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Sunday, 23 August 2020

 

मिस्टिरियस मुम्बई में-

 सुशांत का अशांत रहस्य

सर्वमंगला मिश्रा

मुम्बई महानगरी मायानगरी, जहां चीजें हवा की परत की तरह बदलती हैं। सुशांत का जीवन भी रिया के कदम रखते ही बदलने लगा इतना बदल गया कि सुशांत का परिवार अकेला रह गया और सुशांत अकेले ही एक नए सफर पर निकल गया। गुस्ताख़ी या जलन, प्रतिशोध या फितरत, क्या छुपा है रेत की गहराइयों में सुशांत का अशांत रहस्य।

हर शहर की अपनी एक गरिमा होती है, अपना एक व्यक्तित्व होता है, अपना एक ढ़ंग होता है। लोगों को अपनाना और उनसे मुख मोड़ लेना भी फितरत में आता है। कहते हैं हर शहर हर इंसान की परीक्षा लेता है अपने ढ़ंग से और जो उसमें खरा उतरता है शहर उसका हो जाता है। 6 महीने या साल भर हर शक्स की परीक्षा होती है कोई पास तो कोई फेल होता है। सुशांत सिंह राजपूत पास हो गए थे। शहर ने उन्हें अपना भी लिया था पर कुटिल षणयंत्रों से अंजान सुशांत अपने जीवन में आता ट्विस्ट समझ नहीं पाए और जब तक समझ आया तो बहुत देर हो चुकी थी।

कहानी में ट्विस्ट आता है पर सुशांत मर्डर केस में न जाने कितने ट्विस्ट एंड टर्नस अभी और आने बाकी हैँ। मीडिया के शोर मचाने से केस तो सीबीआई के हाथों पहुंच गया है। पर सवाल उठता है कि हजारों लोग अपने किस्मत की आजमाइश करने आते हैं कोई सफल तो कोई वापस अपना रास्ता नापता चला जाता है। तमाम गवाहों की मानेतो रिया की हूकूमत चलती थी सुशांत पर। इन बातों को कहने वाले उनके द्वारा रखे गए स्टाफ ही कह रहे हैं। खेल पैसों का, धोखे का, ईर्ष्या का या प्रतिशोध का। रिया पैसों के लिए सुशांत के साथ प्यार का खेल खेली या धोखा से शहद षणयंत्र रचकर उन्हें मौत के घाट ही उतारने आई थीं। मकसद पूरा करने का जरिया थीं रिया। इसका पता सीबीआई लगाएगी, जिसके लिए हम सबको प्रतीक्षा करना होगा।

नेपोटिज्म से लेकर करियर को ढलान पर दिखाने से लेकर हजार साजिशें रची गईं ऐसा साबित करने के लिए कि सुशांत की मानसिक हालत खराब थी, वो अवसाद से गुजर रहे थे। खैर, इन बातों को अब शायद कोई औचित्य नहीं है। हजारों सबूत और गवाह यही बताते हैं कि सुशांत एक जिंदादिल, जीवन को जीने वाले इंसान था। डायरियों में भविष्य की योजनाएं थीं। पर वो अपनों में बेगाना कौन था ?जिसे सुशांत कांटे की तरह चुभ रहा था। जिसे उसकी उन्नति सहन नहीं हो रही थी। जिसे सुशांत फूटी आंख नहीं भा रहे थे। क्या बेगानों ने अपना बन के लूटा या अपनों ने बेगाना बनकर। सवाल जलेबी की तरह टेढ़ा है पर जलेबी भी किसी सिरे से शुरु होती है और कहीं उसका सिरा खत्म होता है।

इस केस में रिया के रखे गए स्टाफ में सिद्धार्थ पिठानी एक अहम कड़ी के तौर पर देखा जा रहा है क्योंकि यही वो दो आंखें हैं जिसने सुशांत को 14 जून की सुबह पंखे से लटका देखा। पीछे नीरज और दीपेश सावंत भी थे। पर क्या सिद्धार्थ की इतनी हिम्मत थी कि वो सबकुछ अकेले कर सकता था। सब एकसाथ थे सिवाय सुशांत के। खिचड़ी पकी, पर किसके कहने पर। इस बात पर गौर करना होगा। पड़ोसी महिला ने 22 अगस्त को अपनी चुप्पी तोड़ी और खुलकर सामने आई मीडिया से कहा कि 13 जून की रात ग्यारह बजे के आसपास सारी लाइटें बंद हो गई थी सिवाय रसोई घर के। जबकि नीरज सुशांत का रसोइया कहता है कि 14 जून की सुबह उसने सुशांत को जूस दिया और नारियल पानी भी। उसके बाद उन्होंने अपने कमरे का दरवाजा लाक कर लिया और फिर पूरी कहानी गढ़ी रची गई सुना दी गई। लोगों ने यकीन भी कर लिया लेकिन परिवार ने नहीं किया। कहां गया जूस का ग्लास, वो आधा खाली था या पूरा। शरीर की जांच में रिपोर्ट में कुछ निकला क्यों नहीं। एक एक्टर के वास्तविक जीवन का स्क्रीप्ट राइटर कौन है। पूरा देश जानना चाहता है कि रोप ट्रिप के दौरान ऐसा क्या हुआ। क्या साज़िश वहीं रचि गईं या कड़ियां और जुड़ीं। अगर रिया सुशांत को किनारे लगाने के लिए ही आईं थी तो इस आपरेशन को पूरा होने में जिस सीढ़ी पर चढ़ना या उतरना पड़ा रिया ने किया क्योंकि उन्हें अपने मकसद में खरा जो उतरना था। 2019 से रिया का लिव इन में रहने आईं तबसे सबकुछ हथिया लिया क्या बैंक अकाउंट, कार्ड, नौकरों पर हूकूमत, फैसलों की आजादी सब छीन लिया सुशांत से। डिप्रशन में नहीं थे सुशांत उन्हें डिप्रेशन में लाने की कवायत चल रही थी इसलिए जबरन शायद दवाईयां खिलाई जाती थीँ। उन्हें मानसिक तौर पर पागल करार देने के लिए। इससे रिया को क्या फायदा था। किस कारण रिया महेश भट्ट को इतने प्यारे मैसेज लिख रही थीं। उन्होंनें उनके लिए क्या कर दिया जिससे वो हमेशा स्पेशल ऐंजल बोलीं।

  

                                                               साजिश की महक नहीं साजिश की दीवारें नजर आ रही हैं आर पार। संदीप सिंह एक ऐसा शक्स जो बेहद अपना सा दिखा उस दिन जिस दिन सब बेगाने हो गए जिस दिन रिया ने मारच्यूरी में सुशांत को अलविदा कहा- सारी बाबू कहकर। क्या रिया किसी के दबाव में आकर सुशांत के साथ गलत कर दीं या उनका मकसद ही था सुशांत के जीवन में आकर तबाही मचाना। जहन में सवाल ही सवाल हैं जवाब किसी के पास नहीं। संदीप सिंह का प्रोफाइल खंगालना अभी सीबीआई को बाकी है। रिया का सबसे अहम करीबी स्टाफ जो मौत के बाद सिचूएशन संभालने आया था। जिसने असली खेल खेला यह संदीप सिंह उसके कहने पर सारे काम कर रहा था घर से लेकर अंतिम संस्कार तक। महेश भट्ट को क्या परेशानी थी सुशांत से। कहीं महेश भट्ट किसी और के कहने पर सुशांत का काम तमाम करने की साजिश तो नहीं रचने लग गए थे। कौन है वो शक्स जो सुशांत को उपर उठते देख नहीं पा रहा था। सुशांत की मौत के बाद कुछ लोग सोच समझकर बोले –दिखावे के लिए अपनेपन का एहसास कराया पर कौन किसका कितना अपना होता है इस मायानगरी मुम्बई में। पोस्टमार्टम करने वाले सारे डाक्टर महाराष्ट्र के ही हैं। उनमें से एक ने शायद सीबीआई के सामने कबूल किया किया कि महाराष्ट्र पोलिस का दबाव अधिक था जिससे पोस्टमार्टम रात में ही करना पड़ा या सिर्फ औपचारिकता के लिए रिपोर्ट लिख दी गई।

