ही होगा। अपने बड़े बड़े घर छोड़कर फुटपाथ और झोपड़ पट्टियों में रहने को मजबूर ये तबका अपनी दरियादिली अपने चहेते नायक और गायक के प्रति दिखा भी दे तो क्या मनोज तिवारी भी उसका प्रतिउत्तर दे पाएंगे, महसूस कर पाएंगें उनकी तकलीफों को उनकी मांगों को असलीयत में।

मनोज तिवारी पर राजनीति हावी है। जनता का मन उन्हें मोहना आता है। इसीलिए केजरीवाल को प्रदूषण की समस्या हो या पेय जल टेस्ट में दिल्ली का 20 वें पायदान के पार खड़ा होना- हर मुद्दे पर सावधान खड़े हैं सतर्क होकर विरोध करने का एक भी मौका चूके बिना दिल्ली की कुर्सी हासिल करने की होड़ में शायद वो अकेले राजकुमार हैं।

जाने वाले जरा होशियार यहां के हम हैं राजकुमार

सर्वमंगला मिश्रा



ये गाना इसलिए याद आ गया क्योंकि महाराष्ट्र की राजनीति के छुपे रण में कुछ ऐसा ही नजर आ रहा है। जब खबर आई कि ठाकरे परिवार का पहला शक्स चुनाव लड़ने जा रहा है यानी जनता के बीच जा रहा है उनसे उनकी अनुमति लेकर सिंहासन पर काबिज़ होने के लिए तो सुनकर बहुत खुशी हुई थी कि अब महाराष्ट्र में वर्षों से अपना वर्चस्व कायम कर लेने के बाद भी जनता के आदर और सम्मान का ध्यान रखा जा रहा है भले ही ये एक औपचारिकता मात्र हो। लोकतंत्र को शिरोधार्य करने वाले छत्रपति शिवाजी को मानने वाले, बालासाहब जैसे शेर की संतान आज लोकतंत्र का मान रखकर भारत के संविधान की मर्यादा का सम्मान कर देश को मराठा जाति को गौरवान्वित कर रहा है।
पर अफसोस, बंद कमरे में बालासाहब ठाकरे के कमरे में भाजपा और शिवसेना के बीच क्या सिद्धांत तय हुए थे जिसके सहारे महाराष्ट्र के रण में पार्टियां आईं और जमकर अपना कद मापा। उम्मीद के मुताबिक ही अमूमन परिणाम आए पर शायद शिवसेना ने जितने की आस की थी उसमें कुछ कमी रह गई और भाजपा- 105 तो शिवसेना -54। पर एक बात तो शुरु से शिवसेना की ओर से तय दिख रही थी कि वो अपने सुपुत्र आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री के पद पर आसीन करवाना चाहते हैं। इसी कारण उन्होंने आदित्य को जंग के मैदान में उतारा और जीत ने भी आदित्य के कदम चूमे। यहां सवाल किसी मुकाबले के लिए नहीं लड़ा गया या कोई भी चुनाव मुकाबला तो होता है पर काबिलियत और उसका प्रोफाइल ही अहम होता है। यहां जहां देवेंद्र फड़नवीस पांच साल की सफल सरकार दे चुके है। भले ही महाराष्ट्र की समस्याएं जस की तस हों पर सुदृढ़ता रही है। वहीं आदिच्य की बात करें तो राजनीतिक सशक्त परिवार से तो आते हैं पर राजनीति के प्रति उनका मोह या उनकी असलीयत में कितनी रुचि है जनता शायद इससे वाकिफ नहीं है। 29 वर्षीय आदित्य को बचपन से बालासाहब ठाकरे का प्रेम और आशीर्वाद मिलता आया है और वो आदित्य को ही उत्तराधिकारी मानते थे और कई बार उन्होंने अपने कई साक्षात्कार में इसे स्पष्ट भी किया था। लेकिन इसका अर्थ ये कतई नहीं लगाया जा सकता कि आदित्य राजनीति के प्रपंची खेल के लिए परिपक्व हैं। इसके इतर शरद पवार भी अपनी सुपुत्री सुप्रिया सुले के लिए दांव पर दांव खेल रहे हैं।


