जाने वाले जरा
होशियार यहां के हम हैं राजकुमार
सर्वमंगला मिश्रा
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पर अफसोस, बंद कमरे में बालासाहब ठाकरे के कमरे में भाजपा और शिवसेना
के बीच क्या सिद्धांत तय हुए थे जिसके सहारे महाराष्ट्र के रण में पार्टियां आईं
और जमकर अपना कद मापा। उम्मीद के मुताबिक ही अमूमन परिणाम आए पर शायद शिवसेना ने
जितने की आस की थी उसमें कुछ कमी रह गई और भाजपा- 105 तो शिवसेना -54। पर एक बात
तो शुरु से शिवसेना की ओर से तय दिख रही थी कि वो अपने सुपुत्र आदित्य ठाकरे को
मुख्यमंत्री के पद पर आसीन करवाना चाहते हैं। इसी कारण उन्होंने आदित्य को जंग के
मैदान में उतारा और जीत ने भी आदित्य के कदम चूमे। यहां सवाल किसी मुकाबले के लिए
नहीं लड़ा गया या कोई भी चुनाव मुकाबला तो होता है पर काबिलियत और उसका प्रोफाइल
ही अहम होता है। यहां जहां देवेंद्र फड़नवीस पांच साल की सफल सरकार दे चुके है।
भले ही महाराष्ट्र की समस्याएं जस की तस हों पर सुदृढ़ता रही है। वहीं आदिच्य की
बात करें तो राजनीतिक सशक्त परिवार से तो आते हैं पर राजनीति के प्रति उनका मोह या
उनकी असलीयत में कितनी रुचि है जनता शायद इससे वाकिफ नहीं है। 29 वर्षीय आदित्य को
बचपन से बालासाहब ठाकरे का प्रेम और आशीर्वाद मिलता आया है और वो आदित्य को ही
उत्तराधिकारी मानते थे और कई बार उन्होंने अपने कई साक्षात्कार में इसे स्पष्ट भी
किया था। लेकिन इसका अर्थ ये कतई नहीं लगाया जा सकता कि आदित्य राजनीति के प्रपंची
खेल के लिए परिपक्व हैं। इसके इतर शरद पवार भी अपनी सुपुत्री सुप्रिया सुले के लिए दांव पर दांव खेल रहे हैं।
यदि आदित्य ठाकरे महाराष्ट्र की गद्दी पर काबिज़ भी हो जाते हैं येन
केन प्रकारेण तो क्या होगा- सिंहासन के पीछे की राजनीति शुरु हो जाएगी। क्योंकि
आदित्य अभी कुमार हैं उगते हुए सूर्य की तरह मध्यान्ह का सूर्य बनने के लिए वक्त
चाहिए होगा। अभी राजनीति और जनता के प्रति उत्तरदायित्व को समझने के लिए उन्हें और
वक्त के साथ परिपक्व होना होगा। अभी राजनीतिक स्तर के फैसले लेने की दक्षता अभी
अकल्पनीय है। सौराष्ट्र की जनता का हित अहित कहां निहित है इसे उन्हें समझना होगा
तब होंगें सूर्य की तरह देदिप्यमान और समर्थन प्रकाश की किरणों की तरह उनका स्वागत
करेगी। लेकिन सूर्य को पहले उगने तो दीजिए। जिसतरह संजय राउत अभी अपना बड़बोलापन दिखा रहे
हैं उसी प्रकार सारे फैसले कौन लेगा उद्धव ठाकरे, संजय राउत या और कोई। जैसे उत्तर
प्रदेश में किसकी सरकार रही पिछले कुछ सालों में योगी जी के पहले पता नहीं चलता था
कि अखिलेश की सरकार है या मुलायम की या आज़म खान की। ठीक वही स्थिति यहां भी नजर आ
रही है।
एकतरह से देखें तो शिवसेना की हिंदूवादी राजनीति की पृष्ठभूमि खिसकती
नजर आ रही है। जिस शिवसेना का जन्म 1966 में हुआ उसने भी बालासाहब ठाकरे के
नेतृत्व में कांग्रेस से धोखा खाया था तबसे उससे किनारा ही कर लिया और भाजपा के
साथ कदमताल करने लगी। पर, पूरे भारत ने देखा और आमची मुम्बई ने समझा कि सत्ता के
आगे हथियारी हाथ हार जाता है। यूं तो सर्वविदित है कि जमीनी स्तर पर महाराष्ट्र और
उसके आस पास के इलाकों में भी शिवसेना का वर्चस्व इस तरह कायम है जिस तरह बन्दूक
और गोली का रिश्ता, सूर्य और प्रकाश का रिश्ता, जमीन और उससे लगे पेड़ों की जड़ों
का रिश्ता। ऐसे में अगर शिवसेना चुनाव में उतरकर भी सत्ता हासिल नहीं कर पाती है
तो शिवसेना का अस्तित्व प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रुप से सूर्य के अस्त होने का
संकेत दे सकता है। वैसे आदित्य ठाकरे के पास अभी काफी वक्त है राजनीति की धुरी पर
अपना सिक्का आजमाने और जमाने को।
अमान्य सरकार शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के मुताबिक जो देवेंद्र
फड़नवीस और अजीत पवार ने बनाई है। उसके बनने से शिवसेना का अस्तित्व खतरे में आ
जाएगा। उधर अमित शाह ने महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों से पहले अपने सभी
साक्षात्कार में एक ही बात दुहराई थी कि महाराष्ट्र के सी एम देवेन्द्र फड़नवीस ही
होंगें। उसके इतर चुनाव से पहले हरबार शिवसेना और भाजपा के बीच मान मनौउव्वल होता
है पर इस बार संख्या ने जरा कदम खींच लिए और दोनों पार्टियां तैश में आ गईं। सबको
अपनी शर्त पर सत्ता चाहिए। जिसने जो कहा वही होना चाहिए। इस बीच जनता का अधिकार और
उसकी मान्यता नगण्य सी लग रही है।
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