बहुत बार ऐसा देखा गया है कि हम बाहर वालों को निशाने पर लेते हैं पर निशान घर में छुपा होता है बहरुपिया बनकर। बाघ की खाल ओढ़े कौन है वो गीदड़ जिसने ऐसा घिनौना खेल रचा। महाराष्ट्र सरकार आज बेबस हाथ बांधे धूप में खड़ी है जहां ना तो ठंड़ी छांव है और ना ही आसार। केंद्र के निशाने पर लाल निशान में जल रही महाराष्ट्र की उद्धव सरकार बीच मझधार में बिना पतवार गोते लगा रही है जहां मांझी खुद पानी में अपनी पतवार फेंक चुका है। अब नाव पार कैसे जाएगी ये कौन बताएगा। सुशांत को इंसाफ दिलाने में मीडिया की भूमिका सक्रिय है। इसमें चाणक्य की कूटनीति भी नजर आती है। यही मौका है जब सरकार की खामियां दिखाकर उसे सिंहासन से उतारने का मौका भी केंद्र को मिल गया है। शिवसेना भी इतनी डरी है कि कहीं आदित्य ठाकरे के कारण सालों की मेहनत मिट्टी में ना मिल जाए।  

सुशांत यदि परिवार के साथ होता तो शायद ऐसी घटना नहीं घटती। पर महा पुलिस शक के घेरे में ही नहीं संदेह के दलदल में धंस गई है। शुक्र है सीबीआई की टीम को महा पुलिस ने क्वारंटाइन नहीं करवाया बिहार पुलिस की तरह। सुशांत के पिता के वाट्सअप पर शिकायत करने के बावजूद महा पुलिस खामोशी के आगोश में सो रही थी। जैसे मानसरोवर का शांत जल बड़ा सुंदर लगता है पर जब कोई कंकड़ फेंके तो आवाज आती है शांति भंग हो जाती है। ऐसा ही सुशांत का परिवार भी है। न्याय की आस सीबीआई से है पूरे देश को। आशा है कि इस बार सीबीआई खरी उतरेगी।                                                                         

 

Saturday, 8 August 2020

 

उलझी डोर और कितनी उलझेगी

कहते हैं एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है। सुशांत की जिंदगी में भी कुछ ऐसा ही नजर आ रहा है। रिया चक्रवर्ती भी सुशांत के जीवन में उसी मछली की तरह नजर आ रही हैं। जिसने सुशांत के जीवन को तबाह कर दिया। मीडिया रिपोर्टर्स देखकर ऐसा एहसास नहीं होता कि सुशांत से रिया को सचमुच प्यार था। अंकिता लोखंड़े तक उनका जीवन सही सलामत था। जैसे ही रिया उनके जीवन में आईं एक तूफान का आलम लेकर आईं।

सभी चश्मदीद जिसमें नीरज और पिठानी बता रहे हैं कि उन्होंने ही सुशांत को पंखे से लटका देखा। जाहिर सी बात है अगर एक हादसा था तो सबकी हवाईंयां उड़ जानी लाज़मी थीं। लेकिन अगर ये षडयंत्र  रचा हुआ था तो होश उड़ने की बात नहीं हो सकती। केवल अगले चरण को कैसे ठीक से पूरा करना था ऐसी सोच रही होगी। जिसमें दीपेश गुमशुदा है आजतक। रिया भी पटना पुलिस के आने के बाद गुमशुदा हो गईं थी पर प्रवर्तन निदेशालय के बुलाने पर पहुंच गईं। 9 घंटे की लम्बी पूछताछ में कुछ खास तो अभी तक बाहर नहीं निकला। कुछ सवाल हैं मेरे मन भी जो अहम हो सकते हैं-

1.       सुशांत अनार का रस और नारिल पानी के साथ केला लेकर अंदर गए और दरवाजा लाँक हो गया या कर दिया गया कहा नहीं जा सकता अबतक।

2.       जूस का ग्लास क्या सुशांत ने पूरा खत्म किया था अथवा ग्लास में पेय पदार्थ बचा हुआ था। ग्लास या कप पर उंगलियों के निशान किसके थे।

3.       नीरज और पिठानी इस बात का खुलासा क्यों नहीं कर रहे कि जब उन्होंने कमरे का लाक तोड़ा तो किस हालत में सुशांत को देखा। आंखें बाहर थी या नहीं।

4.       किसी ने ऐसा क्यों नहीं सोचा कि अस्पताल ले जाया जाय शायद वो बच जाएं। प्राथमिक उपचार अथवा सांस चल रही थी या नहीं किसी ने चेक किया कि नहीं

5.       सबसे महत्वपूर्ण बात की रिया के द्वारा रखा गया स्टाफ उसे ऐसे मौके पर फोन करके क्यों नहीं बुलाया।

6.       पोस्टमार्टम रिपोर्ट में आत्महत्या बताया गया और किसी प्रकार के जहर की पुष्टि भी नहीं की गई।

7.       सुशांत के पिता को ऐसा 25 फरवरी को क्यों लगा कि उनके बेटे की जान को खतरा है। लिखित क्यों नहीं दिए।

8.       मीतू, सुशांत की बहन क्या दिशा के बारे में जानती थी। वो सचमुच उनकी मैनेजर थी अथवा नहीं।

9.       महेश भट्ट और डाक्टर जो सुशांत का इलाज कर रहे थे दोनों से कड़ी पूछताछ हो। कारण कि उन्होंने किस कारण उस डाक्टर को रेफर किया।

10.    महेश भट्ट के दिमागी हालत की जांच भी होनी चाहिए।

11.    मीतू बताएं कि सुशांत ने 15 जून के बारे में उनसे कुछ कहा था अथा नहीं।

अब तो मुंबई पुलिस स्वयं कटघरे में खड़ी हो गई है। जांच प्रकिया पूर्णतया शक के घेरे में आ चुकी है। गुप्तेशवर पांडे, बिहार डीजीपी तो एक तरह से मुंबई पुलिस के रवैये से जैसे रो ही दिए। पर उनकी मेहनत ने दुनिया के सामने मुंबई पुलिस का सच सबके सामने ला दिया और सीबीआई के पास केस पहुंच गया। सीबीआई, एक ऐसी महान संस्था जिसके कंधों पर हजारों केस हैं। हर किसी को इस संस्था पर विश्वास है, आशा है, अपेक्षा है। हर प्रकार के हाई प्रोफाइल मामले सीबीआई के पास ही जाते हैं। एक साधारण नागरिक होने के नाते मेरा भी उतना ही विश्वास है जितना भारत के हर नागरिक का होता है। पर जिस मुंबई पुलिस के बल पर रिया सीबीआई की जां