यदि आदित्य ठाकरे महाराष्ट्र की गद्दी पर काबिज़ भी हो जाते हैं येन केन प्रकारेण तो क्या होगा- सिंहासन के पीछे की राजनीति शुरु हो जाएगी। क्योंकि आदित्य अभी कुमार हैं उगते हुए सूर्य की तरह मध्यान्ह का सूर्य बनने के लिए वक्त चाहिए होगा। अभी राजनीति और जनता के प्रति उत्तरदायित्व को समझने के लिए उन्हें और वक्त के साथ परिपक्व होना होगा। अभी राजनीतिक स्तर के फैसले लेने की दक्षता अभी अकल्पनीय है। सौराष्ट्र की जनता का हित अहित कहां निहित है इसे उन्हें समझना होगा तब होंगें सूर्य की तरह देदिप्यमान और समर्थन प्रकाश की किरणों की तरह उनका स्वागत करेगी। लेकिन सूर्य को पहले उगने तो दीजिए।  जिसतरह संजय राउत अभी अपना बड़बोलापन दिखा रहे हैं उसी प्रकार सारे फैसले कौन लेगा उद्धव ठाकरे, संजय राउत या और कोई। जैसे उत्तर प्रदेश में किसकी सरकार रही पिछले कुछ सालों में योगी जी के पहले पता नहीं चलता था कि अखिलेश की सरकार है या मुलायम की या आज़म खान की। ठीक वही स्थिति यहां भी नजर आ रही है।

एकतरह से देखें तो शिवसेना की हिंदूवादी राजनीति की पृष्ठभूमि खिसकती नजर आ रही है। जिस शिवसेना का जन्म 1966 में हुआ उसने भी बालासाहब ठाकरे के नेतृत्व में कांग्रेस से धोखा खाया था तबसे उससे किनारा ही कर लिया और भाजपा के साथ कदमताल करने लगी। पर, पूरे भारत ने देखा और आमची मुम्बई ने समझा कि सत्ता के आगे हथियारी हाथ हार जाता है। यूं तो सर्वविदित है कि जमीनी स्तर पर महाराष्ट्र और उसके आस पास के इलाकों में भी शिवसेना का वर्चस्व इस तरह कायम है जिस तरह बन्दूक और गोली का रिश्ता, सूर्य और प्रकाश का रिश्ता, जमीन और उससे लगे पेड़ों की जड़ों का रिश्ता। ऐसे में अगर शिवसेना चुनाव में उतरकर भी सत्ता हासिल नहीं कर पाती है तो शिवसेना का अस्तित्व प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रुप से सूर्य के अस्त होने का संकेत दे सकता है। वैसे आदित्य ठाकरे के पास अभी काफी वक्त है राजनीति की धुरी पर अपना सिक्का आजमाने और जमाने को।

अमान्य सरकार शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के मुताबिक जो देवेंद्र फड़नवीस और अजीत पवार ने बनाई है। उसके बनने से शिवसेना का अस्तित्व खतरे में आ जाएगा। उधर अमित शाह ने महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों से पहले अपने सभी साक्षात्कार में एक ही बात दुहराई थी कि महाराष्ट्र के सी एम देवेन्द्र फड़नवीस ही होंगें। उसके इतर चुनाव से पहले हरबार शिवसेना और भाजपा के बीच मान मनौउव्वल होता है पर इस बार संख्या ने जरा कदम खींच लिए और दोनों पार्टियां तैश में आ गईं। सबको अपनी शर्त पर सत्ता चाहिए। जिसने जो कहा वही होना चाहिए। इस बीच जनता का अधिकार और उसकी मान्यता नगण्य सी लग रही है।

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