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Sunday 25 June 2017

कश्मीर की रंजिश   

सर्वमंगला मिश्रा  




                                                                     
कश्मीर की धरती अब कह रही है कि नर्क कहीं है तो बस यहीं है, यहीं है, यहीं है। बिल्कुल सही आपकी आंखों ने पढ़ा। जिस धरती पर जंग ना तो जेहाद की हो रही है, ना इंसानियत की और ना ही जंग कश्मीर को बचाने की। तो फिर आखिर यह जंग चल किसकी रही है ? वो कश्मीर निवासी जिनके घर रोज निशाने पर रहते है। जिनकी जिंदगी  को राजनैतिक नेताओं ने, अलगाववादी नेताओं ने और आतंकवाद के झरोखों में पल रहे उन हुकमरानों ने खूनी खेल को  शतरंज का बना लिया है।

पहले जंग शुरु हुई भारत -पाक के बीच कश्मीर पर एकाधिकार को लेकर । फिर जंग को जेहाद का नाम देकर पाक के अनकहे समर्थक छद्म वेश में भिन्न भिन्न रुपों में छाने लगे। कश्मीरी अलगाववादी नेताओं का जन्म कुछ इस प्रकार हुआ कि उनके पक्ष, उनकी सोच का अनुमान लगाना भी कठिन सा लगता है। हाल ही में हुई हिंसक झड़प ने यह साबित कर दिया है कि 1990 में कश्मीरी पंडितों को भगाने के बाद अब वहां का प्रशासन भी सुरक्षित नहीं है। जिसतरह अपने पाक रमज़ान के महीने की कद्र किये बिना, धार्मिक स्थल के सामने ऐसी घटना  को अंजाम देने की सोचना भी निंदनीय है। अयूब पंडित की दुर्दशा ने कुछ प्रश्न खड़े करती है - पहला क्या पुलिस उप अधिक्षक मोहम्मद अयूब पंडित ने अपना रौब दिखाया जिसके फलस्वरुप वहां मौजूदा भीड़ हरकत में आयी और उनकी यह दुर्दशा की अथवा उनके विरोधी जानबूझकर उन्हें उकसाये और घटना को अंजाम दे डाला। यह पुलिस कर्मी उन लोगों की हिफ़ाजत के बाबत तैनात किया गया था कि नमाज़ अदायगी में कोई बाधा उत्पन्न न हो। पर, परिस्थितियां इसी ओर इंगित करती हैं कि जानबूझकर इस घटना को अंजाम दिया गया। जिससे घाटी के हालात बेकाबू हो जायें।  रिपोर्ट्स के मुताबिक यह बात भी सामने आयी कि अलगाववादी नेता मीरवेज़ उमर फारुख मस्जिद में पहले से मौजूद थे या घटना के वक्त छुप गये थे मस्जिद में अथवा घटना के उपरांत वह पहुंचे और दहशत की आड़ में अपनी सुरक्षा मुहैया करवा ली। सवाल यहीं उठता है कि अगर ज़मीनी नेताओं को अपनी ही बनायी ज़मीन पर अपनों से ही डर लगता है तो किसके लिए यह जंग लड़ रहे है ? कश्मीर अलगाववादी नेता दरअसल कश्मीर को अलग कर क्या भविष्य बनाना चाहते हैं।

अमन -चैन की जिंदगी, स्वर्ग सा महसूस कराने वाला यह राज्य आज भीष्म पीताम्मह की तरह शर शैय्या पर लेटा हुआ है। जहां उसके अपने अर्जुन जैसे प्रिय ही आज, वाण पर वाण चुभोये चले जा रहे हैं। कश्मीर जिसने भीष्म पिताम्मह की तरह राज्य में अमन चैन के लिए अपना सबकुछ बलिदान कर दिया। जिसतरह द्रौपदी के चीर हरण के समय भीष्म चुप रहे और वनवास के समय भी। ठीक उसी तरह कश्मीर के नियम कायदे से लेकर उसका असली चेहरा ऐसे रंग से रंगा जा रहा है कि आने वाले समय में कश्मीर अपना अस्तित्व ही भूल जाये।
सैनिकों पर आये दिन पथराव, सीमा पर तैनात जवानों की अंतिम सांस, आखिर कब तक... ? जबसे पीडीपी और भाजपा की सरकार ने सरकार की बागडोर संभाली है तबसे ओमर अब्दुल्ला और उनके पिता फ़ारुख अबदुल्ला ने विधानसभा की हार का बदला जनता से लेकर चुका रहे हैं। हालांकि विपक्ष अपनी भूमिका हमेशा से हर राज्य में निभाता है । सरकार के प्रति मोर्चा खोलकर। पर यहां की जमीन को अमन- चैन के बदले दहशत की जमीन बनाने पर यहां के नेता और दहशतगर्द तुले हुए हैं।  बर्बरता की सीमा लांघ जाने के बाद अब मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने चेतावनी दी है कि सेना के संयम को न परखें अन्यथा ....।