च की मांग हाथ जोड़कर अमित शाह से कर रही थीं। क्या उनमें से किसी की पहुंच वहां तक नहीं होगी। संदेहास्पद लगता है।



इस केस के और भी कई पहलू हैं जैसे महाराष्ट्र में उद्धव सरकार को गिराना जो सोनिया गांधी यानी कांग्रेस के प्लेन में बैठी है। प्लेन लैंड करता है तो सरकार भी लैंड कर लेगी। कहीं इसमें सरकारें अपना आपसी मतभेद तो नहीं निकाल रहीं हैं। जब महाराष्ट्र में चुनाव हुए और उसके पहले से अमित शाह ने देवेंद्र फड़नवीस को ही मुख्यमंत्री के तौर पर घोषित किया था। लेकिन उद्धव के संजय राउत का अड़ियल रवैया सबने देखा और अंत में तमाम म्यूजिकल चेयर के खेल के उपरांत उद्धव ठाकरे ने सी एम की कुर्सी संभाली और भावी मुख्यमंत्री को राजनीति का पाठ पढ़ाने लगे। जिस आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने का सपना देखने वाले उद्धव ठाकरे मजबूर होकर मुख्यमंत्री बने। जाहिर सी बात है आदित्य ठाकरे के पास ना तो बालासाहेब का अनुभव था ना ही उतनी बुद्धिमता अर्थात् राजनीति में पूर्णत: नील बटे सन्नाटा। लेकिन दिशा सालियान की मौत पर कोई भी शिवसेना का सामने आकर अथवा समाना में ही क्यों नहीं कहती कि शिवसेना का कोई मंत्री शामिल नहीं है। बल्कि सामना में सुशांत की मौत को आत्महत्या घोषित कर देती है। ऐसा न्याय। क्या ऐसा न्याय करते थे बालासाहेब ठाकरे। ऐसी रणनीति है शिवसेना की। शिवसेना सिर्फ 14 फरवरी को लोगों को पकड़ कर मारना जानती है, माइकल जैकसन का विरोध करना जानती है अथवा कुछ उसूल भी हैं।

भाई भतीजावाद से शुरु हुई इस नृशंष हत्या की कहानी में बहुत सी बातें आई पर उलझकर रह गईं। जैसे शेखर कपूर, एकता कपूर, संजय लीला भंसाली करण जौहर जैसे लोगों ने अपनी फिल्मों से उसे निकाल दिया। ऐसा किसने और किसके कहने पर किया। आज इंडिया टी वी ने बताया कि एक्सेल इंटरटेनमेंट जैसा बड़ा बैनर उन्हें 15 जून को एक फिल्म के लिए साइन करने वाला था। आश्चर्य, महाआश्चर्य। इतने दिनों तक जब नेपोटिज्म की बात चली तो इस हाउस ने कोई खुलासा क्यों नहीं किया था। इतने दिनों बाद क्यों किया। खैर, जो भी हो, इसका खुलासा भी होगा। मात्र एक सनसनी पैदा करना था इस खबर के जरिए अथवा फरहान अख्तर अपनी इमेज़ बिल्डिंग के लिए ऐसी खबर फैलाई। इसके बावजूद भी सुशांत आसमान की ओर चढ़ता हुआ सितारा था। अगर इस बैनर के साथ साइन की बात गलत भी निकलती है तो भी उसे काम आज नहीं तो कल मिल ही जाता। अंकिता लोखंड़े उनकी पूर्व गर्लफ्रेंड इस बात से इत्तेफाक ही नहीं रखती कि सुशांत डिप्रेस था। अंकिता तकरीबन 2016 के बाद उनसे नहीं मिली थीं। इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उसके बाद उनकी जिंदगी में कौन से ऐसे मोड़ आए जहां वो खड़े हुए अथवा टूटे। किसने सहारा दिया अथवा खुद खड़े हुए। इंसान को एक पल बदल देता है तो चार साल एक लंबा अंतराल होता है।



सुशांत डिप्रेशन में था। हो सकता है नहीं भी हो सकता है। आजकल की लाइफस्टाइल ऐसी हो गई है कि कोई भी डिप्रेशन का शिकार हो सकता है। हमें भूलना नहीं चाहिए दीपिका पादूकोन की कहानी। उन्होंने खुद चीख चीख कर कहा कि कैसे वो डिप्रेशन का शिकार हो गई थीं। इस बारे में सुशांत की बहन को पता कैसे नहीं चला। दिसम्बर से दवाईयों का सिलसिला शुरु होता है यूरोप टूर से वापस आने के बाद। इस बीच उनकी बहन कभी नहीं मिलीं उनसे। कोई दवाई का जिक्र ही नहीं हुआ। उन्हें अपने भाई के बर्ताव पर संदेह नहीं हुआ। अगर उन्हें पता था तो उन्होंने अपने परिवार से इस बात का जिक्र कैसे नहीं करना उचित समझा।


जिस डाक्टर की देखरेख में इलाज चल रहा था उसके और कौन कौन से क्लाइंट हैं उनकी पहले की रिपोर्ट और सुधार अथवा वर्तमान की रिपोर्ट भी देखनी चाहिए। कहीं उसका ऐसा पेशा तो नहीं लोगों को गलत दवाईयां देकर उन्हें पागल करार कर देना, मतिभ्रम की स्थिति पैदा कर देना। जो भी सच हो मिस चक्रवर्ती फंस तो गईं हैं। सीबीआई और ईडी मकड़े के जाले हैं। अगर जांच निष्पक्ष हुई तो दूध का दूध और पानी का पानी निश्चित होगा।

इस केस में भी मीडिया की भूमिका अहम है। जेसिकालाल, दामिनी जो भी हो जनता तक पहुंचाकर न्याय के दरवाजे खटखटाती नहीं बल्कि तोड़कर अंदर घुस कर न्याय देने पर मजबूर कर देती है। निष्पक्षता हर क्षेत्र में हो तो इस चौथे स्तम्भ का कोई तोड़ नहीं। पूरे देश की निगाह इस केस पर टिकी है। न्याय में देरी मंजूर तो नहीं पर निष्पक्षता सत्यमेव जयते जरुर चाहती है।

 

 

Friday, 19 June 2020

हसरतों के उड़न खटोला पर सुशांत सिंह राजपूत




 सर्वमंगला मिश्रा, स्नेहा

हसरतें जब उड़ान भरती हैं तब पवन का वेग भी कहीं न कहीं पीछे रह जाता है। आंधियों के झंझावात की तरह हसरतें उड़ान भरती हैं। हसरत का ना कोई गुरु होता है ना कोई शागिर्द। ऐसा ही कुछ हुआ सुशांत सिंह राजपूत के साथ। शामक दावक के ग्रूप में चौथी लाइन का डांसर, महेंद्र सिहं धोनी पर बनी बायोपिक में अपना जलवा बिखेरने वाला सुशांत अब कभी नहीं अपना जलवा बिखेरेगा क्योंकि वो सो चुका है सदा सदा के लिए। अनंत की यात्रा में जा चुका सुशांत के लिए पूरा देश यही प्रार्थना कर रहा है कि सुशांत की अधूरी ख्वाहिशों को शांति मिल जाए। सुशांत की 50 ख्वाहिशें थीं जिसमें से 12 पूरी हुईं। मैं कहूंगी सुशांत बहुत भाग्यशाली था जिसके 12 ख्वाब पूरे हुए। दुनिया में ऐसे भी लोग मिल जाएंगें जिनकी एक ख्वाहिश भी पूरी नहीं हो पाती और जिंदगी निकल जाती है। वजह चाहे कुछ भी हो।

सुशांत सिहं राजपूत की प्रोफेशनल जिंदगी परवान तो चढ़ी पर उस परवान को सिराहना नहीं मिल पाया। सुशांत जीवन में आगे जरुर बढ़ रहे थे लेकिन पीछे भी बहुत सी चीजें भूलते जा रहे थे जो कुछ लोगों को नागंवार लग रहा था। सुशांत ने कई टी वी सीरियल किए पर शोहरत मिली ज़ी टी वी पर प्रसारित होने वाले पवित्र रिश्ता से मिली। जिसमें अंकिता लोखंड़े सुशांत के साथ मुख्य भूमिका में दिखीं। जीवन की पवित्रता पर्दे पर भी नजर आने लगी। लोग इस जोड़ी को दिल से सराहते रहने लगे। ऐसा लगता था जैसे इस सीरियल में ये दोनों मुख्य कलाकार कोई भूमिका नहीं निभा रहे हैं बल्कि ये दोनों सचमुच जीवन जी रहे हैं। बिहार से आया ये लड़का, जिसकी आंखों में सपनों की कोई कमी नहीं थी बस उसे पूरा करने की ललक थी। यह ललक उसे कई लोगों से मिलवाती है जिसमें कुछ लोग आगे बढ़ने में मदद कर सकते थे तो कुछ नए हमदर्द बन रहे थे। शर्मीले स्वभाव के सुशांत अपनी मुस्कान और छरहरी पर्सनालिटी से लोगों का दिल सहज़ ही जीत लेते थे। इसी सिलसिले में मुलाकात हुई कृति सेनन से। आपको याद भी होगा वर्लपूल के एक एडवर्टाइज़ में दोनों साथ भी नजर आते हैं। लेकिन आप कह सकते हैं कि ऐसा तो इस इंडस्ट्री में होता ही रहता है। सही बात है दिल की इस इंडस्ट्री में अगर दिल नजर आता है तो ईर्ष्या, अहंकार, प्रतिशोध भी नजर आता है। मनोहर दिखने वाली परियों सी नई नई कहानियां सुनाने वाला ये जगत बहुत कुछ सागर की खामोशी की तरह पी भी जाता है। श्रीदेवी की मौत को ज्यादा वक्त गुजर भी गया है और नहीं भी। जिस कदर उनकी मौत हुई और उस पर नागवांर गुजरने वाली उनके परिवार की चुप्पी जनता को कचोटती ही रह गई। पर मामाला अनसुलझा रह गया और वक्त आगे निकल गया। दिव्या भारती की मौत आजतक पहेली ही है। फहरिश्त बहुत लम्बी है और उलझन भी। दोनों को निदान बहुत कठिन है। बरसों से अपनी पैठ का साम्राज्य जमाए मनोरम नगरी में एक कुनबा है जो किसी की दखलंदाज़ी बर्दाश्त नहीं कर सकता।

जैसे जैसे सुशांत अपने अनंत यात्रा की ओर बढ़ रहा है लोग उसके साथ अपने सगे होने के संबंध को आसमान में पहुंचाने की चेष्टा कर रहे हैं। हर कोई अपनी अभिव्यक्ति प्रकट कर रहा है। कोई कह रहा है कि भाई एक बार बात तो कर लेता, तो कोई कहता है कि काश मैं तुम्हारे टच में होता। तो कोई दुख प्रकट करता रहा है कि तुमने ऐसा कदम क्यों क्यों उठा लिया मेरे दोस्त। पर, जाने के बाद कहना और रहने पर कुछ और सोचना इंसान की फितरत होती है। जिससे आप दुख बयां करते हैं उसे समझ नहीं आता और जिसे आता है उसके पास वक्त नहीं होता। व्यस्तता इतनी रहती है कि अफसोस जाहिर करने के अलावा कुछ शेष नहीं रहता। सुशांत की मृत्यु के दिन ही कुछ घंटो बाद जिस तरह अभिनेत्री कंगना ने अपनी चुप्पी तोड़कर बालीवुड को ही कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया। एक ऐसा खुलासा किया जो करोड़ों लोगों के दिल और दिमाग को झकझोर कर रख दिया।https://www.republicworld.com/entertainment-news/bollywood-news/kangana-ranaut-on-sushant-singh-rajputs-death-kangana-ranauts-video.html
कंगना का खुलासा सबने सुना। कंगना ने डंके की चोट पर उन लोगों को ललकारा और एक प्रश्नचिंह लगा दिया जिन्होंने एक मानव के मन मस्तिष्क को झकझोर कर रख दिया और एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया जहां से उसे अपना जीवन सम्पूर्ण अंधकार में डूबा नजर आने लगा। ऐसा महसूस हुआ जैसे कि पहाड़ी की चोटी पर खड़ा सुशांत अब खाई में गिरने वाला है या गिर ही चुका है। जहां से सूरज अस्ताचलगामी हो रहा है और उसके बाद एक लम्बी रात होने वाली है जिसके कारण उसे कुछ दिखाई ही नहीं देगा। ऐसी परिस्थिति में एक उगता सूरज अस्त होते सूर्य को कैसे देख सकता है। खुद को अंतहीन रात्रि में ढकेलने से बेहतर सुशांत ने दिन के उजाले में अपने लिए एक नई राह चुन ली और दुनिया को स्तब्ध छोड़ दिया।


सवाल उठता है कि अचानक उगने वाले सूरज को ग्रहण किसने लगा दिया। क्या जीवन में अंकुरित नए मनोभावों ने या पुरानी शाखों ने। सोनी चैनल पर डांस मुकाबले के एक कार्यक्रम में सुशांत और अंकिता ने जोड़ी के रुप में भाग लिया था। जहां सुशांत ने प्रियंका चोपड़ा और बाकी जजों और पूरी दुनिया के सामने अंकिता को सात जन्मों के लिए मांगा था। जवाब में अंकिता ने अपने अंदाज में हामी भी भरी थी। जिससे देखने वालों को लगा कि ऐसा प्यार और कहां। लेकिन क्या यह क्या महज़ स्टंट था अपनी लोकप्रियता में चार चांद लगाने का। दिल से प्रपोज़ नहीं किया था सुशांत ने अंकिता को। यहां तक तो फिर भी मन मारके बात हजम होती है पर कृति के साथ अने के बाद और फिर न रुकने वाले सुशांत ने अपना दिल रिया चक्रवर्ती को दिया। जिससे कहीं न कहीं 6 साल के प्रेम को ठेस पहुंची। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार सुशांत ने अपने घर पर रिया से गठबंधन करने के लिए घरवालों से हांमी भरवा ली थी। खेल में बार बैठा खिलाड़ी तबतक बाहर बैठा रहता है जबतक उसे खेल समाप्त होता नहीं दिखता। पर खेल जब अंजाम की ओर पहुंचने लगे और खिलाड़ी अपनी बाज़ी को हारता हुआ भांप ले तो कोई न कोई तिकड़म या अपने अधिकारों की रक्षा के लिए हर भरसक प्रयास करता है।