प्रधानमंत्री मोदी दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल की तरह बच नहीं सकते कि दिल्ली पुलिस हमारी नहीं सुनती, हमारे कंट्रोल में नहीं है क्या करें। मोदी जी की पार्टी हिस्सेदार के साथ जिम्मेवार भी है, वहां जो घटित हो रहा है, उसको न रोक पाने में क्या सरकार असमर्थ, नाकाम हो रही है। अथवा 2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर कश्मीर की हालत यूंही रहेगी। ताकि चुनाव के पूर्व हालात हाथ से निकल कर बेकाबू न हो जायें। देश में संदेश गलत न चला जाये। जिसका असर पार्टी को सीटों की कुर्बानी देनी पड़ जाय। वहीं नैश्नल कांफ्रेंस की पलटन इसके विपरीत कश्मीर के हालात इतने नाजुक बना देना चाहती है कि कश्मीर और कश्मीरी दोनों कराह -कराह कर सांस लें। जिससे विपक्ष राष्ट्रपति शासन की मांग करे या चुनाव की नौबत सर पर खड़ी हो जाये।
बुरहान वानी की मौत ने यह साबित कर दिया था कि कश्मीर की अवाम किसे चाहती है। आज सीमा उल्लंघन में जितने भी सैनिक मारे जाते हैं या किसी का सिर काटकर पाक सैनिक लेकर चले जाते हैं...पर घाटी के लोगों के माथे पर कभी शिकन तक आयी ? वहीं बुरहान के जनाजे के साथ न जाने पूरी घाटी शोक मनाने उतरी थी या बुरहान के आतंकी साथी और उन्हें पनाह देने वाले आकाओं के गुर्गे।

सत्ताधारी और विपक्ष की तनातनी लाज़मी है। हरबार तनाव और धारा 144 लागू करनी पड़ती है सरकार को। स्कूल बंद, छोटे व्यापारियों का व्यापार बंद। शिक्षा और व्यवसाय पर ताला लगा दिया जाता है। ताला नहीं लगता तो सिर्फ पार्टियों या दहशतगर्दों की निंदनीय हरकतों पर। जैसे लगता है कि विपक्ष अपनी हार का बदला दहशतगर्दी से लेना चाहता है।

महबूबा साहिबा की यह ज़मीं जिसपर उनकी उम्र तकल्लुफ से नहीं ताउम्र ऐशो आराम में कटी है। अब जब उनकी मातृभूमि पर दहशत का नंगा नाच हो रहा है, क्यों नहीं मुख्यमंत्री साहिबा कड़े कदम उठा रही हैं। यह भी देखने वाली बात है कि जितने सैनिकों की जान सरहद पर गयी है उनमें से किसी के भी अंतिम संस्कार में मुख्यमंत्री साहिबा ने शिरकत नहीं की है।  अयूब पंडित की पत्नी बंग्लादेश में पढ़ाई कर रही थीं। साथ ही दो छोटे छोटे बच्चे भी हैं। हर सैनिक का परिवार खामोशी के आंसू बहाकर  "जय हिन्द  "कहकर अपने उस परिजन को देश की बलिवेदी पर अमर होने की कामना के साथ अंतिम विदाई देता है। देश याद कर सके उससे पहले फिर लाशों के आने का कारवां चालू हो जाता है। विदाई और मौत चलती रहती है। इसका अंत बेअंत सा नजर आता है।
कश्मीर क्या इतना लाचार हो गया है कि अपना भविष्य संवारना तो दूर,  हिफ़ाजत भी नहीं कर पा रहा है।  नेताओं को अब कश्मीर के अमन -चैन से ज्यादा अपने अमन चैन के आसमान की फिक्र है। कश्मीर इतना सियासी चाल के दलदल में फंस चुका है कि सुपरमैन जैसी शक्सियत ही निकाल सकती है। 

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