अबतक पुलिस की जांच चल रही है। सबके बयान रिकार्ड हो रहे हैं। परिवार चुप है, दोस्त चुप हैं। लेकिन वो समूह जिसने उसे ऐसे मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया जहां से उसे अपना जीवन शेष होता दिख गया। किसके कहने पर उन लोगों ने जो उसके करीबी थे दूरी बना ली। किसके कहने पर फिल्मों से एक एक कर निकाला जा रहा था। किसके कंधों पर सुशांत चढ़ा हआ था जिन लोगों ने उसे उतार दिया। अचानक क्या खामी नजर आने लगी इस सितारे में लोगों को। क्या ये सबकुछ प्रतिशोध की भावना के कारण सोची समझी साज़िश थी। क्या अंकिता लोखंड़े रिया चक्रवर्ती और सुशांत को सह नहीं पा रही थीं। इसलिए जिस सुशांत की मदद की उसे उसी सीढ़ी के सहारे नीचे खींच दिया। हमेशा से सुशांत इस बात को कहीं न कहीं किसी न किसी रुप में कहते नजर आते थे कि वो एक छोटे शहर के हैं और उनका कोई गाडफादर नहीं है। एक रेज़र के विज्ञापन में वो कहते हैं कि वो एक छोटे शहर के लड़के हैं। जाहिर है उसका सम्पर्क उस रेजर से कनेक्ट करने का था पर, असलियत में यह लाइन उन पर ही फिट बैठती थी। संजय लीला भंसाली जो कभी ऐश्वर्या राय के इतने फैन थे कि सारी फिल्में उनके साथ ही बनाना चाहते थे फिर दीपिका और रणवीर के साथ उन्होंने कई फिल्में हिट दीं। संजय लीला बंसाली जो अपनी गहरी सोच के लिए भी जाने जाते हैं। वहीं करण जौहर जो स्टार को महास्टार बनाने में पूर्ण रुपेण सक्षम हैं और अपने पिता के नाम को आज भी जिंदा रखे हुए हैं। वहीं एकता कपूर जिन्हें स्टार बेटी होने के साथ साथ सफल प्रोड्यूसर के तौर पर देखा जाता है जिन्होंने अपनी कई फिल्मों में अपने भाई को लेकर फिल्में बनाई तो सीरियल बनाने में उनका कोई तोड़ नहीं। प्रश्न उठता है कि क्या इन महान लोगों ने भी किसी के कहे में आकर किसी की जिन्दगी का विनाश करने में जुट गए। तमाम ऐसे प्रोग्राम डांस इंडिया डांस, लिटिल चैम, सारेगामा आदि प्रोरामों में जज की कुर्सी पर बैठे लोग इतने भावुक हो जाते हैं मानो कोई अपना भी क्या खाक भावुक होगा। लोग इतनी दरियादिली दिखाते हैं। क्या ये सब एक ढकोसला है। मात्र उनकी पटकथा जिससे उनके लिए लोग अच्छा सोचें। असल जिंदगी में तो कहानियां कुछ और ही समक्ष आती हैं। जिसे सुनकर दिल दहल जाता है।



ये जगत मिथ्या है पर इतना मिथ्या कि कोई किसी का जीवन ही किसी से छीन ले। सारे घटनाक्रम पर ध्यान से दृष्टि डालें तो प्रतीत होता है कि संभवत अंकिता लोखंड़े ने भी शायद इस घटना का अंजाम ऐसा होगा सोचा नहीं था। यह तो मात्र एक नमूना था कि जो पंख दे सकता है वो काट भी सकता है। मानसिक दबाव डालना था कि अपनी पहली सीढ़ी, अपना घर इंसान को भूलना नहीं चाहिए। कदम धरती पर हों ना हों पर मिट्टी का एहसास भूलना नहीं चाहिए।


https://www.hindustantimes.com/bollywood/kangana-ranaut-blasts-blind-items-in-wake-of-sushant-singh-rajput-s-death-asks-why-they-re-never-written-on-nepo-kids/story-h2TKVuFZlAnSceEWQ48vJK.html


https://indianexpress.com/article/entertainment/bollywood/kangana-ranaut-after-the-industry-ganged-up-on-me-i-felt-lonely-6466545/

Wednesday, 8 April 2020


लाकडाउन- समस्या या समाधान
सर्वमंगला मिश्रा

जिंदगी तनाव भरी है। नींद पूरी नहीं होती। काम का कितना प्रेशर है। बाँस की झकझक से परेशान हो गया है मन। सारा काम मुझे ही करना पड़ता है। फैमिली के लिए टाइम नहीं है। अब इन बातों को कहने के लिए किसी के पास कोई मौका नहीं मिलता या जरुरत ही नहीं रही। लाकडाउन ने सबकी शिकायतें दूर कर दीं है। अब लोग घरों में बंद पड़े हैं। आफिस ना जाने की कुढ़न, काम वाली के ना आने से खुद पर पड़ी घर की सारी जिम्मेदारियां थका रही हैं, रुला रही हैं। घर में बंद रहकर कितना कोई टीवी देखे, कितने गेम्स खेले क्योंकि ना पार्क में जाना है ना पड़ोसी से मिलना है सिर्फ परिवार के साथ रहना है। ऐसे में केशु कुमार की अलग ही व्यथा है। हम रोज कमाकर खाने वाले हैं। घंटा दो घंटा में पूरे दिन की कमाई कैसे हो पाएगी। ऐसे पता नहीं कब तक चलेगा। ऐसा ही हाल रहा है तो गांव जाना पड़ेगा। वहां खेती ही फिर करने को मजबूर होना पड़ेगा। आगे बताते हैं कि उनका भाई फालू मुम्बई में था पर बंदी के कारण परिवार के साथ वापस आ गया है। वो भी फंसते फंसते बचते बचते 17 दिन लग गए वहां से घर आने में। अब वो खेती करने लगा है। खेत भी ज्यादा नहीं है। ऐसे में वो क्या करेगा और हम कहां जायेंगे। हमारा परिवार पहले से ही गांव में है।
जिन्दगी एक झटके में बदल सी गई है- ऐसा कहना है जनरल स्टोर चलाने वाले रामदेव का। कई हफ्तों से दुकान नहीं खोली। कितना माल खराब हो गया। अब पिछले दो दिन से सुबह 8 से 2 बजे तक ही दुकान खोल रहा हूं। लोगों की भीड़ हो जाती है। कोरोना का डर मुझे भी सताता है। ऐसा ही कुछ उमा अग्रवाल जी भी सोचती हैं जो एक गृहिणी है। कोरोना संक्रमण वैश्विक रुप इतना आक्रमक हो जाएगा इसकी आशंका मात्र थी लेकिन, लोग इस तरह घरों में बंद हो जाएगें ये लोगों की कल्पना से भी परे था।
इस जद्दोजहद में कुछ लोग खुश भी हैं। अल्का बोस कहती हैं कि आज वो 15 साल से घर घर में काम करती है लेकिन पहली बार बिना काम किए ही उसे महीने की पगार मिलेगी इस बात को कहते हुए वो थकती नहीं। साथ ही जिसके कारण उसे खुशी नसीब हुई उस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी को कोटि कोटि धन्यवाद देती है। उसे नहीं पता कोरोना फैलने का मुख्य कारण। कहां से शुरु हुआ और कैसे फैलता है। बस टीवी देखती है और घर दो घंटे में साबुन से हाथ धोना नहीं भूलती। साथ ही औरों को भी हाथ धोने के लिए सीखाती रहती है। जीवन में पहली बार छुट्टी का आनंद ले रहे बापी दा भी बहुत खुश हैं पर उन्हें देश की भी चिंता है। उन्हें कोरोना के बारे में इतना पता है कि ये एक छुआछुत की बीमारी है जिससे बचने के लिए घर से बाहर नहीं निकलना है। तभी जान बच सकती है। इसलिए अपने आसपास के लोगों को सचेत करते रहते हैं। बापी दा देश के साथ अपने ही मुहल्ले में रह रहे गुन्नू के लिए चिंता भी करते हैं क्योंकि गुन्नू एक सफाई कर्मी है वो रोज कई बिल्डिंगों में सफाई का काम करता है। ऐसे में उसने जैसे तैसे एक सस्ता वाला मास्क तो खरीद लिया पर कोरोना की दहशत उसकी समझ से परे है इसलिए देखा देखी कभी तो वो मास्क पहनकर कूड़ा उठाने जाता है तो कभी ऐसे ही रोज की तरह। ऐसे में बापी दा कई बार उसको समझाने की कोशिश करते हैं। लेकिन गुन्नू कहता है कि काम नहीं करेंगें तो भी हम ऐसे मोड़ पर आ जाएगें जहां से कुछ नजर नहीं आएगा और हम ऐसी जगहों पर रहते हैं जहां रोग आना बहुत साधारण सी बात है। ईलाज हम वैसे भी नहीं करा पाएंगें और ऐसे भी।
खुशी और गम यहीं खत्म नहीं होता।
डाक्टर साहब की पत्नी स्वीटजरलैंड गई थीं बेटे के पास एक महीने बाद वापस आना था पर लाकडाउन ने उनके पैर वहीं बाँध दिये। इंटरनैशनल फ्लाइट्स के बंद होने के पहले एक महेंद्रपताप जी ने अपने बेटे को लंदन से आफातुना में बुलवा लिया पर उनकी सासु मां का निधन होने के कारण उनकी पत्नी कानपुर में ही अटक गईं। ऐसे हजारो किस्से हर घर के पास मिल जाएंगें। लेकिन इस वक्त चीन के बुने जाल से बाहर निकलने का यही एक तरीका है कि आप जहां हैं वहीं रहिए। परेशानी निश्चित है लेकिन सुरक्षा का भार हर नागरिक पर है।
भारत महान था है और रहेगा भी। अमेरिका के राष्ट्रपति श्री ट्रम्प ने भारत के प्रधानमंत्री को महान और उदारक बताया। विश्वगुरु भारत ने कोरोना दर्द निवारक औषधि भी खोज ली जिसे अमेरिका भी लेने के लिए लाइन में लग गया है। श्रीलंका ने भी हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी को धन्यवाद दिया है। लेकिन कुछ लोग जो मरकज़ में शामिल हुए ये वो लोग हैं जो नजर में आ गए पर जो आज भी इस खतरनाक खेल को अंजाम देकर मौत को लोगों के पास लाने और इंसानियत को तबाह करने पर तुले हैं उन्हें क्वारंटाइन की नहीं देश निकाले की जरुरत है। कुछ लोगों को मेरे शब्द अच्छे ना लगें पर इंसानियत का दुश्मन देश का दुश्मन ही होता है। इटली, चीन और यूरोपीय देशों की हालत किसी से छुपी नहीं है दो गज़ जमीन को लोग मोहताज हो चुके हैं। शुक्र है भारत उस पहाड़ी छोर पर नहीं पहुंचा जहां से एक तरफ कुंआ तो दूसरी ओर खाई है।
देश को बचाने का यही तरीका है और खुद को भी कि हम सुरक्षित रहने के लिए एक दूसरे की मदद करें और बेवजह ना घूमें। वैसे देखा जाय तो अपराधों की संख्या लाकडाउन से कम हो गई है।




Wednesday, 25 March 2020


लाँकडाउन का पहला दिन

सर्वमंगला मिश्रा



25 मार्च की शाम, मैं छत पर गई  मेरे पिताजी द्वारा लगाए पेड़ पौधों को सींचित करने हेतु क्योंकि, लाकडाउन में पेड़ पौधों का तो कोई दोष नहीं। उन्हें जीवित रखेंगें तो ही हम जीवित रह पाएंगें। मेरे पिताजी को बागवानी को बहुत शौक है। उन्होंने छत पर काफी हरियाली बना रखी है। वो कहीं भी जाने का प्लान करते हैं तो उसके पहले उन्हें उन पेड़ पौधों की चिंता सताने लगती है। कई रकम के फूल जो सुंदरता के साथ साथ औषधीय तौर पर भी उपयोग में लाए जाते हैं। मुझे सबके नाम नहीं पता इसलिए सबके विषय में बता पाना मेरे लिए मुश्किल है। फिर भी जैसे ऐलोविरा, जूही, मंदार, तुलसी तो कई प्रकार की है- श्यामा और भी बहुत सारी। खैर मैं उपर पानी डालने गई तो आज का दृश्य बड़ा मनमोहक लग रहा था। मेरा घर मेन रोड़ पर होने के कारण हमेशा गाड़ियों का शोरगुल सुनाई देता रहता है। आज अद्भुत शांति थी। कोई चहल पहल नहीं, चारों ओर सन्नाटा केवल सन्नाटा। पेड़ पौधे भी आज जैसे प्रदूषण मुक्त सांस ले रहे थे।  आज किसी को कहीं जाने की कोई जल्दी या हड़बड़ाहट नहीं थी। ना इंसान की आवाज ना ही गाड़ियों के हार्न आवाज- सब बंद। केवल सूर्य भगवान अपनी रौशनी से चारों ओर वातावरण को प्रफुल्लित कर रहे थे। केवल चिड़ियों का चहचहाना आज सुनाई दे रहा था। हर छत सुनसान विरान थी, सड़क पर भूले कोई दिख रहा था। निश्चित तौर पर लोग घरों में बैठकर भी आफिस का काम कर रहे थे। क्योंकि आज से पहले बहुत हद तक वर्क फ्राँम होम को निठल्ला ही समझा जाता था। पर डिजिटल वर्ल्ड आज सबकुछ बदल दे रहा है। आईटी क्षेत्र में काम करने वाले कई मित्र हैं मेरे जिनकी वजह से मुझे पता है कि उन्हें वैसे भी सप्ताह में एक या दो दिन वर्क फ्राँम होम की सुविधा कंपनी देती है। पर अब चार्टेड अकाउंटेट से लेकर वकील, जज भी वर्क फ्राँम होम कर रहे हैं।

इस आपातकालीन परिस्थिति में भी डाक्टर, नर्स, पुलिस, मीडिया और आवश्यक सामग्री वितरण करने वाले लोग जैसे दूध, अखबार सफाई कर्मचारी ये सभी लोग जान हथेली पर लेकर घूम रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में जो लाकडाउन का पालन कर रहे हैं वो सुरक्षित हो गए पर हमारी आपकी सहायता में तत्पर लोगों का क्या ? हम सुरक्षित हो गए देश से कोरोना निकल गया और जब हम बेफिक्र होकर बाहर निकलेंगें और इनमें से कोई संक्रमित व्यक्ति रह गया उसे पता भी नहीं चला और संक्रमण फिर फैलने लगा तो क्या होगा? मानती हूं आवश्यक वस्तुओं के बिना जीवन चलना मुश्किल है पर सैनेटाइजर के अलावा ऐसी कोई दवा या एंटीबायटिक जिसका सेवन हर कोई करे जिससे इससे पूर्णतया देश मुक्त हो। मास्क लोग देखादेखी पहन तो रहे हैं। पर ऐतियात क्या बरतना है शायद इससे वो पूर्णतया अनभिज्ञ हैं।

देश की वित्तिय हालत देखी जाय तो अनुमानत: प्रत्येक सेक्टर को हानि पहुंचने वाली है। होटल, टूरिज्म, एवीएशन, इवेंट मैनेजमेंट। इसके विपरीत अस्पताल, फार्मा, लैबोर्टरीज़, मीडिया इन सेक्टर्स को फायदा पहुंचने की उम्मीद है। पर, उस तबके का क्या -जो लोग कहीं भी कर्मचारी नहीं है जैसे तैसे अपना गुजारा करते हैं। रिक्शाचालक, डेलीबेसिस पर काम करने वाले मजदूर, जिनकी आमदनी इतनी नहीं होती कि घर बैठकर वो 21 दिनों तक दो वक्त की रोटी खा सकें। ऐसे लोगों के बारे में भी सरकार को ध्यान देना चाहिए। देश का हर नागरिक की भूख यदि सुरक्षित हो जाए तो साल में दो बार लाँकडाउन का स्वागत शायद हर नागरिक कर लेगा।


लाँकडाउन में 2020 भारत

सर्वमंगला मिश्रा

देश में कुछ परिस्थतियां जब भयावह रुप ले लेती हैं तो सरकार लाकडाउन जैसे कदम उठाती है। कोरोना का आतंक वैश्विक रुप से समूचे जनमानस पटल पर काले अंधेरे बादल की तरह छा गया है। देश को जैसे ग्रहण ही लग गया हो। इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि ग्रहण कभी भी सदा सर्वदा के लिए नहीं लगता। एक निश्चित समय सीमा के उपरांत उसका अंत होता ही है अर्थात् कोरोना के कहर का भी अंत निश्चित है।आज हिन्दू नववर्ष का आगमन हुआ है। इसे व्यथा कहें या आनंद पता नहीं क्योंकि कोरोना के कारण लोग अपने दोस्तों, रिश्तेदारों से भी दूरी बनाने में परहेज नहीं कर रहे। विडियो काल और वाट्सअप पर बधाई संदेश देकर ही काम चला रहे हैं। रास्ते पर यदि आप भूले भटके निकल भी जाएं तो लगेगा कि किस अंजान रास्ते, सड़क, गली या शहर में आप पहुंच गए हैं। 24 मार्च की रात 12 बजे से लाकडाउन पूर्णतया लागू हुआ पर मैं अपने परिवार के सदस्यों के साथ जब मार्केट जाने के लिए बाहर निकली तो हमारे बिल्डिंग का दरवाजा बंद था थोड़ा अजीब लगा फिर जब मैं बाहर निकली तो सड़क सुनसान, हर घर बंद, एक दुकान तक खुली नहीं थी। फल और फूल की दुकान कुछ दूरी पर था। हम पैदल चलने को मजबूर थे क्योंकि कोई रिक्शा वाला भी नहीं था। हम आगे बढ़े तो सड़क पर एक दो लोग बैठे दिखे और कोलकाता पुलिस की वैन गुजरी, उसके पीछे एम्बूलेंस की गाड़ी और फिर सन्नाटा। सड़क पर पोस्ट लैम्प दुधिया रौशनी से भरे अकेले सड़क को निहार रहे थे। तभी एक गली से एक लड़की चलते हुए आई बिना मास्क के, बिना अपना मुंह ढके, मैं कुछ सोचती उसके पहले वो रास्ता क्रास करके आगे बढ़ गई। हम भी चुप ही थे नजारा देख रहे थे। वैसे भी मास्क पहनने के बाद कम बोलने की इच्छा होती है। तभी एक और एम्बूलेंस की गाड़ी पास की। दो पुलिस वाले घूमते भी नजर आए। सोचा कहीं मार्केट तक जाने के लिए भी मना न कर दें। खैर, ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक टैक्सी खड़ी थी ड्राइवर नदारद पास खड़े एक आदमी से इशारे में पूछा कि क्या ये उसकी टैक्सी है...उसने तुरंत सिर हिलाया और घूम गया। हम पैदल चल ही रहे थे कि मार्केट का गेट आ गया था। वहीं एक एम्बूलेंस खड़ी थी। मार्केट के अंदर हम दाखिल हुए तो आसपास का नजारा ऐसा लगा जैसे सालों से ये बस्ती उजड़ी हुई है। दो कुत्ते दौड़ते हुए सड़क की ओर भागे पर बिना शोर। तभी सफेद ड्रेस वाले पुलिस डंडा लिए घूमते नजर आए। फलवाले की दुकान अकेली थी जो ग्राहकों का अभिनंदन कर रही थी। पर ग्राहक के नाम पर उस वक्त हमें मिलाकर दो लोग थे। जहां इस समय उसे सांस लेने की फुरसत नहीं होती थी आज वक्त कट नहीं रहा था। वो अपने मोबाइल पर गाने सुन रहा था। उसने हमें बताया कि आसपास की दुकानों को कैसे पुलिस ने जबरन बंद करवाया। मिठाई की दुकानें तो 3-4 दिन से बंद पड़ी है। दीदी आप और ले लो क्योंकि आपलोग तो 9 दिन तक उपवास में रहते हैं क्या पता फिर ये भी ना मिले। पुलिस हमें भी दुकान बंद करने को कह दे। तब हमने उसे समझाने का प्रयास किया कि फल, सब्जी और मेडिकल की दुकान हर हालत में खुली रहती है। तो फलवाला बोला- दीदी माल नहीं आएगा तो हम दुकान कैसे खोलेगा।
मोदी सरकार ने उचित व्यवस्था करने के बाद लाकडाउन लगाया है ऐसा माना जा रहा है। पर जनता तो असमंजस में ही सांस लेती है। पूर्ण भरोसा तो ऐसी आपातकाल की स्थिति गुजर जाने के बाद ही आती है। कुछ बाइक और कार सवार लोग फर्राटे से गाड़ी भगा रहे थे। इस डर से कि कहीं पुलिस पकड़ कर पूछताछ ना करे। फल तो ले लिया पर फूल की दुकान बंद थी। एक आमपत्ता, तुलसीपत्र, श्रृंगारफूल भी नहीं मिल पाया। फलवाले अपने दो लोगों को दो तरफ रिक्शा ढूंढने के लिए भेंजा पर कुछ नहीं था। अंत में फलवाले ने खुद हमारा बैग हमारे घर पहुंचाया। चलते चलते हमने कुछ लोगों को कहते सुना- ऐ रोम कोलकातार दृश्यो कोनोदिन देकी नी तो- मतलब कि कोलकाता शहर का ऐसा दृश्य तो कभी आजतक देखा नहीं। सौरभ गांगुली बीसीसीआई अध्यक्ष ने भी ट्वीटर पर कुछ तस्वीरें पोस्ट कर कुछ ऐसा ही लिखा।



Saturday, 30 November 2019


आकाश कैसे बंध गया?

सर्वमंगला मिश्रा 


उद्धव का उद्भव आखिरकार हो ही गया।  जिस ठाकरे परिवार के आगे आज भी जनता झुकती है उद्धव ठाकरे ने शपथ समारोह में शपथ लेने के बाद मंच पर सिर झुकाकर जनता को नमन किया। इस विश्वास के साथ कि आज भी महाराष्ट्र की जनता उद्धव और शिवसेना को उसी तरह देखती है, जिसतरह वो बालासाहेब को देखती थी। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार तिकड़ी में बन तो गई है और साथ ही एक इतिहास भी रच चुकी है। देवेन्द्र फड़नवीस का इस्तीफा देना अपने आप में पर्दे के पीछे की रहस्यमयी कहानी है। अमित शाह का वचन अब झूठा साबित हो गया। महाराष्ट्र चुनाव के पहले से शाह ने मुख्यमंत्री के तौर पर देवेन्द्र को ही देखा था। कारण यह था कि महाराष्ट्र की सरकारों में आजतक कितना उलटफेर हो चुका है इतिहास इसका गवाह है। भाजपा की छत्रछाया में देवेंद्र फड़नवीस ने पांच साल का कार्यकाल बखूबी पूरा किया। एक स्थिर सरकार राज्य को दी। राज्य में विकास का आंकाड़ा कहां तक पहुंचा इसकी विवेचना एक लम्बी बहस का मुद्दा है। राजनैतिक विवेचनाकार इस बात की अलग अलग तरीके से आलोचना या प्रशंसा करेंगे। पर बात यहां ठाकरे परिवार की है जो बिना ताज बादशाह अब ताज पहन के सीमाओं में घिर गया है। जाहिर है जहां सीमा और गठबंधन होगा वहां समस्याएं भी आंतरिक रुप से होंगी।

बालासाहेब ठाकरे जिसने एकछत्र अखंड राज किया जो सभी सीमाओं से ऊपर उठकर हिन्दुओं की रक्षा हेतु सामने आए और विकल्परिहत समाज के सामने एक विकल्प के रुप में उभरे। 1966 में शिवसेना की स्थापना की। राजनैतिक पद की लालसा तब भी शायद कहीं मन में उठी थी तभी कांग्रेस के साथ सामने आए थे बालासाहेब ठाकरे। पर, कांग्रेस की फितरत कहें या राजनैतिक दावपेंच बालासाहेब भी धोखा खाए और अपनी पार्टी का अस्तित्व स्वयं खड़ा किया। सम्पूर्ण महाराष्ट्र में बालासाहेब ने निरंकुश शासन किया बिना किसी पद की गरिमा को स्वंय या अपनी पार्टी पर लपेटे हुए। देखा जाए तो उद्धव ठाकरे भी अपने पिता के प्रभाव से वंचित नहीं रह पाए और राजनीति में शांति से प्रवेश कर पिता का अनुसरण करने लगे। पार्टी को दिशा देने का काम उन्होंने बालासाहेब ठाकरे से ही सीखा। उद्धव के चचरे भाई राज ठाकरे कुछ आक्रामक नीतियों का अनुसरण करने में यकीन रखते थे। मीडिया राज ठाकरे को ज्यादा तवज्जो देती थी। जनता को भी राज ठाकरे बालासाहेब के उत्तराधिकारी के रुप में दिखते थे। उद्धव ठाकरे ने इन बातों का कभी खंडन नहीं किया। जो भी समस्याएं रही वो आंतरिक रुप से ही रहीं। यह सत्य है कि बालासाहेब ठाकरे ने अपने पोते आदित्य ठाकरे को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था क्योंकि बालासाहेब को अपनी झलक अपने बड़े पोते में झलकती रही होगी।

साल 2019, जब महाराष्ट्र के बेताज बादशाह के परिवार ने मैदान में आम नेता की भांति घर घर जाकर वोट मांगने का निर्णय किया। अर्थात् चुनावी मैदान में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की आवश्यकता ठाकरे परिवार को महसूस हो ही गई। आदित्य भी नए दांव पेंच सीखने में जुट गए हैं। आखिर उद्धव ठाकरे की अगली पीढ़ी हैं जो शिवसेना को दिशा देने के लिए तैयार हो रहे हैं। युवा नेता को अपने पिता से ना सिर्फ राजनैतिक लूड़ो खेलने की शिक्षा प्राप्त होगी वरन कहां पहुंचकर सीढ़ी मिलेगी ये भी भलीभांति सीख जाएंगे। उनके पिता ने उन्हें विधानसभा के चुनाव में मुख्यमंत्री के पद के दावेदार के रुप में उतारा था बल्कि एनसीपी और कांग्रेस के साथ समझौते के दौरान एक बार उन्होंने अपनी नामंजुरी जाहिर की। जिससे यह तो स्पष्ट झलक रहा था कि वो स्वंय बालासाहेब की कुर्सी पर रहकर बेटे के हाथ सत्ता देकर दोहरी राजनीति कर सकते थे। लेकिन आदित्य राजनीति में एक हरे पौधे के समान हैं जिन्हें विरासत में राजनैतिक माहौल तो मिला है पर स्वंय को परखना और उन पायदानों पर चलने की कूबत स्वयं हासिल करनी होगी। जाहिर है कि दिग्गजों के सामने आदित्य बच्चे हैं और एनसीपी जिसमें शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले और कांग्रेस के अशोक चौहाण जैसे लोग इस बात को मानने से साफ इंकार की हरी झंड़ी दिखाई जिससे सत्ता और विरासत को अमिट कलंक से बचाने के लिए उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री का पद स्वीकार किया।

भविष्य के बादल में क्या छिपा है इसको भांपते हुए उद्धव ने सेक्यूलर और हिन्दुत्व सबको ताख पर रखना ही उचित समझा। यह बात अलग है कि उद्धव और राज के मन में मुख्यमंत्री के पद को पाने की लालसा और होड़ दोनों मच चुकी थी। पर व्यक्ति अपने पुत्र में अपना आज देखता है वही उद्धव भी करना चाहते थे। महाराष्ट्र का मराठी मानुष ठाकरे परिवार के आगे सालों से सिर झुकाता आया है। इस पल का साक्षी पूरा महाराष्ट्र हो जाता कि सत्ता हाथ से निकल गई। जिससे वर्षों की बालासाहेब की तपस्या मिट्टी में मिल जाती और इसी तपस्या को बचाने के लिए उद्धव ठाकरे बंधन में आ गए। इन बंधनों की पकड़ सिर्फ बाहर से ही मजबूत रहेगी या आंतरिक तौर पर भी हो पाएगी। इसके लिए शतरंज की अगली चाल का इंतजार करना ही होगा।





  मिस्टिरियस मुम्बई  में-  सुशांत का अशांत रहस्य सर्वमंगला मिश्रा मुम्बई महानगरी मायानगरी, जहां चीजें हवा की परत की तरह बदलती हैं। सुशां...